Thursday, 17 April 2014

कहते हैं
भय के बिना
प्रीति  नहीं होती
मुद्दत हुए इसको कहे
मैं नहीं समझ पाया
इसका मतलब
मैंने जब
भय के पास जाकर देखा
तो वहाँ नफ़रत की विषैली पसरकटेरी
उग आयी थी 
भय सामंती गुफाओं से
भेड़िये की तरह  निकलता है
लोकतंत्र  के उत्सव में उसके लिए कोई जगह नहीं
लोकतंत्र  चैत्र के कुसुमाकर मास की तरह होता है
जहां शिरीष की गंध
आदमी , आदमी में कोई भेद नहीं करती।

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