Monday, 21 April 2014

सच कहने , सुनने  ,समझने और बर्दाश्त करने का दायरा और माद्दा  जितना सिकुड़ता जाता है , मानवता का स्पेस उतना ही कम  होता जाता है। कदाचित अपने समय में यही होता देखकर कबीर ने कहा था ------संतो देखत जग बौराना। साँच कहूँ तो मारन धावै , झूठे जग पतियाना।

No comments:

Post a Comment