Saturday 30 November 2013

वस्तुगत अहसास जब प्रबल हो जाते हैं तो वे आत्म को ऐसा धक्का देते हैं कि शब्द स्वतः बोलने लग जाते  है और ऐसे  शब्द केवल शब्द नहीं रह जाते  ,बल्कि ह्रदय से निकले   ईमानदार उदगार बन जाते हैं  , जिसे शास्त्रीय भाषा में  कविता कहा  गया है । आत्म-स्पर्श फिर जीवन-जगत से मिलकर  गहरा होता चला जाता है ,जिससे आत्म  और वस्तु  का फर्क ही मिट जाता है । जब यह फर्क मिट जाए तो समझो कविता सिर चढ़कर बोल रही है ।
आज राजस्थान की १४ वीं विधान सभा के लिए मतदान हो रहा है । हम दोनों अपने मताधिकार का प्रयोग करके अभी अभी आये हैं । इस समय वैसे भी उछिड़ रहती है । हेमंत की  निखरीं धूप  खिली हुई है । सारे  प्रबंध चाक- चौबंद हैं । देखिये ऊँट किस करवट  बैठता है ?  फिर भी राजनीतिक समझदारी इसी बात में है कि तानाशाही प्रवृति को नकारा जाए । लोकतांत्रिक संस्थाएं बनी रहेंगी तो आगे बदलाव की सम्भावना भी बनी रहेंगी ।किसी विशेष भावना के ज्वार में बह कर मतदान करने का मतलब है , लोकतंत्र , जैसा भी है , को कमजोर करना । राजनीतिक विश्वदृष्टि और इस समय की जरूरत को  देखते हुए अपने मत का प्रयोग करना अपने और देश के  भविष्य के लिए बेहद जरूरी है । 

Friday 29 November 2013

कविता व्यक्ति के भाव बोध को उजागर करके उसे सक्रिय  बनाने का काम करती है और उसकी चेतना के अनुरूप सौंदर्य बोध का विकास भी , बशर्ते कि कवि अपने आचरण से भी मेहनतकश वर्ग से संबद्ध रहे और अपने अवसरवादी रुझान से सदैव लड़ता रहे । जो लोग खुद से नहीं लड़ पाते , वे धीरे धीरे अवसर की नाव  में बैठकर नदी पार करने लगते हैं । 

Thursday 28 November 2013

इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय गंगा-यात्रा पर हैं उन्होंने गंगा के सन्दर्भ से प्रकृति-चिंता और एक मशहूर पर्यावरणविद तथा उसके लिए वैराग्य की सीमा तक जाने वाले प्रो   जी डी अग्रवाल से   अपना साक्षात्कार प्रस्तुत किया है ,जिससे  मेरे मन   में कुछ सवाल पैदा हुए हैं । इस बातचीत में बहुत सी बातों के लिए यूरोप की आधुनिक सभ्यता को जिम्मेदार माना है । खासकर युद्धों के  लिए । इसमें कार्ल मार्क्स के चिंतन पर भी  टिप्पणी  है ।
मेरा  मन इस बारे में  यह है कि  आज के उपभोक्तावादी माहौल में प्रकृति-पर्यावरण में मन को समाकर रखना संस्कृति का नया अध्याय रचने के बराबर है लेकिन जिस देश में हज़ारों साल पहले --महाभारत जैसा संग्राम हुआ हो और जो सभ्यता सुरासुर संग्रामों से भरी हुई हो , उसकी अनदेखी करके युद्ध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार   मानना कहाँ  तक तर्कसंगत है ? यह ठीक है कि आधुनिक सभ्यता को धरती पर उतारने की जिम्मेदारी पश्चिम की है ,जिसे महात्मां  गांधी ने स्वीकार करते हुए भी --शैतानी सभ्यता नाम  दिया था ।यह भी सही है कि पूंजी-बाज़ार पर आधिपत्य  के लिए उस धरती पर दो विनाशकारी युद्ध हुए , किन्तु  सवाल यह भी तो है कि इस  इतिहास - गति को कैसे अवरुद्ध किया जाय ?  यूरोप में विकसित पूंजीवादी व्यवस्था का जितना निर्मम और तर्कसंगत विरोध प्रसिद्ध चिंतक मार्क्स ने  किया है और उसका  विवेक संपन्न विकल्प प्रस्तुत किया है जो वर्त्तमान उपभोक्तावाद के विरूद्ध प्रकृति-पर्यावरण के  अनुकूल भी है  और एक अलग तरह की आधुनिक सभ्यता की नींव रखता है । उसके बारे में एक बनी बनायी धारणा प्रस्तुत करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि सवाल केवल पर्यावरण का नहीं है बल्कि उस विषमता का भी  है जिसमें एक वर्ग अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन उसकी अंतिम सीमा तक कर  रहा है । चोर को मारना ठीक है ,किन्तु जब तक चोर की माँ को नहीं मारा जायेगा , तब तक चोरों का प्रजनन बंद नहीं हो सकता ।
आज के उपभोक्तावादी माहौल में प्रकृति-पर्यावरण में मन को समाकर रखना संस्कृति का नया अध्याय रचने के बराबर है लेकिन जिस देश में हज़ारों साल पहले --महाभारत जैसा संग्राम हुआ हो और जो सभ्यता सुरासुर संग्रामों से भरी हुई हो , उसकी अनदेखी करके युद्ध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार   मानना कहाँ  तक तर्कसंगत है ? यह ठीक है कि आधुनिक सभ्यता को धरती पर उतारने की जिम्मेदारी पश्चिम की है ,जिसे महात्मां  गांधी ने स्वीकार करते हुए भी --शैतानी सभ्यता नाम  दिया था ।यह भी सही है कि पूंजी-बाज़ार पर आधिपत्य  के लिए उस धरती पर दो विनाशकारी युद्ध हुए , किन्तु  सवाल यह भी तो है कि इस  इतिहास - गति को कैसे अवरुद्ध किया जाय ?  यूरोप में विकसित पूंजीवादी व्यवस्था का जितना निर्मम और तर्कसंगत विरोध प्रसिद्ध चिंतक मार्क्स ने  किया है और उसका  विवेक संपन्न विकल्प प्रस्तुत किया है जो वर्त्तमान उपभोक्तावाद के विरूद्ध प्रकृति-पर्यावरण के  अनुकूल भी है  और एक अलग तरह की आधुनिक सभ्यता की नींव रखता है । उसके बारे में एक बनी बनायी धारणा प्रस्तुत करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि सवाल केवल पर्यावरण का नहीं है बल्कि उस विषमता का भी  है जिसमें एक वर्ग अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन उसकी अंतिम सीमा तक कर  रहा है । चोर को मारना ठीक है ,किन्तु जब तक चोर की माँ को नहीं मारा जायेगा , तब तक चोरों का प्रजनन बंद नहीं हो सकता ।

Wednesday 27 November 2013

तेज़ उजाले से ज्यादा 
अन्धकार में जब
हो जाता है
तो तरुणाई को
अहंकार के पंख लग जाते हैं
उसमें अंगरेजी का सम्पुट मिल
जाए तो वह
करेला और नीम चढ़ा
की हैसियत प्राप्त कर लेता है ।

लेकिन यह दुनिया
कभी कभी ऐसों के भी
गले में घंटी  बाँध देती है
 दुनिया की यही 
पर्वत जैसी ताकत है
इसे उससे छीन लेने वाली
ताकत दुनिया में अभी पैदा नहीं हुई
 भगवान  के घर देर क्यों है ?इतनी बड़ी परम शक्ति भी यदि न्याय में देरी  करेगी तो फिर आदमी की अपनी बनायी अदालत का क्या दोष ?  यह मेरे आज तक समझ में नहीं आया । वैसे भी देरी से मिला न्याय , अन्याय में बदल जाता है ।ऐसा माना जाता है ।

Tuesday 26 November 2013

 भाषा में सबसे बड़ी समस्या और चुनौती उस  भाषिक विस्थापन की होती  है जिसे अतिरिक्त  पूंजी की आकांक्षा पैदा करती है ।यही वजह है कि  इन दिनों पुराने उपनिवेश रहे स्वाधीन देशों में भाषा में जितना विस्थापन हुआ  है उतना शायद ही और किसी स्थिति में हो ।

Monday 25 November 2013

नैतिक बोध कभी दूसरे  घरों से शुरू नहीं होता । यही तो जगह है जहां पहले अपना घर फूंकना पड़ता है ।
अलवर में ठीक चुनावों के बीच इन दिनों द्वि-दिवसीय --मत्स्य-उत्सव ----चल रहा है । पर्यटन विभाग की सरकारी लीला । जन की भागीदारी सिर्फ लोक-कलाकारों तक सीमित । लोक कलाकार न हों तो इन उत्सवों का क्या हो ? यह लोक कला ही तो है जो किसी स्थानीय रंग और उसकी  धरती की बनक  को  पहचान देती है । बहुत दिनों पहले का एक मेवाती गीत इस उत्स्व में   गाया जा रहा है । गीत उस समय का है जब घरों में स्त्रियां चक्की से अन्न पीसा  करती थी । कोई नयी नवेली वधू  घर में आई और आते ही सास ने कुछ ही दिनों बाद उसे चक्की  पर बिठा दिया । वह अपने पति को उपालम्भ देती हुई गा रही है -----"मोपै चलै ना तेरी चाखी , हमारी बारी सी उमरिया ।" पति जबाव में कहता है ----"अरे सौ सौ लगा दूं पीसनहारी , तिहारी पतली सी कमरिया ।"उपालम्भ को यदि न समझा जाय तो धीरे-धीरे वह प्रतिरोध में बदल जाता है । बहरहाल , प्राचीन काल में कभी मत्स्य जनपद का हिस्सा रहा यह भूभाग आज़ादी मिलने के बाद बहुत थोड़े से समय के लिए ---मत्स्य प्रदेश --बना था । चार रियासतों को मिलाकर ---अलवर, भरतपुर, धौलपुर और  करौली । राजधानी मुख्यालय अलवर रहा और यहीं के शोभाराम  जी इसके पहले मुख्य मंत्री बने । कहते हैं कि  यह नाम प्रसिद्ध  लेखक कन्हैया लाल माणिक्य लाल मुंशी ने सुझाया था ।बाद में इसका विलय राजस्थान में कर दिया गया ।
लम्पटता छूत  के रोग की तरह  है जो ऊपर से नीचे की ओर फैलती है । जिसे हम सर्वहारा कहते और अपने देश के सन्दर्भ में मानते हैं , वह यदयपि गरीब-शोषित वर्ग  है सचेतन सर्वहारा बहुत कम ,।  वह उन सभी व्याधियों से ग्रस्त रहा है जो सामाजिक और नैतिक स्तर की व्याधियां हैं । जिस रूस में क्रांति हुई , वहीँ धीरे धीरे विश्वस्तरीय लम्पटता का प्रवेश हो गया । हमारे यहाँ तो जीने का एक अति-पुरातन  ढर्रा चला आ रहा है । अभी तो रूढ़ियों-अंधविश्वासों तक से हमारी मुक्ति नहीं । मंगल यान अभियान में लगे वैज्ञानिकों का हाल हमने अभी-अभी देखा है । हमारे भीतर का जो डर और लोभ है उसका इलाज क्या है ? लम्पटता के लिए ये प्रवृतियां जिम्मेदार होती हैं । आदर्श जब गायब हो जाते हैं तो उनकी जगह लम्पटता ही लेती है ।

Sunday 24 November 2013

आज की कविता में अपनी ख़ास जगह रखने वाले कवि शिरीष कुमार मौर्य ने --'-कई उम्रों की कविता' --- शीर्षक से लिखी इस किताब में अपने जीवनानुभवों की रोशनी में पूर्वज और अग्रज कवियों का स्मरण अपनी गद्य शैली में किया  है । इस गद्य को पढ़ते हुए उनका कवि कभी पाठक का साथ नहीं   छोड़ता । वह अपनी धारणाओं को छिपाता नहीं  और न ही उन प्रसंगों की अनदेखी करता है , जो आज भी हमारे काम के हैं । उसने यहाँ भी अपने  पूर्वज कवियों के ह्रदय,बुद्धि और हाथों को खोज लिया है । यह खोज मार्मिक तो  है ही , हमारे बुद्धि कौशल के  लिए उत्प्रेरक भी । ह्रदय और बुद्धि के संग हाथ का त्रिकोण ----ज्ञान, क्रिया और इच्छा की जीवन-त्रयी को लाकर , जैसे इस विखंडनकारी समय में एक संदेशवाहक का काम करता है कि मनुष्य  कभी काल के टूटे हुए  एकांत में नहीं जीता  । यहाँ जितने भी कवियों की उपस्थिति है , वे अपनी-अपनी जगहों पर होते हुए भी एक समय-समग्र की रचना करते हैं ,जिसका  अभाव शिरीष आज की अपने समय की कविता में महसूस करते हैं । पूर्वज- कवि-स्मरण उनके लिए सीख की तरह  है और उसमें पूरी बेबाकी तथा स्पष्टबयानी से खरेपन की खनक आ गयी है । कवि मानो अपनी जानकारी के लिए यह  सब  लिख-पढ़ रहा है । कहीं औपचारिकता का आग्रह  नहीं जैसा कि आलोचना में होता है । यहाँ एक कवि का गद्य है जो उनके अपने पहाड़ी  लोक की लय में समाया हुआ है ।
      यहाँ कवि की अपनी पसंद और अभिरुचियों का एक ताना बाना है । वह गद्य को लिखने के  बजाय बतकही की तरह कहता है । जैसे वह हमसे सीधे संवाद कर रहा है । इस गद्य-कृति में लीक -लकीर की तरह खींची गयी सीधी-सीधी रेखाएं नहीं वरन वे परेशान करने  वाले प्रश्न हैं जिनको वह  आज की कविता की कला के संदर्भ में लाजमी  मानता है । यहाँ पूर्वज  कवियों का   आकलन  उनकी जीवन-धर्मिता को साथ में लेकर चलने से वह पठनीय और  रमणीय बन गया है । इन आलेखों में शिरीष ने अपने अग्रज  कवियों के सानिध्य को जीवन की हलचल के रूप में खासतौर से  रेखांकित   किया  है ।पाठक-समाज इसका तहेदिल से स्वागत करेगा , मैं ऐसा सोचता हूँ ।   
आज की तारीख अलवर के तवारीख की एक तारीख है ----२५ नवंबर १७७५ । आज के दिन जयपुर रियासत के आधीन माचाडी  के राव प्रताप सिंह ने  अलवर के बाला किले पर उनके द्वारा बनाई गयी नयी रियासत का झंडा फहराया था ।इससे पहले उन्होंने राजगढ़ में अपने लिए एक किला बनवा लिया था । इस किले के रंगमहल में की गयी चित्रकारी आज भी अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती । २४ नवंबर तक किले पर  भरतपुर  के राजा जवाहर सिंह का शासन था ।१८ वीं सदी की अराजकता के माहौल में  में देश में ऐसी अनेक सामंती रियासतें बनी थी । अलवर भी उनमें से एक है । यहाँ बना बाला किला ११ वीं सदी का माना जाता है । 

Saturday 23 November 2013

डूब रहे  हैं

डूब रहे हैं गांव
डूब रहे हैं पहाड़
डूब रहे हैं खेत
डूब रहे हैं लोग
डूब रही हैं नदियां
डूब रहे हैं जंगल
डूब रही हैं  पगडंडियां

बचे हुए हैं जो
इनसे दूर
हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों पर
उनकी शीतल छाया में बैठे हुए हैं । 

नेपाल में प्रचंड को जनता ने अपनी जगह बता दी । प्रचंडता में मनोहरता के विरुद्ध  का सामंजस्य जब तक नहीं होगा तब तक जन-स्वीकृति दीर्घकाल तक नहीं टिकती , एक पक्ष को जन थोड़े समय ही स्वीकार करता है । उसकी अति से ऊब जाता है । प्रकृति का सिद्धांत भी संतुलन में है अतिवाद में नहीं ।

Friday 22 November 2013

सबसे बड़ा संकट
इस सभ्यता में खेतों
और खेती-किसानी करते
पहाड़ की तरह खड़े
नदियों की तरह सरस
जीवन नौका को
जैसे तैसे खेते
पेड़ों से बतिया
अपनी राम कहानी कहते
उन राम दीनो और बिहारी लालों पर है
जिन्होंने सूरज के उगने से पहले
अपनी जीवन यात्रा शुरू की
और डूबने से पहले घर में नहीं घुसे
फिर भी सफेदपोशी कुलकमल
उनका सब कुछ हड़प कर
कानूनी हिसाब किताब करते रहे


एक  जंजाल है जो
घेरे हुए है गांव-खेरे को
उसकी पोखरों , जोहड़ों में
 अब गाय-भेंसों को  पीने का नहीं
सब कुछ शहरी सुरसा के पेट में
समा रहा है आगे रास्ता नहीं सूझता
इतना अन्धेरा है
पुरानी  बावड़ियों की मुंडेरों पर
नए  लुटेरों ने अपनी चौसर बिछा ली  है
देखने-सुनने -समझने वाला कोई नहीं

चुनावी सभाओं में
उन बातों पर शोर मचा है जो
इन ग्वार-गोठों से
दूर का वास्ता तक नहीं रखती
कबीर दुखिया है
कौन सुनता है  दुःख उसका
कभी किसी ने नहीं सुना पर
वही दिखाता है रास्ता
कि पहचानो कौन है तुम्हारा दोस्त
और कौन है तुम्हारा  दुश्मन ?
यह पहचानने का 
और हिसाब-किताब को  समझने का  समय है ।

Thursday 21 November 2013

जनतंत्र के निर्माण में नेताओं से बड़ी और गम्भीर  भूमिका जब तक "जन " की नहीं होगी तब तक हम एक लंगड़े-लूले जनतंत्र की गिरफ्त  में फंसे रहने के लिए अभिशप्त होंगे । यथा जन , तथा जनतंत्र । जब कि अभी तक' यथा नेता ,तथा जनतंत्र'  की प्रक्रिया चलती रही है ।
तात तीन अति प्रबल खल , काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि विज्ञान धाम मन , करहि निमिष महुँ क्षोभ ॥
इन दिनों काम का ज्वार इतना फैला हुआ है कि सम्भलने में नहीं आ रहा है । फिर इसमें तरुण तेज पाल हों या कोई रिटायर्ड जज ।मंत्री , संतरी या बाबा वेशधारी लम्पट ।  सभ्यता की अपनी गर्मी होती है जो असंतुलित होकर समाज में व्याप्त होती जाती है । नैतिकता के मसले आत्मानुशासन  की ही मांग नहीं करते बल्कि विलास -आकांक्षी मन की वल्गा को साधे  रखने की भी । ज़रा सा फिसले  कि खड्ड में गिरे   ।किसी भी तरह की सत्ता की आकांक्षा,लोभ से निकलकर  दम्भ-क्रोध की यात्रा करती हुई काम तक जा पहुचती है । इसमें कभी-कभी  ताकतवर लोग भी फंस जाते हैं और बच भी जाते हैं ।ताकतवर जब तक बचते रहेंगे, यह खेल थमनेवाला नहीं । वह दिन न जाने कब आयेगा, जब सबकी शक्ति बराबर होगी ?बराबरी में किसी को सताना मुश्किल होता है , इसीलिये लोग कभी बराबरी के विचार को तवज्जो नहीं देते ।    

Wednesday 20 November 2013

देश में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने सबसे ज्यादा दुर्गति कृषि-क्षेत्रों की की है । गावों  से लोग तेजी से शहरों में पलायन इसी लिए कर रहे हैं । गावों  में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार इतने पिछड़ी अवस्था में हैं कि जो वहाँ रहता है और उस अभिशाप को भोगता है वही जानता है ।जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई ।  इससे वहाँ अलगाव और  भी बढे हैं ।आबादी बढ़ने से जोत-सीमा और कम हुई है । असुविधाओं के चलते  शहरी जीवन जीने वाला व्यक्ति एक रात भी गांव  में ठहरना नहीं चाहता । अफसर, विधायक वहाँ रहते ही नहीं जो उनकी पीड़ा को जाने- समझें । फिर उनके ऊपर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का डंडा । जब तक किसान यूनियन अपना काम नहीं करेंगी, तब तक गांव का मतदाता एकजुट नहीं होगा और जातिवादी-सम्प्रदायवादी आधारों पर वोट देने की प्रक्रिया से  अलग नहीं होगा,तब तक कृषि-क्षेत्रों  की दुर्दशा कम नहीं होगी । आज किसानी सबसे घाटे का सौदा है  । जरूरत है किसान को गारंटी और उन रियायतों की जो कृषि-क्षेत्र के लिए जरूरी हैं । जिनको हम आज पढ़ा-लिखा और पीछे से ग्रामवासी मानते हैं वे अपनी पढ़ाई को अपने हित-साधन के  लिए काम में लेते हैं । अपना हित-साधन करना है तो गांव के किसान ,खेतिहर मजदूर को जाति - निरपेक्ष होकर संगठित रूप में अपना दबाव बनाना पडेगा । अनुनय-विनय और पांच वर्ष में एक बार आने वाले इस चुनाव मेले से काम बनने वाला होता तो , अब तक बन गया होता ।राजनीतिक जातिवाद का जहर काले नाग से भी ज्यादा मारक होता है  लेकिन यही जहर राजनीतिक दलों के लिए अमृत का  काम कर रहा है । 

Tuesday 19 November 2013

सिडनी  की डायरी ---२० नवंबर २०१२ ,मंगलवार
 पिछले   साल इन दिनों बेटे अलंकार के साथ  आस्ट्रेलिया के सिडनी महानगर के पेंशर्स्ट उपनगर में हम दोनों थे । मैं  अपने पौत्र को साथ लेकर  वहाँ के  मिरांडा स्थित उपनगर के एक शिशु घर---वॉम्बेट प्ले स्कूल ---- में    रेल सफर तय  करके जाता था । मेट्रो रेल में बीस-पच्चीस मिनट लगते थे । बीच में गहरी  ,विस्तृत और प्रफुल्लित  जॉर्ज नदी पर बने पुल से  तथा , पहाड़ों  और सुरंगों से रेल गुजरती थी ।रोमांचकारी अनुभव होता था , जितनी बार वहाँ से गुजरो उतना ही नया और स्फूर्तिकारी । प्रकृति के सौंदर्य की बराबरी नहीं और वह भी निर्भेदकारी । प्रकृति का सन्देश ही मानो भेद - बुद्धि को भुला देने का है । फिर भी मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए भी कितनी ही भेद-प्राचीरें चिनता  चला जाता है । अतिरिक्त धन और सत्ता पाने की लालसा उसे मनुष्य रहने ही नहीं देती । वह अपनी प्रकृति को भूल जाता है ।  नदी में वहाँ के  धनिक  वर्ग के अपने नौका-विहार के लिए तरह तरह की बड़ी बड़ी और सुसज्जित नावें पडी हुई थी । ऐसा प्रतीत  होता था जैसे यह नदी-नाव संयोग  प्रकृति और मनुष्य के बीच भाईचारे का एक ऐसा रूप है ,जो देशों की सीमाओं को  डहा कर मनुष्यता को एकरूप कर देता है । जब भी रेल, पुल से गुजरती दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आए बिना नहीं रहता -----"तू किसी रेल सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा  थरथराता हूँ /"पौत्र अभि तुरंत नदी को निहारने  लगता,पता नहीं  उसके मन में क्या आता होगा ? यहाँ हम रेल से उतरकर एक---वेस्टफील्ड नामक  मॉल  से होकर शिशु घर तक पहुचते थे । यहाँ देखकर अच्छा लगता था कि मॉल में स्त्रियों की भूमिका पुरुष से ज्यादा है और वह भी उन्मुक्तता के साथ । स्वच्छंद और अपने भीतर सिमटी हुई । पूंजी का साम्राज्य मिलाता बहुत कम है  , दूर ज्यादा  हटाता है । एक जगह होकर भी सब अलग अलग अपनी अपनी दुनिया में । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं । जिसके पास पैसा  है वही खरीददार है । यह दुनिया जैसे केवल उसी के लिए बनी है । कितना अच्छा हो कि यह संसार एक नदी की तरह हो जाए । मैं यहाँ चार  घंटे एक उपनगरीय पुस्तकालय में बिताता  था । कभी मॉल के सामने बनी  एक बेंच पर वहाँ के लोगों को आते-जाते  देखते हुए । सब मौन साधे, अज्ञेय की कविता जैसे लगते थे । गति ही गति , कोई ठहराव नहीं । जीवन का यह रूप अब हमारे यहाँ भी तेजी से एक वर्ग विशेष में आ रहा है ।संयोग ऐसा कि अपने साथ मुक्तिबोध का साहित्य ले गया था । जो इस सभ्यता को दूर से ही नमस्कार करना  सिखाता है , इसकी कुछ खूबियों के बावजूद ।   

Monday 18 November 2013

साम्प्रदायिकता अक्सर संस्कृति के वेश में आती है । इसलिए संस्कृति के बारे में  परम्परा और नवीनता के रिश्ते में सोचने-समझने की कला जब तक लोक-स्तर  पर विकसित  नहीं होगी , संस्कृति उन  कूढ़  मगजों के हाथ का खिलौना बनी रहेगी , जो उसे राजनीति के मैदान में लाकर अपना  खेल खेलते रहते हैं । 

Sunday 17 November 2013

क्या हुआ

क्या हुआ
लगभग बीस-पच्चीस साल पहले
हमें जिस नए चबूतरे पर
बिठा दिया गया था
एक थके-हारे लकड़हारे की तरह
और आँखों में
बो दिए गए थे हरे सपने
सावन के अंधों की
बस गयी थी एक बस्ती

क्या हुआ
कि सारी नदियों का पानी
कुछ लोग ही अपने घर ले गए
पहाड़ों को नौच-नौच कर
कर दिया लहूलुहान
जंगल की बोटी-बोटी
खाकर भी अतृप्त हैं
इनकी  भूख का  कोई अंत नहीं

क्या हुआ
कि दस साल के भीतर
इतना गहरा अन्धकार
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता
जो एक खूंख्वार हिंसक  जानवर
की राजनीति को
वैधता प्रदान कर
घर के दरवाजे तक ले आया है

क्या हुआ?
क्या हुआ?
यह क्या हुआ ?
किसने किया ?
तीन कविता संग्रहों के रचयिता और लोक-संवेदना के प्रखर चितेरे निलय उपाध्याय इन दिनों अपनी भागीरथी-यात्रा पर हैं । एक लम्बी यात्रा पर उनकी तरह निकलना साधारण काम नहीं है । एक आधुनिक  कवि  गंगा का सिंहावलोकन करने निकला है  । कवि का अवलोकन  अलग तरह का होता है । गंगा को तुलसी ने मात्र एक नदी नहीं माना है ---धन्वी काम नदी पुनि गंगा । बहरहाल गंगा उनके मनोमालिन्य  का प्रक्षालन ही नहीं करेगी वरन वह आत्मिक एवं जीवन-द्रव्यात्मक  समृद्धि भी प्रदान करेगी ,जो काव्य-रचना के लिए  हर युग में जरूरी रही है । यात्रा अपने आप में व्यक्ति को जीवनानुभवों से आपूरित करती है । यात्रा आख्यान और विविध समाजों का मेला उनकी यात्रा को ,निस्संदेह समृद्ध करेगा । कष्टों और प्रसन्न्ताओं के द्वंद्वों से उनकी यात्रा को नवता मिलती रहेगी , ऐसा बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है । इस यात्रा में उनकी लोक-गति को भी  ताकत मिलेगी ।

Saturday 16 November 2013

राजे-महाराजे , बाद में अंग्रेज सब अपने दरबारों का ठाठ-बाट सजाते थे और समाज में अपनी आधिकारिकता का प्रभाव पैदा करते थे । अंग्रेज राय बहादुर बनाया करते थे । आदमी को मिथ में बदलना और इंसान न रहने देना तथा आदमी से इंसान बनने की प्रक्रिया को खत्म करना हर समय की सत्ता अच्छी तरह से जानती है । इससे प्रलोभन की प्रवृत्ति विकसित होती है । सत्ता प्रलोभन और भय से चलती है । लोकतंत्र , जब तक वास्तव में नहीं स्थापित नहीं हो जाता, तब तक सत्ताएं अपने चरित्र के रूपों का प्रदर्शन दशानन के दस मुखों की तरह करती रहती हैं । यह प्रक्रिया आज भी चल रही है और वोट का समय हो तो इसकी गति को पंख लग जाते हैं । इसीलिये हर युग की सत्ता अपने तरीके से सम्मानों , पुरस्कारों ,श्रीयों , रत्नों का लोभ- पाश फैलाती हैं । इससे ज्यादा  जरूरत है आदमी से इंसान बनाने की प्रक्रिया को तेज करने की ।इसीसे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं और उसमें हर व्यक्ति अपने आप को सम्मानित अनुभव करता है ।

Friday 15 November 2013

अंधविश्वास और पाखंड तब भी फैलते हैं जब नेतृत्वकारी  व्यक्ति जो कहता है ,उस पर आचरण नहीं करता । राजनीति, समाज पर अपना वर्चस्व  बनाकर उसे  जिधर चाहती है उधर धकेलती है । अर्थ और राजनीति का गहरा गठजोड़  होता है ।यह तथ्य है कि  व्यक्ति वही पढ़ना चाहता है जो उसे अर्थ-समृद्ध बनाये ।अंगरेजी माध्यम का प्रचलन तेजी से इसी वजह से बढ़ा है ।  जब लोग अपनी भाषा में नहीं पढ़ेंगे तो बात की गहराई को कैसे समझ पाएंगे ?आज जो शिक्षा दी  जा रही है वह व्यक्ति को बाज़ार के अंधे कुए में धकेलने वाली है । बाज़ार और शिक्षा का ऐसा गठजोड़ बनाया जा रहा है कि व्यक्ति महानायक और भगवान् के रूप में या तो फ़िल्मी अभिनेताओं को देखे-माने या क्रिकेट के खिलाड़ियों को ।जो असली मुक्तिदाता हैं उनको भुला दिया जाए । बाज़ार को विज्ञापन करने वाले लोग चाहिए जिन्हे वह मीडिया के माध्यम से पैदा करने की कला जान गया है । इसलिए जरूरी यह है कि व्यक्ति का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत गहराई से हो । राजनीति को जाने बिना अपने समय की सचाई तक पहुँच पाना मुश्किल होता है । राजनीति में संस्कृति के नाम पर साम्प्रदायिकता को केंद्र में स्थापित करने की कोशिशें की जाती हैं जिसके साथ  अंधविश्वास और पाखण्ड सिमटे चले आते हैं ।साम्प्रदायिक ताकतें सबसे पहले शिक्षा तंत्र पर कब्जा इसीलिये करती हैं कि बौद्धिकता के नाम पर एक काल्पनिक-मिथ्या इतिहास गढ़कर निरंतर पढ़ाया जाय । इन सारे पहलुओं पर समग्रता  में सोचने की जरूरत है ।शिक्षा तंत्र का संचालन राज्यसत्ता के हाथ में होता है । जब एन डी ए की  सरकार आयी थी तब पाठ्यक्रम में वैदिक ज्योतिष और गणित आ गए थे ।  

Thursday 14 November 2013

बच्चों को किसी एक दिन तक सीमित कर देना मनभावन नहीं लगता । ये बच्चे ही तो हैं जो रोज जीवन की फुलवारी को महकाते हैं । सहज रूप से बच्चा ही अपना जीवन जी पाता  है , बाद में तो आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है और अपने आगे किसी और को नहीं बदता  । जब 'समझदारी ' आ जाती है तो बचपन-यौवन सब दूर भाग जाते हैं । जय शंकर प्रसाद ने अपने एक नाटक में एक जगह लिखा है -------"समझदारी आने पर यौवन चला जाता है " । अच्छा तो यही है  कि ऐसी 'समझदारी' आये ही नहीं कि यौवन को जाना पड़े ।

Wednesday 13 November 2013

मुक्तिबोध को जितनी बार पढ़ा जाय , उतनी ही बार अपने  बहुआयामी अभिप्रायों के साथ ह्रदय में प्रवेश करते हैं । जिंदगी को इतना गहरे उतरकर जीना या तो निराला को आया , या प्रेम चंद  को या फिर मुक्तिबोध को ।अपनी "भूल-गलती" को मानना और उस पर अनेकशः कवि -कर्म करना ,यह कोई मुक्तिबोध से सीखे । जितनी बार पढ़ो , उतनी ही बार लगता है कि किसी गहरे सागर में उतर रहे हैं । क्या नहीं लगता कि "कतारों में खड़े खुदगर्ज़ -बा-हथियार /बख्तरबंद समझौते / " आज नहीं चल रहे हैं ।और इसी के साथ हम एक विभाजित व्यक्ति की तरह अनेक हिस्सों में टूक-टूक नहीं हो रहे हैं । आज का आदमी काच  की टूटी किरचों से भी ज्यादा बिखरा  हुआ लगता है ।" दिल में अलग जबड़ा ,अलग दाढ़ी लिए ,/ दु मुंहेपन की सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे/ दढ़ियल सिपहसालार संजीदा /सहमकर रह गए " ।मुक्तिबोध ने भविष्य और प्रत्येक मनुपुत्र पर विश्वास किया था और भविष्य के बारे में सोचा था-----
                                                              महसूस होता है कि यह बेनाम /  बेमालूम दर्रों के इलाके में / मुहैया कर रहा लश्कर /
                                                                हमारी हार का बदला चुकाने आयगा /
                                                              संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर ,
                                                              हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
                                                               प्रकट होकर विकट  हो जायगा ।
जो मुक्तिबोध को अपने जमाने में लगता था , वह उन्होंने आशान्वित होकर लिखा है । किन्तु उन्हें कहाँ पता था कि अभी वे दिन बहुत  दूर हैं ।  उन्हें कहाँ  मालूम था कि व्यक्ति, समाज , राज और अर्थ -संस्कृति सब एक ऐसे चंगुल में फंसा दिए जायेंगे कि हमारी संकल्पधर्मा चेतना का स्वर , न तो संकल्पधर्मा रह पायगा और न ही रक्तप्लावित । ह्रदय का जो गुप्त स्वर्णाक्षर है वह भी कहीं अँधेरे में डूब जायगा । उसके प्रकट  होकर विकट होने की बात तो बहुत दूर है । बहरहाल , आशा ही बलवती है और इसी से दुनिया बदलती है और पीछे हटती -सी लगती हुई भी कहीं न कहीं आगे भी बढ़ती है ।इसी को मानते रहने में मानवता का भविष्य ललाईमय लगता  है ।   

आलोचकीय दुकान में, कविता का व्यापार ।
अन -डूबे  तो  पार है ,        डूबे तो बेकार ।
नेहरू उस जमाने के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे ,अनुभवी  और विश्व दृष्टि संपन्न  राजनेता  तो थे ही , वे उन राजनेताओं की अग्रिम पांत  में   थे जो सोचे हुए को एक सीमा तक करते  हैं । सोचते तो बहुत लोग हैं पर उसके अनुरूप ज्यादा कुछ कर नहीं पाते । अब तो राजनीति में एक बहुत बड़ी जमात न सोचने-समझने वालों की है । जो अपनी जाति  और मजहब के समीकरण से पैदा हुई है ।नेहरू के होने से लगता था कि राजनीति जंगल नहीं  है और न ही उसमें भेड़ियों की फ़ौज है । नेहरू के होने से अहसास होता था कि देश के  बहुलतावादी चरित्र  और संस्कृति पर आंच नहीं आने वाली है ।नेहरू के होने से लोकतंत्र को समझा जा सकता था । नेहरू की उनकी  अपनी सारी सीमाओं के बाद भी राजनीति से घृणा नहीं , प्रेम करना सीखा जा सकता था । उनकी जयन्ती पर उनको  प्रणाम । काश, उनकी विरासत की राजनीति को आगे ले जाया जाना हो पाता और देश को आवारा पूंजी के हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता ।    

Tuesday 12 November 2013

आज १ ३  नवंबर महाकवि  मुक्तिबोध का जन्म-दिवस है --१ ९ १ ७ में जब रूसी क्रांति कुल जमा छः  दिन पहले ही हुई थी , मुक्तिबोध इस दुनिया में आये थे । ऐसे लोगों के आने से दुनिया नहीं तो देश-प्रदेश के महासागर में हलचल मच जाती है । मुक्तिबोध साहित्य की एक ऐसी विरल  और विलक्षण  तरंग हैं ,जो आज भी मन को वैसे ही विचलित कर देती हैं जैसे देश को आज़ादी  मिलने के बाद के दिनों में ।मुक्तिबोध समय के  एक ऐसे संधिस्थल  पर थे जब जीवन जीने के रास्ते दो दिशाओं में फट रहे थे । एक रास्ता सत्ता की ओर जाता था , दूसरा जन की ओर । कहना न होगा कि मुक्तिबोध ने समय से कोई समझौता न करके दूसरा रास्ता चुना था । यह दूसरा रास्ता अभावों, कष्टों , पीड़ाओं , तनावों , त्रासदियों और बेचैनियों-उपेक्षाओं-तिरस्कारों का रास्ता था , जो गरीब मेहनतकशों का हर जमाने में हुआ करता है ।उन्होंने सत्ता की बजाय देश के गरीब, उत्पीड़ित-शोषित-दलित मेहनतकश वर्ग के साथ रहने का रास्ता चुना था और वह भी बहुत सोच-विचारकर । चाहते तो वे भी पहली दिशा में आसानी से जा सकते थे ।  मुक्तिबोध अपनी स्थिति को अच्छी तरह जानते थे कि उनका अपना वर्ग निम्न -मध्यवर्ग है ,जो प्रतिरोध करता है किन्तु अपने पूरे बचाव के साथ ---वह अपनी नियति मानता है कि उसे एक अवसरवादी जीवन जीना है । कुछ सुविधाओं के साथ सत्ता के दम्भ और उत्पीड़न से टकराते रहने का जीवन । पुरस्कारों, सम्मानों से विरक्ति रखने का जीवन ,,चाटुकारिता और चापलूसी से खुद को बचाते रहने का एक ऐसा जीवन , जिसमें एक मूल्य-पद्धति अलग से नज़र आए । वे पीछे से मराठी थे किन्तु उनके परदादा तत्कालीन ग्वालियर रियासत में नौकरी करने आ गए थे ।  दादा जी ने तत्कालीन राजपूताने की टौंक रियासत में नौकरी की थी । पिताजी ग्वालियर  रियासत के  श्योपुर कलां कस्बे  के थाने  में थानेदार थे । इसी कस्बे  में उनका जन्म हुआ था ।संयोग रहा कि मुझे १ ९ ७ १ में इस कस्बे के एक सरकारी कालेज में हिंदी का अध्यापक होने का सुखद अवसर मिला । यहाँ मुक्तिबोध के बारे में नज़दीक से जानने  का अवसर मिला । संयोग कुछ ऐसा रहा कि जिस थाने में मुक्तिबोध के पिता  थानेदार थे , उसी जगह पर उस समय एक और कवि--थानेदार आ गए , जिनसे हम कुछ लोगों की ऐसी पटरी बैठी कि उस थाने  के भीतर कवि-गोष्ठी करने का कभी-कभी अवसर मिल जाता था ।माहौल कवि-गोष्ठी, मुशायरा और कभी कभी कवि-सम्मलेन का बन जाता था । बंगला  देश बनने के दिन थे , जवानों में जोश की कमी नहीं थी । मुझे ध्यान आता है कि थाने  के सामने के मैदान पर एक कवि-     सम्मलेन  खूब जमा था , उसमें गीतकार वीरेंद्र  मिश्र , मुकुट बिहारी सरोज आदि  आये थे , उस समय मुझे भी तुकबंदी करने का जोश रहता था । थानेदार जी कविता के इतने शौकीन थे कि गश्त पर जाते तब भी साथियों को अपने साथ ले जाना नहीं भूलते । मुक्तिबोध समझ में नहीं आते तब भी जबान पर रहते । आखिर उनकी जन्म-स्थली थी और हम  इस बात में फूले नहीं समाते थे कि हम उसी नगर में रह रहे हैं जिसमें कभी मुक्तिबोध रहते थे । इस समय तक मुक्तिबोध को गुजरे हुए कुल सात साल ही बीते थे । "चाँद का मुंह टेढ़ा है " के चर्चे चल निकले थे पर यह समझ से बाहर था कि चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है ? बहरहाल , कविता की ऐसी मस्ती के दिन, जिनमें आवारागर्दी  भी शामिल थी , बाद में भी आए तो सही पर वैसे  नहीं  । हंसना और खेलना खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद ----का माहौल था । मैं इस नगर में केवल एक साल रहा । चम्बल को नाव से पार करके श्योपुर  जाना पड़ता था और उस समय डाकुओं का भय भी रहता था ।दूसरे , मेरा चयन राजस्थान की कालेज शिक्षा सेवा के लिए भी हो गया था । लेकिन आज तक भी श्योपुर  मेरे जीवन का एक आह्लादक अध्याय बना हुआ है ।एक पहाड़ी  किले में कालेज और सीप नदी का किनारा  । पैदल जाना-आना और मराठी परिवारों के साथ जुगल बंदी । बार बार आती है मुझको  मधुर याद श्योपुर की । 

Monday 11 November 2013

 अतिरिक्त पूंजी धर्म-मजहब को अपनी दाहिनी भुजा की तरह इस्तेमाल करती है । फिर सब कुछ गड्मड्ड हो जाता है । बदसूरत , खूबसूरत लगने लगता है और खूबसूरत, बदसूरत । यही तो कला है आवारा पूंजीवाद की , जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान मिटा दी जाती है । इस कला में जो मिसफिट है ,वह --कालोहिनिरवधि विपुला च पृथ्वी ----का इंतज़ार करता है ।
राजनीति पर  लिखने की इच्छा
सुबह के सूरज की तरह
उगती है पर
जब देखता हूँ कि
मेरे अपने नगर-कस्बे  और गांव में
कूड़े के ढेर पड़े हुए हैं
गरीबी के रेगिस्तानों में
दूर तक कुए नज़र नहीं आते
टमाटर ८ ० रपये किलो तक बिक रहा है
और उम्मीदवार करोड़ों से अरबों तक
अपनी सालाना कमाई बता रहे हैं
विवाह समारोहों में झूठ में  बचे  खाद्यान्न -
मिष्ठान्न को 
कुत्ते भी नहीं सूंघ रहे हैं
मेरा पड़ौसी हर साल अपनी कार बदल रहा है
एक अमीर अपनी बीबी के जन्म दिन पर
हेलीकाप्टर गिफ्ट कर
मेहनती  दाम्पत्य की मजाक उड़ा रहा है
अवैध कारनामों की पतंगों के पेच
लड़ाए जा रहे हैं
शक्ति-सत्ता के केंद्र गिद्धों की तरह
अपने पंख फुला रहे हैं
अतिरिक्त पूंजी के पहाड़
श्रम की सरिता का रास्ता रोके खड़े हैं
तो मेरी इच्छा को दबोच लेता है
एक तेंदुआ कहीं जंगल से बस्ती में घुस कर
तब मैं एक जंगल हो जाता हूँ
बस्ती नहीं रहता । 

जो बुढ़ापे में फ्यूडल रहता है , जवानी भी उसकी बहुत क्रांतिकारी नहीं होती । अति बुढ़ापे को तुलसी ने  --शव-- के समान जीना माना  हैं । यदि जवानी अपनी नियति में क्रांतिकारी होती तो हमारा देश आज उसी मंजिल पर होता । जवानी की कोई कमी हमारे यहाँ नहीं हैं , लात मारें तो जमीन से पानी निकल सकता है पर बेरोजगारी के मारे क्या करें, कहाँ जाए , सोच तक नहीं पाते ?
आलोचक की जेब में कविता का भण्डार ।
डूब जाय तो पार  है , पार जाय तो पार ।
हमारी शब्दावली में 'लोकतंत्र ' ने कुछ नयी अवधारणाओं को विकसित किया है । उनमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसी दो सामाजिक संरचना सम्बन्धी अवधारणाएं हैं ।इनमें गरीब-शोषित को एक नागरिक की बजाय उसके सामाजिक-मजहबी तौर पर देखने का रिवाज़ तेज़ी से चल पड़ा है और यह चुनावों के समय ख़ास तौर से उभर कर आता है जब कोई हिन्दू-हितों का पैरोकार बनकर ताल ठोकता है तो कोई  मुसलमानो का । ऐसा लगता ही नहीं कि हम भाई भाई हैं ,भले ही हमारी जीवन पद्धति कुछ मामलों में भिन्न हो । गरीबी, त्रासदी और पीड़ा दोनों जगहों पर है क्यों नहीं ऐसा निजाम बने जो गरीबी और शोषण के विरुद्ध काम करे । जड़ को सींचने से पूरे पेड़ को पानी मिल जाता है ।   जो गरीब अल्पसंख्यक के साथ है वही बात गरी बहुसंख्यक के साथ भी तो है । दोनों की इंसानियत का रूप एक ही तो है । भेद-भाव  अल्पसंख्यकों के साथ तो है ही , किन्तु समग्र रूप में यह देश के पूरे गरीब मेहनतकश वर्ग के साथ है । अल्पसंख्यक--बहुसंख्यक  की अवधारणा   को प्रचार के द्वारा  वोट ध्रुवीकरण का एक वैसा ही  जरिया बना दिया गया  है जैसे  अपने शिकार को जाल में फंसाने के लिए बहेलिया अपना जाल फैलाकर बनाता  है ।  हिन्दू गरीब-शोषित और मुस्लिम गरीब-शोषित में क्या फर्क है ? मुझे आज तक समझ में नहीं आया , जबकि जैसे राजे -महाराजे हिंदुओं में थे वैसे ही नबाव-जमीदार मुसलमानो  में भी थे । शोषक -उत्पीड़क वर्ग   अपनी जात और मजहब का उपयोग शोषितों के  हित में न करके अपनी सत्ता को येन केन प्रकारेण सत्ता  हासिल करने के लिए करते हैं । और सत्ता  पा लेने के बाद " तू तेरे और मैं मेरे " करते हुए असहाय को ठेंगा दिखा देते हैं । पता नहीं ,  गरीब , शोषित मेहनतकश वर्ग के कब यह सच समझ में आयगा कि , जब वह खुद को केवल और केवल एक इंसान के रूप में देखेगा ?इस मौके पर मुझे मशहूर शायर जौक का एक शेर याद आ रहा है -------
                                                                                              दीनो -ईमां ढूँढता है ,जौक क्या इस वक़्त में
                                                                                             अब न कुछ दीं ही रहा ,बाक़ी न ईमां ही रहा ।   

Sunday 10 November 2013

बढ़ रही है दौलत
बढ़ रही हैं तौंद
बढ़ रही हैं दीवारें
खिंच रहीं तलवारें
पर यह दुनिया मेरी नहीं
मेरी दुनिया में वे मेहनतकश हैं
जिन्होंने दुनिया बनाई है
जो  प्रजापति हैं ,जुलाहे हैं
सड़क बनाने वाले हैं रास्ता सुलभ कराते
हम तब ही कुछ चल पाते
आगे बढ़ पाते
जो फसल उगाते
मेरा पेट भर जाते
यह दुनिया  उन्ही की बनाई है
मेरे मन भाई और
मेरे मन में समाई है ।
यही है मेरी दुनिया
मुझे पता नहीं तुम्हारी कौन सी है ? 
न इतिहास की परवाह
न भूगोल की चाह
संस्कृति का बंटाधार
नीति केवल इश्तिहार
आचार संहिता का मिथ्या भय
बोलो भाई लोकतंत्र की जय 

जाति और वर्ण-तंत्र  , मजहब, चुनाव , नेता, पूंजी, पितृ-सत्ता  और बाहु बल से बनता है हमारा  " लोकतंत्र " ।गरीब मतदाता का भी एक दिन होता है , । यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है । संतोष के लिए मजहबी तंत्रों से तो लाख गुना बेहतर है ।  इस तरह के लोकतंत्र की  विकास दर निकालें तो दुनिया में हम नम्बर  एक होंगे । चलो कहीं तो हैं हम नंबर वन ।सामंती तंत्रों से , निस्संदेह कई कदम आगे ।  इसमें हमारा शिक्षा तंत्र भी पीछे नहीं रहता । 'संस्कृति' इस जुलूस में सबसे आगे चलती है । इन दिनों तमाशे के दिन फिर आ गए हैं । चलो तमाशा देखें और अपनी तरह से हिस्सेदारी करें । बदलते और गलती करते कुछ न कुछ नया होता ही है । आदर्श जैसी चीज एक दिन में नहीं बना  करती ।

Saturday 9 November 2013

विजय दान देथा और कोमल कोठारी ये राजस्थान की दी ऐसी सांस्कृतिक विभूतियां रही हैं , जिन्होंने संस्कृति को उसकी जमीन से जाना है , आकाश से नहीं । धरती से आकाश की ऊर्ध्य यात्रा इनके यहाँ रही है , जो इंसानियत के लिए नए दरवाजे खोलती है और पुराने को इतना नया बना देती है कि दोनों का फर्क ही मालूम नहीं पड़ता । कोमल जी पहले चले गए अब यह दूसरी कड़ी भी विदा हो गयी । संयोग रहा कि रात को ही गाज़ी खान मांगणियार के बाद राजस्थान की शख्सियतों में देथा जी के बारे में एक चेनल पर सुना । देथा जी के जाने से लोक -साहित्य और संस्कृति का एक अध्याय खाली हो गया है । भविष्य में उनका काम ही भविष्य की पीढ़ियों के काम आयगा । विनम्र श्रद्धांजलि ।
आज  फिर से वे ताकतें सक्रिय  हैं जो अंधविश्वासों को राजनीति के आँगन के पालने में झुलाती हैं और लोग उनको बच्चों की तरह सहेजने लग जाते हैं ।  " संस्कृति" को जबसे सम्प्रदाय वादियों के हाथों में सौप दिया गया  है तबसे जनता में यह सन्देश गया है कि ये ही  संस्कृति के रखवाले हैं । संस्कृति का एक रास्ता धर्म-मजहब की गलियों से होकर जाता है । इसलिए  संस्कृति एक ऐसा मैदान बन जाता है  है जहां अंधविश्वासों की खेती आसानी से की जा सकती है । 
यह मेरी  सफलता है कि
सब नहीं चाहते मुझे 
चाहना मुमकिन भी नहीं
तुम जहां हो
वहाँ नदी बहती है
और मैं जहां हूँ
वहाँ रेगिस्तान है
रोज कुआ खोदता हूँ
 पीता  हूँ पानी
तुम्हारा एक आकाश है
और मेरे पास धरती का बिछोना तक नहीं
तुम्हारे पास एक दुनिया है
मेरे पास अकेलापन
तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाने वाले लाखों हैं
मेरे पास गिनती के दो भी नहीं
तुम चौधरी हो
न्याय की वल्गा तुम्हारे हाथ में है
मैं हूँ सबसे बड़ा मुजरिम कि
मेरे पास सिर्फ और सिर्फ मेरा जिस्म है ।

Friday 8 November 2013

कविता में जनपद उसकी धरती की तरह होता है ।  जो अपने जनपद का नहीं है वह दूसरों का होने का झूठा दावा करता है ।जनपद में जन और पद दोनों मौज़ूद हैं ।  प्रतिज्ञा का पहला इम्तहान उसी धरती-खंड पर होता   है जिसके ऊपर रोज हमारे पाँव पड़ते हैं ।यहीं से व्यक्ति अपना व्यक्तित्व विस्तार करता है और वहाँ तक जाता है जहां मानवता का छोर समाप्त होता है । इस प्रक्रिया में सारी दीवारें ढहती  जाती हैं ।एक भी दीवार बनी रहे तो समझो अभी कच्चापन है ।  
रेखा चमोली  की कवितायेँ उनके दिल से निकलती हैं नदी की तरह और बाहर आकर पहाड़ जैसी हो जाती हैं । उनमें जीवन का जितना विस्तार और गहराई आयगी , वे कविता के भविष्य में रंग भरने वाली कवयित्रियों में जगह पाएंगी ।

Thursday 7 November 2013

जरूरत

नदी जैसे पहाड़ों -
बीहड़ों में अपना रास्ता
बना लेती है
आकाश जैसे
हवा को अपनी गोदी में झुलाता है
सूरज जैसे धरती का अंधियारा मिटा
उजियारा बिखेरता है
चिड़िया अपनी चौंच का चुग्गा
अपने शिशु के मुख में
डालती है जैसे
गाय करती है
हेज़ अपने बछड़े
बछिया का
नहीं चलता यह राज पथ वैसे ही


जो कहीं
किसी स्तर पर
किसी रूप में
बैठा है समय की ऊंची-नीची सीढ़ियों पर
क्रान्ति उसकी जरूरत में शामिल नहीं


उसकी यात्रा जरूरत के पथ पर होती है
बशर्ते कि जरूरत समझी जाए
वह अपनी मंजिल तभी पाती है
जब एक नदी की तरह हो जाती है । 
सबसे पहले रेखा चमोली  को उनके जन्म-दिन पर बधाई, मुबारकवाद । रेखा स्वयं में एक ऐसी संज्ञा है , जो पृथ्वी की विविधता में उसकी सीमाओं को दर्शाती हुई उसके ताने-बाने से बनी  रिश्तों की गर्माहट से हमारा परिचय कराती है । कविता उनके यहाँ बनती नहीं , उपजती है जैसे बीज धरती से उपजता है । उपजने में कला का संयोजन नहीं करना पड़ता ,वह शब्द-व्यवहार के साथ ,-संग लगकर चली आती है । उसके पीछे रहते  हैं  कवयित्री के  व्यक्ति-समाज से उसके टूटते-बनते रिश्ते नाते , उसका क्रोध, उसकी करुणा , उसकी आकांक्षाएं ,उसका इतिहास , उसका भूगोल-,प्रकृति , उसकी उंच-नीच और इन सभी के बीच से पैदा हुए वे सरोकार , जो आदमीयत के लिए हर काल, हर युग,हर समय और हर स्थिति में जरूरी होते हैं । उनके अभाव में रेखा जी का मन कभी क्षोभ तो कभी आक्रोश का इज़हार करने से नहीं चूकता । यहाँ एक ऐसी स्त्री का चेहरा है , जो मानवता को अपनी धुरी बनाता है और पितृ-सत्ता की प्रधानता के काले रंग में डूबे समाज की भीतरी करतूतों को उजागर करता है । उसे कहीं से आश्वस्ति मिलती है तो वह है  प्रकृति की गोद ,जहां एक अनाम नदी बादलों के पास सागर का संदेसा पाकर दौड़ी चली जाती है । काश , ऐसे ही समाज के लोग भी किसी दुखी का संदेसा पाकर दौड़े चले जाते । यहाँ प्रकृति रूपकातिश्योक्ति की तरह आती है , जहां बादल ,नदी ,पर्वत , आकाश ,घाटियाँ और जंगल ही नहीं होते वरन इनके साथ बस्तियां भी होती हैं ।
                  रेखा जी ने कविता को लगातार अपनी बातचीत की लय में साधा है । वे कविता नहीं , अपने पाठक से सीधे संवाद करती हैं जैसे स्कूल में अध्यापिका अपने विद्यार्थियों से ।  इस बीच में जहां उनको अपनी सलाह देनी होती है , उसे बेझिझक देती हैं । एक बहुत खुली  और उमंग भरी स्त्री से यहाँ हमारा परिचय होता है , जो सारी उपेक्षाओं के बावजूद अस्तित्त्ववादियों की तरह टूटी-बिखरी नहीं है । उन्हें विशवास है कि जब चीजें यहाँ  तक आई हैं तो आगे भी जाएंगी । यह जीवन-यात्रा यहीं तक रुकने वाली नहीं है । क्योंकि उन्हें पता है -----कि प्रेम में /चट्टानों से भी घास उग आती है / और पेड़ की टहनी कलम के रूप में फिर से उग आती है । प्रेम ही उनका जीवनाधार है और यह इतना उदात्त है कि इससे सब कुछ बदला जा सकता है । हो बशर्ते प्रेम । जब हवा का बहना नहीं रोका जा सकता ,बीज का अंकुरित होना नहीं रोका जा सकता , फूलों का खिलना नहीं रोका जा सकता तो फिर ----
        कैसे रोक पायेगा /संसार की श्रेष्ठतम भावना /प्रेम का फलना - फूलना /

Wednesday 6 November 2013

शोभन सरकार वह जो आपकी दिशा भटका दे और आपको कहीं का न छोड़े । शोभन सरकार वह जो आपके व्यक्ति  को मिथ्या भ्रमजाल में फंसा दे । मछेरा अपने कांटे में छोटी मछली का एक टुकड़ा फंसाता है , तभी बड़ी मछली पकड़ में आती है ।सावधानी ही यहाँ सबसे बड़ा बचाव है , कितने ही सरकार अपना जाल लिए यहाँ घूम रहे हैं ।
जो जितना सीधा होता है , वह अपना नाश कराता है
देखो तो सीधे गन्ने को कोल्हू में पेरा जाता है
                                                    राधेश्याम रामायण

Tuesday 5 November 2013

विज्ञान पर  अंध- आस्था भारी न होती तो हिंदुस्तान कभी गुलाम नहीं होता । गुलाम वही होता है जो जीवन-सरिता के प्रवाह के समक्ष  आस्था के पहाड़ खड़े करके उसके सहज मार्ग को अवरुद्ध करता है ।
ओछे आदमी की फितरत होती है कि वह किसी विधा में ख्यात हुए व्यक्ति में एक अवतार खोजने लगता है । वह जानता नहीं कि सभी व्यक्ति माटी-चून  के बने होते हैं । अपने से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति तो कभी कभी पैदा हुआ करता है । विडम्बना यह है कि ऐसा वे लोग ज्यादा करते हैं जो हर कदम पर अपनी चाल के गीत ही गाते देखे जाते हैं ।जो अच्छा कलाकार है जरूरी नहीं कि जीवन-व्यवहार और सोच में वह बहुत दूर की सोच पाए । वह अपनी स्वार्थबद्धता से मुक्त नहीं हो पाता । मंगल यान अभियान  में बड़े बड़े वैज्ञानिक  लगे हैं लेकिन उनमें ऐसे भी हैं जो अपनी सोच में विज्ञान से कोसों दूर हैं । विज्ञान अपनी जगह और व्यवहार अपनी जगह । कला अपनी जगह  और सोच अपनी जगह । यही विडम्बना है जीवन की । मशहूर शायर जौक का एक शेर है----
                                         आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
                                           कितना तोते को पढ़ाया , पर वो हैवां ही रहा । 

Monday 4 November 2013

आज बड़ी भैया दूज है , होली के बाद वाली छोटी भैया दूज होगी । जैसे रमजान के बाद की ईद ,बड़ी ईद होती है और बकरीद छोटी । आज के दिन भाई अपनी बहिन/बहिनों  के घर जाकर भोजन करता है और तिलक करवाकर उसे दूज की विदा के  रूप में कुछ रुपया -पैसा वस्त्र-आभूषण अपनी सामर्थ्य के अनुसार  देता है ।जहां भाई नहीं आ पाता वहाँ स्वयं बहिन ही भाई के घर यानी अपने पीहर जाकर इस रस्म को पूरा करती है ।  हमारे यहाँ बहिन-भाई का रिश्ता कुछ ऐसी ही भावात्मक डोर पर चलता रहा है । यद्यपि आज की लोभ-लाभ वाली दुनिया में इस धागे की  मजबूती पर असर हो रहा है । पैतृक संपत्ति में से भाई के माध्यम से कुछ न कुछ बहिन को देते रहने और सम्बन्ध की निरंतरता के लिए ऐसे विधान सामंती व्यवस्था के अंतर्गत किये गए । जो हमारी सामाजिक - आर्थिक - सांस्कृतिक संरचना में आज भी बने हुए हैं । इससे रिश्तों की दुनिया बनी रहने की सामूहिकता का फायदा ही फायदा है । इसके पीछे की एक कहानी है जिसे महिलाएं एक लोक-कथा के रूप में आज भी कहती और सुनती हैं । श्रीमती जी से यह कहानी आज मैंने सुनी  , वही लिख रहा हूँ । दीपावली के कुछ दिनों बाद की ही बात होगी कि एक बहिन अपने भाई के विवाह में जा रही थी । रास्ते में एक जगह पर उसे प्यास लगी , थोड़ी दूर चलने पर उसे एक कुआ नज़र आया । कुए पर एक बाल्टी और एक  नेजू पडी हुई थी और वहाँ पानी पिलाने वाली एक बुढ़िया बैठी हुई थी । बुढ़िया से उसने पानी माँगा और इसी क्रम में उन दोनों की बातचीत होने लगी । बुढ़िया के पास भविष्य -दृष्टि थी ,जिससे वह आगे की बातों को जान लेती थी । उसने बुढ़िया को दादी बना लिया और अपने  और भाई के भविष्य के बारे में पूछा । दादी बुढ़िया ने उसके अनुरोध  करने पर बताया कि तुम्हारे भाई का भविष्य अच्छा नहीं है यदि तुमने उपाय नहीं किया तो वह विवाह की वेदी पर ही ख़त्म हो जाएगा । उसे सांप डस लेगा । जब एक बड के पेड़  के नीचे से उसकी बरात निकलेगी तो वह पेड़ उसके ऊपर गिर सकता है , इसलिए तुझे अपने भाई को बचाने के उपाय करने होंगे । वह अपने घर पंहुची तो उसने एक पागल जैसा स्वरुप धारण कर लिया और विवाह के हर काम में अडंगा लगाने लगी । उसने दरवाजों को अपने अनुसार बनवाया और स्वयं बरात में जाने की जिद की , जब कि उस समय स्त्रियाँ बारातों में नहीं जाती थी । वह जिद करके अपने भाई की बरात में गयी । और रास्ते में पड़ने वाले पेड़ के नीचे से बरात को निकलने से रोका । जैसे ही बरात उस पेड़ के नीचे से निकली वह पेड़ धड़ाम से गिर पड़ा , किन्तु दूलह और  बरात को कोई नुकसान  नहीं हुआ । बरात जब बेटी वाले के गाँव पहुची तो उसने अपने दूलह भाई को उन दरवाजों के भीतर निकलने से बचाया जो गिरने ही वाले थे । वह फेरों के समय वर-दुल्हन के पास बैठी रही जहां उसने सांप से अपने भाई को बचाया । बरात के वापस आने पर वह अपने भाई-भावज के बीच जिद करके सो गयी और रात को जब एक सांप उसके भाई को डसने आया तो उसने उसके ऊपर पिटारी दाल दी । यहाँ भी उसने भाई को विपत्ति  से बचा लिया । इस से बहिन की भूमिका का पता सबको चल गया । इससे बहिन ,भाई की रक्षक और विपत्ति में काम आने वाली सिद्ध हुई । तभी से बहिन-भाई का पवित्र रिश्ता और मजबूत हो गया और यह हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया ।




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'रसिया 'ब्रज का एक मधुर लोक - काव्य रूप है , । आज गोवर्धन पर्व पर भाई मूल चंद  गौतम ने इस सन्दर्भ में एक रसिया --"-ना मानै मेरो मनवा , मैं तो गोवर्धन कू जाऊं मेरे बीर " -----उद्धृत करके उस जमाने की याद दिला दी जब ---पांच आने की पाँव जलेबी आया करती थी और मेलों में महिलायें उनको खाने के लिए ही जाया करती थी । वर्त्तमान की दुर्गति में अतीत कितना मोहक बन जाता है । यह उस समय की बात है , जब रुपया, आना ,अधन्ना, पैसा,पाई और धेला  चला करते थे । 

Sunday 3 November 2013

शुभकामनाएं
घर-परिवार और देश
दुनिया के लिए 
कि चैन से रह सकें
कोई बाधा न हो
किसी के मग में
जगमग हो दीप
दीप की कतारें
जगमग हो
जीवन अपना
आपका और सबका ।
                       जीवन सिंह 
दीपावली के दूसरे दिन ब्रज में गोवर्धन पर्व मनाया जाता है । यहाँ मथुरा के आसपास दूर तक कोई पर्वत नहीं है गोवर्धन पर्वत के सिवाय---इसे यहाँ गिरि -राज कहा जाता है ।गिरि राज महाराज का जयकारा यहाँ का प्रमुख जयकारा है ।   जब कृषि-क्षेत्र का विस्तार हुआ और खेती के लिए गोधन की जरूरत पड़ने लगी तो जिंदगी को पर्व में बदलने वाले समाज ने अपनी प्रकृति, पहाड़ , नदी ,पशु-पक्षी सबको अपने ह्रदय का हिस्सा बना लिया । इस रोज पशुओं---खासकर बैलों , गायों को नहला धुला कर उनका श्रृंगार किया जाता था । मोरपंखों से माला बनाकर सजाया जाता था । घर को समृद्धि प्रदान जो करने वाले थे । समृद्धि, संस्कृति का अंग बनती  जाती है बशर्ते कि लोभ-लालच का फैलाव उसके साथ न हो । ब्रज की संस्कृति ऐसे ही बनी और विकसित हुई है , जिसे वल्ल्भाचार्य, चैतन्य ,मीरा और सूर एवं अष्टछाप के कवियों ने भावात्मक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किया । आज उसकी स्मृति का आयोजन है यद्यपि उसका रूप जमाने के अनुरूप बहुत बदल चुका है । इसी के लिए रसखान ने कहा था ---"-मानुष हौं तो वही रसखान , बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । "

Saturday 2 November 2013

ब्रज में दीपावली के दिन दीप-दान किया जाता है । पहले दीपक की शुरुआत  अपने घर से नहीं आस-पड़ोस से होती थी  । मैं तुम्हारे घर में चांदना करूँ, तुम हमारे घर में ।मिलना-जुलना , हंसी ठट्ठा करना , बुजुर्गों का आदर करना ऐसे ही सीखते थे । पूंजी जन्य विषमता की अकड़ कुछ लंठ किस्म के लोगों में होती थी । बूढ़ी दादियों , ताइयों  , काकियों , भाभियों  के नातों को जानते थे । ईद की तरह दीपावली पर भी नए कपडे सिलवाने का रिवाज था । बाज़ार में बहुत खरीददारी का ऐसा रिवाज नहीं था कि अब पुष्य नक्षत्र लग गया है ---खरीददारी करो । पुष्य नक्षत्र की बात जायसी के --पद्मावत ---में अवश्य पढ़ी थी --"-पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिन नाह मंदिर को छावा । " इससे बरसात होने का अर्थ निकलता था । शायद अब धन की बरसात होने का निकलता है ।
अभी कविवर महेश पुनेठा की पहाड़ी जीवन की लय वाली दीवाली पर एक भावसम्पन्न कविता पढ़ी । पहाड़ी खेतिहर दीपावली का रंग इसमें खूब जमा है । पहाड़ में दीपावली का मूल बचा हुआ है यह पढ़कर राहत मिलती है अन्यथा हमारे यहाँ वह उपभोक्ता-वाद के रंग में ऐसी रंग गयी है कि इसके अलावा ---हैप्पी दिवाली- शब्द भर हैं , उनमें प्राण और उमंग नहीं कि मन बल्लियों उछाल  मार सके । दीवाली पैसे वालों की  होती है । आज के दिन भी घरों में झाड़ू-पौंछा लगाने वालियों से पूछें  कि उनकी दीवाली कैसी रही ? एक तरफ बीस- बीस ----,पचास-पचास हज़ार से भी ज्यादा के पटाखे फोड़ दिए जायेंगे , जो वातावरण को भी  नुकसान  पहुंचाएंगे और दिखावे को आसमान तक चढ़ा देंगे ।इसके विपरीत  सादगी का जो आनंद है , वह दीवाली की भावना  को दूर तक विस्तृत करता है ।धन की दीवाली उसे सिकोड़ती है ।हमारे यहाँ यह गांव के बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेने के लिए मनाई जाती थी वह भी समानता के रंग में । उसमें विषमता का काला रंग नहीं होता था , आज इसमें गहरा काला रंग भरा जा रहा है । एक अजीब तरह के अंधविश्वास को आदमी के मन में भीतर तक घुसाया जा रहा है ।   कवि महेश पुनेठा के  यहाँ की पहाड़ी संरचना में उसका खेती-किसानी वाला रूप बचा हुआ है । उसी की प्रफुल्ल लयकारी  उनकी  कविता में है और उसकी भाषा का अपना बेहद अनुभूतिपरक मिज़ाज़ ।बाज़ार में फंसे लोगों के लिए यह --नोस्टैल्जिआ जैसी हो सकती है ।  इस माधुर्य के लिए बधाई , यह हमारे लिए दीपावली के व्यंजनों की तरह है । हार्दिक बधाई ।

Friday 1 November 2013

विकल्प की बात सही है पर सार्थक विकल्प के अभाव में जीवित मक्खी भी तो नहीं निगली जा सकती । मतदाता के रूप में हर व्यक्ति एक स्वतंत्र मतदाता है , फिर चाहे वह कितना ही बड़ा कलाकार क्यों न हो ? यहाँ सब बराबर हैं । हमारी अपनी राय ही हमारा सबसे बड़ा विकल्प है , पहले सही राय तो बनाइये , विकल्प भी बनेगा , फिलहाल अल्पमत ही सही ।
हमारे यहाँ एक कहावत है कि --" -धन का भैंसा कीचड में लोटता है ।"
गहरा अन्धेरा है चहुँ ओर
खाई-खंदक इतने गहरे
और डरावने कि
नायक और खलनायक के
चेहरों में कोई फर्क नहीं

यह अश्वमेध का युग नहीं
फिर भी एक
घूम रहा है
और ऐसा लग रहा है कि
हम पांचवीं सदी  में आ गए हैं
खजानों के सपने देख रहे हैं
नेता को अवतार बना रहे हैं
ऐसे अँधेरे से दीपावली के
छोटे  छोटे दीये 
बाहर नहीं निकाल सकते
बस शुभकामना की जा सकती है
---तमसोमाज्योतिर्गमय ।
कलाकार अपनी कला में दक्ष हो सकता है , जरूरी नहीं कि  जीवन-सम्बन्धों की उसकी  दृष्टि और राजनीतिक नज़रिया भी उतना ही बारीक ,व्यापक और गम्भीर हो । स्वाधीन समाज में सब अपनी राय दे सकते हैं और इच्छा भी व्यक्त कर सकते हैं । कलाकार यदि बुनियादी जीवन-सरोकारों के पास नहीं है और वह दूर से ही चीजों को देखता है तो दूर के ढोल सुहावने लग सकते हैं ।दूरी और सचाई के बीच एक खाई रहती है । 
लो अब ये भी
'अपने' हो गए
इनकी मूर्ति  बनाएंगे
सवाल  यह है कि
इसमें  प्राण
कहाँ से डाल  पाएंगे ?
तेल और बाती
माटी से मिलकर
करते हैं उजाला
क्यों नहीं सीख पाता
आदमी कि
मिलकर ही होता है
प्रकाश , जब तरह तरह के लोग
मिलते हैं तो सेतु बन जाता है
           प्रकाश पर्व पर शुभ कामनाओं के साथ