Thursday 26 April 2012

आवारा पूंजी ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है और इसे वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है , उसका जितनी तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए था , वह बहुत कम हो पाया है | बड़े संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई को सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग - विमर्श को किनारे करने का काम किया है |स्त्री और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना और वर्ग-विमर्श  की कीमत पर नहीं | जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो खंड विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है |अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर  आदिवासी और अल्पसंख्यक विमेशों की तन भी छेड़ने में लगे हैं | जबकि  इन सभी की जड़ में वर्ग-विषमता रही है | इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई  आंच आती हो | क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी लाना जैसा लगता है |अभी तो बुर्जुआ जनवादी  चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता  में लगता है , जिससे राजनीति में व्याप्त सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों का खात्मा किया जा सके |

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