कहते हैं
भय के बिना
प्रीति नहीं होती
मुद्दत हुए इसको कहे
मैं नहीं समझ पाया
इसका मतलब
मैंने जब
भय के पास जाकर देखा
तो वहाँ नफ़रत की विषैली पसरकटेरी
उग आयी थी
भय सामंती गुफाओं से
भेड़िये की तरह निकलता है
लोकतंत्र के उत्सव में उसके लिए कोई जगह नहीं
लोकतंत्र चैत्र के कुसुमाकर मास की तरह होता है
जहां शिरीष की गंध
आदमी , आदमी में कोई भेद नहीं करती।
भय के बिना
प्रीति नहीं होती
मुद्दत हुए इसको कहे
मैं नहीं समझ पाया
इसका मतलब
मैंने जब
भय के पास जाकर देखा
तो वहाँ नफ़रत की विषैली पसरकटेरी
उग आयी थी
भय सामंती गुफाओं से
भेड़िये की तरह निकलता है
लोकतंत्र के उत्सव में उसके लिए कोई जगह नहीं
लोकतंत्र चैत्र के कुसुमाकर मास की तरह होता है
जहां शिरीष की गंध
आदमी , आदमी में कोई भेद नहीं करती।
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