नीलाम्बुज जी ,आज तक जो भी दुनिया हमारे सामने है वह यदि मानव - मन की रचना नहीं है तो और क्या है ?यह अलग बात है कि वह सबकी मनभावनी दुनिया न हो |प्रयत्न लगातार यही हो रहे हैं कि यह सबके मन की बनती चली जाए |अभी यह वर्गीय मन के अनुसार बनी है ,इस वजह से वर्ग - संघर्ष के नए-नए रूप सामने आते रहते हैं |आपने मनोमय कोष की बात सुनी होगी |यही मन है जो सारे झगडे-फसादों की जड़ है |आपने सुना होगा कि "मन के हारे हार है और मन के जीते जीत" कहावत वाली बात | सूर का एक मशहूर पद भी आपने अवश्य सुना होगा ----ऊधो , मन नाही दस-बीस | मन अन्य प्राणियों का भी होता है ,लेकिन मष्तिष्क (जो मन ही है )के पिछड़ जाने के कारण वह प्रकृति के समानांतर अपनी वैसी दुनिया नहीं बना पाया ,जैसी आदमी ने बना ली है |यद्यपि उसके सीमित मन की भी अपनी दुनिया होती है |पशु- पक्षियों पर रचे गए साहित्य में उनके मन को खोजा जा सकता है |इसी तरह पेड़ों और वनस्पति तक की यात्रा की जा सकती है |बहरहाल मुझे ऐसा ही लगता रहा है |इसी तरह जैसे व्यक्ति-मन होता है वैसे ही सामूहिक मन भी होता है |कबीलों ,जाति-समूहों ,समुदायों ,भाषिक-समूहों,धर्म-सम्प्रदायों और राष्ट्रों का निर्माण इसी सामूहिक मन की वजह से होता है |वर्गीय मन भी सामूहिक मन का ही एक रूप होता है |फेस बुक पर भी एक सामूहिक मन नज़र आता है ,अपनी व्यक्तिगत भिन्नताओं के साथ |
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