Tuesday 24 September 2013

यह मनुष्य ही है जिसके पास भाव और चिंतन दोनों की उच्चतम और संश्लिष्ट प्रणाली मौजूद है ।आजकल  एक उत्तर-आधुनिक चिंतन प्रणाली भी चल रही है जहां ध्यान रखने की बात यह है कि वह हमको मानवता के सही रास्ते से इधर-उधर भटकाती तो नहीं है ? आज भटकाव और ठहराव दोनों की ज्यादा चल रही है । जब तक हमारा चिंतन आज के मेहनतकश की तरफदारी में नहीं होगा ,तब तक भटकाव और ठहराव दोनों खतरे बने रहेंगे । तत्त्व-मीमांसा वह, जो हमको आज की मानवता अर्थात मेहनतकश से जोड़े । रहा अध्यात्म का सवाल आचार्य शुक्ल ने बहुत पहले ही इस धारणा का विरोध करते हुए लिखा है कि --"-आजकल अध्यात्म के चश्मे बहुत सस्ते हो गए हैं ।" वैसे अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है ----अपने से ऊपर उठना । अपने से ऊपर आप तभी उठ सकते हैं जबकि अपनी परवाह छोड़कर दूसरों की परवाह करें । दूसरे  कौन, जो सबसे ज्यादा मेहनत  करने के बावजूद , जिनको उसका प्रतिफल नहीं मिलता । उसे बीच का बिचौलिया हड़प जाता है ।

Monday 23 September 2013

नारी लता

प्रकृति तुमने भी
उसी प्रकृति को चुना
जिसे प्रकृति ने
अपने अनुरूप रचा
जैसे मोनालिसा को बनाया
विंची ने
जैसे नदियों में
हिमालय से उतरी सुरसरि
जैसे भारत में लड़ा गया
पहला मुक्तिसंग्राम ।

 नारी लता न होती
तो यह दुनिया रहने लायक नहीं होती ।
संत कवियों की बात को लोक जीवन में  इसीलिये जगह मिली क्योंकि वे  कथनी और करनी का अंतर अपने  जीवन-व्यवहार के स्तर पर  नहीं रखते थे और न ही अवसरवाद को काम में लेते थे । जीवन में उनके सामने भी यद्यपि दरबारी प्रलोभन थे किन्तु उनके जीवन-दर्शन ने उनको उनसे दूर रखा ।रीति-कवि उनके लालच में फंसे तो महान रचना नहीं कर पाए ।  अब का लेखक लोभ-लालच, पुरस्कार , पद के जाल में जाने-अनजाने फंस  जाता है । अब दरबारदारी दूसरे  तरह की है । निराला, त्रिलोचन,नागार्जुन ,प्रेमचंद ,मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा जी ने अपने उच्चस्तरीय नैतिकबोध के उदाहरण प्रस्तुत किये । वे आज भी अनुकरणीय हैं । उनके लेखन की  ऊंचाई उनके नैतिक बोध से निर्मित होती है ।

Friday 20 September 2013

यह विभ्रम बहुतों को रहता है कि यदि वे स्थानीयता से जुड़े रहेंगे तो राष्ट्रीयता और वैश्विकता  से अलग समझ लिए  जायेंगे ।  वे नहीं जानते कि व्यक्ति  एक समय में एक ही जगह पर रहता  हैं , । भौतिक तौर पर कभी व्यक्ति पूरे विश्व में नहीं रहता , वह उसके इतिहास , भूगोल और दर्शन से विश्व को समझने का प्रयास करता है । इन्द्रिय बोध की भी एक सीमा होती है । ऐसे ही भावों -विचारों की भी । लेकिन इन सबको वह निरंतर व्यापक,विस्तृत और गहरा बना सकता है और विश्व - स्तर तक पहुच सकता है । यह तो स्पष्ट है कि  , इन्द्रिय-बोध और भाव के स्तर पर पूरी मानव-जाति में समानता है , उसकी अभिव्यक्ति के रूप -भिन्न हो सकते हैं । ऐसा नहीं होता तो कालिदास , गेटे को समझ में नहीं आता और गेटे को शायद ही कोई दूसरी जाति -भाषा का व्यक्ति समझ पाता । वारान्निकोव , तुलसी का रूसी में अनुवाद क्यों और कैसे करते ? सवाल जीवन-दृष्टि का है कि आप उसे देखते कहाँ से और किस कोण से हैं ? कवि जिस जमीन पर होता है , वही उसकी असली जमीन है और वहां कहने को बहुत कुछ मौजूद है । जहां प्रकृति और जीवन-संघर्ष करता हुआ मनुष्य है , वहाँ सब कुछ तो मौजूद है । वहाँ किस बात की कमी है । जरूरत है उसे देखने और उद्घाटित करते हुए व्यापक बनाने की । महान रचनाकारों ने कभी अपनी जमीन छोडकर नहीं लिखा है ।
साम्प्रदायिकता , और वह भी वोट के दिनों में उग्रवाद का रूप धारण कर लेती है । उस समय उसके विरुद्ध यदि कोई अपना खुला और दो टूक मंतव्य व्यक्त करता है तो उसका बहुत बड़ा मतलब होता है । उससे वे ताकतें विचलित हो जाती हैं , जैसा इस मामले में हुआ है ।अनंतमूर्ति के वक्तव्य की मार भीतर तक हुई है । रही पलायन की बात , ऐसे समय में ऐसा कहना भी अर्थ रखता है । यह मेरी समझ है । "अतिथि देवो भव " तो सारी दुनिया में होता है । दूसरी जगह भी अतिथि को कोई नहीं पीटता । आखिर में मकबूल फ़िदा हुसैन को भी किसी ने तो अपने यहाँ रखा । हम किसी की रक्षा नहीं कर पाते ,तभी तो व्यक्ति अकेला पड़ जाता है ।

Thursday 19 September 2013

सर्जक होना ,
भोक्ता होने से
अच्छा लगता है
अच्छा लगता है जैसे
अमर बेल से
वृक्ष होना

अफसर -अहलकार होने से
अच्छा लगता है
खेत में फसल बोना

जैसे दलाल और नेता
होने से अच्छा लगता है
किसी बेलदार के संग नसेनी पर चढ़कर
दीवार पोतना ,
कतार में लगकर
रेल की टिकिट लेना
शयन यान में
सहयात्री से बतियाते
सुदूर यात्रा करना

सबसे अच्छा लगता है
सब कुछ होकर भी
आदमी होना ।
 कला के बिना जीवन अधूरा है । फिर चाहे वह शब्द की कला हो या रंग-रेखाओं की ।कला प्रस्तर को भी जीवन प्रदान करने की शक्ति रखती है । बशर्ते हो वह कला ----जीवन-सरिता की तरह प्रवाहित रहने वाली । 
अपने युवा कवि-मित्र और प्रिय भाई महेश पुनेठा  जी से निजी तौर  पर परिचित हूँ । गंगोलीहाट और पिथोरागढ़ दोनों स्थानों पर उनके साथ हवा-पानी और भोजन पाने का सुखद अवसर मिला है । पहली बार प्रिय मित्र और चर्चित कवि केशव तिवारी के साथ अल्मोड़ा से गंगोली हाट  तक । अरावली पर्वत श्रृंखला तो हमारे घर के बगल में ही है पर पहाड़  वास्तव में क्या होता है , यह पर्वतीय प्रदेशों के अनुभव से ही जाना जा सकता है । जब पहले एक रात हल्द्वानी में बितानी पड़ती है । पहलीबार हमको कविवर सुमित्रा नंदन पन्त , गांधी जी का अनासक्ति आश्रम तथा वहाँ से नज़र आते हिमशिखरों का अद्भुत नज़ारा --खींच कर ले गए थे । दूसरी बार प्रसिद्ध वामपंथी पत्रकार पंकज बिष्ट के साथ । तब मैं और महेश जी तिब्बत की चोटियों का नज़ारा दिखलाने वाली और कुमायूं अंचल की शिखरस्थ गिरि -श्रेणियां बेहद रोमांचित करने वाली थी । महेश जी के साथ निरंतर जारी रहने वाले संवाद ने इस भयप्रद यात्रा को बेहद रोमांचक बना दिया था । हम ---मुनस्यारी ----तक गए थे । वहीं मुझे  पता चला कि पहाड़ में निरामिष रहना कितना मुश्किल होता है । महेश जी ने मेरी निरामिष आहार की आदत के लिए कोशिश  करके मेरी क्षुधा को शांत किया । अद्भुत जगह है --मुनस्यारी । हम दोनों वहाँ शाम को सड़कों पर पैदल मन भर कर घुमते रहे । जैसे कभी विजेन्द्र जी के साथ मेरे अपने जिले भरतपुर के विश्व-प्रसिद्ध विहग -अभयारण्य   ---घने---में लगभग हर माह घूमने का आह्लादक क्रम चलता था । बहरहाल , महेश जी की कवितायेँ इसी जीवन के संघर्षों और सौन्दर्य-क्रियाओं का सहज दस्तावेज हैं । इनमें हिम-जीवन की ऊंचाइयों के साथ उन सरिताओं का प्रवाह भी है , जो अपने उदगम  की पावन चंचलता , क्षिप्रता और दुर्दमनीयता का आवेग बरकरार रखती हैं । महेश जी स्वभावगत सरलता का निर्वाह इनमें अलग से झांकता है । 

Wednesday 18 September 2013

जहां पूंजी का प्रक्षेपास्त्र काम नहीं करता वहाँ सम्मान-प्रशंसा के तीर- कमान काम कर जाते हैं  ।

Tuesday 17 September 2013

 नैतिक एवं मानवीय मूल्य हमारे जीवन - व्यवहार और आचरण से जुडी समस्या है , जो काव्य-सृजन का आधार है । इसीलिये  काव्य-साधना को जीवन-साधना से जोड़ा गया । हमारी भक्तिकालीन कविता जीवन-साधना का बहुत बड़ा उदाहरण है । जहां कवि लगातार अपना आत्मालोचन करता है । कबीर हमारे जीवन ,जीने के मानदंड भी हैं । जैसे निराला के बारे में त्रिलोचन कहते हैं ----"-मानदंड जीवन के , मन के । "
जिनके पास बिना मेहनत के कमाई आवारा पूंजी है , वे जो चाहें , जितना चाहें आदमी को खरीद सकते हैं । अब यह आदमी पर है कि वह कितना आदमी बनकर खडा रह सकता है । आदमी अभी संत नहीं कि --लोभ-लालच से ऊपर उठकर राम विलास जी की तरह उदाहरण पेश करे । आवारा पूंजी ने आज न जाने कितने दरख्तों को धराशायी कर दिया है ?

हाँ ऐसा होता है
हो सकता है
वह समय खत्म हुआ
जब ऐसा नहीं होता था
कहाँ  था दूर गाँव जिसमें
आग लगी थी
उसके बहुत पास ही तो
पुलिस खडी थी
शासन-प्रशासन सब मौजूद था
सरकार सन्नाटे भर रही थी
सब कुछ तो था जब बगल के घर में
आग लगी थी


गुजरात में ऐसा ही तो हुआ  था
घर के बगल आग लगी थी
अगल में तमाशा देखने वाले लोग थे
होता है ऐसा भी होता है
एक घर में आग लगती है
दूसरे  में तमाशा देखता है
या फिर उस आग में शामिल होता है ।

हाँ ऐसे लोग भी होते हैं जो
हथेली पर लेकर अपनी जान
कूद पड़ते हैं मैदान में
यहाँ भी तो ऐसा हुआ जब
संजीव बालियान  कूद पड़ा था
ललकारते हुए आग के दरिया में ।
मानवता की छाँह में
तब एक नवजात जन्म लेता है ।

Saturday 14 September 2013

दुनिया और समाज उसकी अर्थ-नीति से चला करते हैं । जब से नव-उदारवादी अर्थ-व्यवस्था लागू हुई , तभी से देश की अपने  भाषा -शिक्षण व्यवस्था की यह दशा हुई है । इससे पहले मिश्रित अर्थ-व्यवस्था के दिनों में ऐसा नहीं था । हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर लोग अंगरेजी भी सीख लेते थे । लेकिन जब से वैश्वीकरण की आंधी आई तभी से कैरियरिस्ट मध्य वर्ग इस दिशा की तरफ मुड  गया । निजीकरण ने इसको फायदे का सौदा बना दिया । बेरोजगारी की मार ने उनको सस्ते अध्यापक उपलब्ध करा दिए । राष्ट्र-राज्य की भावना में बदलाव आया । अब केवल गरीब वर्ग बचा है जो अपनी समस्याओं के चलते अपने बच्चों को हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूलों में पढाता है । इससे साफ़-साफ़ वर्ग-भेद नजर आता है । दरअसल , औपनिवेशिक काल की नीतियों में इस सन्दर्भ में कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं था । देश की अपनी भाषाओं में तेजी से विज्ञान-प्रबंधन आदि की शिक्षा का विस्तार करने की कोई योजना न तो मन से बनी और न ही इस दिशा में कोई बुनियादी काम हुआ । इसलिए विज्ञान-तकनीक आदि क्षेत्रों के ज्ञान के लिए अंगरेजी पर निर्भर रहना पडा । इसका परिणाम यह हुआ कि आज जो अंगरेजी माध्यम का विरोध करता है वह भी अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम से ही पढ़ा रहा है । 

Friday 13 September 2013

हमारी आधुनिक कविता में तो पश्चिम भी समाया हुआ है उसका क्या करोगे कल्पित जी ? अमीर-गरीब का सवाल या वर्ग-भेद का सवाल , संसद से सड़क तक का सवाल पश्चिम से जुड़े बिना शायद ही उठ पाता । यहाँ आकर दुनिया एक हो जाती है ।

भारतीयता का एक अध्याय लोक -जागरण से निर्मित हुआ  मध्यकाल में ,इसके बाद दूसरा  उन्नीसवीं  सदी  के नवजागरण में और तीसरा प्रगतिशील-जनवादी आन्दोलन में । कहने का मतलब यह है कि भारतीयता एक सरित -प्रवाह की तरह है एक सजल मूल सरिता ।
भारतीयता में एक अध्याय इस्लामी-दर्शन का भी है , जो सूफियों  के रंग में रंग कर भारतीय बना है , जिसने ईरानी तहजीब से बहुत कुछ लिया है  उसको लौटाया भी है । हमारी मीरा तक उस रंग में रंगी हुई हैं । तो भारतीयता तो है बशर्ते कि हमारी दृष्टि खुली हुई और नीचे तक पहुँचने की क्षमता रखती हो ।
" कुछ पूरबला लेख" से तो कल्पित जी सब  काता -कूता  कपास हो जाएगा  ।रहा पूरब  और पश्चिम का सवाल , इसमें  अति-व्याप्ति दोष है ।  पूरब बहुत बड़ा है और बहुत भिन्नता रखता है । पूरब की अवधारणा में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित होती है या फिर सब कुछ भारत में पहले से मौजूद था जैसी अंध भारत-विकलता । भारतीयता स्वयं एक तरह की नहीं है । उसमें वेद -विरोधी दर्शन मौजूद हैं , जिनको नास्तिक कहा गया ।महात्मा बुद्ध का दर्शन अदलता -बदलता हुआ कबीर और संत-आन्दोलन तक  चला आया है । जो इस समय दलित-विमर्श में नज़र आता है ।
अज्ञेय और निर्मल वर्मा कलाकार ज्यादा हैं , उनके यहाँ भारतीयता की कुछ सीमित छवियाँ होते हुए भी गतिशील   भारतीयता की पहचान का कोई विशेष आधार और सबूत नहीं है । फिर उनकी संवेदनशीलता का दायरा बहुत छोटा है । वे चीजों को सही मुकाम तक नहीं ले जाते , जैसे अज्ञेय से उम्र में छोटे मुक्तिबोध ले जाते हैं । यहाँ आकर साहित्य  का सवाल जीवन-दृष्टि से जुड़ जाता है ।

Thursday 12 September 2013

वैसे तो सारी मानव- जाति का भाव-संसार एक जैसा है किन्तु पृथ्वी पर मनुष्य के   इतिहास -भूगोल ने संस्कृतियों को अनेक रूपों में रचा है । यह अनेकरूपता ही है जो हमको एक करके अनेक कर देती है और अनेक करके एक कर देती है । ऊधो , मन माने की बात । जब हम अपनी जमीन की बात करते हैं तो  अनेकरूपता को ही ध्यान में रखते हैं   । दुनिया  में प्रशासनिक विभाजन और बदलाव चलता रहता है किन्तु इससे संस्कृति नहीं बदला  करती । आज भी बांग्ला देश का राष्ट्र गीत रवीन्द्र नाथ ठाकुर का रचा हुआ ही है । सांस्कृतिक रूप से भारत की सीमाएं बहुत बड़ी हैं । यह भारतीय उपमहाद्वीप है । लेकिन इसके भीतर भी अनेक जातियां (नेशन के अर्थ में ) निवास करती हैं , जिनसे मिलकर भारतीयता बनती  है । चीनी सभ्यता की पहचान हमसे अलग है ।हमारी अलग अलग भाषाएँ और उनकी लम्बी परम्परा है । ये सब मिलकर एक सांस्कृतिक आधार निर्मित करती हैं जिसे हम अपने सन्दर्भ में भारतीयता कहते हैं । हिंदी कविता उसी भारतीयता का एक अंग है । हमारा अपनी भाषाओं से आवयविक रिश्ता है । इसलिए भारतीय कविता की पहचान करते रहना वैसे ही जरूरी है जैसे अपनी क्षमताओं को समय - समय पर जांचना ।  
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ
कि ईख के खेत
इस तरह धधके हों
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ
कि गन्नों का रस
इतना जहरीला हुआ हो
 जब ईख बोई जाती है
तो वह हाथ  को देखती है ,
उन हाथों में लकीरें होती हैं
जिनके भीतर बहता है
खून इंसानियत का
वे हिन्दू-मुसलमान नहीं होती
उनको मेहनत के रस ने
सींचा होता है

यह क्या हुआ ?
कि हमारे ईख के खेत
मेंड़ों में बट  गए
यह खेल कोई और है
अब सब समझ रहे हैं
इस बार जो फसल होगी
वह , वह नहीं होगी
जो तुम समझ कर चल रहे हो ।
 
अपनी ही गाता हूँ
अपनी ही सुनता हूँ
अपनी ही लीला है
अपनी ही रोटी है ,
अपना ही चीला है
अपना ही गायन है
अपनी रामायण है

अपना ही लाल किला
सब देश अपना है
राम राम जपना है
 पराया माल अपना है
अपनी ही ढपली है
अपना ही राग है
अपने नाम का डंका है
अपन विकास पुरुष हैं
अपनी सोने की लंका है । 

Tuesday 10 September 2013

मेहनतकश मजदूर-किसान कभी आपस में नहीं लड़ते ,उनको लड़वाते हैं बीच के लोग , जो ज़िंदा शरीरों में आग लगाकर उस पर अपनी राजनीति की रोटी सकते हैं । इन शैतानों का एक ख़ास  वेश  , भाषा और अफवाह फैलाने का ढंग  तो होता ही है , कभी-कभी ये वेश बदलकर  भी  अपना स्वार्थ साधते हैं । ये चुनाव के दिन हैं अब जो कुछ न हो जाय ,थोड़ा है । दंगों में अभी तक उच्च  और उच्च -मध्य वर्ग से कोई हताहत हुआ क्या?  हमेशा गरीब ही क्यों मरता है ? वही तो है जिसे हर समय जीवन के मैदान के बीच रहना पड़ता है । देश की संवेदनशील जनता को बहुत बड़े पैमाने पर जन-जागरण की जरूरत है । 

Monday 9 September 2013

पिछले कई दिनों से घर की टूट-फूट की मरम्मत का काम चला । एक कारीगर और एक बेलदार ने ग्यारह दिनों तक काम किया । उनको काम करते देख मेरे मन ने ये रूप धारण किया -----

बनवारी कारीगर

वह आता है रोज
अपने गाँव पलखडी से
एक अधटूटी साईकिल पर
दोपहरी करने का
रोटी -झोला लटकाए
आता है रोज बेनागा
रोज कुआ खोदना
रोज पानी पीना
यही जीवन रहा
पीढी दर पीढी
राजतंत्र था तब भी
लोकतंत्र आया तब भी
कोई ख़ास अंतर नहीं
वह नहीं जानता १ ५ अगस्त क्या है ?
उसे पता नहीं
राज कैसे चलता है ?
वह मेहनत  करना जानता है सिर्फ
कला है उसके हाथों में
जादू-सा है उसकी आँखों में
उसके ह्रदय में एक नदी बहती है
ऐसा गुणीजनों में दूर दूर तक नहीं
वे सूखे ठूंठ हैं
वह हरा-भरा वृक्ष

शाम को  जब वह
अपने घर लौट जाता है
तो सूना -सूना लगता है
उसका दोस्ताना फखरू से है
फखरू की राय है कि
बनवारी के कोई शान-गुमान नहीं ।
शायद ऐसा उन लोगों में ज्यादा हो
जो मेहनत  का कमाते हैं
और मेहनत का खाते हैं ।









बनवारी कारीगर

वह आता है रोज
अपने गाँव पलखडी से
एक अधटूटी साईकिल पर
दोपहरी करने का
रोटी -झोला लटकाए
आता है रोज बेनागा
रोज कुआ खोदना
रोज पानी पीना
यही जीवन रहा
पीढी दर पीढी
राजतंत्र था तब भी
लोकतंत्र आया तब भी
कोई ख़ास अंतर नहीं
वह नहीं जानता १ ५ अगस्त क्या है ?
उसे पता नहीं
राज कैसे चलता है ?
वह मेहनत  करना जानता है सिर्फ
कला है उसके हाथों में
जादू-सा है उसकी आँखों में
उसके ह्रदय में एक नदी बहती है
ऐसा गुणीजनों में दूर दूर तक नहीं
वे सूखे ठूंठ हैं
वह हरा-भरा वृक्ष

शाम को  जब वह
अपने घर लौट जाता है
तो सूना -सूना लगता है
उसका दोस्ताना फखरू से है
फखरू की राय है कि
बनवारी के कोई शान-गुमान नहीं ।
शायद ऐसा उन लोगों में ज्यादा हो
जो मेहनत  का कमाते हैं
और मेहनत का खाते हैं ।








Sunday 8 September 2013

आत्म परिचय ------डा . जीवन सिंह , जन्म----ब्रज-मेवात जनपद , राजस्थान के भरतपुर जिले के जुरेहरा गाँव में १ ९ जुलाई १ ९ ४ ७ के दिन । शिक्षा ---- गाँव, भरतपुर , अलवर, और जयपुर में पी . एच . डी तक । "साहित्य में वैयक्तिकता और वस्तुपरकता " विषय पर ।  रूसी भाषा की अंगरेजी में अनुवादित  कई  पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद । इनमें -"-प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि " विशेष । ब्रज और मेवात के लोक-साहित्य में विशेष रूचि । राठ -मेवात में प्रसिद्ध  अलीबख्शी ख्यालों पर काम ----पुस्तक प्रकाशनाधीन । अपने गाँव की रामलीला से पिछले चालीस सालों से जुड़ाव ---तीस सालों से खलनायक रावण की भूमिका । एक बार भोपाल और अयोध्या में १ ९ ८ ७ में " सीता - हरण " प्रसंग का प्रदर्शन ।अपने गाँव की रामलीला शैली पर एक किताब प्रकाशन के लिए तैयार ।
   राजस्थान की कालेज शिक्षा सेवा में चूरू ,सुजानगढ़ , सरदारशहर , सिरोही, दौसा, बूंदी , गंगापुर  सिटी  और अलवर में हिंदी -अध्यापन का काम । इस बीच एक वर्ष मध्य प्रदेश के शासकीय महाविद्यालय , श्योपुर कलां में अध्यापन ।
रचना कर्म --- खासकर आलोचना कर्म ---तीन पुस्तकें प्रकाशित -----'-कविता की लोक-प्रकृति' , 'कविता और कवि  कर्म ', और 'शब्द और संस्कृति '।' लोक -दृष्टि और समकालीन कविता" शीघ्र प्रकाश्य । 'कविता और कवि-कर्म' पुस्तक पर राजस्थान साहित्य  अकादमी उदयपुर का सर्वोच्च --मीरा सम्मान २ ० ० १ में मिला । ब्रज भाषा अकादमी से ब्रज भाषा सम्मान मिला ।
निराला , मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन , केदार , कुमारेन्द्र, विजेंद्र आदि लोक- परम्परा के कवियों की कविताओं पर अपनी अर्जित दृष्टि से लेखन ।
वर्तमान में --'जनवादी लेखक संघ ' का सदस्य । कवितायेँ लिखी लेकिन प्रकाशित कराने में संकोच रहा ।

Sunday 1 September 2013

" कवि"पत्रिका का पुनर्प्रकाशन शुरू होने की बेहद  खुशी है । " कवि" उस दौर की पत्रिका है जब प्रगतिशील-जनवादी ताकतों के समक्ष 'परिमल -समूह' खडा हो रहा था । आज़ादी मिलने के बाद कई रचनाकार उन पांतों में शामिल हो गए थे ,जिनके पथ सत्ता की ओर जाते हैं । 'कवि' सही अर्थों में जनपक्षधर छोटे आकार  की पत्रिका रही है । लगता है एक दौर फिर शुरू हो रहा है , जिसमें "पहल" का भी फिर से प्रकाशन एक घटना है । पहले" कवि " दिल्ली में नहीं था ,अब वह देश की राजधानी और बहुत बदले हुए दौर में है । ऐसी सभी पत्रिकाओं का स्वागत और सहयोग करने की जरूरत है , जो प्रगतिशील-जनवादी जीवनमूल्यों के लिए संघर्ष करती हुई उस परम्परा का विकास कर रही हैं ।
मुक्तिबोध सबसे ज्यादा तब समझ में आते हैं , जब हम दूसरों को नहीं ,खुद को समझना चाहते हैं । वे लीक से अलग हटकर लिखने वाले कवियों में रहे हैं और काव्य-सरिता की धारा के बीचों बीच रहकर लिखने और उसको जीने वाले अनूठे, अद्भुत और विलक्षण कवि । आज की परिस्थितियों में उनकी कविता की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ गयी है ।