Friday, 11 April 2014

हमारे दोस्त के के बांगिया  साहब ने दौसा जिले में स्थित प्राचीन कालीन एक अद्भुत और बेमिसाल बावड़ी का चित्र लगाया है। यह चाँद बावड़ी है और इसे प्राचीन कालीन निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा बनवाया गया था। इससे हमारे अलवर की बुनियाद रखे जाने से शुरुआती रिश्ता रहा है।  इस पर मेरी टीप इस प्रकार से है -------एक दोहा इस बारे में अलवर में अभी तक प्रचलित है। बाला किले के पीछे की पहाड़ियों में एक छोटा-सा गांव है। नाम हैं ढढीकर। आभानेरी इस नगरी का नाम बोलने में असुविधा होने की वजह से हुआ होगा। पहले आभानेर नाम रहा। दोहा इस प्रकार से है -------
                                                          गाँव ढढीकर जानिये , अलवर गढ़ के पास ।
                                                          बस्ती राजा चंद  की , आभानेर  निकास। ।
यह माना जाता है की अलवर का बाला किला 10 --11 वीं शताब्दियों में निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा एक कच्ची गढ़ी  के रूप में बनवाया गया था। संभव है कि वे लोग कभी इसी आभानेरी से इन अरावली पहाड़ियों में आकर बसे  हों। बहरहाल , आभानेरी की चाँद बावड़ी वास्तु कला और जल संग्रह के अद्भुत जलाशय की दृष्टि से आज भी चमत्कृत करती है।इसकी सीढ़ियों के  उतार जिस समकोण और बहुलता के रूपकों में बनाये गए हैं उसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। यह    हमारे शिल्पियों की उस चकित कर देने वाली शिल्प-दृष्टि का प्रमाण भी है  , जो अनेक प्रयोगों को करने के बाद हासिल होती है।  काश, इन पूर्वजों की इस वैज्ञानिक पद्धति का विकास आगे भी चलता रहता ,तो हमारा मध्य और आधुनिक काल वैसा नहीं होता , जैसा आज है। यहां हर्षद माता का एक अति प्राचीन मंदिर भी है , जो एक ऊंचे चबूतर पर  बनाया गया है।  यह भी तत्कालीन वास्तु कला का एक बेमिसाल नमूना है।  

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