Wednesday 22 February 2012

हिंदी जातीय भाषा के रूप में आई है जब कि अन्य भाषा-बोलियाँ जनपदीय स्वरूप में आगे बढी हैं | हिन्दी के सामने उर्दू, अंगरेजी और जनपदीय बोली-भाषाओं के अंतर्विरोध भी रहे हैं | हिन्दी का संघर्ष इस मायने में तिकोना रहा है | हिन्दी को अपनी जगह बनाने में बहुत मेहनत-मशक्कत करनी पडी है और आज तो वह फिर से एक बेहद कठिन दौर से गुजर रही है | हिन्दी क्षेत्र का अलगाव भी इसका बड़ा कारण  रहा है |इसके बावजूद वह संवाद का माध्यम बनी है |रही साहित्य की लोकप्रियता की बात ,उसमें आधुनिक-बोध और कलात्मकता का नया परिप्रेक्ष्य उसकी गति को अवरुद्ध करते चलते हैं , जो एक भाषा की परिपक्वता के लिए बेहद जरूरी हैं

Monday 20 February 2012

बहुत सही विश्लेषण किया है |ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक परिप्रेक्ष्य के बिना केवल राजनीति की भाषा में चीजों को समझे जाने की प्रक्रिया ने हमेशा गड़बड़ी की है |उर्दू की जमीन को जाने बिना हम विभ्रम की गलियों में भटकते रहेंगे या फिर उनको साम्प्रदायिकता का रंग दे देंगे |आपने उर्दू की जमीन से उसकी हकीकत को समझा है |सही परिप्रेक्ष्य के गंभीर  चिंतन-परक  आलेख के लिए  बधाई

Friday 17 February 2012

 प्रामाणिक जबाव दिया है आशुतोष जी ,हर भाषा की अपनी प्रकृति,इतिहास और परम्परा होती है |हिन्दी की भी अपनी समृद्ध परम्परा है फिर हिन्दी क्षेत्र इतना विशाल और विविधता सम्पन्न है कि  उसकी रचनात्मकता के छोर उसकी विविधता में ही पकडे जा सकते हैं |दूर की चीजें सभी को सुहावनी लगती हैं |

Thursday 16 February 2012

  गीत

अँधेरे में
  
रात ब्याध के
           -घेरे में
दिन कटा
           अँधेरे में |
खंड-खंड पाखण्ड कि
                इतना
कोई  बिरला बूझे |
तकनीकी तलवारें
                तनती
दीपशिखा से जूझे |
मन का औरंगजेब
                  छिपा
शैतानी डेरे में |
 
ऐसा बिजली-समय
            अभी तक
       किसने था देखा |
 व्योम-भाल पर
                  खिंची
काल की
विद्युत्-गति रेखा |
सांस घुटी सूरज की
             लेकिन
सूखे झेरे में |

पोखर -तट के
पेड़ निरखते
    सूनी आँखों से |
रक्त टपकता
   रूप-विहग के
   श्रम की पाँखों से |
सूखी नदी ,
पहाडी नंगी
जंगल-खेरे में |

मन-मिरगा को
चैन नहीं
  आकाश गहा
         तब भी |
बीहड़ बाजारों का
       बीयाबान रहा
          तब भी |
सारी उमर
गुजारी हंसा
       तेरे- मेरे में |

    

Wednesday 15 February 2012

   अँधेरे में
      
         रात ब्याध के
                  घेरे में
         दिन ढका
                अँधेरे में |

         खंड-खंड पाखण्ड कि
                              - इतना
                कोइ बिरला बूझे ,
         तकनीकी तलवारें
                             --तनती
         दीपशिखा से  जूझे |
         मन का औरंगजेब
                           छिपा
                शैतानी डेरे में |


   अँधेरे में
      
         रात ब्याध के
                  घेरे में
         दिन ढका
                अँधेरे में |

         खंड-खंड पाखण्ड कि
                              - इतना
                कोइ बिरला बूझे ,
         तकनीकी तलवारें
                             --तनती
         दीपशिखा से  जूझे |
         मन का औरंगजेब
                           छिपा
                शैतानी डेरे में |


   ऐसा बिजली समय
     अभी तक
   किसने था देखा ,
   व्योम भाल पर
   खिंची काल की
    विद्युत् -गति रेखा |
   सांस घुटी सूरज की
                  लेकिन
   सूखे झेरे में |

  रात ब्याध के
             घेरे में
   दिन ढका
         अँधेरे में |
     
 
 यह गद्य -अंश ही  नहीं ,प्रेमचंद जी की एक बेहतरीन कविता भी है |पीड़ा की गहरी अनुभूति और उससे मुक्ति के उपाय का दर्शन आँखें खोलने वाला है | जो लोग इस समय इतिहास का अंत देखने और करने में लगे हैं ,उनको देखना चाहिए कि यह दुनिया उतनी ही नहीं है जिसमें वे कूप-मंडूक की तरह रहते हैं |

Tuesday 14 February 2012

 लोक-कविता और मध्यवर्गीय कविता का फर्क हमको तब समझ में आता है जब हम गिर्दा जी जैसे किसी लोक-कवि के अन्तरंग-बहिरंग की खूबियों को बहुत नजदीक से देख-समझ पाते हैं | महेश जी की कविता को इन्ही लोक-सरणियों से ऊर्जा हासिल होती है |लोक- कवि सीधे-सीधे जीवन-साक्षात्कार करता है इस वजह से उसमें जीवन-विधायक तत्त्वों की स्वतस्फूर्त ऊर्जा आ जाती है |जो कवि विचारधारा से जीवन की यात्रा करते हैं  उनमें जीवन -तत्त्व की कमी रह जाती है | बहरहाल, एक कद्दावर लोक- कवि से यह आलेख परिचित कराता है |किन्तु शीर्षक में 'कोहराम' शब्द खटकता है | यह नकार को व्यक्त करता है जब की गिर्दा जी के लोक-कवि की भूमिका द्वंद्वात्मक है |