Wednesday 25 April 2012

विचारधारा का कोई न कोई रूप हर समय की कविता में रहा है | यह अलग बात है कि उसका सम्बन्ध किसी भाव-वादी विचारधारा से हो |विचारधारा के बिना तो शायद ही कुछ लिखा -कहा जा सके |जो लोग स्वयं को विचारधारा से अलग रखने की बात करते हैं , उनकी भी अपनी छिपी हुई विचारधारा अपना काम करती रहती है | वे तो वैज्ञानिक-द्वद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा को रोकने के लिए इस तरह की दुहाई देते रहते हैं , जिससे शोषक अमीर वर्ग की विचारधारा अबाध गति से फूलती -फलती रहे और शोषित मेहनतकश वर्ग की विचारधारा अवरुद्ध रहे |आवारा पूंजी  का निर्बाध खेल चलता रहे | जिन अनुभवों को निजी अनुभव कहा जाता है ,उनमें समाज के अनुभवों और परंपरा से चली आती मान्यताओं की गहरी मिलावट रहती है |समाज -निरपेक्ष निजी अनुभवों की बात करना वैसे ही है , जैसे सरोवर में स्नान करते हुए स्वयं को आर्द्रता-निरपेक्ष बतलाना |यह अलग बात है कि समाज में प्रचलित अनेक रूढ़िबद्ध  विचारों और मान्यताओं के हम विरोधी हों |रचना का आधार तो कैसे भी बनाया जा सकता है ,प्रश्न यह है कि उस रचना के जीवन-घनत्त्व  का स्तर क्या है ?इस प्रवृति के पीछे कवि का मध्यवर्गीय अवसरवाद है और यह आजकल बड़े- बड़े नामधारियों में देखने को मिल रहा है | "कोई- कोई साबुत बचा कीला -मानी पास" |यह सच्चे कवियों का परीक्षा- काल चल रहा है |

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