सच तो यह है कि अपने भीतर वह इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर की बड़ी दुनिया
बहुत कम नज़र आती है | कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का
निर्माण करता है वह उसका जीवन से कटा हुआ मनोगत यथार्थ होता है | इसलिए
मुक्तिबोध ने अन्दर -बाहर की द्वंद्वात्मक एकता पर विशेष बल दिया है |यदि
उसका केवल अंदर ही आता है तो वह विखंडित है , यही बात बाहर के साथ भी है |
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