हमारे यहां काव्य के तीन हेतुओं में प्राचीन आचार्यों ने "अभ्यास " को भी उतना ही बराबर का दर्जा दिया है ,जितना प्रतिभा और व्युत्पत्ति ---को। प्रतिभा में जीवनानुभवों का संकलन भी आता है और व्युत्पत्ति में अपने समय का सत्य--बोध तथा शास्त्रीय ज्ञान। मुक्तिबोध भी प्रकारांतर से और अपने समय के हिसाब से इन तीन कारकों का उल्लेख बार बार करते हैं। रियाज़ और अभ्यास के बिना न विज्ञान फलित होता है ,न कला। अभ्यास हमारे जीवन की दिशा को साधे ---सहेजे रखने के काम भी आता है।कुमार गन्धर्व ने कबीर के भजनों को अपनी कला का प्रदान अभ्यास से यानी अनुभवों की नवीनता से इस तरह कर दिया था कि वह गन्धर्व की अपनी कला बन गयी। इस बहस को जिन बंधुओं ---मित्रों ने, खासकर विजेंद्र जी और कर्ण सिंह चौहान जी ने ---- उपयोगी और काम की बनाया ,उनके प्रति बहुत बहुत आभार।
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