Wednesday 29 August 2012

विजेंद्र जी ने रिल्के के बहाने से बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं ,लेकिन वे उन लोगों के लिए ही अर्थवान हैं जो कविता और जीवन में एक बड़ा और गंभीर रिश्ता मानते हैं और अपने व्यवहार से उसको प्रमाणित भी करते हैं |ये बातें उन लोगों को बहुत बुरी और व्यर्थ लग सकती हैं , जो आज भी अपने प्रगतिशील चेहरे के भीतर कला की कीमियागीरी में ज्यादा विश्वास रखकर कविता करते हैं |उनको कला और जनवादी अंतर्वस्तु वाली कविताओं में जनवाद से ज्यादा कलावादी रूप-विधान इसलिए भी प्रभावित करता है क्योंकि तुरत चर्चा और तुरत प्रसिद्धी मिलने की सहूलियत यहीं रहती है |उस जनवाद का क्या फायदा जहां कवि को लम्बी उपेक्षा और कुछ साधनापरक जीवन जीने की जरूरत रहती है | जो केवल कविता में ही जीवन-मूल्यों की डींग नहीं हांकता बल्कि अपने जीवन व्यवहार से भी उनको कुछ जीकर दिखलाता है |जो कला बिना जीवन के अंतर्मन में उपज जाय ,,उसमें परिश्रमी , मानवीय तथा साफ-सुथरा जीवन जीने की शर्त से भी कवि बच जाता है |कलावाद के होकर आप मनचाहा मूल्यरहित जीवन जी सकते हैं वहाँ सभी तरह की छूट होती है जब कि मेहनतकश जन के साथ रहने में असुविधाओं और उपेक्षाओं के जंगल से गुजरना पड़ता है | कलावाद में गडबडझाले की कला बहुत चलती है और एक क्रूर अवसरवाद की जगह भी निकल आती है | कलावाद के साथ रहने में सबसे बड़ा फायदा बुर्जुआ समाज और पूंजी के खुले बाज़ार में कबड्डी खेलते रहने की छूट मिलना भी है | व्यक्ति-स्वातंत्र्य के वितान के नीचे आ जाने से अनेक तरह के अख्तियार पाने के अवसर सहज प्राप्त हो जाते है | जैसे जनवाद की एक पूरी जीवन व्यवस्था और जीवन पद्धति होती है वैसे ही कलावाद की भी | ऐसे लोग मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनों को एक तराजू में तोलने की कला भी जानते हैं और जिन्दगी भर तेरी भी जय जय और मेरी भी जय का राग अलापते हैं |ये कबीर का उदाहरण तो देंगे ,लेकिन उनके ' दुखिया दास कबीर ' की पूरी तरह अनदेखी करके | वे इस बात पर गौर नहीं फरमाते कि आखिर अच्छा -खासा चादर बुनकर कमाई करने वाला कबीर स्वयं को दुखिया क्यों मानता है ?

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