आवारा पूंजी ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है और इसे
वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है
, उसका जितनी तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए था , वह
बहुत कम हो पाया है | बड़े संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई को
सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग - विमर्श को किनारे करने का काम
किया है |स्त्री और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना और
वर्ग-विमर्श की कीमत पर नहीं | जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो खंड
विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है |अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर
आदिवासी और अल्पसंख्यक विमेशों की तन भी छेड़ने में लगे हैं | जबकि इन सभी
की जड़ में वर्ग-विषमता रही है | इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई
आंच आती हो | क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी
लाना जैसा लगता है |अभी तो बुर्जुआ जनवादी चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता
में लगता है , जिससे राजनीति में व्याप्त सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों
का खात्मा किया जा सके |
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