"दर-असल, आज भी मैं तुलसी की इस बात से सहमत हूं कि कविता का मोती "हृदय-सिंधु" में पलता है - "हृदय सिंधु मति सीप समाना" । दूसरी ओर अनुभव होता है कि आज के अधिकांश कवियों के हृदय, पोखरे या छोटी-बड़ी ताल-तलैयों से ज्यादा बड़े नहीं रह गए हैं । आत्मविस्तार की बजाय वहां प्रलोभन , यश-कीर्ति , प्रशस्ति-पुरस्कार का मायाजाल उसके हृदय को निरन्तर संकुचित कर रहा है । पुराने कवियों से तो जैसे आज का कवि कुछ सीखना ही नहीं चाहता"
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