Tuesday 16 September 2014

एक कविता


मैं उदास क्यों हूँ ?

मैं क्यों उनके असर में आता जा रहा हूँ ,
जो मेरी उदासी को बढ़ाते हैं
सैर सपाटे के समय भी
वे कांटे     बिछाते हैं
मेरे अपने सोच को छीन कर
वे अपनी शैतानी , लालच और दैत्याकारी   सफलता की
मनुष्य विरोधी  कहानियों को 
आसमान से फैंकते है
मेरे दिमाग को
स्वाधीन क्यों नहीं रहने देते वे
मुझे रोज रोज उदासी के परदे से
ढकते हैं
और वह जीवन--सत्य भी
जो हज़ारों सालों से पहले आदमी की बात करता  था
बाद में किसी और की
यह कैसी दुनिया है
जो चीजें मेरे हाथ में देकर
मेरे जीवन की सारी खुशियाँ छीन रही है
मेरी स्वाधीनता पर सबसे बड़ा पहरा लगाया जा रहा है
जब से टेलीपैथी  की इस  दूर बैठी दुनिया ने
मेरे आँगन में अपनी खाट बिछाई है
मेरा स्वभाव बदल रहा है
मेरी इच्छाएं बदल रही हैं
मेरा ज्ञान बदल रहा है
मेरी क्रियाएँ बदल रही हैं
इतने तक होना ,  फिर भी ठीक  है
संकट यह है  कि   मेरा शील
मेरा ईमान बदल रहा है
मेरा सौंदर्य बोध बदल रहा है
और वह उस दिशा में जा रहा है
जहां एक खूनी जंगल पसरा हुआ  है
 अब मैं उदास ही नहीं
हैवानियत की और भी जाने लगा हूँ
मैं अपनों से बिछुड़ने लगा हूँ
मैं अपने गाँव के किनारे बहने वाली नदी से
उसके होते हुए विमुख हो  रहा हूँ
 मुझे पता नहीं कि 
झेलम में इतनी गाद  किसने भरी 
कि  वह जल--प्रलय का कारण बनी 2014 के सितम्बर माह में
यह एक दिन का काम नहीं
 जिसने किया है
वह हमारे आस पास दिखाई नहीं देता
उसकी नज़र हमारे पहाड़ों , नदियों पर है
उसने अपनी दानवाकार यंत्र विद्या से
मुझे उदास किया है
उसके नीचे छिपे है युद्ध के ऐसे हथियार जो
कितने हिरोशिमा और नागासाकी
जैसी प्रलय मचा सकते हैं
यह कैसी दुनिया है जो
लगातार मेरी उदासी को बढ़ाती जाती है ।



 जीवन सिंह ,
1 /14 अरावलीं विहार ,
काला कुआ ,
 अलवर (राजस्थान )301002
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