Friday, 27 April 2012

 ये आज के लोक-स्वर के महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय युवा रचनाकारों में आते हैं | इन्होने अपने जीवनानुभवों के आधार पर कविता की अपनी एक नई जमीन तोडी एवं बनाई है|इस जीवन की  विशेषता है कि  श्रम से जुडा  होने से इसकी प्रकृति में ही काव्यत्व अन्तर्निहित है ----" राम तुम्हारा चरित स्वयम ही काव्य है "  की तरह |निर्मला जी ने मूलत संताली में लिखा और उनका हिन्दी में अनुवाद अशोक सिंह ने किया | जहां तक मुझे याद है कि निर्मला पुतुल की कवितायेँ २१वी  सदी के  लगते ही आने लग गयी थीं |" नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द "और " अपने घर की तलाश में "-- शीर्षकों से आए दो काव्य- संग्रहों में पुतुल की कविताओं में  अंतर्वस्तु की जो तेजस्विता एवं मौलिकता नज़र आती है वह आज की कविता को एक नया आयाम देती है |यहाँ एक आदिवासी स्त्री का स्वर तो है ही साथ ही आदिवासी जीवन - मूल्यों और संघर्षों का एक सजीव काव्यात्मक इतिहास भी है | इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि हम अपनी बेचैनी के ताप के साथ एक गहरी नदी में अवगाहन कर रहे हैं | शिल्प भी इनका अपना है , आदिवासी अंतर्वस्तु की तरह आदिवासी शिल्प --- अपनी सहजता में मुखरित |यह कविता हमको अपने अंधरे के खिलाफ उठने की सीख देती है | अन्धेरा बाहरइसलिए अपनी बेटी मुर्मू से  ही नहीं है वरन वह हमारे भीतर भी है |इसलिए कवयित्री अपनी बेटी मुर्मू को संबोधित करते हुए कहती है कि ---
                                                             उठो, कि तुम जहां हो वहाँ से उठो
                                                             जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है
                                                              उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी
       जब निर्मला पुतुल का पहला काव्य- संग्रह प्रकाशित हुआ था , उसी समय मैंने उसकी समीक्षा की थी |इस कविता से विशवास हुआ  कि हिन्दी कविता का भविष्य इन हाथों में सुरक्षित है |अनुज लुगुन की दिशा भी यही है | अभी उनकी ज्यादा कवितायेँ नहीं पढ़ पाया हूँ |

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