कवि-कर्म के साथ' लोक' के रिश्ते को लेकर बहस कीअच्छी शुरूआत भाई शिरीष कुमार मौर्य ने की है | दरअसल ,लोक के मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ अंगरेजी के 'फोक'शब्द ने की है जिसकी तरफ नील कमल भाई ने सही इशारा किया है |दूसरी बात यह भी है कि मार्क्स की धारणाओं के साथ इस का बस इतना सा मेल बैठता है कि इतिहास कि मोटी-मोटी सामान्य गति के साथ किसी समाज की उसकी अपनी विशिष्टताएं भी होती हैं |लम्बे समय तक भारतीय समाज की उत्पादन व्यवस्था में खेती-किसानी की हिस्सेदारी रही आने की वजह से हमारे यहाँ एक समृद्ध लोक-साहित्य (फोक-लिटरेचर ) वाचिक रूप में ,बाद में कुछ लिखित रूप में भी ,मौजूद रहा है जिसकी स्मृतियाँ हमारे उन मित्रों के जीवनानुभवों में गहरे रूप में अंकित हैं कि वे उसे नए अर्थ-संबंधों की नयी 'शास्त्रीयता 'बन जाने के बाद भी भूल नहीं पाते |वह कहीं उनके मनोमय जीवन में तरंग सी पैदा करता रहता है और नए रूप में वह 'सर्वहारा' तक की अर्थ व्याप्ति हासिल करने का प्रयास करता है |आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब पश्चिम की उपनिवेश-परस्त शास्त्रीयता के समक्ष ,तथा तुलसीदास की ' लोक-वेद' परम्परा के बीच से अपने समय के लिए नए ----लोकमंगलकारी ---विधान के लिए इसे आविष्कृत किया तो उनके जमाने के रीतिवादी ----रस-अलंकार-वादी -----आचार्यों को बड़ा नागवार गुजरा था कि अच्छे-भले हजारों सालों से चले आ रहे शास्त्रीय विधान में यह --लोक-का अनावश्यक फच्चर क्यों ?लेकिन लोक-तंत्र के नए राजनैतिक परिवेश में भी इसको नयी परिस्थितियों में जगह नहीं मिलेगी यह चिंता की बात है | ,इस वजह से अभी तक इस शब्द का 'पिछड़ापन' दूर नहीं हो पाया है |मेरे हिसाब से इस शब्द को पूरी और नयी समृद्धि आज की नयी रचनात्मकता से मिल रही है |यह 'शास्त्र की रूढ़ जकडबंदी ' और किसी भी तरह की 'कुलीनता और आभिजात्य ' के विरोध में आज की रचनाशीलता को आगे ले जाने वाला साहित्य-पद लगभग बन चुका है |कोई माने या न माने कुछ बात तो इसमें अवश्य है ,जो इसे चर्चा के केंद्र में रखे हुए है |
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