Sunday 29 April 2012

  छन्दहीन  इस समय में शेरपा का श्रम से लबालब व्यक्तित्व जीवन का बेहद रूपवान छंद रचता है |अफ़सोस यह है कि  यह छंद आवारा पूंजी से अघाए वर्गों की जिन्दगी में संगीत की तरह कहीं सुनाई नहीं देता | कविता का यह शेरपा हमारे व्यक्तित्व का अंग भी बने तभी जाकर दुनिया का वास्तविक छंद  रचा जा सकता है |यह कविता का लोक भी है और लोक की कविता भी |

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