Tuesday 29 October 2013

अपना घर


यही तो है जो
मुझे तुम्हारे नज़दीक घर नहीं
बनाने देता
यही तो है जो
घर बाद में बनाता है  और
उसकी चहार दीवारी पहले उठाता  है
यह अपना घर ही तो है जो
 हम
 रोज बनाते हैं

यह 'अपना'ही तो है
  जो जिलाता है और
जीने भी नहीं देता
न दूसरों को
 न खुद को

जब तक अपना है
पराया मिट नहीं सकता
अपने को जिसने मिटाया
पराया फिर कोई रहा ही नहीं ।

Sunday 27 October 2013

जातिवाद का आधार है हमारे कृषि-सम्बन्ध और उंच-नीच वाली वर्ण-व्यवस्था  है  , जिसको कृषि-संबंधों ने  निरंतर गहरा बनाया । जब तक कृषि-सम्बन्ध सही अर्थों में औद्योगिक संबंधों में रूपांतरित नहीं होंगे तब तक रिश्तों का जातिवादी  आधार नहीं खिसकेगा । क्या कारण है कि हमारे यूनीवर्सिटी ---कालेजों तक में यह नहीं टूट पाता ? ट्रेड यूनियन तक  राजनीतिक तौर पर जातिवाद की दलदल में फंस जाती हैं । हमारा सोच तो गैर---जाति परक हो जाता है किन्तु कृषि संबंधों के दबाव उसे फिर से ---पुनर्मूषको भव ---की स्थिति में पंहुचा देते हैं । इसे अंतरजातीय विवाह कुछ ढीला कर सकते हैं किन्तु पितृ-सत्ता उसे फिर अपनी जगह पर ले आती है ।
शम्भू यादव का पहला काव्य-संग्रह ----नया एक आख्यान ---मुझे कुछ समय पहले मिला । धीरे-धीरे पढता रहा । हमारे अलवर का एक छोर हरियाणे से मिला ही नहीं है वरन उस पर उसकी छाप भी है । वह राठ क्षेत्र कहलाता है । एक जमाने में वहां के भोजपुर के भिखारी ठाकुर जैसे लोक-रचनाकार और गायक अलीबख्श ने बड़ी धूम मचाई थी । शम्भू की कविताओं में उनका राठीपन  बोलता है ।  यह शम्भू जी का ठेठ राठी कवि  ही कह सकता है कि ---हमारे आसपास चारों ओर एक ऐसी 'गाद'फ़ैली है जो बदबू तो देती ही है ---बीहड़ भी है । शायद ही गंदगी का ऐसा विशेषण परक बिम्ब कविता में किसी ने दिया हो । गंदगी सच  में बीहड़ ही होती है । उसमें पैर धंसते हैं और निकला नहीं जाता ।यह भौतिक ही नहीं होती , मानसिक उससे ज्यादा होती है । उनकी एक छोटी सी कविता जीवन-अभिप्राय को बहुत दूर तक ले जाती है और शब्द की महिमा को अर्थ के रूप में सचाई के बहुत समीप पंहुचा देती  है ।  आज के इस मूल्य-क्षरण के युग में इतना सटीक बिम्ब वही कवि ला सकता है , जो जिन्दगी के सबसे निचले पायदान से जुड़ा  हो ।जहां से शम्भू जी आते हैं , राठ -हरियाणे  का  वह  इलाका कुछ अलग तरह का है । हमारे यहाँ राठ अंचल के बारे में एक कहावत प्रचलित है ---'-काठ नबै , पर राठ ना नबै' । कुछ ऐसा ही काठीपन शम्भू यादव की कविताओं में है । वे लिखते हैं------"यह कैसी गाद फ़ैली है /बीहड़ और बदबूदार //जहां भी पैर रखो , धंसते हैं / " वे सरल कविताएँ लिखते है लेकिन यह भी सच है कि सरल रेखा खींचना सबसे मुश्किल होता है । उनकी कुछ  व्यंजनाएं  हमारे ह्रदय को विकल कर देने की क्षमता रखती है ------"घर में लडकी जवान है /एक अधूरा लघु-वृत्त /डिब्बे में बंद है / " 

Saturday 26 October 2013

भूमि सुधार होना ही पर्याप्त नहीं है , उनको लागू करवाना उससे भी कठिन और महत्त्वपूर्ण  कार्य  है । अब तो रीयल एस्टेट वालों ने अपना रिश्ता भूमि से जोड़ लिया है जो अकूत मुनाफ़ा बटोर रहे हैं । हमारे यहाँ के मजदूर संगठन भी खेती के पुराने जातिवादी -सम्प्रदायवादी संस्कारों से ग्रस्त  रहते हैं ।वे आते तो कृषि-क्षेत्रों से ही हैं । शहर में आकर उनका धंधा  बदलता है बिरादरी नहीं बदलती ।  इसलिए हमारे यहाँ  कृषि-संगठन ही सारे संगठनों की बुनियाद ठहरता है । मध्यवर्ग भी उसी के संस्कारों की लपेट में रहता है । रोटी और सुविधाएं तो सभी को चाहिए , जब जीवन में नैतिकता का क्षरण होता है तो पुरानी  काम की चीजें याद आने लगती हैं और व्यक्ति का कमजोर मन चुपचाप , दबे पांव उसके पीछे चलने लगता है । जो नहीं चलता , वह "निराला' हो जाता है ।
आज भी छोटे शहरों और कस्बों में बड़े बड़े जाति - सम्मलेन होते हैं और उनमें अपनी ताकत दिखाकर किसी भी राजनीतिक दल से टिकिट मांगे जाते हैं ।जातियों की कुरीतियों को हटाने और उनमें महिला की   दुस्थिति पर ज्यादा कुछ नहीं होता । इस बात पर तो शायद ही कोई चर्चा होती हो कि एक जाति के भीतर दो जातियां होती हैं । एक जाति का अमीर वर्ग और दूसरा गरीब वर्ग । एक ही जाति के गरीब्वर्ग से गरीब ही रिश्ता करता है उसका अमीर वर्ग अपनी ही जाति के गरीब को अपने से नीची हैसियत का मानकर अपने दरवाजे तक से दूर रखता है । किन्तु   जाति  का मनोवैज्ञानिक और  सामाजिक बंधन इतना जटिल है कि वह नौकरी  लगाने , ट्रान्सफर कराने , कोर्ट कचहरी का काम कराने और इसी तरह की धंधों से जुडी बातों में जन दबे-छुपे नज़र आता है तो उसकी विविध रंगों भरी भूमिका को मानना पड़ता है । भले वह सच न हो , वास्तविकता तो है ।आजकल जाति -सम्प्रदाय  राजीतिक मोर्चे पर सबसे प्रभावी हैजहां से सत्ता के स्रोत निकलते हैं । सत्ता के खेल से कौन बचा है क्योंकि जीवन में हरेक का कोई न कोई काम मौजूद है । खुद का नहीं है तो बेटे बेटियों का है , दोस्तों का है । कोई न कोई हथकंडा अपनाए बिना इस व्यवस्था में केवल नैतिकता के आधार पर शायद ही किसी का कोई काम हो ।  अभी कुछ दिन बाद ही  अखबारों में पढ़ लेना जब विधान सभा- क्षेत्रों के अनुसार  अखबार जाति -मतदाताओं की संख्या जारी करेंगे ।जाति और सम्प्रदाय विकट  पहेली है । पूंजीवादी व्यवस्था आने पर यह हटनी चाहिए थी लेकिन कृषि-प्रधान अर्थ व्यवस्था के चलते हमारे जैसे देशों में पूंजी और सामंती प्रवृतियों का गठजोड़ हुआ  इसलिए हमारे  यहाँ जाति -सम्प्रदाय आर्थिक -राजनीतिक प्रक्रियाओं  में भी संगठनकारी  भूमिका निभाते हैं । यदि कृषि का सही मायने में औद्योगीकरण  होता तो यहाँ  भी जाति -वर्ण-सम्प्रदाय की चूलें ढीली होती । कहने का मतलब यह है कि आज तक भी हमारे कृषि-सम्बन्ध नहीं बदले हैं । १ ८ ९ ४ का अंग्रेजों द्वारा बनाया हुआ ---भूमि अधिग्रहण क़ानून -----आज तक चला हुआ आ रहा था । उसकी जगह २ ० १ ३ में नया क़ानून आया है । कृषि-जीवन की उपेक्षा सर्वत्र है   । 

Friday 25 October 2013

यह दरअसल हमारे बुनियादी खेतिहर जीवन की समस्या है । पेड़ की जड़ें आज भी कृषि-प्रधान ग्रामीण जीवन में हैं , जहाँ आज सबसे ज्यादा गरीबी की मार है । उन्ही संस्कारों से जब कोई व्यक्ति पढ़-लिखकर या किसी अन्य धंधे के  लिए नगर या महानगर में आता है तो बुनियाद में बसे संस्कारों को नहीं छोड़ पाता  । एक जाति  में पैदा होता है , उसी में ब्याहता है , उसी खोल में नौकरी प्राप्त करता है , बाल-बच्चे भी उसी माहौल में पैदा होते हैं , स्कूल-कालेज भी जाति  को याद कराते हैं फिर आ जाती है राजनीति , ये भी उसी की याद दिलाती  हैं , मीडिया के समीकरण और चिंताएं भी वही । फिर बदलाव आए कहाँ से । और कौन लाए । सब आसान  रास्तों पर चलना चाहते हैं । कबीर ने खूब कहा कि ---जाति  न पूछो साधू की ---पर कुछ हुआ । इस कान से सुना  और उस कान से निकाल दिया । थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिली तो जाति के घेरे में ही मिली । यह ऐसी हकीकत है जिससे कैसे निपटा जाए , यह सवाल हमेशा बना रहता है ?
साहित्य में अपनी जिन्दगी तक सीमित रहने के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी सीमाएं होती हैं । इसीलिये वहाँ अनुभववाद की जो सीमाएं होती हैं , आए बिना नहीं रहती । निराला , प्रेम चंद अपने भोगे तक ही सीमित रहते , तो बड़ी रचना ----कालजयी -----शायद ही कर पाते । व्यक्ति में यह क्षमता है कि जैसे वह अपने ज्ञान का विस्तार कर लेता है वैसे ही वह अपना अनुभव और  दृष्टि-विस्तार भी करता है ,जो उसके संवेदना जगत को दूर दूर तक फैला देते  है । लिखता तो हर व्यक्ति ही अपने अनुभव की बात है , किन्तु वह वहीं तक सीमित होकर नहीं रह जाता । संकोच और विस्तार के  वैरुद्धिक सामंजस्य की कला है साहित्य ।

Thursday 24 October 2013

कविता   का सम्बंध जीवन के सभी क्षेत्रों से होता है , वह सर्वव्यापी है --अंतरात्मा से लगाकर विश्वात्मा तक । उसका एक देश होते हुए भी वह निरंतर उसका  अतिक्रमण करती है । संकीर्णताओं से उसे घृणा होती है । वह अपनी सह-कलाओं से अपना गहरा नाता रखती है । करुणा  के बेहतरीन गायक स्मृतिशेष  मन्ना  डे ने जो गाया है ,वहाँ से शब्द-रचना को अलग कर लीजिये ,उसका सीधा सीधा असर उनके गायन पर भी दिख जायगा । शब्द-रचना भी वहाँ बड़े सलीके वाली है । और लोक -जीवन की तरंगों का गहरा असर उन पर है ।  उनके भीतर का नाद उन शब्दों से होकर  जाता है जो  सही कंठ की कला पाकर  अभिभूत करने वाला बन जाता है । लेकिन शब्दकार की गिनती यहाँ भी सबसे पीछे होती है । जैसे आज की कविता में नाद तत्त्व बहुत छीजा हुआ है , इससे भी वह सूखी और नीरस हुई है । जहां भी   लोक-स्वर की संगति  में वह आई है वहीं उसका नाद-सौष्ठव अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहा है । सरसता लाने में शब्द- नाद  कवि की बड़ी मदद करता है । छंद बंधी कविताओं में कवि का वर्ण-मैत्री पर  बहुत जोर रहता था ।और कवि-गण सभी तरह की कलाओं में रूचि लेते थे । निराला स्वयं संगीत के बड़े जानकार थे और उनकी  कविताओं की पढंत में वह कला झलकती थी । गुरुदेव रवीन्द्र के साहित्य में संगीत उसकी आत्मा बन गया है ।मुक्त छंद की कविताओं में वह आए , यह चुनौती है । यह नाद तत्त्व वहाँ है , जहां कवि अपने लोक के नज़दीक है ।  
प्रकृति ने दो तरह के अखरोट---कठोर और कोमल ----- जरूरत और प्राकृतिक नियमों के तहत बनाए हैं । जीवन भी एक जैसा नहीं होता । उसमें मृदुता और कठोरता  के विरुद्धों का सामंजस्य रहे तो न केवल संतुलन आता है बल्कि उसका सौन्दर्य भी दुगुना हो जाता है । जहां तक कविता की सम्प्रेषनीयता  का सवाल है , उसका सम्बन्ध कवि के भाषा पर अधिकार से है । यदि उसकी शब्द-साधना यानी जीवन-साधना कमजोर है तो सम्प्रेषण का संकट पैदा हुए बिना नहीं रह सकता ।

Tuesday 22 October 2013

निलय उपाध्याय की कविता
जीवन का कोई विकल्प नहीं -----------
निलय  बहुत सलीके के व्यक्ति हैं और सलीकेदार कवि भी । अपने समय के सबसे सक्रिय और संघर्षमय जीवन और उसकी परिवर्तनशील प्रक्रिया में स्वयम सक्रिय  और गतिवान रहते हुए वे काव्य-रचना करते चले आ रहे हैं । गाँव से लगाकर महानगरीय जीवन की यातना उन्होंने झेली हैं । इसके बावजूद वे टूटे नहीं । जिन्दगी की गहरी से गहरी खाई और खड्ड उन्होंने देखे ही नहीं , भोगे भी । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगता रहा जैसे कोई मेरे बहुत नज़दीक आकर मेरे कान में जीवन के मधु-तिक्त रसों को घोल रहा है । एक ऐसी कविता , जो अपनी ओर खींचती है । जिसे पूरा पढ़ना पड़ता है , यह आज बहुत मुश्किल है । निलय ने अपनी एक जगह बनाई है , वे अपनी जगह से विचलित नहीं होते । उनको मुम्बई से भी अपना आरा दिखाई देता है जैसे सूर - मीरा को ब्रज दिखाई देता था , कबीर को भोजपुर और तुलसी-जायसी-मंझन -कुतुबन  को अपना  अवध । यहाँ तक कि भूषन, ठाकुर और ईसुरी  कवि को अपना बुंदेलखंड । हर  कवि की अपनी जमीन होती है , उसकी संकीर्णता नहीं । यह उसके मुक्त विचरण का जनपद है , जिसके बिना कविता पूरी नहीं होती । यहाँ उसे मनुष्य के चेहरे मिलते हैं और थोड़ी बहुत मनुष्यता के भी दीदार यहीं होते हैं । जो उम्मीद के लिए जरूरी है ।
            अपनी कार्मिकता,जीवन-दृष्टि और विश्वबोध से जिस तरह वे अपने समय के वस्तुगत को आत्मगत करते हैं और आत्म की वस्तु-गतता  की अभिव्यक्ति  करते हैं ,वह किसी भी तरह के लोभ-लालच से कोसों दूर है । यह उनकी भाषा-भंगिमा से पता चलता है । कवि खुद मेहनत के सरोकारों से निकला है । वह खेत की हर मेढ़ पर जैसे घूमा है , खलिहानों की गर्माहट को जिसने भीतर तक संजोया है । इसीसे उनकी निजता का सृजन हुआ है । एक साथ उनके तीन कविता संग्रह पढने को हासिल हुए ----अकेला घर हुसैन का (१ ९ ९ ३ ) , कटौती (२ ० ० ० ) और जिबह -बेला ( २ ० १ ३ ) । वे किसान - जीवन के अनुभूति-संपन्न रचनाकार हैं । आज जब एक अच्छा भला किसान आज की महानगरीय आवारा पूंजी के व्याघ्र-व्यूह में फंसता है तो वह आत्महनन तक पंहुच जाता है । इससे जो बचैनी और त्रास कवि को भीतर तक हिला देते  हैं ,उनसे निलय की कविता एक झरने की तरह फूट  पड़ती है अपनी पूरी  मार्मिकता और जन-वैचारिकी के साथ ।  यही खूबी है कि आज भीडभाड भरी कवियों की दुनिया में उसका चेहरा अलग से पहचान में आता है और उसके पास बैठने को मन करता है । कविता वही तो होती है , जो अपने पाठक को झाला देकर खुद अपने पास बुलाती है । इसलिए अपने समय की जन-वैचारिकी और भाव -सलिला से उसकी गहरी और जीवन-विधायिनी संगति  होना जरूरी होता है । कविता का स्थापत्य कई स्तम्भों पर टिका होता है । किन्तु वे एक दूसरे से इतने सटे होते हैं कि उनको  अलग करने का मतलब होता है , वास्तु का बिखर जाना । यहाँ कविता की वस्तु  और
वास्तु दोनों का भेद मिट गया है ।
निलय की काव्य-भाषा का व्याकरण भोजपुर जनपद की जमीन तक ले जाता है । इससे हिंदी की काव्य-भाषा और समृद्ध हुई है । अपने गाँव, खेत , खेतिहर किसान और उससे सटे शहर-कस्बे ' आरा के चौक ' की तरह देश में हर जगह ऐसे 'आरा चौक ' हैं जहां खेतिहर मजदूर अपने श्रम के बदले में गुजारे लायक , कभी वह भी नहीं , पा लेते हैं । इन सब की खबर अपने दूसरे संग्रह की कविताओं में   निलय , मनबोध बाबू को  पात्र लिखकर देते हैं । ये स्मृति -शेष चन्द्र भूषन तिवारी है , जिनका जन-वैचारिकी के प्रसार और तदनुरूप आचरण करने में बहुत बड़ी भूमिका रही है । सच तो यह है कि निलय का प्रेरक व्यक्तित्त्व वे ही हैं । इस पूरे संग्रह का नेतृत्त्व उनके  ही हाथों में है । ऐसा क्यों है , कवि बतलाता है -----
                                                   एक तुम्ही हो , जो नष्ट करने की इस क्रूरतम तकनीक को विकास
                                                   नहीं मानते । इस विशाल ब्रह्माण्ड से निकल कर मेज की दराज में
                                                    नहीं अत पाते ।
जो लोग मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता में 'सम्प्रेषण-बाधा' की शिकायत अक्सर करते रहते हैं , उनको एक बार निलय की कविता अवश्य पढनी चाहिए किन्तु एक शर्त के साथ कि उन्हें  श्रम की ताकतों से सहानुभूति हो । निलय लोक की धरा के कवि हैं , जो मेहनत  और मेहनतकश  के दर्शन पर टिकी हुई है , जो निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार , मुक्तिबोध ,कुमारेन्द्र , कुमार विकल , विजेन्द्र , ज्ञानेंद्रपति, मानबहादुर सिंह आदि कवियों की परम्परा की अगली कड़ी है । वे एक कद्दावर किसान-कवि हैं । यह तो बानगी मात्र है । उनकी कविता की ताकत का पूरा उदघाटन नहीं । बस इतना ही कहना है कि उनके यहाँ जीवन की कोई कमी नहीं , वह जीवन से लबालब है और यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है ।

Monday 21 October 2013

सरकार--शब्द में ही कुछ है कि दुनिया उस पर लट्टू हो जाती है । जहां दुनिया है वहाँ सरकार है और जहां सरकार है वहाँ दुनिया है । इसके बीच विज्ञान की मुसीबत है ,उसे कोई इधर से किक लगाता है कोई उधर से । बचा सकें तो बेचारे विज्ञान को पिटने  से बचाओ , सभी उसकी दुर्गति करने पर उतारू हो गए हैं ।

Sunday 20 October 2013

लोक संगीत जमीन और जीवन की ऊर्जा से उपजी कला है ,जिसमें स्त्री जीवन का दर्द इस तरह मिला हुआ जैसे नीर-क्षीर ।
सदानीरा--संपादक -आग्नेय ,भोपाल,/ सेतु- सम्पादक -देवेन्द्र गुप्ता , शिमला /एक और अंतरीप -जयपुर ----एक-एक दिन के अंतराल से प्राप्त हुई हैं । 'सदानीरा'में सुधीर रंजन सिंह ने ब्रेख्त की एक कविता की अच्छी टीका की है ।  छोटी सी कविता है । जितनी आसान , उतनी ही मुश्किल ----ऐसी द्वंद्वात्मकता लाना साधना का काम है ------

कसीदा  कम्युनिज्म  के  लिए -----

यह तर्कसंगत है , हर कोई इसे समझता है ।  आसान  है । 
तुम तो शोषक नहीं हो , तुम इसे समझ सकते हो ।
यह तुम्हारे लिए अच्छा है ,इसके बारे में जानो ।
बेवकूफ इसे बेवकूफी  कहते हैं और गंदे लोग इसे गंदा कहते हैं ।
यह गन्दगी के खिलाफ है और बेवकूफी के खिलाफ ।
शोषक इसे अपराध कहते हैं ।
लेकिन हमें पता है ,
यह उनके अपराध का अंत है ।
यह पागलपन नहीं ,
पागलपन का अंत है ।
यह पहेली नहीं है
बल्कि उसका हल है ।
यह वो आसान सी चीज है
जिसे हासिल करना मुश्किल है ।
और कुछ चाहे हो या न हो , फेस बुक आदमी की शिनाख्त करने में बहुत मदद करती है । उसके शब्द ही उसकी शख्सियत की गवाही देते हैं । उसकी गहराई और उथलापन  दोनों का साथ-साथ पता चल जाता है ।

Saturday 19 October 2013

आवारा पूंजी के शिकारी जमाने में 
 " बुद्धत्त्व" प्राप्त हुआ जिनको
बुढापा अच्छी तरह से कटेगा
एक विचारधारा की नाव से
जब नदी पार नहीं होती
तो वह कितनी ही नावों में
बैठकर जिन्दगी के मजे लेता है
पर भूल जाता है
कि आत्मा के साथ किया छल
कभी चैन से जीने नहीं देता । 

Friday 18 October 2013

कविवर पाश को
कहाँ पता था
कि यह देश कैसे कैसे
सपने देखता है
सपने यहाँ न कभी मरे हैं
न मरेंगे
यह सपनों की कोख में पला - बढ़ा है
यह अलग बात है कि
इसके सपनों  के नीचे
जमीन की ऊबड़-खाबड़ सतह
नहीं होती । 

यह सपनों का देश है यहाँ कर्म से ज्यादा सपने बिकते हैं । सपनों के बेचने वालों से ज्यादा खरीददार हैं । स्वर्ग का सपना और नरक का भय दिखाकर यहाँ न जाने कब से यह व्यापार चल रहा है । अब तो इसमें विज्ञान और उससे विकसित तकनीकों का भरपूर उपयोग किया जा रहा है । मीडिया इसमें अपने तरीके से टीआर पी देख लेता है ।

Friday 11 October 2013

कश्मीर के घर

ये हमारे घर हैं
जंगली घास क्यों उग आई है यहाँ
इनके भीतर
घुटनों के बल जो चले हैं
उनका दर्द अब
मैदानी जमीन पर
घिसट  रहा है
ऐसा क्यों होता है ?
और कौन कर जाता है ऐसा ?
आदमी की जात पूछकर
अब भी लोग पानी क्यों पीते हैं ?
आदमी को आदमी क्यों नहीं
रहने देते लोग ?

बदलने होंगे रास्ते

इन रास्तों पर
रोपे  जा रहे  हैं बबूल
ताकि बिखरे रह सकें कांटे
रास्ता  जो
खुद नहीं खोज सकता
वह सांप की तरह 
दूसरों के बनाए बिलों की
तलाश करता है

यह समय
दूसरों को धक्का देकर
अपना घर बनाने का समय है
अपने प्रासादों को
उठाने का समय है
यहाँ खेतों की दर्द भरी कहानी सुनने को
कोई तैयार नहीं
यहाँ पोखर के किनारे
बगुलों का बसेरा है
जो केवल आखेट करने की कला जानते हैं
अब स्मृतियाँ धोखा खाने लगी हैं
क्वार में बरसे मेघों की सिफ्त को
भूलने में जो अपना भला समझते हैं
उनसे अब कोई उम्मीद नहीं

जब ये नीम -पीपल की काठी वाले
लोग खड़े होंगे
तब ही बदलेगा
लाल किले की प्राचीर से दिया
राष्ट्र के नाम संबोधन ।

Thursday 10 October 2013

दिल्ली किसे नहीं जाना पड़ता
पर मुझे कभी
अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
मनभावन तो कभी नहीं
जैसे सुरसा के मुख में
प्रवेश कर रहा हूँ


वहाँ बहुत तरह के लोग हैं
अच्छे भी बुरे भी नामचीन
पर मुझे कभी अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
धनवान, बुद्धिमान , वैभव-संपन्न
शक्तिवान कितने तरह के लोग
चौड़ी चमकती सड़कें
बल खाते कमल की पंखुड़ियों -से
खिलते और चलते पुल

लाल किला
जहां १ ५ अगस्त का सूरज
हर साल उदित होता है

आकाश छूती क़ुतुब मीनार
और आदमी से सौदागरों में
बदलते शतरंज के खिलाड़ी
१ ९ १ १ में राजधानी वाली
घेर-घुमेर नई दिल्ली
बिल्लीमारान में कभी
मेरे पिता  रहे थे
गरीबी के दिनों को
फसल की तरह काटने की
 चाह लिए

दिल्ली लुभाती है
बाँध लेती है गले को
जैसे लोभ पाश में
फिर होने लगते हैं
आत्मा के सौदे
आजादपुर मंडी  में
जैसे आलू-प्याज के

वह डराती है
प्यार के सरोवर भी होंगे
वह खुद को प्यार करते रहने
की देती है सीख
दिल्ली बहुत अच्छी है
भव्य है आलीशान है
 अजायब घर जैसी
सब कुछ अपने में समेटे हुए । 
 

Tuesday 8 October 2013

फेस बुक की भूमिका पर अक्सर बहस चलती है कि सोसल मीडिया का यह नया और असरदार हथियार है । यह सही है किन्तु फेस बुक से ही सब कुछ नहीं हो सकता । आभासी और वास्तविक दुनिया के द्वद्वात्मक रिश्तों की लय  में बात होगी  तो व्यक्तिवाद ख़त्म हो सकता है । जो  व्यक्ति जन्म से ही व्यक्तिवाद का शिकार है , उसे कोई रास्ते पर नहीं ला सकता । यदि व्यक्ति अपने जीवन-व्यवहार में व्यक्तिवादी तौर-तरीकों से काम निकालता है तो वह फेस बुक पर भी वैसा ही करेगा  ।इसका एक पूरा मनोविज्ञान है  फिर हर चीज के दो पहलू हैं ।  आप इससे बच  नहीं सकते । एंटी-बायोटिक्स जीवाणुओं को भी रुग्नाणुओं  के साथ-साथ मार देती है , फिर भी लोग जरूरत पड़ने पर एंटी-बायोटिक्स  लेते ही हैं । सोसल मीडिया के इस नए अवतार को ज्यादा से ज्यादा वस्तुगत बनाइये और आत्मगतता की छोंक लगाइये तो अन्धेरा मिट सकता है । यह सार्वजनिक मामला है , जिसके ऊपर मानवता-विरोधी ताकतों का पहरा भी  लगा  हुआ है ।
बाज़ार में पशु-न्याय चलता है । बड़ी मछली छोटी मछली को खाते देर नहीं लगाती । मनुष्य- न्याय यह नहीं है, वहाँ कमजोर की रक्षा करने का प्रयत्न होता है । पूंजी की व्यवस्था पशु - न्याय से चलती है । इसीलिये समाजवादी व्यवस्था ही पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प हो सकती  है , जो व्यक्ति को पशु-न्याय से बाहर निकाल कर मनुष्य-न्याय की तरफ ले जाती है ।
दुनिया में कोई विरल ही  होगा , जो चाटुकारों की गिरफ्त में आने से बच  सके । परमात्मा को भी चापलूसी से वश में करने का गोरख-धंधा दुनिया ने इसी  व्यवहार से  सीखा  है । यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया में कभी अंधभक्त पैदा नहीं होते ।

Monday 7 October 2013

 हमको तुलसी और कबीर में बनावटी लड़ाई करने से बचना चाहिए ।  कबीर का अपना बहुत बड़ा योगदान है , जो तुलसी से कम नहीं किन्तु तुलसी का अपना बड़ा योगदान है , जो कबीर से कम नहीं । कबीर शिल्पी समाज की भावनाओं को व्यक्त करते हैं तो तुलसी किसान जीवन के ज्यादा निकट हैं । समय और समझ  के अन्तर्विरोध दोनों में ही है । तुलसी राम राज्य का एक आदर्शवादी विकल्प सुझाते हैं तो कबीर प्रेम-राज्य का । कबीर कहते हैं ----"-प्रेम न बारी ऊपजै , प्रेम न हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै ,सीस देय ले जाय ॥ "विकल्प के मामले में दोनों आदर्शवादी हैं । अब रही हमारे समय की बात , । उसका विकल्प तो हमको स्वयम को खोजना होगा । विकल्प कभी भूतकाल से नहीं मिला करते । समय-समाज निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में रहते हैं , लेकिन हमारा अतीत बहुत सी बातों में हमारा सहयोग करता है । हमारे कालजयी ग्रन्थ , केवल हमारे ही नहीं , दुनिया भर के कालजयी ग्रन्थ हमारी वर्तमान में सहायता करते हैं । हम उनसे बहुत सी बातों में उल्लसित , प्रेरित व उत्साहित होते हैं । वे वर्तमान की हमारी हताशा को दूर करते हैं और कोई रास्ता निकाल लेने में हमारी मदद करते हैं । जरूरत उन आँखों की अवश्य है जो उस इबारत को पढ़ सके । जो साहित्य में विचार के साथ भाव के हामी हैं उनको कबीर, सूर , तुलसी , मीरा , जायसी आदि में बहुत कुछ ऐसा मिल जायगा , जो आज भी हमारे बड़े काम का है , बाकी तो अपने युग की भाव-विचार रचना हमको स्वयम करनी है । सब कुछ कबीर-तुलसी ही पहले से कर जाते तो फिर हम आज क्या काम करते ? आज की कविता तो आज का कवि ही लिखेगा ।

Sunday 6 October 2013

तर्कशील व्यक्ति अपनी हकीकत  को छुपाने के हज़ारों तर्क खोज  जो लेता है । अविवेकी इस मामले में हमेशा फिसड्डी रहता है अविवेकी न होता तो एक वर्ग दूसरे  बड़े वर्ग  को बेवकूफ बनाकर 'लोकतंत्र' के नाम से राज नहीं कर पाता ।

सच में सच्ची कविता वह है जो "पुकारती हुई चली जाए" ।मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में लिखा है -----"मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं ।" जब मूल्य संपन्न जीवन जीने की आकांक्षा , ललक और तदनुरूप आचरण होता है तो व्यक्ति-रचना , लोक- रचना की तरह आती है  । उसमें  प्रस्तुत के साथ जो अप्रस्तुत विधान आता  है और  जिन्दगी के जो अनूठे और जीवंत रूपक आते हैं ,वे अपनी जमीन से पौधों की तरह उगते हैं , उनकी अपनी जमीन , प्रकृति और जीवन प्रवाह होता  है । कविता वह है जो  बरबस हमको अपनी ओर खींचती है , जो हमारे दिल और दिमाग की वाणी बनती  है । अपनी धरती में रचा बसा लोक-मग्न ह्रदय ही ऐसी अभिव्यक्ति कर सकता है । जहां भाव और विचार की एक जीवन-सिक्त धारा सी   भीतर-भीतर प्रवाहित  होने लगती है और हमारा मन उसमें डूबने  और बदलने के लिए प्रेरित होने लगता है । बड़े कवि-व्यक्तित्त्व इस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं और यह कवि की विकास -यात्रा का प्रमाण होता है ।  
सच में सच्ची कविता वह है जो "पुकारती हुई चली जाए" ।मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में लिखा है -----"मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं ।" जब मूल्य संपन्न जीवन जीने की आकांक्षा , ललक और तदनुरूप आचरण होता है तो इसी तरह की रचना जन्म लेती है । यहाँ प्रस्तुत के साथ जो अप्रस्तुत विधान है , जिन्दगी के जो अनूठे और जीवंत रूपक हैं , उनकी अपनी जमीन , प्रकृति और जीवन प्रवाह है । ऐसा कविता में बहुत कम आ पाता  है , जब वह बरबस हमको अपनी ओर खींचती है , जो हमारे दिल और दिमाग की वाणी बनती  है । अपनी धरती में रचा बसा लोक-मग्न ह्रदय ही ऐसी अभिव्यक्ति कर सकता है । जहां भाव और विचार की एक जीवन-सिक्त धारा सी प्रवाहित  होने लगती है और हमारा मन उसमें डूबने  और बदलने के लिए प्रेरित होने लगता है । बड़े कवि-व्यक्तित्त्व इस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं । बहुत अच्छी कविता की प्रस्तुति के लिए बधाई ।
आज कई दिनों बाद फेस बुक पर आया ,। बीच- बीच में छोड़ देता हूँ । लगता है कहीं इसकी लत न लग जाये । आज  आदरणीय विजेन्द्र जी का तुलसी ,दलित और वर्ग-चेतना से सम्बंधित लंबा वक्तव्य पढ़ा  । तुलसी को लेकर यह बहस बहुत पुरानी है । प्रगतिशीलों-जनवादियों में भी दो धड़े रहे हैं जिनमें एक धडा तुलसी को उनकी  कुछ चौपाइयों के आधार पर प्रगति-परम्परा में नहीं मानता । सवाल परम्परा का है । हमारी कलाओं में बहुत कुछ ऐसा है जो हजारों साल चले सामंत -काल  में व्यक्ति और वर्ग-शोषण के आधार पर निर्मित हुआ है । किन्तु हम वहां इस पक्ष को भूल कर उसकी कला को चुनते हैं और वह हमको मेहनतकश की दृष्टि और  श्रम का एक कलारूप दिखाई देता है । व्यक्ति- रचनाकार के सन्दर्भ में हम इसको भूल जाते हैं कि समय की गति नदी जैसी नहीं होती । व्यक्ति अपने श्रम और मेधा से जिस समय को रचता है , उसकी सीमाएं होती हैं । कालिदास ने ही कहा है  कि " पुराना सब कुछ त्याज्य नहीं है और नया भी सब कुछ वन्दय नहीं है " । तुलसी ने स्वयम संग्रह -त्याग का नियम दिया है ----संग्रह त्याग न बिनु पहचाने । निस्संदेह, उनके यहाँ स्त्री और दलित समाज के बारे में जो कहा गया है , वह आज प्रासंगिक नहीं है । और वह सामंतवादी व्यवस्था भी जो वंशानुक्रम पर आधारित है । लेकिन सामंत वाद में भी वे एक आदर्शवादी विकल्प देते हैं , जिसके महात्मा गांधी सरीखे अति लोकप्रिय जन-नेता  कायल होते हैं । गांधी जी चूंकि तुलसी को पसंद  करते हैं इसलिए उनसे लोग अक्सर ऐसे ही प्रश्न किया करते थे । उन्होंने ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुएएक जगह पर  लिखा है --"इस तरह प्रत्येक ग्रन्थ और प्रत्येक मनुष्य को दोषमय सिद्ध किया जा सकता है " । उन्होंने लिखा है कि ---" तुलसीदास जी ज्ञानपूर्वक स्त्री जाति के निंदक नहीं थे । ज्ञानपूर्वक तो वे स्त्री-जाति के पुजारी ही थे ।" यही बात शबरी और निषाद के उदाहरणों से उनके दलित विरोधी कथनों के बारे में कही जा सकती है । दरअसल , इतिहास और परम्परा को जानने का एक नजरिया होता है जिससे हम उसके सारतत्त्व को ग्रहण कर सकें । तुलसी का सारतत्त्व " लोकवादी " है , इसमें संदेह नहीं होना चाहिए , उनकी सीमा को स्वीकार करते हुए । अन्यथा स्त्री विरोध के नाम पर कबीर भी स्वीकार्य नहीं होंगे ।

Tuesday 1 October 2013

 चितौड़ के दुर्ग में बने विजय स्तम्भ में उसकी वास्तु कला तो चकित करती ही है यह बात भी कि महाराणा कुम्भा ने इस बात का ध्यान रखा कि इस नौ मंजिले स्तम्भ की तीसरी मंजिल पर इसके मुख्य वास्तु शिल्पी जैत और उसके तीन सहायक पुत्र नापा ,पूजा आदि के नाम भी उत्कीर्ण करवाए ।  चितौड़ के विश्व-विख्यात दुर्ग में घूमते  हुए जो आत्मीयता और आदर  ---महेन्द्र ,अर्चना , भावना शर्मा और रमेश भाई से मिला , वह मेरे लिए यादगार बन गया है ।अपनी माटी ---ई -पत्रिका के सम्पादक  मानिक जी औरप्रो.सत्य नारायण  व्यास जी ने यह सुखद संयोग बनाया । कार्य क्रम में फेस बुक से जुड़े युवाओं की सक्रिय  और आत्मीय भागीदारी इस माध्यम की अर्थवत्ता को दर्शाती है ।  यात्रा का प्रयोजन पूरा हुआ ।