Tuesday 7 August 2012

निज कक्ष में

चाँद अंधेरी रात का
झांकता रात के तीन बजे
जागता खिड़की बड़ी शीशे की
खुलती -बंद होती
सरकती आगे-पीछे
७अगस्त २०१२
सिडनी महानगर के पेन-शर्स्ट की
नेल्सन स्ट्रीट के १७ नंबर आवास की १०वी यूनिट में
बेचैनी नींद आने का नाम तक नहीं
पेट में प्रदाह
सोने नहीं देता
बदलता करवट कभी बांयी ,कभी दायी
लेटता पेट के बल कभी
चैन नहीं कैसे भी
पीता पानी बार-बार-
उतनी बार टॉयलेट
विचार की प्रक्रिया जन्म लेती दुःख में
कहीं कील सी गड़ती
यही दिखाती रास्ता क़ि
दिशा बदलकर सही दिशा पकडू जीवन की
सुख सुविधाओं के महल
रखते कील-काँटों- बिछी धरा से दूर
आती अनुभवों की खिड़की से रोशनी हमेशा
पीड़ा के खाई-गह्वर होते ऐसे ही
विजय पाना मुश्किल अकेले-अकेले
मात खाते भीम-अर्जुन से महाबली भी
था वैद्य सुख-एन रावण महाप्रतापी की लंका में
पीड़ा के रावन को संहारा संगठन और समझदारी से
यही है आज तक मूल जीवन-गति का
समझ पाया अपनी पीड़ा से
सहयोग-संगठन से चढ़ता घाटियाँ
तोड़ सकता आसमान के तारे
प्रगति का राज व्यक्ति के साथ
उसका संगठन समझ आया
अकेले कुछ नहीं होता
रुदन-हास्य भी जंगल में कौन सुनता
अकेलापन मृत्यु है
अवसाद की सूनी गलियों में भटकता पागल-सा
विक्षिप्त सभ्यता का होता जन्म
पीड़ा मन्त्र-सा फूंकती कान में
यदि हो राह कोई
लोक-जागरण की लहर-सी चलती
पानी ऊंचाइयों तक पहुँच जाता नहर हो तो
नहरें बनाई जीवन की
पेंसिलीन के आविष्कर्ता ने
चरक-सुश्रुत ने ,जीवक ने अपने समय में
बहाती आज तक राहत नदी की
चीन-जापान ,सब जगह यही हुआ
राहें बनी ,चले सभी मिलकर एक साथ
सुखी ज्यादा हुए तो लीकें अलग बनाकर
समाज-गति को भंग किया तोडा बीच में से समाज को
सुख का विभाजन गलत-सलत होने से बढ़ जाती पीड़ा मन की , जीवन की
हो रहा यही आज सुख के महलों से झोंपड़ियों की टक्कर
उजाड़े जा रहे आदिवासी तक उनके अपने वनों और बीहड़ों से
लपलपाती जीभ लोभ-लिप्सा की
रौंदती फसल मानवता की
जिसने बनायी सुगम राहें सभी की
मरे सब के लिए
जिए तो सबके लिए
केवल अपने लिए सोये नहीं निज कक्ष में |




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