Friday 31 July 2015

देशभक्ति प्रकट करने का अवसर तब सबसे ज्यादा क्यों होता है जब कोई संकीर्णता मैदान में दौड़ रही होती है |
विचार में स्वाधीनता के लिए पूरा अवसर होना चाहिए , भले ही वह किसी विचारकर्ता के अपने मत के कितना ही विरोध में जाए |जो विचार विवेकशून्य होकर अपनी डिक्टेटरशिप स्थापित करने के लिए या सिर्फ अपना सम्प्रदाय बढाने के लिए किया जाता है समझो वह धार्मिक मतवाद की श्रेणी में चला गया है | यह धर्म---मजहब का बंधा बंधाया अतीतगामी विचार होता है जो दूसरे को आज़ादी नहीं देता |आज़ादी का कांसेप्ट ही धर्म और पुरानी सामाजिक जकडन को खत्म करने के लिए आया किन्तु देखने में आ रहा है कि देशभक्ति के मामले में भी वह आड़े आता है जब कुछ लोग देशभक्ति को एक निश्चित संकीर्ण वैचारिक सांचे में ढाल कर एक नमूने की तरह से पेश करते हैं |तब ऐसा होता है |देशभक्ति का कोई एक रूप नहीं हो सकता क्योंकि वह विवेकशून्य होकर कभी नहीं की जा सकती और न ही संकुचित भाव से |

Thursday 30 July 2015

नास्तिकता एक पुरानी विचारधारा है किन्तु बहुत गड्डमड्ड | हमारे कई प्राचीन दर्शन पहले नास्तिक रहे बाद में वे भी आस्तिकता से घिर गए |सांख्य , वैशेषिक , बौद्ध , जैन सबका एक ही हश्र हुआ |इसकी जगह पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला समाज रहे तो ज्यादा सकारात्मक और आधुनिक नज़रिया होगा |वैज्ञानिक नज़रिया नहीं होगा तो नास्तिकता भी कुछ दूर चलकर साथ छोड़ देगी |
भ्रष्टाचार , अनैतिकता, बेईमानी का प्रसार जैसे जैसे बढ़ता है व्यक्ति की हिंसा सामाजिक हिंसा का रूप धारण करने लगती है |वही धीरे धीरे व्यक्ति के जहन में उतरती जाती है और उसकी स्वीकृति उसे भीतर से एक हिंसक प्राणी में तब्दील करती जाती है |भ्रष्ट आचरण और हिंसा में गहरा रिश्ता होता है |एक हिंसक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति ही दूसरे की परेशानी का अनुचित फायदा उठाता है | बेईमानी हिंसा का एक छद्म रूप है |सभ्यता का विकास मानवता के विकास के साथ साथ उन औजारों का विकास भी करता है जिनके भयावह आकार को देखकर लगता है कि अभी मानव को सभ्य बनाने में देर है |हिंसा और हिंसक मानसिकता का फैलाव किसी भी रूप में सभ्यता की निशानी नहीं |प्रतिशोध की भावना हिंसक मनोवृत्ति को गहरा भी करती है और व्यापक भी |


महान रचनाकार प्रेमचंद के बारे में लगभग साठ साल पहले मुक्तिबोध ने कहा था------"प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अंतिम महान कलाकार थे " और यह भी लिखा कि---- "प्रेमचन्द की भावधारा वस्तुतः अग्रसर होती रही ,किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया |" क्या यह चुनौती आज तक नहीं बनी हुई है ?
हिंसा के खेत में हिंसा ही पैदा होगी लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि इस खेत में पहली बार बीज किसने डाला था ?
मन की गुफा में
आसीन
प्रतिशोध का प्रेत
रक्तपान किये बिना
कभी संतुष्ट नहीं होता
उसके लिए
रक्त चाहिये सिर्फ रक्त
खप्पर में रक्तपान
मुखमुद्रा भयावह
उसकी फौजों ने छावनियां बना ली हैं
और वे
विभिन्न रंगों
और झंडों में बटकर
अपना उल्लू सीधा करने में लगी रहती हैं |
एक ऐसा युद्ध
जो सतत चलता है
जिसका कोई इलाज़
प्रेतात्मा विहीन मानव
अभी तक
नहीं खोज पाया |
मानसिक हिंसा की सतत प्रवृत्ति शारीरिक हिंसा से ज्यादा खतरनाक होती है |

Tuesday 28 July 2015

बहुतों ने विधर्मी होने की सजा पायी
किसी को विधर्मी होने की वजह से
भरपूर इनाम और सम्मान मिला
इस दुनिया में
कुछ भी तो व्यर्थ
और तार्किक नहीं है |
पिछले दिल्ली पुस्तक मेले में पहली बार कवयित्री मृदुला शुक्ला जी ने कवयित्री शैलजा पाठक से अपनी किताब दिलवाई ---मैं एक देह हूँ , फिर देहरी ----|सोचा था समय आने पर कुछ कहूंगा |तब कविताओं को पढ़ते हुए जैसे ताजी पुरबाई का झोंका सा आया था |कवयित्री के पास अपनी भाषा और कविता रच लेने की अपनी जमीन है |अपना स्वभाव जैसे कविता में उंडेल दिया है | यह तो शुरुआत है अभी बहुत आगे जाना है किन्तु प्रस्थान बिंदु संभावनाओं को बतला देता है |पूत के नहीं कहना चाहिए पुत्री के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं |मर्मवेधी और मर्मस्पर्शी कवितायेँ हैं शैलजा जी की |ऐसा कदाचित वे ही लिख सकती हैं कि ----- "तुम्हारे लिए /गिलास भर पानी लिए /खडी औरत की आँखें /गिलास से ज्यादा भरी थी ?" इस तरह का भरापन और गहरा अडिग विश्वास उनकी कविता में है |उनका यह लिखना भी कितना सही है ------- "मैं जब भी लिखूंगी प्रेम /प्रेम पर कोई कविता /समय की बंजर छाती पर / कुछ उदास पत्ते गिरेंगे "|ऐसी कविता करने वाली कवयित्री को उनके जन्म दिन पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
बहुतों ने विधर्मी होने की कीमत चुकाई
किसी को विधर्मी होने की वजह से
बहुत कुछ मिल गया
इस दुनिया में
कुछ भी तो व्यर्थ
और तार्किक नहीं है |
हमारे मित्र महेश पुनेठा ने इन दिनों शिक्षा से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण सवाल उठाये हैं जिनमें एक सवाल वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर है कि क्या वजह है कि विज्ञान विषय पढ़ लेने के बाद भी पाठक , विद्यार्थी और शिक्षक के मन की आतंरिक अवैज्ञानिकता दूर नहीं हो पाती ? जहां तक स्कूल में पढने और पढाये जाने वाले विज्ञान विषय और उससे वैज्ञानिकता सीखने का सवाल है , पहली बात तो यह है कि बच्चा केवल स्कूल और वहाँ पढाये जाने वाले विषयों से ही सब कुछ नहीं सीखता |ऐसा होता तो हमारे विज्ञान के शिक्षकों में एक भी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला अन्धविश्वासी और दकियानूस नहीं होता |जबकि मेरा अपना अनुभव तो यह कहता है कि विज्ञान के अध्यापकों से ज्यादा साहित्य और समाज विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों का नज़रिया अधिक वैज्ञानिक रहता है |विज्ञान का अध्यापक लैब से बाहर निकलते ही इस संसार की लैब में जैसे ही आता है , बदल जाता है |हमारे घर---परिवार और पास---पड़ोस भी अनौपचारिक तौर पर अंधविश्वास पढ़ाने का काम रात---दिन करते रहते हैं और उसे अपनी संस्कृति भी बतलाते हैं |संस्कृति उनके लिए एक ठहरी हुई कोई धारणा होती है | ऐसे वातावरण के बीच विद्यार्थी पलता और बड़ा होता है | हमारे पर्व---त्यौहार आदि भी मन को ऐसा बना देते हैं कि विज्ञान की बातें सिर्फ बातें होकर रह जाती हैं वे व्यवहार में नहीं उतर पाती |हमको यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि छात्र हर बात स्कूल से ही पढ़कर सीखता है | वह स्कूल में सिर्फ अक्षर ज्ञान लेता है लिखना---पढ़ना और थोड़ा--बहुत चीजों को जानना सीखता है | कई बार तो स्वयं अध्यापक नहीं जानते कि हमारे आपसी रिश्तों का निर्माण किन आधारों पर कैसे हुआ है |वे भाग्यवाद का टोकरा अपने सर पर उठाये रहते हैं |जिसकी वजह से वे स्वयं अवैज्ञानिकता का भार ढोते रहते हैं |दूसरे ,हमारे जीवन में इतनी अपूर्णताएं ,अनिश्चितताएं और संयोग हैं कि जिनसे अवैज्ञानिकता पनपते देर नहीं लगती |- फिर, विज्ञान विषय अपने आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बनाता उसके लिए अलग से प्रयत्न करना पड़ता है |वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए कतई जरूरी नहीं है कि विज्ञान ही पढ़ा जाय |उसके लिए जरूरी है जीवन के गहरे अनुभव और उनसे प्राप्त नज़रिया | ब्रूनो तो पादरी बनने गया था और धर्म संबंधी किताबें पढ़ते पढ़ते वैज्ञानिक बन गया | महान शहीद भगत सिंह भी पहले वैसे नहीं थे जैसे बाद में अपने जीवनानुभवों से बन गये |
राजनीति में सबसे अधिक उपयोगितावाद चलता है |यह एक ऐसी विचारधारा है जो बिना विचार के चलती है |
किसी भी तरह की सत्ता के प्रति व्यक्त किये गए सम्मान में कृतज्ञता के भाव के अलावा कहीं स्वार्थपूर्ति के अवसर का मनोविकार भी छिपा रहता है |इसीलिये सम्माननीय तब तक सम्माननीय बने रहते हैं जब तक सत्ता --च्युत नहीं कर दिए जाते |असली सम्मान वही है जो सत्ताच्युत होने के बाद सिर्फ बना ही नहीं रहे वरन बरसाती नदी की तरह उमड उमड़ जाय |
देशभक्ति जब कुछ लोगों की बपौती हो जाती है तो न देश रहता है न भक्ति | देशभक्ति कभी एकरूपता का प्रयास नहीं करती और न ही दुराग्रह |एक बगीचे में खिले तरह तरह के फूलों को देखकर जो प्रफुल्ल नहीं होता वह देशभक्त कैसे हो सकता है ?देशभक्ति की पहली शर्त है विविधता की स्वीकृति , जिसमें से एकता का सूत्र निकलकर देशभक्ति तक चला जाता है

Monday 27 July 2015

जिन दिनों कलाम साहब को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाये जाने का मुहूर्त उनके कुछ चहेते निकलवा रहे थे , कलाम साहब ही थे जो यह कह सकते थे कि प्रकृति ने मुहूर्त के लिए शायद ऐसी कोई योजना नहीं की है | वे सच्चे अर्थों में वैज्ञानिक थे सिद्धांत और व्यवहार दोनों में |उन जैसे वैज्ञानिक दृष्टि वाले लोगों की जरूरत बढ़ती जा रही है |उनके जाने से सबसे बड़ी क्षति वैज्ञानिक दृष्टि की हुई है |वे एक कद्दावर विज्ञान पुरुष थे |उनकी स्मृति को सलाम |
विद्यार्थी का सबसे बड़ा परीक्षक वही अध्यापक होता है जो उसे पढाता है और रोज पढ़ते देखता है | मौजूदा परीक्षा पद्धति छात्र की याददाश्त की जांच करती है योग्यता और उसके ज्ञानार्जन की नहीं |
  • सर बहुत बार कथानक के अंतर्गत चरित्र का आचरण सुनिश्चित करते हुए, साधारण लोक व्यवहार से ही प्रसंग को संदर्भित किया जा सकता है. राम की यह उक्ति एक आलोचकीय पाठ से देखने पर नितांत भिन्न अर्थ देगी और सामान्य लोक-आवेग की बुनियादी अभिव्यक्ति के स्तर पर अलग अर्थ रखेगी.....अब दोहा देखें-

    'बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति| बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति||'

    विषादग्रस्त, अपमानग्रस्त और चोट खाया एक व्यक्ति समूचे संवादपरक आवेदन के साथ मौजूद है....और दूसरे पक्ष से किसी भी तरह का कोई उत्तर नहीं, सब कुछ अनसुना कर दिया जाना और उपेक्षा भाव रखना. इसमें कोई दोराय नहीं कि जिस तरह से 'विनय' एक मूल्य है वैसे ही 'कोप' भी एक विशेष देश-काल में सुचिंतित बोध है....एक पीड़ित व्यक्ति की भाव-मनोदशा को भी परिवेश के सिद्धान्तीकरण के बहुत सारे आयामों में चिन्हित करना होगा....प्रीति और भय को भी यहाँ किसी सरलीकृत, परम्परागत, एकायामी अर्थ भर से रूपायित नहीं किया जा सकेगा, इस उक्ति के सापेक्ष एक समानांतर समाजशास्त्र भी काम कर रहा है.

    इसलिए यह कथन एक कथा(जीवन) के अंतर्गत आने वाली रोजमर्रा की उठा-पटक से निकला है.....यह कोई सिद्धांत भले ही नहीं है पर तात्कालिक चेतना का नैमित्तिक सत्य तो हो ही सकता है........
  • Jeevan Singh सुबोध भाई , लेकिन लोक व्यवहार में अक्सर लोग इसको एक सिद्धांत की तरह से पेश करते हैं और अपने दंडविधान का हर जगह पर औचित्य ठहरा देते हैं क्योंकि यह राम के मुख से कहलवाया गया आप्त कथन है |यहाँ या तो तुलसी की भाषा गच्चा खा गयी है या उनका सिद्धांत | बीति की तुक मिलाने के लिए कदाचित प्रीति शब्द का प्रयोग हो गया |इससे भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हुआ जबकि बात सिर्फ काम होने की थी |रास्ता देने की थी | तब इसे सन्दर्भ से काटकर प्रयोग नहीं किया जा सकता था |बात तब कुछ इस तरह से होती -------बिनय न मानत जलधि जड, बीते कितने याम |बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न काम ||------यदि यही भाव मुक्त छंद में व्यक्त किया जाता तो प्रीत शब्द का प्रयोग कदापि नहीं किया जाता , इस जगह पर कोई और शब्द होता |क्योंकि जो प्रीत भय से होगी वह प्रीत नहीं रह जायगी |प्रीत स्वाधीन भावों की कोटि में आने वाला सुखदाई भाव है जबकि भय स्वयं में दुखदायी है | प्रेम दोनों पक्षों के स्तरों पर स्वाधीन होने को प्रमाणित करता है |इसका उदाहरण है श्री--कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेम जहां वे सभी तरह के बंधनों से मुक्त हैं | जहां बंधन है वहाँ भय भी है |लेकिन यहाँ भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कर दिए जाने से सारा गड़बड़झाला हुआ |यही नहीं तुलसी की और भी कई चौपाइयां हैं जिनका लोग अपने अनुचित व्यवहार का औचित्य ठहराने के लिए एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं |यदि राम के अलावा अन्य किसी पात्र के मुख से यह बात कहलवायी गयी होती तो शायद लोकोक्ति की तरह प्रयुक्त नहीं होती |कहलवाई गयी बात के सन्दर्भ अलग हो सकते हैं किन्तु राम के मुख से कहलाई गयी बात का अपना अर्थ और महत्त्व होता है |यह अब समाज में एक कहावत या सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होती है अतः इसको खोलना बहुत जरूरी है | वैसे ही हिंदी जाति न जाने कितने कितने गलत---सलत कहावत---मुहावरों का बोझ अपने मन पर लादे हुए है |जब एक गुंडा भी इस कथन के माध्यम से अपने व्यवहार का औचित्य कायम करता है तो वहाँ सारा संदर्भ---प्रसंग लुप्त हो जाता है और यह कथन निरपेक्ष अर्थ देने लगता है |जैसे लाख कोशिश करने पर भी लोग विभीषण को घर का भेदी ही मानते हैं |तुलसी उसे एक मूल्यधर्मी भक्त की तरह से पेश करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में उसे कौन मानता है ?उनके लिए तो विभीषण घर का भेदी है ?
  • Subodh Shukla मैं सहमत हूँ सर....असल में चरित्र और कथा-वस्तु की जो योजना कवि-निर्धारित होती है वह लोक में अपने विपर्यय को कैसे प्राप्त हो जाती है, यह विचारणीय प्रश्न है. मठप्रधान व्याख्याओं और ब्राह्मणवादी अर्थतंत्र की देश-कालिक राजनीति का यह कुफल है.

    तुलसी के राम प्रभु और अगम होते हुए भी प्रबंध की सीमाओं और कथा की शर्तों से बंधे हैं.....वे प्रेमी हैं, दुत्कारे हुए हैं, अवमानित हैं, अधिकार-वंचित हैं आदि जबकि तुलसी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते उनकी दिव्यता को बार-बार दर्ज़ करने में. पर रचना के अपने कायदे और नियम हैं जिसमें न तुलसी हस्तक्षेप कर सकेंगे और न राम.......

    सवाल सिर्फ मनोवेग और परिस्थितियों के समानांतर भाषा-योजना के व्यवहार का है. किसी शब्द की अर्थ-छवि श्रृंगार में जैसी होगी वैसी ही हास्य या वात्सल्य में नहीं हो सकती.. एक उदाहरण से देखें- 'तुम मेरे वीर हो'..... अलग-अलग भाव-रूपकों में इस शब्द की व्याप्ति बदलती चली जायेगी और लक्षित अर्थ रूपांतरित होता जाएगा....राम की दशा और मानसिकता को देखते हुए , 'विनय', जलधि जड़ और भय के सापेक्ष प्रीति के मायने भी वह नहीं रहेंगे जो सामान्य अवस्था में रहते हैं....

    मैं इतना ही कहना चाह रहा था....कोई अनधिकृत चेष्टा हो गई हो तो माफ़ करेंगे...आप सबके सान्निध्य में सीखता-पढता ही रहता हूँ......सादर
    • Jeevan Singh दरअसल सुबोध जी आपकी बात कथा--संदर्भ में सोलह आना सही है किन्तु जब कोई काव्यपंक्ति अपने सन्दर्भ और उसकी व्यंजना से पृथक होने पर एक सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होने लगती है तो उसकी व्यंजना की सीमा समाप्त हो जाती है और वह अपना अभिधापरक अर्थ देने लगती है | तुलसी के अनेक कथंन हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है | यह उनकी ताकत भी है और सीमा भी | एक बार आप प्रसंग को छोड़ दीजिये और विचार कीजिये कि आपके सामने सिर्फ इतनी सी बात है कि भय के बिना प्रीति नहीं होती है |इस वजह से कुछलोग भय के आधार पर प्राप्त किये गए सामयिक सम्मान को ही सम्मान समझ बैठते हैं |एक प्रबंध काव्य में प्रयुक्त वाक्य या वाक्यांश जब संदर्भ--स्वतंत्र हो जाता है तो प्रयोक्ता का अपना अर्थ देने लगता है इसलिए भाषा के प्रति बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता रहती है | कोई कृति न केवल अपने कथ्य से कालजयी होती है वरन अपनी भाषा से भी |मैं मानता हूँ कि उक्त दोहे में प्रसंग के अनुसार इसका ध्वन्यार्थ बदल जाता है किन्तु सवाल तो प्रसंग के बाहर इसकी प्रयुक्ति का है जो अक्सर दैनंदिन जीवन में किया जाता है |कई बहुत खराब अफसर तक अपनी तानाशाही के चलते अपने कुकर्म का औचित्य सिर्फ बाबा के कथन का प्रमाण देकर स्थापित करते रहते हैं ------बहरहाल आपकी बात से बात का वह पहलू भी अनावृत्त हुआ जो न होता तो तुलसी के साथ अन्याय हो जाता | तुलसी मेरे भी परम प्रिय कवियों में से हैं |उनकी प्रतिभा वैश्विक है |इसी वजह से बात यहाँ तक चली गयी |आपके संवाद के लिए आभार |



बिलकुल ठीक नहीं है किन्तु ऐसा क्यों है इस सवाल पर विचार करने की जरूरत है |आज की विद्या अर्थकरी है |वैसे हर युगमें विद्या और अर्थ का रिश्ता रहा है | जिन विषयों के ज्ञान से ज्यादा रुपया पैसा मिलता है और जल्दी मिलता है |यानी जो उत्पादक विषय होते हैं लोग उनकी तरफ ही जाते हैं |पूंजी ने जबसे अपना प्रताप बढाया है और अनेक तरह की सुविधाएं बढी हैं तबसे पूंजी एक जीवन मूल्य की तरह लोगों के भीतर घर कर गयी है | अब तो अखबार भी इसी तरह की सफलताओं की कहानियों से भरे रहते हैं | ऐसे में संगीत---साहित्य---कला की कौन पूछे ?
श्रम से शिक्षा का रिश्ता -------काम से जी किस का नहीं चुराता |यह एक मनोविकार है जो सबके मन में रहता है कि काम कम करना पड़े और लाभ ज्यादा हासिल हो |हमारे आसपास ऐसे लोग भी होते हैं जिनको कोई काम न कारने के बावजूद फल की प्राप्ति होती रहता है ||किताबी ग्यान होना पढ़ा--लिखा होना नहीं है |पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ ---ऐसे लोगों के लिए ही लिखा गया है |जिसका श्रम से इतना ही सम्बन्ध है कि श्रम किये बिना सब कुछ उपलब्ध होता रहे |जब श्रम किये बिना लोगों को अपार संपदा मिलने लगती है तो सबसे ज्यादा श्रम पर ही असर होता है | प्रेम चंद ने अपनी कफ़न कहानी में इसी मनोविकार को केंद्र में रखा है और इसके ऊपर एक पूरा पेराग्र्राफ लिखा है |श्रम का मनोविज्ञान सामाजिक परिस्थितियों में निर्मित होता है | जो पढ़ा--लिखा व्यक्ति पब्लिक सेक्टर में श्रम से जी चुराता है उसी को प्राइवेट सेक्टर में हाड़तोड़ काम करते देखा जा सकता है |
लेकिन लोक व्यवहार में अक्सर लोग इसको एक सिद्धांत की तरह से पेश करते हैं और अपने दंडविधान का हर जगह पर औचित्य ठहरा देते हैं क्योंकि यह राम के मुख से कहलवाया गया आप्त कथन है |यहाँ या तो तुलसी की भाषा गच्चा खा गयी है या उनका सिद्धांत | बीति की तुक मिलाने के लिए कदाचित प्रीति शब्द का प्रयोग हो गया |इससे भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हुआ जबकि बात सिर्फ काम होने की थी |रास्ता देने की थी | तब इसे सन्दर्भ से काटकर प्रयोग नहीं किया जा सकता था |बात तब कुछ इस तरह से होती -------बिनय न मानत जलधि जड, बीते कितने याम |बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न काम ||------यदि यही भाव मुक्त छंद में व्यक्त किया जाता तो प्रीत शब्द का प्रयोग कदापि नहीं किया जाता , इस जगह पर कोई और शब्द होता |क्योंकि जो प्रीत भय से होगी वह प्रीत नहीं रह जायगी |प्रीत स्वाधीन भावों की कोटि में आने वाला सुखदाई भाव है जबकि भय स्वयं में दुखदायी है | प्रेम दोनों पक्षों के स्तरों पर स्वाधीन होने को प्रमाणित करता है |इसका उदाहरण है श्री--कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेम जहां वे सभी तरह के बंधनों से मुक्त हैं | जहां बंधन है वहाँ भय भी है |लेकिन यहाँ भय और प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कर दिए जाने से सारा गड़बड़झाला हुआ |यही नहीं तुलसी की और भी कई चौपाइयां हैं जिनका लोग अपने अनुचित व्यवहार का औचित्य ठहराने के लिए एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं |यदि राम के अलावा अन्य किसी पात्र के मुख से यह बात कहलवायी गयी होती तो शायद लोकोक्ति की तरह प्रयुक्त नहीं होती |कहलवाई गयी बात के सन्दर्भ अलग हो सकते हैं किन्तु राम के मुख से कहलाई गयी बात का अपना अर्थ और महत्त्व होता है |यह अब समाज में एक कहावत या सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होती है अतः इसको खोलना बहुत जरूरी है | वैसे ही हिंदी जाति न जाने कितने कितने गलत---सलत कहावत---मुहावरों का बोझ अपने मन पर लादे हुए है |जब एक गुंडा भी इस कथन के माध्यम से अपने व्यवहार का औचित्य कायम करता है तो वहाँ सारा संदर्भ---प्रसंग लुप्त हो जाता है और यह कथन निरपेक्ष अर्थ देने लगता है |जैसे लाख कोशिश करने पर भी लोग विभीषण को घर का भेदी ही मानते हैं |तुलसी उसे एक मूल्यधर्मी भक्त की तरह से पेश करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में उसे कौन मानता है ?उनके लिए तो विभीषण घर का भेदी है ?

Sunday 26 July 2015

भाषा का मतलब ही होता है बोलना |यह लिखने से ज्यादा बोलने पर टिकी होती है और दुनिया में हर देश का उच्चारण अपने तरह का भिन्न भिन्न होता है |हम जिस ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अक्सर करते हैं इरानी या हमारे उर्दूभाषी उसे ब्राह्मण नहीं बोल पाते ---बिरहमन बोलते हैं और अपनी ग़ज़लों के अशआरों में इसीका प्रयोग भी करते हैं |ज्यादा प्राचीन शब्द तो भारत ही हैं |कालयात्रा में अन्य शब्द जुड़ते चले गए हैं |वैसे इकबाल ने ----हिंदी ---कहा है -----हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्ता हमारा |यहाँ हिंदी हिन्द देश के अर्थ में ही तो है |हिन्द , हिंदी , हिन्दुस्तान और हिन्दू एक ही जगह की पैदाइश हैं किन्तु प्रयोग में आते रहने से अर्थापदेश , अर्थ विस्तार , अर्थ संकोच की प्रक्रियाएं निरंतर चलती रहती हैं |भारत ,हिन्दुस्तान और इंडिया तीनों का ही प्रचलन रहे क्या हर्ज़ है ?क्योंकि हमारी संस्कृति लगातार विकसित और परिवर्धित होती रही है |वह एक जगह पर ठहरी नहीं रही है | जो भी प्रभाव आया उसे उसने आत्मसात कर लिया है |आज वह बहुआयामी हो गयी है |

Saturday 25 July 2015

किसान भाषण पसंद नहीं करते
किन्तु नेता तो केवल यही काम करते हैं
लगता है किसान और नेता में
कोई रिश्ता
बचा नहीं रह गया है |
बादल अपने मौसम में
नेताओं की तरह
रोज घिरते हैं
किन्तु बरसते नहीं |
वायदा करके
थोड़ी देर बाद रफूचक्कर हो जाते हैं |
रह जाती है
फिर वही चिलचिलाती धूप|
भय और प्रेम के रिश्ते को लेकर तुलसी बाबा की कही बात ---भय बिन होय न प्रीत ----किस तरह से समाज में गलत ढंग से एक कहावत की तरह प्रचलित हो गयी है |जबकि सच यह है कि भय के साथ कहीं भी और किसी भी स्थिति में प्रेम जैसा भाव पैदा नहीं होता |जिन माँ---बापों से बच्चे डरते हैं उनसे प्यार कैसे कर सकते हैं |प्रेम उसी स्थिति में होगा जहां भय नहीं होगा | यह अलग बात है कि हम ऐसा कर न पायें |वास्तविकता तो यही है कि भय और प्रेम का दूर दूर का भी रिश्ता नहीं होता |स्कूलों में बच्चों को डराकर शिक्षा देने का आम रिवाज रहा है किन्तु उसने कितना नुक्सान किया है इसका कोई हिसाब नहीं है |चालीस--पचास साल पहले की बात है जब मेरे दो छोटे भाई इसलिए स्कूल जाने से बैठ गए क्योंकि वहाँ अध्यापक बिना मारे---पीटे बात ही नहीं करते थे |वे स्कूल जाने से पहले रोने लगते थे |जब वे जाते नहीं थे तो घर पर मार पड़ती थी तो वे स्कूल का बहाना करके कहीं जाकर छिप जाते थे |बाद में वे धोखा देने लगे |आज भी कई बच्चे ऐसे देखे हैं जो स्कूल जाने से पहले डरकर रोने लगते हैं |इस तरह के लोगों को अध्यापक नहीं बनाया जाना चाहिए जो बच्चों से अक्सर मार---पीट करते रहते हैं |यह व्यक्ति का सामन्ती और निराशावादी व्यवहार है जब वह मार् पीट कर डर से अपना काम निकालता है |यही वजह है कि लोग चोर---डाकुओं से प्यार नहीं करते , डरते जरूर हैं |भय ने लोगों को निकम्मा और ढीठ बनाया है स्नेही नहीं | पुलिस और प्रशासन से कौन प्यार करता है |सत्ता से भी लोग भीतर ---भीतर नफरत करते हैं जैसे गुंडे का कोई सम्मान नहीं करता उससे डरता है |डर,का सम्मान और प्रेम से कोई वास्ता तक नहीं होता |तुलसी बाबा ने जो बात कही है उसकी लोग अक्सर नजीर देते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि यह कितनी गलत ,खतरनाक और लोकतांत्रिक मूल्य विरोधी बात है |यह कदाचित उन्होंने तुक मिलाने के लिए कह दी है और ज्यादा सोच---विचार नहीं किया है |जबकि उनके यहाँ ही राम से लोग प्रेम करते हैं किन्तु वहाँ भय नाम का लेश भी नहीं है |सब नर करही परस्पर प्रीती |यह राम राज्य की एक विशेषता है आपस में सब डरकर रहते हैं यह नहीं |जहां लोग आपस में डरकर रहते हैं और एक दूसरे पर अविश्वास करते हैं , समझो समाज के भीतर कोई भारी गड़बड़ी है |यह बीमारी का लक्षण है |रावण से कोई प्रेम नहीं करता उसकी चापलूसी ---खुशामद करते हैं |दरबारी लोग इसीलिये समय आने पर अपना स्वामी बदलने में देर नहीं लगाते |इसलिए भय और प्रेम के सम्बन्ध का विचार उस दिमाग की उपज है जो सामन्ती परिस्थितियों में निर्मित हुआ |

Friday 24 July 2015

प्रतिरोध और प्रतिशोध में जमीन---आसमान का फर्क होता है |
बाबा तुलसी कह गए हैं
भय के बिना प्रीति नहीं होती
सच नहीं लगता कथन उनका
यह सत्ता का सिद्धांत हो सकता है
मानवता का नहीं
सच्ची प्रीति वहीं होती है
जहां भय नहीं होता |
असहाय और बेबस की आत्महत्या भी धापे धींगों के लिए हंसी---मजाक होती है |
न्याय प्रक्रिया में जांच एजेंसियां जहां सरकारों के हाथों में हों यानी उनको स्वायत्त तौर पर काम करने का अधिकार न हो तब परिणाम में न्याय भी निरपेक्ष न होगा |किसी के दोनों हाथ बांधकर शायद ही कोई काम कराया जा सकता है |
दंड डराता जरूर है , सुधारता शायद ही हो |इसीलिये महान आत्माओं ने कहीं दंड से काम नहीं लिया| महात्मा बुद्ध, महावीर ,ईसा मसीह,मोहम्मद साहब , महात्मा गांधी का जीवन इसका प्रमाण है | कार्ल मार्क्स का सिद्धांत भी डर का सिद्धांत नहीं है |वह सच में प्रेम का सिद्धांत है |यह अलग बात है कि प्रेम की स्थापना के लिए पाशविक शक्तियों से लोहा लेना पड़ता है | डर से सुधार करने की गलती खूब की जाती है | जबकि दंड की प्रकृति हमेशा प्रतिशोधी होती है |जैसे को तैसा का सिद्धांत पाशविक है , मानवीय नहीं |मानवता की यात्रा के अनुभवों से यही लगता है कि भय से लम्बे समय तक प्रीति पैदा नहीं की जा सकती |

Thursday 23 July 2015

कविता की ताकत देखिये |अभी बिहार के मुख्य मंत्री ने सोलहवी सदी के जन कवि रहीम के एक दोहे का अचूक प्रयोग किया |जिसमें कुसंग और भुजंग दो शब्द ऐसे आये हैं जो बड़े जीवन सन्दर्भ की मांग करते हैं |पूरा अर्थ तभी खुल पाता है |इस मामले में यानी मानव स्वभाव को समझने में रहीम बेजोड़ हैं | तुलसी के बाद भाषा के मास्टर |यही है कविता की ताकत , उसने अपना काम पूरा कर दिया |रहा कुसंग का सवाल , सत्ता की राजनीति करना कुछ ऐसी विवशता या स्वार्थ है कि इसमें कविता भी दूर तक सहायता नहीं कर सकती | कुसंग तो कुसंग है ,वह किसी का भी हो सकता है | सच तो यह है कि आज की सत्ता की सम्पूर्ण राजनीति ही अब एक तरह का कुसंग बन चुकी है |जो अब भी कुछ मूल्यों पर टिके हैं वे धीरे धीरे इसी कुसंग की मार से हाशिये पर चले गए हैं |वाम राजनीति ने इसका खामियाजा सबसे ज्यादा उठाया है |सच तो यह है कि वह राजनीति कुसंग बन जाती है जो नीति को छोड़कर सिर्फ राज पाने के लिए की जाती है |
सब कुछ नियंत्रित किया जा सकता है यदि शिक्षा-व्यवस्था और तंत्र को नियंत्रित कर लिया जाय |व्यक्ति के मन और दिमाग पर गलत तरीके से कब्जा करके उसे आसानी से गुलाम बनाया जा सकता है |अंग्रेज जब इस देश में आये तो उन्होंने सबसे पहले यहाँ के शिक्षा तंत्र और उसके माध्यम को तोड़कर अपनी दृष्टि और माध्यम को उद्देश्य्यपूर्वक लागू किया |जिसकी वजह से देश लगभग दो सौ साल तक उनका बंधुआ बन गया |यही आज भी हो रहा है |गुणात्मक महत्ता , उत्कृष्टता और श्रेष्ठता अब शिक्षा के मानदंड नहीं |साप्रदायिक शक्तियों का शिक्षा के प्रति नज़रिया हमेशा से संकीर्णता का रहा है |जब भी वे सत्ता में आती हैं तो सबसे पहला निशाना शिक्षा तंत्र को बनाती हैं |

Sunday 19 July 2015

कल १९ जुलाई को जन्म दिन पर प्राप्त शुभकामनाओं के अपार स्नेह से पुलकित--रोमांचित हूँ |सबसे पहले इस तरह के सनेह के लिए सभी साथी---मित्रों के प्रति ह्रदय से अपना आभार व्यक्त करता हूँ |यह फेस बुक का नया संसार है जिसमें जानने वालों के अलावा भी जानकारियों का एक नया सिलसिला बन जाता है |६८ जन्म दिन तो पहले भी आये थे पर पता ही नहीं चलता था कि कब आया और निकल गया |अब इतना पता चलता है कि न पूछो |मन द्रवित भी होता है , फैलता भी है और मन ही मन संकोच भी होता है |भीतर से बल भी मिलता है |संभव है कि कुछ ह्रदय विस्तार भी होता हो |शायद इसीलिये शुभकामनाओं की इस परम्परा को बनाया गया हो |बहरहाल , पहले से ज्यादा समृद्धि आई है भीतर ही भीतर जैसे अचानक दायरा बढ़ गया है जिन्दगी का |एक बार पुनः आभार

Friday 17 July 2015

यदि कवि के मुहावरे में ठहराव होगा तो कविता भी ठहर जायगी |तत्त्व के लिए संघर्ष से लगाकर कवि को अभिव्यक्ति के संघर्ष तक की यात्रा पूरी करनी होती है | इसीलिये अभिव्यक्ति के क्षण को मुक्तिबोध तीसरा और सबसे लंबा क्षण मानते हैं |एक बार मुहावरा अर्जित कर लेने वाले कवि ठहराव के शिकार खूब होते हैं |इसलिए मुहावरा भी एक विकसनशील प्रक्रिया ही है | वह कविता की अंतर्वस्तु से संबद्ध है |रीतिवाद का खतरा तब आता है जब कवि तत्त्व के लिए संघर्ष करना बंद कर देता है | तब वह दोनों स्तरों पर ठहराव का शिकार हो जाता है |

Thursday 16 July 2015

कविता में अपना मुहावरा पा लेने का मतलब है अपना व्यक्तित्त्व पा लेना ' जो बड़ी साधना के बाद मिलता है |अपना मुहावरा न पाने वाले कवियों के लिए ही ठाकुर बुन्देलखंडी ने ----सीख लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन /सीख लीनो जस और प्रताप कौ कहानौ है -----जैसा कवित्त लिखा था किन्तु वे उनको कवि नहीं मानते थे |पुराना कवि भी छंद का अभ्यास कर लेता था और सभा--दरबारों से इनाम इकरार भी पा लेता था किन्तु अपना मुहावरा न बन पाने की वजह से कवियों में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता था |घनानन्द को कहना पडा था-------लोग हैं लाग कवित्त बनावत , मोहि तो मेरे कवित्त बनावत |यानी अभ्यास से कविता कर लेना अलग बात है और अपना मुहावरा पा लेना अलग बात |व्यक्तित्त्व्--हीनता कविता का सबसे बड़ा खोट होता है |उर्दू में शायर तो बहुत हैं किन्तु मीर और ग़ालिब ने अपने व्यक्तित्त्व से कविता को अमर कर दिया है |सच तो यह है कि जिस रोज कवि अपना मुहावरा यानी व्यक्तित्त्व पा लेता है उसी दिन वह कवियों की पांत में खडा हो पाता है |वैसे छापेखाने का और बाज़ार का ज़माना है इसमें कोई भी कवि बन सकता है
कविता अर्जन के साथ मुहावरा भी विकसित होता दिखना चाहिए अन्यथा न कविता रहती है न मुहावरा | जिनके पास अपना मुहावरा नहीं होता वहाँ कविता भी नक़ल से ज्यादा नहीं होती |अपने मुहावरे के लिए ही कवि को जीवनभर साधना करनी पड़ती है | अपना मुहावरा और कविता दोनों का रिश्ता शरीर और प्राण जैसा होता है |

Friday 10 July 2015

कवि प्रभात की कविता ---------
कवि प्रभात के पहले और नए कविता संग्रह की एक समीक्षा में उनकी कविता को कैमरा वर्क की तरह निर्लिप्त कहा गया है | जो मेरी दृष्टि में सही नहीं है| कविता कैमरा वर्क जैसी प्रतीत होते हुए भी कैमरा वर्क नहीं होती |यदि ऐसा होता है तो यह प्रकृतवाद है |कोई भी कृति रचना तब बनती है जब उसमें रचनाकार का अपना व्यक्तित्त्व आ जाता है |रचना की पहली शर्त है ---व्यक्तित्त्व | वैसे शास्त्र भी व्यक्तित्त्व के बिना नक़ल कहा जाता है \ शास्त्र अध्येता भी पहले जब अनुसंधान कर लेते हैं तब अपनी स्थापनाओं में अपना व्यक्तित्त्व समाहित करते हैं जो उसकी खोज कहलाती है |पहाड़ों पर चढ़ने वाले पहले लोग जिन्होंने पगडंडियाँ बनाई हैं वे ही सच्चे अनुसंधान करता होते हैं | कवि प्रभात अपनी कविताओं में एक शोधक की भूमिका में भी रहते हैं कि कहीं कुछ छूट तो नहीं रहा है , जो दूसरों की निगाह में नहीं है वह उनकी निगाह में भीतर तक समाया हुआ है | यह उनकी कविता की खासियत है |दूसरे उनकी कविता का मुहावरा उस जगरौटी अंचल का है जो एक जमाने से सवाई माधोपुर जिले में फैला हुआ है |अब यह दौसा और करौली जिलों तक फ़ैल गया है |यहाँ के बोली व्यवहार में ब्रज और ढूँढाडी का एक अद्भुत यौगिक रसायन मिलता है जिसकी वजह से यहाँ के बाशिंदे काजल को भी काजड बोलते हैं |यह राजस्थानी की एक बोली ढूँढाडी का असर है |यदि भाषा का यह संस्कार नहीं होता तो यह कविता भी वैसी ही होती जैसी आमतौर पर मध्य वर्ग के लोग लिखते हैं |दरअसल वह रचना होती है जिसे मशीन नहीं कवि का मन रचता है |मशीन की अपनी उपयोगिता होती है किन्तु वह कभी मनुष्य का स्थान नहीं ले सकती |मैंने भी प्रभात की कवितायेँ पिछले दिनों पढी , उनमें कैमरा से ज्यादा वह जमीन , वह इतिहास , वह भूगोल , वह संस्कृति और सच्चे मन से वहाँ के काम करते हुए बाशिंदे बोलते हैं |क्या काम करते बाशिंदों को कैमरे में कैद किया जा सकता है ? मेरा अनुभव तो यह है कि उनके जीवन की त्रासदियों और सचाइयों को कोई कैमरा सामने नहीं ला सकता | कविता मनुष्य के बाहर के जीवन से ज्यादा उसके भीतर के जीवन की सत्य --कथा होती है ,जिसे हर रचनाकार अपनी तरह से देखता है | कैमरे के एक आँख होती है जबकि कवि सहस्रचक्षु और सहस्रबाहु होता है |

Thursday 9 July 2015

व्यापम लीला पद -----२
कैसा ये व्यापम घोटाला |
विन्ध्य -सतपुडा  गिरि श्रेणी पर करते नृत्य भूत बेताला ||
चाल चरित्र चेहरा मिलकर ,करते कितना गड़बड़झाला |
बांधे ठाट बिना मेहनत के किये बिना कोई काम कसाला ||
जिसके लाठी हाथ भैंस का मालिक बन बैठा  गोआला |
मौत मौत पर मौत देखकर लगे दाल में काला ||
इनकी नैतिकता से नीचा राणा के प्रताप का भाला ||
लोकतंत्र की गाय चौक पर ढूँढत फिरे निवाला |
कहाँ छिपे बैठे रघुनन्दन कहाँ छिपे नंदलाला ||
केवट नाव डुबोकर पूछे कहाँ गया रखवाला |
करे बुराई का अभिनन्दन अच्छाई को देस निकाला ||
कैसा ये व्यापम घोटाला
मैया री मोहे व्यापम भावै |
मध्य देस के माहि बिराजत न्याय कू सींग दिखावै |
संस्किरिति की पूंछ पकरि के भैयन कू तिरवावे ||
मांग करे कोऊ न्याय करौ रे , वाकू आँख दिखावै |
याकू करो प्रणाम नहीं तो दुनिया सू हट जावे |
जीवन बी याकी संगति में अपने पाप धुबाबै ||
कामधेनु सी व्यापम तजि के छेरी कौन दुहावै |
आगो पीछो देखि के जीवन व्यापम के लीला पद गाबै||

Wednesday 8 July 2015

व्यापम लीला के पद 
व्यापम व्यापम व्यापम व्यापम
पूरे देश में व्यापम व्यापम|
नेता को वरदान मगर ये जनता को ज़िंदा अभिशापम |
मौत सिरहाने खडी ताकती व्यापम वैसा जैसी खापम |
यहाँ भी व्यापम वहाँ भी व्यापम व्यापम का फैला है पापम | |
उत्तर व्यापम दक्षिण व्यापम पूरब पश्चिम व्यापम व्यापम ||
व्यापम की महिमा से पलते गुंडे नेता अधम कलापम |
मिलीभगत नौकरशाहों की इनकी अलग बनी है छापम ||
देश संपदा कब्जा करके मीठा मीठा गप्प सडाकम ||
हर हर गंगे हर हर गंगे बैठ करो सब माला  जापम ||
उसको क्या परवाह व्यापम की जो घर में बैठा है धापम ||
अपना भला चाहते 'जीवन' तुम भी भज लो  व्यापम व्यापम ||