श्रद्धा का रिश्ता कर्म से होता है। एक बार प्राप्त किये गए यश से श्रद्धा की निरंतरता नहीं बनती। यदि व्यक्ति ,सामाजिक कर्म के प्रति अपना दायित्त्व न निबाहे और उदारता में गच्चा खा जाए तो श्रद्धा को अपनी जगह से भागते देर नहीं लगती। इसीलिये श्रद्धेय को हमेशा परीक्षाकाल से गुजरना पड़ता है।
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