Saturday, 28 April 2012

सच तो यह है कि  अपने भीतर वह  इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर  की बड़ी दुनिया बहुत कम नज़र आती है | कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का निर्माण करता है वह उसका जीवन  से कटा हुआ मनोगत यथार्थ होता है | इसलिए मुक्तिबोध ने अन्दर -बाहर की द्वंद्वात्मक एकता  पर विशेष बल दिया है |यदि उसका केवल अंदर ही आता है तो वह  विखंडित है , यही बात बाहर के साथ भी है |

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