कविता के समाजशास्त्र को लेकर जो चिंता श्री प्रफ्फुल कोलख्यान जी ने जाहिर की है ,उसका स्वागत किया जाना चाहिए किन्तु कविता के समाजशात्र की बजाय कविता और समाज के रिश्तों के सभी आयामों का तर्कसंगत एवं प्रामाणिक विश्लेषण करते हुए पहले कुछ जरूरी बिन्दुओं को साफ़ कर लेना चाहिए ,इनमें कविता और समाज के साथ कवि को भी रखना आवश्यक है |कविता और समाज पर बात करते हुए अक्सर कवि को छोड़ दिया जाता है ,जबकि कविता और समाज के बीच कवि महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है | यह कवि ही तो है जो सारी लीला रचता है | ,अत कविता और समाज के बीच उस कवि-चरित्र का विश्लेषण भी बहुत जरूरी है ,जिसके ऊपर मुक्तिबोध ने अपने समय में बहुत जोर दिया था |उस समय उनको अपने आस-पास के साथी मित्र -कवि उच्च एवं उच्च-मध्यवर्गीय जीवन जीने की आंकाक्षाओं के जंगल के भीतर विचरण करते दिखाई देते थे इस उत्तर -आधुनिक समय में तो हालात और विकट हो गए हैं |इसलिए जो भी विचार-प्रक्रिया बनती है वह बहुत ऊपरी और सतही चर्चा की तरह होकर रह जाती है |मुक्तिबोध की इस बात का हमारे पास क्या जवाब है -----जिसमें डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में साहित्यकार भी शामिल है |इसलिए कविता की चिंता के साथ-साथ जीवन की चिंता उससे ज्यादा होनी चाहिए ,|खासतौर से उस समाज-वर्ग की, जहाँ समाज के साथ- साथ जीवन भी बचा हुआ है |समाज तो अनेक तरह के लोगों से मिलकर बनता है किन्तु जीवन ----सच्चे अर्थ में वहीँ होता है जहाँ लोगों की 'आत्मा'' जीवित रहती है |इसलिए मुक्तिबोध ने आत्मा के सवाल को कविता में जिस तरह से रचाया-बसाया है ,वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया |उनके लिए कविता ,जीवन-मरण जैसा प्रश्न बन गया था उन्ही के शब्दों में " जीवन चिंता के बिना साहित्य -चिंता नहीं हो सकती |जीवन चिंता के अभाव में साहित्यिक आलोचना निष्फल और वृथा है |किन्तु यह जीवन - चिंतन व्यापक जीवन जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग लिए बिना रीता है |" कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध ''व्यापक जीवन-जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग " लेने की बात करते हैं |इसके अभाव में कविता का जो समाजशास्त्र बनेगा वह मध्यवर्गीय समाज की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पायेगा , जैसे कविता नहीं कर पाती है |
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