Tuesday 27 November 2012

सीता हरण के प्रसंग
इसलिए चाल अपनी बदलू ,भय प्रीति दिखाऊ (गा )इसको ।जैसे भी हो वैसे ही अब रेखा बाहर लाऊ इसको ।
चालबाज ही दुनिया में हर जगह राज वो करते हैं ।सच पर चलने वाले उनके घर पानी भरते हैं ।
सच पर चलते जो दृढ़ता से दुनिया में भूखो मरते हैं ।झूठ-कपट करने वाले सुक्ख नसेनी चढ़ते हैं ।
रावन की लंका सोने की ,राम भटकता है वन में ।आदेशों से नभ थर्राता ,भय बैठा मेरा जन जन में ।

मारीच से
सच पर टिकने वाले ने मामा ,हर युग में ही दुःख पाया है ।चालबाज छल कपटी ने अपना राज जमाया है ।
मेहनत करके जो पेट भरें वो कब जग में सुख पाए हैं ।मेहनत के गीत सदा से ही कमजोरो ने गाये हैं ।
मेहनत तो खूब गधे करते बैलो को जोता जाता है ।उन्हें हांकने वाला ही धन वैभव सब कुछ पाता है ।
इसलिए नीति की बातें सब कमजोरो के मन भाती हैं ।ताकतवर की मुट्ठी में जग रहा नीति बतलाती है ।

Monday 22 October 2012

१९ अक्टूबर २०१२,सिडनी,आस्ट्रेलिया
मौसम का ऐसा मिजाज दुनिया में कम ही जगह होगा ,सुबह ,दोपहर ,शाम के साथ बदलता हुआ |जैसे रूपसी अपना श्रृंगार और रूप क्षण-क्षण में बदलती है |मेघों का उमड़ना तो यहाँ चुटकी बजते ही होता है |इन दिनों फूलों की बहार आई हुई है ,चटक गुलाबी,नीले,पीले ,सफ़ेद, बैगनी रंगों का जैसे उत्सव लगा हो |अभी इस देश के राजधानी नगर 'कैनबरा 'में कई रोज तक फूलों का मेला चला है ---लोक-उत्सव की तरह |मुझे दिल्ली के' फूल वालों की सैर' याद आ रही है |उत्सव मनाने में हमारे देश से सब नीचे पड़ते हैं |हमारे यहाँ कोई दिन ऐसा नहीं जो उत्सव-भाव के बिना हो |उत्सव भी एक-दो दिन नहीं पूरे सप्ताह-पखवाड़े तक चलते हैं |रो-रोकर दिन काटे तो क्या काटे ?गरीबी और विषमता तो जब मिटेगी तब मिटेगी ,इसलिए हमारे यहाँ गरीब भी मावस मनाये बिना नहीं मानता |लड़ते-झगड़ते ,संघर्ष करते उत्सवों के बीच रहना ,कुछ ऐसी ही प्रकृति है मेरे देश की |यह प्रकृति ही है जो दुनिया को सबसे पहले विश्वात्मा का चोला पहनाती है |जो सबको मुक्त-हस्त से अपनी दौलत बांटती है | दूसरे देश में पहला परिचय भी प्रकृति से होता है |ओल्ड्स पार्क में सुबह सैर करते हुए दो जगहों पर नीम-प्रजाति के दो पेड़ मिलते हैं |इन दिनों इनमें फूलों की बस्ती बसी हुई है |हमारे नीम के फूल से आकार में बड़ा है फूल इसका |गंध में भी अलग है |गंध का रिश्ता मिट्टी से होता है ,जैसा मिट्टी-पानी वैसी गंध |
नेट पर आज प्रसिद्ध कवि लोर्का की एक छोटी कविता पढी --------गर मैं मरू /खिड़की खुली छोड़ देना /छोटा बच्चा संतरे खा रहा है /{अपनी खिड़की से उसे मैं देख सकता हूँ } किसान गेंहू की फसल काट रहा है /{अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूँ }गर मैं मरूं /खिड़की खुली छोड़ देना |"
बना रहे बनारस 'ब्लॉग पर इसे पढ़ा |कविता के दोनों बिम्ब सार्वदेशिक हैं और ठेठ जीवन की उपज हैं |बच्चे को संतरा खाते देखने की लालसा और किसान को फसल काटने से होने वाली क्रिया ध्वनि को सुनने की आकांक्षा कवि और पाठक दोनों को उनकी आत्मबद्ध दशा से मुक्त करती हैं |जीवन की सहज क्रियाएं व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती हैं |इनमें भविष्य का एक कर्म-सन्देश भी है |आज जीवन में से जिस तरह सहजता का निष्कासन हो रहा है और उसकी जगह एक बनावटी सभ्यता ले रही है ,बच्चे द्वारा संतरे खाने की क्रिया में कवि उस सहज सौन्दर्य को देखना चाहता है |इसी तरह किसान की कर्मशीलता का सौन्दर्य है जो आदमी की बुनियादी जरूरत को पूरा करने से सम्बंधित क्रिया है |अद्भुत अर्थगर्भी व्यंजना के रंग में रंगी यह छोटी सी कविता अपनी भाव -पूर्णता में पाठक के मन को द्रवित करने की शक्ति रखती है |एक आधुनिक व्यक्ति की ऐसी आकांक्षाएं किसी को भी असमंजस में डाल सकती हैं कि मृत्यु की घड़ी में इतनी तुच्छ आकांक्षा |न मुक्ति की कामना ,न स्वर्ग की आकांक्षा और न ही आवागमन से मुक्त होने की इच्छा |जब लोक जीवन में कवि एक श्रम-रत किसान को देखने की आकांक्षा व्यक्त करता है तो उसके लिए श्रम जीवन-मूल्य की तरह बन जाता है |आज का कवि भी इसी श्रम-संलग्नता की तलाश में लोक में जाता है |
यहाँ मैं अपने चार वर्षीय पुत्र अभिज्ञान के साथ हूँ |उसकी सहज जीवन क्रियाओं को देखते हुए हमारे मन को भी इससे राहत मिलती है |


कृपया १९ अक्टूबर की डायरी में "चार वर्षीय पुत्र की जगह ----चार वर्षीय पौत्र पढने का कष्ट करें |"यह गलती अंगरेजी से हिंदी में बदलने की वजह से हुई |क्षमा करेंगे ----जीवन सिंह


Wednesday 17 October 2012

डायरी १७ अक्टूबर २०१२ की
सिडनी का मौसम बहुत धोखेबाज है ,यद्यपि सुहावना -मनभावन भी है | अभी गर्मी है किन्तु शाम का पता नहीं कि अचानक ठण्ड टपक पड़े |अभी सूरज निकल रहा है , पता नहीं एक पल में वह बादलों द्वारा घेर लिया जाए |वैसे इस समय बसंत चल रहा है सबसे सुहावन ,लेकिन बेचारे बसंत के बीच-बीच में आकर गर्मी- सर्दी- बरसात अपना अडंगा लगाए बिना नहीं मानती |मौसम के बीच एक तरह की छीन-झपट -सी चलती रहती है या ऋतुएँ आँख-मिचौनी का खेल खेलती रहती हैं |यह शहर पेड़ों और पार्कों से घिरा हुआ है |सागर-तट पर बसा टेढ़ी -मेढ़ी चाल चलता हुआ ----सीधी रेखा को नकारता |जैसे पूंजी वादी व्यवस्था में लोग सीधी-सच्ची चाल नहीं चलते |टेढ़ी-मेढ़ी चालों से ही ठगिनी महामाया का कारोबार चलता है |रहीम ने लक्ष्मी को चंचला कहकर उसकी मजाक बनाई है ----कि वह बूढ़े आदमी की पत्नी होने के कारण चंचला है -----पुरुष पुरातन की बधू क्यों न चंचला होय |मैं भी यही मानता हूँ कि इसका कोई चरित्र नहीं होता ,न ईमान होता है ,न कोई धर्म |यह किसी की सगी नहीं होती |इसको वश में रखना आसान नहीं |यदि अतिरिक्त पूंजी इकट्ठी हो गयी तो आदमी को क्रूर होते देर नहीं लगती |पूंजीपति की करुना दिखावटी होती है |वह कभी दूसरों का खून चूसना बंद नहीं करता |ऊपर से पूंजी मधर-मधुर बोलती है किन्तु हर घड़ी अपने हाथ में दूसरों को फंसाने का फंदा लिए रहती है |कबीर ने इसको महामाया कहते हुए लिखा --------माया महा ठगिनी हम जानी , तिरगुन फांस लिए कर डोलै,बोलै मधुरी बानी |कौन है जो नारद -मोह की तरह पूंजी-मोह से ग्रस्त नहीं हुआ |पैसे की जरूरत सभी को बराबर होती है मगर जब उस पर कुछ ही लोग अपना अधिकार जमा लेते हैं तो दूसरों को अभावों की पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है |इसलिए इस पर अंकुश लगाने की जरूरत होती है |आवारा पूंजी का काम तो दूसरों को ठगने का ही रहता है |जो इस समय पूरे विश्व में धडल्ले से चल रहा है |बहरहाल यह देश भी आवारा पूंजी का कारोबारी देश है |लेकिन इन्होने थोड़ी सी लगाम लगा राखी है |श्रम के पूंजीवादी कानूनों का पालन करते हुए यहाँ के श्रमिकों को वैसी यातनाओं से नहीं गुजरना पड़ता ,जैसा हमारे देशों में जहां श्रम की सप्लाई अधिक होने से सौदेबाजी करने के ज्यादा से ज्यादा अवसर बने रहते हैं |दुनिया में सबसे सस्ता श्रम शायद हमारे यहाँ ही बिकता है |

Tuesday 16 October 2012

प्रिय भाई पुनेठा जी ,अजय तिवारी का लेख उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद |लेख ठीक है ,विश्लेषण सही है |किन्तु लोक के बारे में पहले से बनी अवधारणा को ही प्रस्तुत किया गया है |यह सही है कि कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लोक के नाम पर भावुकता को परोसते हैं |वैसे भावुकता के बिना साहित्य ,साहित्य नहीं रह पाता लेकिन यदि भावुकता अपने समय के यथार्थ को व्यक्त न करके केवल लोक जी वन के भावुक पक्षों का ही बयान करती है तो वह अपने समय से आँख चुराने वाली मानी जायगी |शायद यही सन्दर्भ वे व्यक्त करना चाहते हैं |आप देखें कि तिवारी जी ने "आत्यंतिक "विशेषण लगाया है |जो बतलाता है कि एक सीमा तक वे इसे स्वीकार भी करते हैं |दरअसल दिक्कत यहाँ भी उन जीवनानुभवों की है , जो लोक से जुड़े हुए हैं |शहरी जीवन बिताते हुए ये बस इतना ही देख और समझ पाते हैं |लोक को अपना आलोचक अपने भीतर से पैदा करना होगा |मध्यवर्गीय सीमित सरोकारों से जुड़े लेखक लोक का शायद ही समर्थन करें |लोक एक अलग तरह की दृष्टि की मांग करता है |पता नहीं नागार्जुन , त्रिलोचन , केदार जी की प्रशंसा करने वाले ये लेखक उनके लोक को किस तरह देखते हैं ?बहरहाल ,लोक की विशेषताओं का उदघाटन करने के लिए लोक के बीच का आलोचक पैदा करना होगा |उसकी पहले ये लोग उपेक्षा करेंगे , बाद में स्वीकार भी करेंगे |प्रसन्न होंगे | जीवन सिंह

Thursday 11 October 2012

आदरणीय भाई ,आगे इस सम्बन्ध में जो प्रगति हो उससे अवगत कराना |कामेश्वर जी आपके निर्देशन में गाडी को खींच सकते हैं |सुविधा की बात यह भी तो है कि वे जयपुर की जयपुर में हैं और अब सेवा-मुक्त भी हो गए हैं |घर के दायित्व भी शायद सीमित हैं |बेटे की नौकरी से प्रसन्न हैं | उनकी इच्छा भी है |सामग्री आपको जुटानी होगी और सम्पादकीय पहले की तरह लिखते रहना होगा |बाद में कामेश्वर जी अनुभवी हो जायेंगे तब वे और दायित्त्व बटा लेंगे |भाभी जी को प्रणाम |आपका -------जीवन सिंह

Wednesday 10 October 2012

आदरणीय भाई ,रमाकांत जी को न कहने में बड़ा जोर आयगा |उन्होंने जिस वृक्ष के मधुर फलों का अमृत- आस्वादन कर लिया है उस वृक्ष की छाया को वे आसानी से कैसे छोड़ेंगे |कृति-ओर के सम्पादन ने उनकी ख्याति को जैसे पंख लगा दिए , यह बात वे अच्छी तरह से जानते हैं |इससे पहले राजस्थान से बाहर कितने लोग जानते थे ? मुझे भी लगता है वे अवसाद से अब जल्दी उबर जायेंगे काफी समय हो चुका है |थोड़ा इंतज़ार और कर लीजिये |एकाध बार स्वास्थ्य के बहाने पूछ भी लीजिये |संभव हो तो ,कामेश्वर जी को भेज भी दीजिये ,किन्तु तभी जब उनकी तरफ से कोई संकेत मिले अन्यथा कामेश्वर जी को अच्छा नहीं लगेगा |बहरहाल ,कोई रास्ता अवश्य निकलेगा |अब पूंजीवादी व्यवस्था के साहित्य-संस्थान केवल पूंजी के चाकर बन कर रह गए हैं ,उनकी अध्यक्षता करना भी पूंजी की हाजिरी बजाना ही है |आपने वेद व्यास को मना कर दिया ,अच्छा किया |पूंजी की प्रगतिशीलता का मानवीय चेहरा अब साम्राज्यवाद ने क्षत-विक्षत कर दिया है |लेकिन राजस्थान में दोनों तरफ से मरना है |साम्प्रदायिकता का प्रेत भी तो पीछा नहीं छोड़ता |इसका लाभ पूंजी के ठगों को मिलता रहा है |ह्यूगो शावेज की चौथी बार अमरीका की नाक के नीचे जीत उत्साह्दायी है |पृथ्वी कभी वीर-विहीन नहीं होती |इस योद्धा को सलाम |भाभी जी को प्रणाम |आदर सहित ------आपका ------जीवन सिंह

Monday 8 October 2012

आदरणीय भाई ,आपने जो प्रक्रिया लिखी है ,वह मुझे भी सही लगती है |पहले रमाकांत जी ,फिर त्रिपाठी जी |त्रिपाठी जी से अकेले गाडी नहीं चल पायगी ,लेकिन जयपुर में रहते हुए आपका बहुत बड़ा सहयोग रहेगा |वह सहयोग होगा रचनाएं आमंत्रित करने और मंगाने का |लोग रचनाएं आपको देंगे ,त्रिपाठी जी को नहीं |रमाकांत जी को भी आपकी वजह से ही देते थे ,अन्यथा उनके पास तो मृदुल जी वाली पत्रिका थी ही |किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह कमाई आपकी नहीं है |कृति ओर ---को आपने रोपा है और अपनी दृष्टि से चलाया है और इसके लिए कितनों से नाराजगी मोल ली है |बाकी भाग-दौड़ का सारा काम त्रिपाठी जी कर लेंगे |फिर जब उनका नाम जायगा तो जिम्मेदारी महसूस होगी और वे इसके साथ मन से जुड़ जायेंगे |जिम्मेदारी का भाव व्यक्ति को अपने कर्म के प्रति गंभीर बनाता है |फिर जनवाद और जनवादी साहित्य में उनकी आस्था इससे और सुदृढ़ होगी |वे लोगों को भी समझते हैं |आपका रोज का साथ रहेगा |संवाद से रास्ता निकलेगा |मुझे विश्वास है |वे जयपुर जब आ जायेंगे तब उनके नाम ही एक मेल लिखूंगा |भाभी जी को प्रणाम | आपका -----जीवन सिंह
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आदरणीय भाई ,
बात दरअसल यही है कि अभी तक कोई विश्वसनीय टीम नहीं बन पाई है |यदि ऐसा हुआ होता तो आज यह संकट उपस्थित नहीं हुआ होता |आपने कोशिश भी लगातार की हैं कि टीम बने ,किन्तु व्यक्ति की स्वार्थपरता,महत्त्वाकांक्षा और बिना मेहनत किये जोड़-तोड़ से जल्दी सब कुछ पा लेने ,की प्रवृति ने व्यक्ति को व्यक्ति ही रहने दिया ,|वैसे तो जयपुर में क्या नहीं है किन्तु मन का न हो तो क्या है ?जलेस-प्रलेसों के कलेश ज्यादा है , राहत की बात कोई नहीं |हम प्रलेस छोड़कर जलेस में आये लेकिन क्या हुआ ?|सभी जगह व्यक्ति ही व्यक्ति मिले ,कहीं संघ-समुदाय नहीं मिला |सब अनुयायी चाहने वाले हैं ,कामरेड ,साथी या सच्चा दोस्त नहीं | बहरहाल, कामेश्वर जी ने मुझसे भी लम्बी बातें की थी |'कृति ओर ' को लेकर और आपकी साहित्य -निष्ठा के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान है |वे अब पूरी तरह मुक्त भी हो गए होंगे ,इसलिए पूरा सहयोग कर सकते हैं |कृति-ओर जयपुर रहे ,यह सुविधाजनक रहेगा और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सुकर भी |बस कामेश्वर जी से सारा दायित्व संभाल लेने की मंशा को पक्का कर लिया जाय |वे उत्साही हैं ,इच्छा भी है और विश्वसनीय भी हैं ,साहित्य के मामले में साईवाल से ज्यादा समझते हैं ,| वे आपके पूरावक्ती सहयोगी हो सकते हैं जो आपको प्रूफ इत्यादि देखने और पूरे प्रबंधन से मुक्त रख सकें |इससे पहले रमाकांत जी अवसाद से उबरकर सक्रिय हो जाएँ तो कहना ही क्या है | सोचेंगे तो राह भी निकलेगी |आदर सहित -----आपका ----जीवन सिंह

Sunday 7 October 2012

आदरणीय भाई ,
आपके मेल में व्यक्त आपकी पीड़ा को जान सकता हूँ कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में एक रास्ता बनाया हो और वह रास्ता एक बिंदु पर जाकर बंद हो जाए तो उस समय जो अहसास होगा ,उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है ,लेकिन मैं ये नहीं चाहता कि कोई काम शुरू करके बीच में छोड़ दिया जाय ,इससे अच्छा है कि उस रास्ते चला ही न जाय |अलंकार के बच्चे की वजह से अब कुछ समय तक लगातार व्यवधान आने की आशंका बनी हुई है अन्यथा इस समय हमको यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं थी |वह अब भी बार-बार अवधि को आगे बढवाने की कह रहा है |यदि इस समय चले भी जायेंगे तो फिर कुछ समय बाद यहाँ आने की कह रहा है |हमने भी ऐसा कभी नहीं सोचा था |आप जानते हैं कि लोग तो ऐसे जमे-जमाये सम्पादन की तलाश में रहते हैं |लेकिन मैं अपनी परिस्थिति को खुद जानता हूँ |इसलिए मैंने सब कुछ आपको पहले ही लिख दिया |सम्पादन नियमितता चाहता है समय की पूरी पाबंदी |अनियतकालिक पत्रिका तो है नहीं कि जब चाहो तब निकाल लो |भाभी जी को प्रणाम |आदर सहित -------आपका -----जीवन सिंह

Friday 5 October 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |अपनी जगह तो अपनी ही होती है |गाय भी अपने खूंटे को आसानी से कहाँ भूलती है |सूर ने कहा भी है ----"-मेरो मन अनत कहाँ सचु पावै |जैसे उडि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै ||"महिलाओं की जड़ चूल्हे में होती है | आवास को उनकी भावनाएं ही 'घर' का रूप देती हैं |हमारा मन भी यहाँ से आने को बीच-बीच में तुडाता है , किन्तु विवशता की वजह से मन को नियंत्रित करना पड़ता है |अलंकार को उसके बच्चे की वजह से हमारी जरूरत है |यहाँ सहयोगी तो मिलते नहीं ,घर के लोग सस्ते भी पड़ते हैं और विश्वसनीय भी |वह हमारी वीजा अवधि को और बढवाने की कह रहा है |आगे भी यहाँ अभी और आना जाना पड़ सकता है |इस वजह से 'कृति-ओर'का दायित्व निभा पाना आसान नहीं होगा ,यद्यपि मैं जानता हूँ कि यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है |वह भी ऐसे समय में जब चारों ओर विचारधारा को दरकिनार किया जा रहा है और लोक की घनघोर उपेक्षा या उसके प्रति कुलीनता वादी रवैया |अच्छा यही रहेगा कि रमाकांत जी अवसादमुक्त होकर इसे करते रहें |उनका मन भी उत्साहित रहता है |कृति-ओर ' का संपादन करते हुए वे अवसादमुक्त रह सकते हैं |आपको यह विश्वास दिला सकता हूँ कि आगे भी मेरा पूरा सहयोग रहेगा |
आनंद प्रकाश जी की मुक्तिबोध पर आई किताब की खबर से चित्त विस्तार हुआ |हिंदी में आती तो क्या बात थी ? ज्ञानरंजन जी को लगा होगा कि शून्य में समय को उनकी जरूरत है | बाकी सब ठीक है |भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें | आपका ------जीवन सिंह

Thursday 4 October 2012

प्रिय नूर भाई ,सलाम मेवात में लगातार निखार आ रहा है |तायल साहब और आप सभी की मेहनत रंग ला रही है |संस्कृति को ----मेवात की संस्कृति को काफी जगह दे रहे हैं आप |जबकि समय कुछ इतना चालू है कि संस्कृति के नाम पर केवल नाच-गाना परोस कर बतला दिया जाता है कि संस्कृति इसी को कहते हैं |संस्कृति में भाव और विचार भी अपनी जगह रखते हैं ,इस बात को अब कितने से लोग मानते और समझते हैं |आवारा पूंजी ने सब कुछ गुड-गोबर कर दिया है |कबीर ने इसी लिए माया को महाठगिनी कहा था |आज तो दुनिया पर यही ठगिनी राज कर रही है |इसमें हमारा किसान-मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा पिसता है |मेहनतकश की सबसे ज्यादा मौत है |मेवाती किसान की मौजूदा जिन्दगी का सही सर्वे करा कर देखा जाय तो बड़े भयावह परिणाम सामने आयेंगे | 'हुक्का पे '---स्तम्भ ठेठ मेवाती के मुहावरे में अपना असर अवश्य बना रहा होगा |इससे लोग अपनी आत्मा को पहचानेगे |इस बोली की अपनी अनूठी ठसक है |बेबाकी से कोई अपनी बात कहने की कला सीखना चाहता है तो कोई मेवाती से सीखे |सिद्दीक भाई को मेरी बधाई जरूर दें |यह व्यक्ति के मन का सतम्भ है |एक जमाने में हुक्का सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा है जो ग्रामीण जीवन में आज भी बचा हुआ है और सामूहिकता को बचाए हुए है |शिक्षा और समाज के बीच के ढीले पड़ते हुए और बेहद व्यावसायिक होते जा रहे रिश्ते को 'सलाम मेवात ' और अधिक तार्किक एवं मानवता की पक्षधर दिशा में ले जाये ,---ऐसी कामना करता हूँ |आपकी पूरी टीम को मुबारकबाद | स्वस्थ -प्रसन्न होंगे | --------जीवन सिंह मानवी ,फिलहाल सिडनी , आस्ट्रेलिया

Sunday 30 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं है |बदलाव इसे मैं केवल साम्राज्यवादी आवारा पूंजी की 'रणनीति 'में मानता हूँ जिससे एक जमाने में दुनिया का जो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से लड़ा करता था ,उसने आवारा पूंजी से हाथ मिलाकर विश्व स्तर पर राजनीति की प्राथमिकताओं को पूंजी के पक्ष में इतना कर दिया है कि किसान-मजदूरों और अन्य मेहनतकशों के समक्ष विश्व -स्तरीय प्रभावी नेतृत्व फिलहाल उभर नहीं पा रहा है |आज लेटिन अमरीका के देशों की श्रम-ताकतों में अवश्य सुगबुगाहट है |मैं इसका सबसे अहम् कारण जागरूक ,अवकाश -भोगी और उच्च वर्ग से दबे हुए (आत्म-सम्मान या आंतरिक पराधीनता के अर्थ में ) मध्य -वर्ग की निरंतर बढ़ती उदासीनता को मानता हूँ |क्या वजह है कि नरसिंह राव से लगाकर मनमोहन सिंह तक राजनीति का बलाघात 'निम्न वर्ग '(गरीब -मेहनतकश )से जी.डी.पी .ग्रोथ के नाम पर उच्च-अमीर वर्ग की तरफ हो गया है और इसे मध्य-वर्ग ने लगभग स्वीकृति दे दी है |इसी का असर है कि मध्य वर्ग की जिन्दगी जीने वाला कवि- समाज ऊपर की ओर ज्यादा देखने लगा है बजाय ,नीचे की ओर |आप जैसे कितने से कवि हैं जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देख कर रचना कर रहे हैं |बहरहाल ,चुनौतियां पहाड़ की तरह सामने हैं |संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है |बिना निराश हुए लगातार अपने ज़मीर को बचाते हुए चलते चले जाना है |अकेला पड़कर भी |पहले भी अनेक लोग ऐसे चले हैं |स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे |आदर सहित ----आपका ------जीवन सिंह

Saturday 29 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |दरअसल चीजों का तेजी से बदलने का मेरा यह सन्दर्भ नहीं है कि वे मानवीय अर्थों ,अभिप्रायों और व्यवहार की दिशा में बदल रही हैं |यदि ऐसा होता तो हमारे लिए किसी तरह की संवाद की आवश्यकता ही क्या थी ? फिर तो इसके पक्ष में हवा बनाने की ही जरूरत थी |मेरी इस बारे में सीधी सी समझ यह है कि वैश्वीकरण की नयी साम्राज्यवादी और आवारा पूंजी की गतिशीलता की तुलना में पहले की अपेक्षा श्रम की ताकतें डिफेंसिव स्थिति में आई हैं |तभी तो वर्तमान सरकार ने पिछले ४ वर्षों में तथाकथित उदारवादी व्यवस्था के पक्ष में बेधड़क जन-विरोधी निर्णय कर लिए हैं |यह एक तरह का बुरा बदलाव है कि बुरी ताकतों में मानवीय ताकतों का थोड़ा सा भी भय नहीं रहा है |मध्य -वर्ग को पहले जितना वेतन नहीं मिलता था ,उससे ज्यादा पेंशन मिल रही है |एक जमाने में ३० रुपये महगाई भत्ते के लिए कर्मचारी ६०-६०दिनो तक जेलों में बंद रहे |अब बिना मांगे हर जनवरी और जुलाई में दो बार एक निश्चित प्रतिशत में महगाई भत्ता मिल जाता है |इससे मध्य-वर्ग का निम्न और निम्न-मध्य वर्ग से संवेदनात्मक रिश्ता बहुत कमजोर हुआ है |मजदूर और किसानों के सामने आत्महत्या करना अपनी जिन्दगी से निजात पा लेने का एक उपाय इन्ही दिनों क्योकर बना ?|अन्यथा हमारे देश का किसान कितना ही अभावग्रस्त और भूखा क्यों न रह लिया हो ,उसने कभी आत्म हनन का रास्ता अख्त्यार नहीं किया |उसके बेटे सत्तावन की लड़ाई में वीरतापूर्वक अंग्रेजों से लडे ,फांसी के फंदों को गले लगाया ,लेकिन आम-हनन नहीं किया |ऐसी बड़ी कमजोरी शायद अवसादग्रस्त स्थिति में ही आती है जब व्यक्ति को लगता है कि अब उसका इस दुनिया में कोइ नहीं है |जब समाज के निचले वर्गीय संबंधो के बीच खाई गहरी होने लगती है |व्यक्ति केवल पूंजी को अपने जीवन का प्रयोजन बना लेता है |मैं तो अपने ही घर में देख रहा हूँ कि इन नए बच्चो को एक ही धुन है |इनका जीवन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सेवा करने के लिए ही जैसे बना है |मेरा मतलब इस बदलाव की ओर था ,जो मानवता के भविष्य की दृष्टि से चिंता में इसलिए आना चाहिए कि इस परिस्थिति से कैसे निबटा जाय क्योकि काव्य-रचना, जीवन-रचना से जुडा हुआ प्रश्न ही तो है |बहरहाल ,आपकी बातो से मेरे मन में ये विचार आये |आप सभी प्रसन्न होंगे |आदर सहित -----आपका ---जीवन सिंह

Thursday 27 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |आपने सही कहा है कि यह बहुपक्षीय लड़ाई है |वर्ग-शत्रुओं से तो है ही ,उन आस्तीन के साँपों से भी है जो बात तो सुधा की करते हैं ,लेकिन परिणाम देते हैं विष का | जो लोक को मानते हैं उनको भी और गहरे में उतरने की जरूरत है और यह तभी संभव है जब कि जीवनानुभवों को व्यापक बनाते रहा जाय तथा विचारधारा की रोशनी को तेज किया जाय |एक बार के प्राप्त अनुभवों से जिन्दगी भर काम नहीं चल सकता जब कि चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं |सोवियत संघ के विघटन और उत्तर-आधुनिकता के विमर्श प्रचार ने विचारधारा के काम में गहरी सेंध लगाई है |मध्यवर्गीय आकांक्षाओं ने इसमें पलीता लगाने तथा प्रलेस -जलेस के नेतृत्व की दिग्भ्रम स्थिति ने भटकाव पैदा किया है |बहरहाल, जो सच है ,वह तो है ही |ऐसी स्थितियों में भी जब यह सुनने को मिलता है कि राजेश्वर सक्सेना साहब ने छत्तीसगढ़ सरकार का दो लाख का पुरस्कार अपने जीवन- मूल्यों के चलते ठुकरा दिया ,तो हौसला आफजाई होती है कि पृथ्वी वीर-विहीन नहीं है |प्रसन्न होंगे |---आपका ----जीवन सिंह

Tuesday 25 September 2012

आदरणीय भाई ,आपका ई-पत्र | दरअसल यह बड़ी लड़ाई है ,जो साहित्य के साथ-साथ जीवन के मोर्चे पर भी है |कलावाद में आसानी ही यह होती है कि व्यक्ति जीवन के संघर्षों से बच जाता है |बुजुआ वर्ग के मुआफिक कलावाद ही पड़ता है |यह उसी की विश्व -दृष्टि की उपज है| विडम्बना यह है कि इसमें वे लोग भी फंस जाते हैं जो जनवादी विश्व -दृष्टि के पक्षधर बनते हैं |अपनी परम्परा से विच्छेद होना भी इसकी एक वजह है |ऐसा लग रहा है जैसे रमाकांत जी अभी पूरी तरह से उबर नहीं पाए हैं | अन्यथा आपके फोन का तो जवाब देते ही |आप भी जयपुर नवम्बर तक पहुचेंगे या इससे पहले |सभी प्रसन्न होंगे | आदर सहित ----आपका ---जीवन सिंह

Monday 24 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका इ-पत्र | सच तो यह है कि चरित्र का संकट हर युग में रहा है |लोग ताकत के पक्ष में बदलते देर नहीं लगाते |कमजोर की ताकत को तो मार्क्सवाद ही दिखाता है |लेकिन यह तभी हो पाता है जब कि गहरी संवेदनशीलता और मूल्य-भावना व्यक्ति के मन और व्यवहार दोनों में हो |किताबी संवेदनशीलता का इज़हार तो कविताओं में खूब दिखाई पड़ता है किन्तु वह गहराई में उतरने से डरता है |वहाँ गुमनामी का ख़तरा नज़र आता है या फिर उसे निराला जी की तरह 'विक्षिप्त 'घोषित किये जाने का अभिशाप झेलने के लिए तैयार रहना पड़ता है |मीठी -मीठी गप्प और कडवी-कडवी थू करने से तो यहाँ काम चलता नहीं |यहाँ तो हर घड़ी परीक्षा का है | देखा जाय तो दुनियादारी के लिहाज से तो इस रास्ते पर चलने वाले को कडवे और कषैले स्वादों के लिए ही तैयार रहना चाहिए |यह प्रेम का घर है खाला का घर नहीं | हम जैसे को तो हमारी धारा --जनवाद ---में ही तिरस्कार भाव से देखा आता है और केवल ध्वंस की आलोचना लिखने वाले के खाते में डाल दिया जाता है |जनवाद में भी हमारा जनवाद --लोक की तरफ झुका होने से 'मध्यवर्गीय जनवादियों को रास नहीं आता ,न भाषा,न शिल्प,न मुहावरा , न प्रतीक-बिम्ब -रूपक, |उनको सब गंवारू और पिछड़ा हुआ लगता है जैसे कुलीनों और सामंतों को लगता रहा है | जबतक लोग अभावग्रस्त रहते हैं या पद-हीन या उपेक्षित ,तब तक फिर भी जनवाद का झंडा उठाए दीखते हैं लेकिन जैसे ही बुर्जुआ सिस्टम में कुछ पा जाते हैं वैसे ही कविता और सिद्धांत दोनों को ही आँख दिखाने लगते हैं |भरोसे की कसौटी पर खरा उतरना बहुत मुश्किल होता है |चौराहा मिलते ही राह बदलने में संकोच तक नहीं करते |ऐसे माहौल में नामवर-परम्परा को आगे बने रहने का मौक़ा मिल जाता है | अभी एक जगह मैनेजर पाण्डेय ने लोक और जन की तुलना करते हुए लोक को अमूर्त के खाते में डाल कर इसको सरकारी शब्द बतलाया और इसके समक्ष जन की हिमायत की |यह उन्होंने जनतंत्र का सच पर भाषण देते हुए कहा |यह एक ब्लॉग में पढ़ा |बहरहाल , मैंने अपने मन की बातें कहीं हैं जो मैं इन दिनों सोचता रहता हूँ |सभी प्रसन्न होंगे ----आदर सहित ------आपका ----जीवन सिंह
पुनश्च ---मैंने 'पहली बार , में पढ़ लिया है |लीक से हट कर है |बहुत अच्छा लगा |

Sunday 23 September 2012

आदरणीय भाई ,आपका ई-पत्र|डाउनलोड की प्रक्रिया से निकालकर आलेखों को पढूंगा और उसके बाद आपको लिखूंगा |निस्संदेह ,प्रगतिशील और जनवादी धारा के लिए पुनर्जागरण की बड़ी आवश्यकता है |उत्तर-आधुनिकतावाद की नयी परिस्थितियों ने 'मध्य-वर्ग' की धन और यश की लिप्सा को बेकाबू सा कर दिया है |लोगों को मानवता का भविष्य इसके अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता |सभी कुछ का अंत कर देने की घोषणा एक जमाने के मार्क्सवादी रहे लोगों तक ने कर दी या फिर चुपचाप इनको सिर-माथे लगाकर यह मान लिया कि ज्यादा कुछ होने- जाने वाला नहीं है | कुछ लोगों ने वर्ग-विमर्श को त्याग कर ,दलित और स्त्री-विमर्श का सुरक्षित रास्ता निकाल लिया है जिसमें उच्च-मध्यवर्ग को भी जगह मिल जाती है | सत्ता से सम्बन्ध बने रहने के सारे सूत्र मध्य-वर्ग वैसे ही निकाल लेता है जैसे पानी नीचे बहने का |बहरहाल, संघर्ष के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं |
राजनीतिक पक्ष में में भी एक तरह का अवसरवाद ही नज़र आता है | अपनी जगह तो तब बनती जब हिंदी -क्षेत्रों में वामपंथ को रास्ता मिलता |इस जगह को धुर दक्षिणपंथ घेरे हुए है |कांग्रेस भी येन-केन प्रकारेण अपनी सत्ता को बरकरार रखने के रास्ते को ही अपना रास्ता मान चुकी है |इसलिए बड़ी जरूरत तो जन-जागरण की है |देश के मेहनतकश वर्ग की सैद्धांतिक एकजुटता की ----जातिवाद मुक्त किसान एकजुटता की |सबसे बड़ी बात है वर्ग-चेतना की |मध्य-वर्ग द्वारा डी-क्लास करने की ,व्यापक-स्तरीय संवेदनशीलता की |जिससे एक सही राजनीतिक विकल्प तैयार हो |
मैं पढ़ते हुए देख रहा हूँ कि यूरोप और अमरीकी समाजों के नए साहित्य और नयी धारणाओं से हमारा काम नहीं चल सकता |वह तो फिर हमारी मान्यताओं का उपनिवेशीकरण हो जाएगा |हमको हमारा रास्ता स्वयं ही बनाना होगा |हमारे पास एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है |हमारी अपनी देशज जमीन है |हमारा अपना ,परिवेश प्रकृति और सम्बन्ध-भावना है |नकलें ज्ञान -विज्ञान और शास्त्र के स्तर पर की जा सकती हैं |क़ानून -राजनीति,शासन-प्रशासन पराई भाषाओं में चलाया जा सकता है लेकिन साहित्य -संस्कृति ऐसे क्षेत्र हैं जहां किसी तरह का घालमेल नहीं चल सकता |आप वैचारिक मदद ले सकते हैं ,अपनी खिड़की खुली रखकर बाहर की हवाओं और प्रकाश को आने दे सकते हैं क्योंकि मानवता की लड़ाई पूरी दुनिया में चली है |मानवता के सन्दर्भ में कुछ सीखने को मिल जाय ,इतना सा उद्देश्य रहता है बस इस साहित्य को पढ़ते हुए |प्रसन्न होंगे |----आपका जीवन सिंह

Friday 21 September 2012

आदरणीय भाई , आपका आलेख मिला तो था लेकिन वह करप्ट हो जाने से पढने के लायक नहीं रहा |उसकी लिपि बदल गयी |निकाल कर देखा तो वह हाऊ-बिलाऊ बन गया |आपको अंगरेजी में सुविधा है तो उसी में लिखियेगा ,कोई बात नहीं |मुझे देवनागरी में दिक्कत नहीं है |अंगरेजी में मैं स्वयं को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता|इसलिए मैंने यह रास्ता अपनाया |आप अपनी सुविधा से लिखें |आपकी बातों को तो मैं समझ लेता ही हूँ |यहाँ पुस्तकालय में रोज दो घंटे जाता हूँ |शेक्सपीयर ,कीट्स ,जेन ऑस्टेन ,हार्डी, डिकेंस ,हेमिंग्वे और अंगरेजी भाषा पर नियमित पढ़ रहा हूँ और अपनी डायरी में भी लिख रहा हूँ |पौत्र अभिज्ञान को उसके शिशु घर में छोड़ने जाता हूँ |रेल का रास्ता है |कुछ दूरी पर सागर-तट है ,वहाँ चला जाता हूँ |प्रशांत महासागर का एक किनारा |आष्ट्रेलिया के ६०हज़ार वर्ष पुराने आदिवासियों पर भी यहाँ अंगरेजी में काफी साहित्य है ,जो हमारी परम्पराओं से बहुत मिलता-जुलता है |आश्त्रेलियन अंगरेजी में इन आदिवासी बोलियों के शब्दों को भी ले लिया है |यहाँ कई सब्बर्बों के नाम आदिवासी बोलियों पर हैं |यहाँ की वनस्पति , फूलों और बीहड़ों नदियों पर भी कई नाम हैं | बेहद प्रकृति-प्रेमी समाज है |सभी स्थान तरु -आच्छादित हैं |नदी-तटों को नेशनल पार्कों में बदल दिया है |आरम्भ में १८-वीं सदी के अंत में जो लोग यहाँ पहली बार आये थे ,उनमें कुछ लोग ऐसे भी थे जो चाहते थे कि कुछ संग्यावाची शब्दों को यहाँ की मूल भाषाओं में ही रखें |भाषा के विकास की दृष्टि से यह अद्भुत स्थान है , जहाँ दुनिया के हर कोने का नागरिक रहता है |यह मात्र २०० साल पुराना देश है ,लेकिन इनको अंगरेजी और लैटिन की लम्बी विरासत की समृद्धि प्राप्त है |रेसिज्म की भावना है तो सही लेकिन बहुत कम है |दूसरों को बर्दास्त करने वाले बहुमत में हैं |वैसे तो ये अंग्रेज हैं और अपने ज्ञान-विज्ञान -साहित्य पर पूरा गर्व करते हैं _ इनको यह भी अहसास है कि इनकी भाषा- संस्कृति का इस समय पूरी दुनिया में डंका बज रहा है |पुस्तकालयों में लोग खूब बैठते हैं |रेलों में भी पढ़ते हुए अपना समय बिताते हैं |बहरहाल ,लेखों की लिपि यदि बदल सके तो भेज दीजियेगा |भाभी जी से प्रणाम कहियेगा ,अन्य सभी को स्नेह |प्रसन्न होंगे |----------आपका ------जीवन सिंह

Thursday 20 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका हिंदी में मेल पाकर बहुत अच्छा लगा |मुझे भी यद्यपि यह विद्या बहुत अच्छी तरह नहीं आती पर काम चला लेता हूँ |आपका स्वागत है |तकनीक ने पत्र-लेखन की विधा को यह नया आयाम दे दिया है |न कागज बीच में न डाकिया , न चिट्ठी खोने का झंझट और न ही लंबा इंतज़ार |देश की सीमाओं का अतिक्रमण |अन्यथा सिडनी और फरीदाबाद कैसे इतने नज़दीक हो पाते |कभी पूरी वसुधा ऐसे ही एक हो जायेगी |देश ,प्रान्तों की जगह ले लेंगे |विश्व की कोई एक केन्द्रीय सरकार होगी |समाजवाद का सपना ऐसे ही पूरा होगा |------भाभी जी को प्रणाम कहिएगा ,एनी सभी को प्यार |-----आपका ------जीवन सिंह

Wednesday 19 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-मेल |मैंने दरअसल जो बात उठाई थी वह आलोचना के प्रसंग में थी |आलोचना -लेखन में आचरण-पतित होने का ख़तरा ज्यादा रहता है |यद्यपि यह ख़तरा आता कविता की तरफ से ही है |ख़राब कवितायेँ ख़राब आलोचना को जन्म देती हैं |जैसे एक कवि को व्यक्तित्व -साधना की जरूरत होती है वैसे ही आलोचक को भी |नामवर जी के साथ यही तो हुआ ,कि वे अपने रास्ते को छोड़ कर उसी रास्ते पर चल पड़े ,जिस पर अवसरवादी चलता है |ऐसा आलोचक ज्यादा नुकसान पहुँचाता है जिसकी छवि और कर्म में गंभीर फांक हो |नामवर जी को जब लगा कि कम्युनिस्ट आन्दोलन से कुछ ज्यादा बनने वाला नहीं है तो फिर 'राम ' को छोड़कर माया ही क्यों न बटोरी जाय |कम्युनिस्ट पार्टी से वे एम् .पी का चुनाव जब हार गए तो उनको अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा होगा कि ऐसे तो कहीं के भी नहीं रहेंगे |उस समय सत्ता से अंदरूनी सम्बन्ध बनाए रखने वाले कई कवि-साहित्यकार थे ही |और उधर नयी कविता ,नयी कहानी और नयी समीक्षा की हवा बह रही थी ,उसी के साथ हो लिए |नागार्जुन,केदार और त्रिलोचन के पास कविता तो थी ,पर सत्ता नहीं |सत्ता के नज़दीक थे रघुवीर सहाय ,श्रीकांत वर्मा आदि |एक रास्ता निकल आया ,आलोचना बुद्धि काम आयी |दूसरा कोई ऐसा था नहीं ,जो हवा बदल देता क्योंकि आलोचना- कर्म यदि ईमानदारी से किया जाय तो कम कठिन नहीं होता |कविता की अमूर्तन कला में बहुत कुछ छिपा रह जाता है |आलोचना में बात छिप नहीं सकती |नाक की सीध में चलना पड़ता है |रूपवादी आलोचना को भी कोई ख़तरा नहीं रहता |इसलिए ज्यादातर लोग कविता के रूप के बारे में आधी अधूरी बातें करके आलोचना-कर्म की इतिश्री कर देते हैं | आजकल तो ''लोक ' का भी एक रूपवादी नक्शा बना लिया गया है |कुछ कवियों के पास तो दोनों तरह का माल है जिसको जैसी जरूरत हो ,ले ले |बहरहाल ,चुनौती और संघर्ष के ये ही मोर्चे हैं ,जिन पर लम्बी लड़ाई चलने की संभावना है | प्रसन्न होंगे |घर में सभी को यथा-योग्य अभिवादन |-----------आपका ------जीवन सिंह
कलाकार चरण शर्मा की नाथद्वारा से मुम्बई तक की कलायात्रा से परिचित कराने के लिए धन्यवाद |इसमें श्री नाथ जी से महात्मा बुद्ध तक की उनकी यात्रा जैसे आसमान से धरती पर उतरने की यात्रा भी है |यह एक कलाकार के विकास और बदलाव को भी सूचित करती है |यह उनके भाव-वाद से यथार्थवाद की यात्रा भी है |नाथद्वारा के पास वाली नदी के पत्थर इस कला यात्रा की अपनी विशेषता कही जा सकती है |प्रसन्न होंगे |
आदरणीय भाई ,
आपकी विस्तृत ई -मेल पाकर खुशी हुई |आपने जो कहा है ,वह पूरी तरह सच है |मैं समझता हूँ इसका कारण वह मध्यवर्गीय चरित्र है जो एक ओर वामपंथी राजनीति को प्रभावित करता है तो दूसरी तरफ साहित्य,कला और संस्कृति को |मध्यवर्ग सब कुछ अपनी सुविधा से करना चाहता है |इसलिए बुर्जुआ तंत्र के जाल में फंस जाता है |आखिर जीवन ओर अस्तित्व की जो सुख -सुविधा बुर्जुआ तंत्र के साथ रहने पर मिलती हैं वह गरीबों की राजनीति के साथ रहने पर कैसे मिल सकती है |हमने देखा है कि आजादी मिलने से पहले जो कम्युनिस्ट कवि कहलाते और समझे जाते थे वे बाद में कैसी पलटी मार गए | कविता और आलोचना दोनों के भीतर ऐसा चारित्रिक गड़बड़झाला बहुत चलता है |नामवर जी और उनकी मंडली के साथ यही है | वामपंथ का रास्ता काँटों पर चलने वाला रास्ता है ,जिसमें भारी उपेक्षा सहनी पड़ती है और अटूट संघर्ष करना पड़ता है |रचनाकारों की पूरी की पूरी जमात है जो पुरस्कारों , सम्मानों और कैरियर-उत्थान के लिए इस धंधे में आती है | यशसे, अर्थकृते से आगे की सोचकर जो लिखेगा ,वही बड़े जीवन-संघर्ष के लिए तैयार होगा |सोवियत संघ के विघटन के बाद अवसरवाद की बाढ़ तेजी से आई ,जिसका प्रभाव आज सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है |आलोचना-लेखन में तो अवसरवाद की गुंजाइश ज्यादा रहती है |इस विधा में मिलावट की गुंजाइश इसे कैरियर का आधार बना लेने से और बढ़ जाती है |कितने ही उदाहरण हैं जब किसी बड़े अधिकारी की मिथ्या प्रशंसा करके लोगों ने ऊंचे-ऊंचे पद हथिया लिए हैं |आलोचना में व्यक्ति की चारण-वृत्ति को अवकाश ज्यादा रहता है |वह रचना पर आश्रित रहने से मूर्ख को ही विद्वान घोषित कर सकती है | खराब आलोचना का उदाहरण बने तो उसकी बला से |लेखक का जीवनतो सफल हो ही जाता है |लेकिन इसी में रास्ता निकलता है और देर से ही सही अच्छे -बुरे की पहचान होती ही है |आशा की कोई किरण यहीं है | प्रसन्न होंगे | अभिवादन सहित |
आपका -----जीवन सिंह

Wednesday 5 September 2012

अनीता जी वे उच्च शिक्षित तो हैं ,लेकिन उनकी शिक्षा ने उनको अभी उच्च 'मानव ' नहीं बनाया है .वे अफसर हो सकते हैं |एक बात और है कि इनके पास भी अनेक रास्तों से अतिरिक्त धन----बिना खून पसीना बहाए , |आता रहता है |जहाँ भी जिसके पास अतिरिक्त धन आयेगा उसका यही चरित्र बन जायेगा |हाँ कुछ जीवित और जागृत आत्मा वाले मनुष्य इससे आत्मसंघर्ष करते हुए इससे निजात पाने की कोशिश करते हैं |निम्न मध्यवर्ग अक्सर विचार-प्रक्रिया में इन बातों को समझ लेताहै तो वह अपने स्वभाव को मेहनतकश वर्ग के पक्ष में बदलने की कोशिश करता है वह अपनी आत्मा के घायल पक्षी का उपचार कर लेता है | |पूंजी की व्यवस्था में हरेक व्यक्ति अपने वर्ग-स्वभाव के अनुसार व्यवहार करता है |ऊंची शिक्षा तो ऊंचे पद पाने के लिए लेता है ताकि जिन्दगी भर अतिरिक्त धन के लिए इंतजाम हो जाए |आज मध्य वर्ग के पास भी अतिरिक्त धन के कई स्रोत बन गए हैं , जिससे उनकी आत्मा का प्रकाश ख़त्म हो जाता है और वे सदैव एक आत्म रिक्त जिन्दगी जीकर 'खुश'रहते हैं |उनको फिर किसी की परवाह नहीं रहती |वे उसी वर्ग का साथ देते हैं जो अतिरिक्त धन जुटाने में उनकी मदद करता है |
खरे जी की बातों में दम है और बात को कहने का सलीका उनको आता है ,| हाँ , यह सही है कि कई बार उनकी भाषा में रौद्र भाव कुछ ज्यादा आ जाता है |यह सच कहने का दबाव भी हो सकता है |यदि सच कहने में क्रोध न आए तो सच भोंतरा होकर अपना प्रभाव खो देता है |फिर बात को कहने की अपनी शैली भी होती है |यह उनको तो बुरा लगेगा ही जो कान्हा में कविता और रासलीला का समन्वय कर रहे थे |हम मुक्तिबोध का नाम खूब लेते हैं किन्तु उनसे कुछ सीखते नहीं |मुक्तिबोध ने एक ज़माने के वामपंथी माने जाने वाले लोगों में जब देश को आजादी मिलने के बाद अवसरवाद की बाढ़ आई तो तो वे अपने एक ज़माने के साथी मित्र कवियों के इस अवसरवादी व्यवहार के प्रति अपनी खिन्नता और क्षोभ लिख कर प्रकट किया | उन्होंने अपनी समीक्षाओं और कविताओं में "कवि -चरित्र " को लेकर खूब लिखा है | आज तो इसकी बाढ़ सी आई हुई है |वामपंथ केवल विचारधारा ही नहीं होता बल्कि वामपंथी चरित्र भी होता है |खरे जी ने भीतर तक जाकर उसका उदघाटन करके बहुत अच्छा किया है |अंतर्वस्तु और उसकी शैली तथा सच कहने के साहस के लिए उनको दाद दिए बिना मन नहीं रहता |

Monday 3 September 2012

इस बियाबान में --------
इस बियाबान में
मैंने देखा----
जंगली कुत्ते घेर खड़े हैं
धूल धूसरित
भूखा प्यासा फटेहाल
सच्चे मानव राहगीर को
दीप्यमान ईमान चन्द्र को
ग्रहण लगे ज्यों
मैंने देखे ------
खींच-खींच कर अंतड़ियों को
आत्मा की '
सेंक रहे --चूल्हे भट्टी में |
इस बियाबान में
काले नाग ,नागिने काली
फूत्कार से डरा डरा कर
डरे हुए स्वार्थी कीटों की
बड़ी जमातें जुडती जाती
सोपानों सी
नागों का विषदंत पुराना
खुश होकर अमृत दिवस मनाती
खुश करती नागों को
नाग सभ्यता बढ़ती जाती
वृक्ष विषैले उगते जाते
घुसते सांप पराये बिल में
चूहों की कमबख्ती आती
यही दिखाई देता
लिखा हुआ महलों दुर्गों में
इस निजाम में
रिश्ता लाठी भेंस का बनता
बड़ी बड़ी मछली छोटी को खाती
जंगल का सिद्धांत पुराना
अब भी चलता |


































खिली धूप में
कार सड़क पर
दौड़ी जाती है
पीं-पीं,पीं पीं
पीं पीं- पीं पीं
सभी जगह पर
करते करते
अपना रौब जमाती है |
खिली धूप में
खुली सड़क पर
बस भी आती है
पों पों पों पों
पों पों पों पों
करते करते
सभी जगह पर
अपना रौब दिखाती है
खिली धूप में
अपने पथ पर
रेल भी आती है
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
करते करते
अपनी खुशी जताती है |
खिली धूप में
वायुयान भी
आसमान में उड़ता है
जम जम जम जम
जम जम जम जम
करते करते
ऐंठ अकड़ता है |





































खिली धूप में
कार सड़क पर
दौड़ी जाती है
पीं-पीं,पीं पीं
पीं पीं- पीं पीं
सभी जगह पर
करते करते
अपना रौब जमाती है |
खिली धूप में
खुली सड़क पर
बस भी आती है
पों पों पों पों
पों पों पों पों
करते करते
सभी जगह पर
अपना रौब दिखाती है
खिली धूप में
अपने पथ पर
रेल भी आती है
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
करते करते
अपनी खुशी जताती है |
खिली धूप में
वायुयान भी
आसमान में उड़ता है
जम जम जम जम
जम जम जम जम
करते करते
ऐंठ अकड़ता है |





































Wednesday 29 August 2012

गढ़ का तिरछा परकोटा ---------
एक था आदमी बहुत बहुत
नहीं मिला मकान किराये पर
जयपुर महानगर में
वह नागरिक था
सबसे निचली सीढ़ी का
माँ ने जन्म दिया था जैसे
वह उसी मार्ग से आया था
जिससे आती है पूरी दुनिया
दोष उसका था यही
अपराध भी कि
क्यों नहीं कुछ कर पाया कि
कला सीख लेता गर्भ -परिवर्तन की
यह दुर्ग है मित्र
बहुत पुराना
रक्त-दुर्ग
इसकी गलियों का
चक्रव्यूह बनता रहा सदियों से
मन की चट्टान पर बना
अहम् के उत्तुंग शिखर पर
वृहदाकार विस्तीर्ण परकोटा























विजेंद्र जी ने रिल्के के बहाने से बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं ,लेकिन वे उन लोगों के लिए ही अर्थवान हैं जो कविता और जीवन में एक बड़ा और गंभीर रिश्ता मानते हैं और अपने व्यवहार से उसको प्रमाणित भी करते हैं |ये बातें उन लोगों को बहुत बुरी और व्यर्थ लग सकती हैं , जो आज भी अपने प्रगतिशील चेहरे के भीतर कला की कीमियागीरी में ज्यादा विश्वास रखकर कविता करते हैं |उनको कला और जनवादी अंतर्वस्तु वाली कविताओं में जनवाद से ज्यादा कलावादी रूप-विधान इसलिए भी प्रभावित करता है क्योंकि तुरत चर्चा और तुरत प्रसिद्धी मिलने की सहूलियत यहीं रहती है |उस जनवाद का क्या फायदा जहां कवि को लम्बी उपेक्षा और कुछ साधनापरक जीवन जीने की जरूरत रहती है | जो केवल कविता में ही जीवन-मूल्यों की डींग नहीं हांकता बल्कि अपने जीवन व्यवहार से भी उनको कुछ जीकर दिखलाता है |जो कला बिना जीवन के अंतर्मन में उपज जाय ,,उसमें परिश्रमी , मानवीय तथा साफ-सुथरा जीवन जीने की शर्त से भी कवि बच जाता है |कलावाद के होकर आप मनचाहा मूल्यरहित जीवन जी सकते हैं वहाँ सभी तरह की छूट होती है जब कि मेहनतकश जन के साथ रहने में असुविधाओं और उपेक्षाओं के जंगल से गुजरना पड़ता है | कलावाद में गडबडझाले की कला बहुत चलती है और एक क्रूर अवसरवाद की जगह भी निकल आती है | कलावाद के साथ रहने में सबसे बड़ा फायदा बुर्जुआ समाज और पूंजी के खुले बाज़ार में कबड्डी खेलते रहने की छूट मिलना भी है | व्यक्ति-स्वातंत्र्य के वितान के नीचे आ जाने से अनेक तरह के अख्तियार पाने के अवसर सहज प्राप्त हो जाते है | जैसे जनवाद की एक पूरी जीवन व्यवस्था और जीवन पद्धति होती है वैसे ही कलावाद की भी | ऐसे लोग मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनों को एक तराजू में तोलने की कला भी जानते हैं और जिन्दगी भर तेरी भी जय जय और मेरी भी जय का राग अलापते हैं |ये कबीर का उदाहरण तो देंगे ,लेकिन उनके ' दुखिया दास कबीर ' की पूरी तरह अनदेखी करके | वे इस बात पर गौर नहीं फरमाते कि आखिर अच्छा -खासा चादर बुनकर कमाई करने वाला कबीर स्वयं को दुखिया क्यों मानता है ?

Thursday 23 August 2012

परसाई जी जैसा ऊंचाइयों वाला लेखक ही संबंधों में इतना गहरे उतरकर लिख सकता है |जहाँ वास्तव में मनुष्यता का लहलहाता हुआ तालाब हैं वहीँ ऐसी लहरें उठ सकती हैं |मुक्तिबोध अपने जीवन और कविता में एक जैसे थे , उनमें वह फांक नहीं थी जो आमतोर पर कवियों - साहित्यकारों में देखने को मिलती है |लिखना कुछ और करना कुछ , | कितने साहित्यकार हैं , जिनके ऐसे संस्मरण हैं ?पढ़ते हुए आज भी आँखों में आंसू आये बिना नहीं रहते |

Wednesday 22 August 2012

ये नदी नदी ,ये नदी नदी
पानी से रहती लदी फदी
पानी ही इसका जीवन है
पानी ही इसका तन मन है
पानी ही इसका आँगन है
पानी ही एकमात्र धन है |
पानी इसका यह पानी की
पानी की अपनी निकट सगी |
पानी को रखने से जीवन
पानी बिन सब कुछ सूना है
पानी आँखों का निकल गया
तो सब कुछ मिट्टी चूना है
पानी होगा तो यह होगी
पानी की इसकी शर्त बदी |





Tuesday 21 August 2012

 कविता के समाजशास्त्र को लेकर जो चिंता श्री प्रफ्फुल कोलख्यान जी ने जाहिर की है ,उसका स्वागत किया जाना चाहिए किन्तु कविता के समाजशात्र की बजाय कविता और समाज के रिश्तों के सभी आयामों का तर्कसंगत एवं प्रामाणिक विश्लेषण करते हुए पहले कुछ जरूरी बिन्दुओं को साफ़ कर लेना चाहिए ,इनमें कविता और समाज के साथ कवि को भी रखना आवश्यक है |कविता और समाज पर बात करते हुए अक्सर कवि को छोड़ दिया जाता है ,जबकि कविता और समाज के बीच कवि महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है | यह कवि ही तो है जो सारी लीला रचता है | ,अत कविता और समाज के बीच उस कवि-चरित्र का विश्लेषण भी बहुत जरूरी है ,जिसके ऊपर मुक्तिबोध ने अपने समय में बहुत जोर दिया था |उस समय उनको अपने आस-पास के साथी मित्र -कवि उच्च एवं उच्च-मध्यवर्गीय जीवन जीने की आंकाक्षाओं के जंगल के भीतर विचरण करते दिखाई देते थे इस उत्तर -आधुनिक समय में तो हालात और विकट हो गए हैं |इसलिए जो भी विचार-प्रक्रिया बनती है वह बहुत ऊपरी और सतही चर्चा की तरह होकर रह जाती है |मुक्तिबोध की इस बात का हमारे पास क्या जवाब है -----जिसमें डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में साहित्यकार भी शामिल है |इसलिए कविता की चिंता के साथ-साथ जीवन की चिंता उससे ज्यादा होनी चाहिए ,|खासतौर से उस समाज-वर्ग की, जहाँ समाज के साथ- साथ जीवन भी बचा हुआ है |समाज तो अनेक तरह के लोगों से मिलकर बनता है किन्तु जीवन ----सच्चे अर्थ में वहीँ होता है जहाँ लोगों की 'आत्मा'' जीवित रहती है |इसलिए मुक्तिबोध ने आत्मा के सवाल को कविता में जिस तरह से रचाया-बसाया है ,वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया |उनके लिए कविता ,जीवन-मरण जैसा प्रश्न बन गया था उन्ही के शब्दों में " जीवन चिंता के बिना साहित्य -चिंता नहीं हो सकती |जीवन चिंता के अभाव में साहित्यिक आलोचना निष्फल और वृथा है |किन्तु यह जीवन - चिंतन व्यापक जीवन जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग लिए बिना रीता है |" कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध ''व्यापक जीवन-जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग " लेने की बात करते हैं |इसके अभाव में कविता का जो समाजशास्त्र बनेगा वह मध्यवर्गीय समाज की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पायेगा , जैसे कविता नहीं कर पाती है |
 

Monday 20 August 2012

नीलाम्बुज जी ,आज तक जो भी दुनिया हमारे सामने है वह यदि मानव - मन की रचना नहीं है तो और क्या है ?यह अलग बात है कि वह सबकी मनभावनी दुनिया न हो |प्रयत्न लगातार यही हो रहे हैं कि यह सबके मन की बनती चली जाए |अभी यह वर्गीय मन के अनुसार बनी है ,इस वजह से वर्ग - संघर्ष के नए-नए रूप सामने आते रहते हैं |आपने मनोमय कोष की बात सुनी होगी |यही मन है जो सारे झगडे-फसादों की जड़ है |आपने सुना होगा कि "मन के हारे हार है और मन के जीते जीत" कहावत वाली बात | सूर का एक मशहूर पद भी आपने अवश्य सुना होगा ----ऊधो , मन नाही दस-बीस | मन अन्य प्राणियों का भी होता है ,लेकिन मष्तिष्क (जो मन ही है )के पिछड़ जाने के कारण वह प्रकृति के समानांतर अपनी वैसी दुनिया नहीं बना पाया ,जैसी आदमी ने बना ली है |यद्यपि उसके सीमित मन की भी अपनी दुनिया होती है |पशु- पक्षियों पर रचे गए साहित्य में उनके मन को खोजा जा सकता है |इसी तरह पेड़ों और वनस्पति तक की यात्रा की जा सकती है |बहरहाल मुझे ऐसा ही लगता रहा है |इसी तरह जैसे व्यक्ति-मन होता है वैसे ही सामूहिक मन भी होता है |कबीलों ,जाति-समूहों ,समुदायों ,भाषिक-समूहों,धर्म-सम्प्रदायों और राष्ट्रों का निर्माण इसी सामूहिक मन की वजह से होता है |वर्गीय मन भी सामूहिक मन का ही एक रूप होता है |फेस बुक पर भी एक सामूहिक मन नज़र आता है ,अपनी व्यक्तिगत भिन्नताओं के साथ |

Sunday 19 August 2012

कवि लिखता है कविता
छपता है पत्रिकाओं में
सुनाता है कविता गोष्ठी में
पढता है ,पढवाता है
प्रकाशित करवाता है संग्रह
चर्चा होती है
करवाई जाती हैं चर्चाएँ
पुरस्कार पाता है
पाने के जुगाड़ करता है
प्रशंसाओं के पुल बांधे जाते हैं
पर उसमें जो लिखा है
उस बात पर एक कदम चलने में
मरने लगती है नानी
बात बोलती है जरूर
पर पैरों पर नहीं चलती
जिस रोज पैरों पर
चलने लगेगी बात
उस रोज सब कुछ बदल जायेगा |
मुझे इंतजार उस दिन का है
जब बात बोलेगी नहीं
सिर्फ चलेगी ,चलेगी |














Friday 17 August 2012

रात में मिली
आजादी की भोर में
एक रेखा पतली-पैनी
काली बिल्ली की चमकदार आँखों -सी
आती नज़र
तो नयी लहरों पर
नाव के आ जाने का भरोसा
और राष्ट्र की चिर-दलित आत्मा के
उन्नयन का सवाल
विकलांग बच्चे सा
पीठ पर लदा देता दिखाई
जिसकी गति अपनी नहीं
प्रसव पीड़ा से पूर्व
दिख गए थे लक्षण भविष्य के
प्रत्येक आँख का आंसू पौंछना
बना देता भावुक
अब तो यह सपना भी नहीं
आधी रात में उगे सूरज का |

सवाल अपनी जगह
दुर्लंघ्य घाटी-सा खडा
आंसू बहते नदी की तरह
कुछ भव्य-विराट रूपाकारों के प्रमाण
गणित के मानवीय प्रमेय i
नहीं कर सकते हल य-
छल से
नहीं पाला जा सकता
सत्य-शिशु को ,
रंगमंच की पूरी रोशनी का पता
भेड़ों -बकरियों की गणना
और मंडियों से देश-भक्ति का
देकर मन बहलाने वालों का जमावड़ा ,
जंजीरों में जकड़े
पालतू श्वान
नहीं पहचान सकते
उत्तर दिशा में ध्रुव तारे को |
सप्त-ऋषियों के उदित होने पर
किसान जाता रहा
हल-बैल लेकर खेतों पर
सवाल उगे नहीं
जमीन से अंकुरों की तरह
चमगादड़ों की तरह
लटकाया गया उलटा
नाव को घसीटा गया
छिछले पानी में |
इंजन में सवार लोग
करते फैसला
पटरियों के भाग्य का
आधी रात का सूरज
अभी अँधेरे में है |






,






















Wednesday 15 August 2012

१५ जुलाई २०१२ ,रविवार ,
आज यहाँ आये हुए हमको एक माह पूरा हो गया |सुबह ओल्ड्स पार्क में घूमने के लिए गया |पिछली बार जब २०११ में यहाँ आये थे ,तब रोजाना इसी पार्क में घूमने जाया करता था |अब इसमें पहले से हरियाली और ज्यादा बढ़ गयी है |सुविधाएं भी बढ़ गयी हैं |इसमें घूमते हुए परिवेश की शान्ति और निर्मलता की वजह से सुखानुभूति बढ़ जाती है |परिवेश और मन के बीच गहरा रिश्ता होता है |जैसा परिवेश वैसा मन ,और जैसा मन वैसा परिवेश |
साहित्य की रचना में लेखक के मनोमय जीवन की भूमिका होती है अर्थात उसके परिवेश से जैसा उसका मन बना है वैसे ही साहित्य का सृजन वह करता है | जो लेखक परिवेश को जितना आत्मसात करके अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अंग बना लेता है उतना ही भाव -समृद्ध उसका लेखन होता जाता है |यदि लेखन में गहराई नहीं आ पा रही है ,तो इसका सीधा-सा मतलब है कि उसका अपने परिवेश से गहरा रिश्ता नहीं बन पाया है लेखक का परिवेश बहुस्तरीय होता है ,आज के जमाने में विश्व-परिवेश से लगाकर ,राष्ट्रीय,स्थानीय ,पारिवारिक और लेखक के निजी मनोमय परिवेश तक |इनमें जिस लेखक की जितनी गहरी , व्यापक और बहुस्तरीय पैठ होगी ,लेखन की गहराई और व्यापकता भी उसी पर निर्भर करेगी | परिवेश और व्यक्ति का रिश्ता अपने आप नहीं बनता | इसके लिए लेखक को ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है |
उसका जीवन और परिवेश से जितना ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक लगाव होगा ,उतनी ही उसकी कला में जीवन की समृद्धि तथा आत्मगत सचाई का प्रकाश आता चला जायेगा |
मोरडेल सबर्ब में स्थित एक भारतीय स्टोर से घर-गृहस्थी का सामान खरीदते हैं ,वहां हिंदुस्तान के बारे में जरूरी जानकारी देने के उद्देश्य से ----असल बात तो यह है कि विज्ञापनों के माध्यम से व्यवसाय करने के उद्देश्य से ------द इंडियन और इंडियन लिंक ---दो पत्रिकाएँ मुफ्त में मिल जाती हैं |इसमें यहाँ रहने वाले भारत और आष्ट्रेलिया ----दोनों के बीच में रिश्ते को व्यक्त करने वाली सूचनाओं का संकलन किया जाता है |इनमें भी --द इंडियन ---पत्रिका में विविधता ज्यादा है |कागजी मुफ्तखोरी यहाँ बहुत ज्यादा है और उसका कारण है ,जिन्दगी में बढ़ता पूंजी का दखल |पूंजी व्यवसाय से आती है और व्यवसाय विज्ञापन से बढ़ता है |विज्ञापनों से ही लोगों को उपभोक्ता में बदला जाता है |इस बात की किसी को परवाह नहीं होती कि इसमें कागज़ की कितनी बर्बादी होती है और कागज की बर्बादी से पर्यावरण कितना प्रभावित होता है |यहाँ आदमी से ज्यादा वह व्यापारी नज़र आता है |जिसका एक ही काम है कि व्यक्ति ही नहीं बल्कि हर स्थिति ,कला ,संस्कृति सब कुछ व्यापार में बदल जाय |आदमी के रिश्तों को भी पूरी तरह व्यापार में बदल दिया जाय ,ऐसा हो भी रहा है |आदमी और आदमियत के बीच में पूंजी आकर खडी हो गयी है |पूंजी ही एकमात्र पैमाना रह गया है आदमी की नाप-जोख का |फिर आदमियत को कौन पूछने वाला है |
  'द इंडियन ' पत्रिका में सन २०११ में आष्ट्रेलिया में हुई जनगणना के आंकड़ों से यहाँ की आबादी , भाषा ,संस्कृति का एक परिदृश्य सामने आया |इस देश में हर पांचवें साल में जनगणना होती है और उससे देश के भावी विकास के लिए निर्णय लेने में मदद मिलाती है |इससे पहले २००६ में जनगणना हुई थी |इन की तुलना करने पर मालूम हुआ कि यहाँ भारतीयों के आप्रवासन की गति में १०० प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई है |यहाँ के न्यू साउथ वेल्स के मल्टी कल्चरल बिज्निश पेनल के अध्यक्ष निहाल गुप्ता के हवाले से बतलाया गया है कि विगत ५ वर्षों में यहाँ भारतीय समुदाय की आबादी एक लाख सैंतालीस हज़ार से बढ़ कर दो लाख पिचानवे हज़ार हो गयी है |इनमें एक लाख ग्यारह हज़ार तीन सौ इक्यावन हिन्दी भाषी हैं |इन आंकड़ों से मालूम हुआ कि पिछले पांच वर्षों में आष्ट्रेलिया आने वालों में सबसे अधिक तादाद भारतीयों की तेरह दसमलव सात प्रतिशत रही |अब यहाँ राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषियों का नौवां स्थान है |पंजाबी तेरहवें स्थान पर हैं |भारतीयों में हिंदी भाषी चार दसमलव पांच ,पंजाबी चार दसमलव चार ,गुजराती और बंगाली अलग-अलग एक दसमलव दो ,तमिल एक दसमलव एक पांच प्रतिशत हैं |इनके अलावा उर्दू भाषी ,तेलुगु , मलयाली ,मराठी और कन्नड़ एक प्रतिशत से कम हैं |२०११ की जनगणना से मालूम हुआ कि यहाँ के हैरिस पार्क सबर्ब की आबादी में बहुत बड़ा बदलाव यह आया है कि इसे यहाँ का लिटिल इंडिया कहा जाने लगा है |इसमें गुजराती भाषियों की संख्या बीस दसमलव चार प्रतिशत है जो यहाँ के अंगरेजी भाषी १८. ७ प्रतिशत से ज्यादा है |इनके अलावा हिंदी भाषी ८.३, पंजाबी ६.५ ,तेलुगु २.८ और १.१ तमिल अलग से हैं |कुल मिलाकर ४३ प्रतिशत भारतीय इस सबर्ब में रहते हैं |" केम छो " यहाँ "नमस्ते " से ज्यादा बोला जाता है |होर्न्स्बी सबर्ब में ऑस्ट्रेलियनों और चीनियों के बाद तीसरा नंबर भारतीयों का है |लिवरपूल सबर्ब में ४.५ प्रतिशत हिंदी भाषी हैं |यहाँ के सबसे प्राचीन बसावट वाले पैरामाटा सबर्ब में २०
प्रतिशत से अधिक भारतीय निवास करते हैं |
सिडनी की बसावट आष्ट्रेलिया में सबसे पुरानी है |पुस्तक में बतलाया गया है कि यहाँ के पहले सर्वेयर जनरल थोमस मिशेल ने इस अंचल की आदिवासी बोलियों के स्थान एवं नदी वाची नामों का संकलन कराया था ,जिससे इसकी पुरानी पहचान को बनाए रखा जा सके |इसी वजह से आज अनेक उपनगरों ,स्टेशनों ,गलियों आदि के नाम आदिवासी बोलियों के प्रचलन में हैं |इसका विरोध संकीर्ण नजरिये वाले लोगों द्वारा किये जाने पर और आदिवासियों की बोलियों के शब्दों के उच्चारण में कठिनाई आने के कारण लचीला रुख अपनाया गया |आज कई जगहों के नाम यद्यपि इनकी अपनी भाषा अंगरेजी के हैं किन्तु उनके साथ साथ आदिवासियों की बोलियों के नाम भी खूब प्रचलन में आ गए हैं |

 
चलो चलें स्कूल ,
अभि के चलो चलें स्कूल
एक हाथ में बैग अभि का
एक हाथ में फूल
खेलेंगे सबके साथ-साथ
गायेंगे सबके साथ-साथ
नाचेंगे सबके साथ-साथ
खायेंगे सबके साथ-साथ
जग के छल-बल को भूल
खुशियों के पेड़ उगायें
रंगों के सुमन खिलाएं
सपने भी खूब सजाएँ
आगे ही बढ़ते जाएँ
झाडें मन की धुल |
पानी के पेड़ लगाओ
मन को सरस बनाओ
पानी के पेड़ लगेंगे
धरती के मन सरसेंगे
सरसेगा जग भी पूरा
जन-गन के मन सरसेंगे
खुशियों के बाग़ लगाओ
पानी ही तो जीवन है
पानी ही तन मन धन है
पानी रंजन ,पानी अंजन
पानी ,पानी का खंजन है
पानी की तान सुनाओ |

Monday 13 August 2012

लाला लाला ललमुनिया
लाला बजाए हरमुनिया
सा रे गा मा के सुर सजता
उंगली धरता वो सुर बजता
सुन ले ओ सारी दुनिया |
गाता गीत बजाता बाजा
प्यारा-प्यारा सा अभि राजा
समझे रे कोई गुनिया |

लाला बजाए हरमुनिया |
संग-संग में दादी गाती
पापा गाते मम्मी गाती
गाती संग रुनिया -झुनिया
लाला बजाए हरमुनिया |

Sunday 12 August 2012

कवि-कर्म के साथ' लोक' के रिश्ते को लेकर बहस कीअच्छी शुरूआत भाई शिरीष कुमार मौर्य ने की है | दरअसल ,लोक के मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ अंगरेजी के 'फोक'शब्द ने की है जिसकी तरफ नील कमल भाई ने सही इशारा किया है |दूसरी बात यह भी है कि मार्क्स की धारणाओं के साथ इस का बस इतना सा मेल बैठता है कि इतिहास कि मोटी-मोटी सामान्य गति के साथ किसी समाज की उसकी अपनी विशिष्टताएं भी होती हैं |लम्बे समय तक भारतीय समाज की उत्पादन व्यवस्था में खेती-किसानी की हिस्सेदारी रही आने की वजह से हमारे यहाँ एक समृद्ध लोक-साहित्य (फोक-लिटरेचर ) वाचिक रूप में ,बाद में कुछ लिखित रूप में भी ,मौजूद रहा है जिसकी स्मृतियाँ हमारे उन मित्रों के जीवनानुभवों में गहरे रूप में अंकित हैं कि वे उसे नए अर्थ-संबंधों की नयी 'शास्त्रीयता 'बन जाने के बाद भी भूल नहीं पाते |वह कहीं उनके मनोमय जीवन में तरंग सी पैदा करता रहता है और नए रूप में वह 'सर्वहारा' तक की अर्थ व्याप्ति हासिल करने का प्रयास करता है |आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब पश्चिम की उपनिवेश-परस्त शास्त्रीयता के समक्ष ,तथा तुलसीदास की ' लोक-वेद' परम्परा के बीच से अपने समय के लिए नए ----लोकमंगलकारी ---विधान के लिए इसे आविष्कृत किया तो उनके जमाने के रीतिवादी ----रस-अलंकार-वादी -----आचार्यों को बड़ा नागवार गुजरा था कि अच्छे-भले हजारों सालों से चले आ रहे शास्त्रीय विधान में यह --लोक-का अनावश्यक फच्चर क्यों ?लेकिन लोक-तंत्र के नए राजनैतिक परिवेश में भी इसको नयी परिस्थितियों में जगह नहीं मिलेगी यह चिंता की बात है | ,इस वजह से अभी तक इस शब्द का 'पिछड़ापन' दूर नहीं हो पाया है |मेरे हिसाब से इस शब्द को पूरी और नयी समृद्धि आज की नयी रचनात्मकता से मिल रही है |यह 'शास्त्र की रूढ़ जकडबंदी ' और किसी भी तरह की 'कुलीनता और आभिजात्य ' के विरोध में आज की रचनाशीलता को आगे ले जाने वाला साहित्य-पद लगभग बन चुका है |कोई माने या न माने कुछ बात तो इसमें अवश्य है ,जो इसे चर्चा के केंद्र में रखे हुए है |

Thursday 9 August 2012

पहाडी ढलानों,-उठानों से
समुद्री झंझावातों के आधुनिक रूपवान कुचक्री गठजोड़
अन्तर्मुखी भव्यता में आत्मलीन
विराटता के सिकुड़े-सिमटे एकाकी पुंज
दमकते-खनकते बहुस्तरीय
विश्व-बाज़ार की चंद्रमुखी इमारत
रूप-सम्मोहित मोद-विलासी आंगन में बिछा
सुघड़-सलोनापन और
लावण्य-सरिता सी प्रवहमान
पहाडी कामनाओं इच्छाओं -लालसाओं
लिप्साओं -अभीप्साओं दमित आकांक्षाओं के
सतत लीला-समारोहों में मग्न
मध्यवर्गीय उच्चता की अधोगामी प्रवृत्तियाँ
यौनेच्छापूर्ति के सामंती सपने
राजसी विवाह-समारोह
और आकाशी सीढ़ियों से ऊपर तक जाने की अकेली तमन्ना
अकेली निजताओं की लज्जित कर देने वाली अंधेरी चांदनी रातें
मलिनताओं के उज्ज्वल तामझाम
हमारे समय की मुख्य अभिलाक्षनिक्ताएं
इक्कीसवीं शती के आमुखी सरोकार
द्वार पर बजते दम्भी नगाड़े
मेहनती-आस्थाओं की बेचैनी
बढ़ती जाती लगातार
इधर विश्व-बाज़ार में
आलिगन-बद्ध प्रेमी-युगल
अपनी कीर्ति -पताका का व्यवसाय करती विश्व-सुंदरियां
चुश्त आकांक्षाओं के कलशीले उभार
स्त्री का नया अद्भुत रूप
बाज़ार में खेती को उर्वर बनाता
स्वतंत्रता का तनबद्ध उपयोग
पितृ सत्ता का भार खींचती
उसमें देती खाद-पानी
सच यही नहीं मेरे युग का |
सच है बहुत बहुत अलग इससे
जो नहीं दिखता विश्व बाज़ार की
दम्भी और बेहद इकलखोर गलियों में |




Wednesday 8 August 2012

ट्रेन इज रनिंग खटक खटक
अभि इज गोइंग फटक-फटक
ट्रेन इज रनिंग ऑन हिज़ व्हील्स
अभि इज रनिंग ऑन हिज़ हील्स
ट्रेन इज कमिंग एट प्लेटफोर्म
अभि सिटिंग बाई टिकिट-नॉर्म
ट्रेन इज रनिंग खटक खटक
अभि इज गोइंग फटक फटक
केशव जी की कवितायेँ पढ़कर हमेशा खुशी इसलिए होती है कि उनमें हमेशा कुछ ऐसा होता है ,जो अन्यत्र नहीं मिलता |यहाँ तक कि विषय की समरूपता होने पर भी उनकी काव्य-वस्तु अपने तरीके से अपनी एक बेहद तर्क-संगत ,समकालीन, सार्थक और आधारभूत मनुष्यता का कोई पैना और तीखा सवाल उठाती है |असल बात यह है कि उनका कवि उन सवालों से तटस्थ न रहकर उनमें शामिल रहता है ,तभी वह कवि,कलाकार और रचना-कर्म में लगे लोगों से "अपने-अपने रिसालों से बाहर निकलने " की बात करता है |कहन-शैली और मुहावरे में तो उनका केशवत्व झलकता ही है |बड़ी संभावनाएं हैं उनमें | इसके लिए उनके साथ 'अनहद 'को भी बधाई

Tuesday 7 August 2012

निज कक्ष में

चाँद अंधेरी रात का
झांकता रात के तीन बजे
जागता खिड़की बड़ी शीशे की
खुलती -बंद होती
सरकती आगे-पीछे
७अगस्त २०१२
सिडनी महानगर के पेन-शर्स्ट की
नेल्सन स्ट्रीट के १७ नंबर आवास की १०वी यूनिट में
बेचैनी नींद आने का नाम तक नहीं
पेट में प्रदाह
सोने नहीं देता
बदलता करवट कभी बांयी ,कभी दायी
लेटता पेट के बल कभी
चैन नहीं कैसे भी
पीता पानी बार-बार-
उतनी बार टॉयलेट
विचार की प्रक्रिया जन्म लेती दुःख में
कहीं कील सी गड़ती
यही दिखाती रास्ता क़ि
दिशा बदलकर सही दिशा पकडू जीवन की
सुख सुविधाओं के महल
रखते कील-काँटों- बिछी धरा से दूर
आती अनुभवों की खिड़की से रोशनी हमेशा
पीड़ा के खाई-गह्वर होते ऐसे ही
विजय पाना मुश्किल अकेले-अकेले
मात खाते भीम-अर्जुन से महाबली भी
था वैद्य सुख-एन रावण महाप्रतापी की लंका में
पीड़ा के रावन को संहारा संगठन और समझदारी से
यही है आज तक मूल जीवन-गति का
समझ पाया अपनी पीड़ा से
सहयोग-संगठन से चढ़ता घाटियाँ
तोड़ सकता आसमान के तारे
प्रगति का राज व्यक्ति के साथ
उसका संगठन समझ आया
अकेले कुछ नहीं होता
रुदन-हास्य भी जंगल में कौन सुनता
अकेलापन मृत्यु है
अवसाद की सूनी गलियों में भटकता पागल-सा
विक्षिप्त सभ्यता का होता जन्म
पीड़ा मन्त्र-सा फूंकती कान में
यदि हो राह कोई
लोक-जागरण की लहर-सी चलती
पानी ऊंचाइयों तक पहुँच जाता नहर हो तो
नहरें बनाई जीवन की
पेंसिलीन के आविष्कर्ता ने
चरक-सुश्रुत ने ,जीवक ने अपने समय में
बहाती आज तक राहत नदी की
चीन-जापान ,सब जगह यही हुआ
राहें बनी ,चले सभी मिलकर एक साथ
सुखी ज्यादा हुए तो लीकें अलग बनाकर
समाज-गति को भंग किया तोडा बीच में से समाज को
सुख का विभाजन गलत-सलत होने से बढ़ जाती पीड़ा मन की , जीवन की
हो रहा यही आज सुख के महलों से झोंपड़ियों की टक्कर
उजाड़े जा रहे आदिवासी तक उनके अपने वनों और बीहड़ों से
लपलपाती जीभ लोभ-लिप्सा की
रौंदती फसल मानवता की
जिसने बनायी सुगम राहें सभी की
मरे सब के लिए
जिए तो सबके लिए
केवल अपने लिए सोये नहीं निज कक्ष में |




Monday 6 August 2012



पहाड़-सा भारी-कठोर
बीहड़ों-सा दुर्गम
थूहर के जंगल-सा फैला
बाढ़ सा प्रलयंकारी
प्रचंड ज्वाला मुखी -सा भयंकर
असहनीय ताप धमन भट्टी -सा भीतर भीतर
सुलगता एक महा-कुण्ड
बवंडर-भूचाल सा यह समय -----उत्तर-आधुनिक
रीढ़ पर वार करता
सूझता नहीं हाथ को हाथ
राहें विभ्रमकारी पथ-भ्रष्ट करती पग-डंडियाँ अनेक
कहाँ जाऊं ,आँखों पर पट्टी बंधे बैल-सा यह उत्तर आधुनिक समय
विमर्श-जालों में फंसा लहुलुहान हारिल पक्षी -सा
समय को बेचते बधिक मार्ग-दर्शक
बौद्धिक गुलामों का दास युग जैसा
खरीद -फरोख्त की तराजू पर टिके न्याय सा हर घड़ी बिकने को तैयार
दिन-पल-निमिष
एक भयानक-सा दैत्य महाकार रगड़ता मेरा तन-मन
इसके पंजों में छिपा आकर्षण
मुझे धकेलता लगातार इसकी ओर
झूठे और नकली व्यक्तित्वों के गिरोह हर जगह
समय की वल्गाओं को हाथों में थामे
मैं सर झुकाता होता लोट मलोट इसके चरणों में हिम्मतपस्त -सा
मौन धारण करता सही सवालों पर

सुदूर दीप्त-आनन् सा
एक आकर्षण-जाल
पतंगे टपकते-मरते
बरसाती-समय की
रोशनी के व्यूह पर जैसे
अपनी गतियों ,चालों और तरफ्दारियों को बदलता रोज
कैसे समझूं -समझाऊं
नहीं यह हितैषी हमारा कभी रहा
इसके आग्नेयास्त्र नहीं हमारे काम के
इनकी कीमत आत्माओं का सौदा करके चुकाई जा सकती है
इतना सौदा कभी नहीं हुआ आत्माओं का
इन बाज़ारों में रोज बेचने आते आत्माएं धनिक होने की चाह में डूबे
जैसे रोटी के लिए चौराहों पर खड़े मजूर सौदा करते शरीर का
छिपे-छिपे चलता कारोबार आत्माओं का
इस उत्तर-आधुनिक तेजस्वी समय में |

Sunday 5 August 2012

एरोन -रोहन भाई दो
प्रज्ञा के हैं भाई दो |
अपनी बातें करते हैं
हंसते और किलकते हैं
औरों को खूब हंसाते हैं
ऊधम खूब मचाते हैं
दोनों को खिलौने लाई दो |
रोहन हंसता रहता है
अपनी-अपनी कहता है
मम्मी का यह प्यारा है
दादी का दुलारा है
दोनों को मिठाई आई दो |
प्रज्ञा बड़ी सयानी है
कहती उसकी नानी है
बात सभी ने जानी है
जैसे मीठा पानी है
कविता खूब सुनाई दो |

Saturday 28 July 2012

गरीबी का पहाड़
छाती पर धरे
हवा-धूप-ताप -रोशनी का
रास्ता रोके खड़ा
बियाबान -सा जीवन
जहरीले-कटीले झाड-झंखाड़
इतनी जडी-बूटियाँ
औषधियां अमरतत्व-दायिनी
जैसे हवाएं जीवन-प्रदायिनी
सभी पर अजगरी दैत्य-सा आधिपत्य
कुछ लोगों ,घरानों
विश्व-विजेताओं का
अभी पशुता का न्याय धरती पर
अभी अंधकार घटाटोप
कि एक हाथ खा रहा
दूसरे हाथ को
कर्म-संलग्न जो
रेत को हटाता
उठाकर फेंकता
साफ़ करता ,रास्ता बनाता
पहाड़ों को काटकर
दर्रों के बीच से
वही ग्रास बनता काल का
उम्र से पहले
जो छीलता घास वही
सबसे पहले खांसता
मरीज़ दमा का
चूल्हे में फोडती आँखें
गृहणियां अनगिनत
इस इक्कीसवीं शती के
मुहाने पर |
लम्बी कथा पुराण-सी
कहीं खतम होने का
नाम नहीं लेती
एशिया ,अफ्रीका के
लैटिन अमरीकी बिरादरी
जिसका प्राण
सोख लिया गया
इतिहास की पाशविक
अहमन्य ताओं और लालची
आकांक्षाओं ने
लापरवाही ,जड़ता ,अकर्मण्यता
प्रमाद अपने भी शामिल
इस सूची में |

Thursday 26 July 2012

इस शिक्षाप्रद संस्मरण में जहां केदार बाबू के रचनात्मक व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलू उद्घाटित हुए हैं वहीं आपकी ग्रहनीयता और उनकी कविता के काव्य-तत्त्व तक पहुँचने की क्षमता भी |केदार जी कविता को जिन जीवन-क्षेत्रों में ले गए ,वहाँ सामान्य मध्यवर्गीय कवि की पहुँच नहीं हो पाती |वे नागार्जुन ,त्रिलोचन जी के साथ एक अलग धारा को प्रवाहित करते रहे ,जिसने कविता को अज्ञेय प्रवर्तित व्यक्तिवादी काव्य-प्रवाह से बचाया ,जो शीत-युद्ध के दिनों में,सत्ता और प्रलोभन के बल पर खूब तेजी से फली-फूली थी |बधाई स्वीकार करें, केशव जी |

Tuesday 24 July 2012

मायामृग जी ,इस बदलने में खुद का बदलना भी शामिल है ,मध्यवर्गीयता को छोड़ते हुए उस मेहनतकश वर्ग के साथ सच्चे मन से कदम मिलाकर चलना भी शामिल है ,जिसके तन से पसीने की बदबू आती है ,जिसके पास न कोई बड़ा पद देने को है,न पुरस्कार ,न विदेश यात्रा ,न वैभव न कोष , इसके विपरीत वह आपसे ही चाहता है कि उन प्रलोभनों को भूल जाएँ जो साम्राज्यवाद के थैले में आठ पहर चौंसठ घड़ी पड़े रहते हैं |ऐसा जब-जब हुआ है ,पूंजी के साम्राज्य से लड़ा जा सका है |
सिटी रेल ये सिटी रेल
आना -जाना बस एक खेल
नदियाँ पार कराती है ये
घाटी में चढ़ जाती है
दर्रे से ना डरती है ये
बीहड़ में घुस जाती है
चलती है तो लगती है
जैसे चलती लम्बी बेल |
पूरब में ले जाती है
तो पश्चिम में पहुंचाती है
उत्तर-दक्खिन घुमा-फिराकर
अपने घर ले आती है|
मन से चंचल ,तन से रहती
लेकिन बिलकुल ठावाठेल |

Monday 23 July 2012

सिटी रेल ये सिटी रेल
रखती सब में हेलमेल |
जो भी आता जाता है ,
उसको पास बुलाती है
अपने साथ बिठा करके
मंजिल तक पहुंचाती है
चलती है तो लगता है
जैसे चलती लम्बी बेल |
चलती है तो इसका सरगम बजता है
इससे आने जाने वाला
काम समय पर करता है
चूक अगर हो जाए तो
हो जाती है रेलमपेल |
अभि सभी का प्यार अभि
अभि को करते प्यार सभी
अभि अभी तो बच्चा है
कली-सा कोमल कच्चा है
बड़े-बड़ों से अच्छा है
मन का बिलकुल सच्चा है
गीत सुनाता गा-गा-कर
जैसे बजे गिटार अभी |
सबका राज-दुलारा है
सब की आँख का तारा है
सब दुनिया से न्यारा है
दूध की निर्मल धारा है
सरगम की स्वर-लहरी सा
बहती रस की धार अभि |
छोटा-सा एक खिलौना है
सुन्दर-सा मृग-छौना है
माँ का रौना-भौना है
फूल भरा एक दौना है
खेल खिलाता है हम सबको
खेलों का संसार अभि |
साम्राज्यवाद का मतलब शक्ति-सत्ता की निरंकुशता ही तो होता है ,वह बड़े स्तर पर देश या देशों की होती है और छोटे स्तर पर व्यक्ति या व्यक्तियों की | जिन वरिष्ठों का अक्सर उल्लेख किया जाता है वे भी किसी न किसी सत्ता का केंद्र बनकर ही ऐसा करते हैं | इस तरह के व्यक्तिवादी साम्राज्यवाद का विरोध यदि नहीं हो सकता तो साम्राज्यवाद का क्या खाकर होगा ?जिनमें अपने बीच के ऐसे 'साम्राज्यवाद- शत्रुओं ' का विरोध करने का साहस नहीं होता ,उनका विरोध 'थियरी 'तक सीमित रहता है ,'प्रैक्टिस 'शायद ही बन पाता हो |

Thursday 19 July 2012

हर जगह वही

हर जगह वही
सूरज,चाँद
,धरती के बेडौल उभार
क्रूरताओं से भरी ऊँच-नीच
विश्वासघाती छलपूर्ण समानताएं
चकाचौंधी विकास का डरावना अन्धेरा
इकतरफा अदालतें
स्कूली विभाजन
अस्पताली अमानवीयताएं
मध्यवर्गीय नपुन्सक्ताएं
और धोखे भरी मौकापरस्ती

हर जगह वही
समुद्र ,पहाड़ ,नदियाँ
हर जगह
भीतर के तनाव
हर जगह भाड़
हर जगह
वानस्पतिक सघनताओं के बीच
पसरा थार जैसा रेगिस्तान
ये बाहर के महासागर
मेरी प्यास के लिए
बेहद अपर्याप्त हैं
हर जगह वही
नदियाँ ,पेड़-पौधे
और मेरी अहमन्यताएं
सौन्दर्य और प्रेम -प्रतिकूल
जीवन-सलिला के तटों पर
नर-नारी वेश में आता
डकैतों और जल-दस्युओं का आतंक,
आधिपत्य
इनकी पूजा -प्रार्थना
और अभ्यर्थना में लगा
प्रेत सरीखा एक उदरम्भरि वर्ग
उलझाता सवालों को
आने नहीं देता जीवन-पटल पर
खेत जोतते हल जैसे सवालों को
भटकते सवालों पर इन
चला जाता हूँ मैं
अपना घर-बार छोड़कर
उन नदियों के किनारे
जो बहती हैं बीचों-बीच
जिन्दगी के ढूहों ,धोरों और
रेतीले प्रसारों में |
आओ पतंग उडाएं बच्चो
आओ पतंग उडाएं
लाल हरी और पीली
आसमान सी नीली नीली
कुछ मटमैली ,कुछ चमकीली
झंडी-सी फहराएं |
चरखी मांजा लेकर हाथ
कर लें आसमान से बात
रामू दे श्यामू को मात
हम ताली पटकाएं|
आओ बच्चो ,पतग उडाएं

Wednesday 18 July 2012




पीले फूल

मोरडेल में मैंने देखे
पीले पीले पीले फूल
संग हवा के झूमते -गाते
पीले पीले पीले फूल

जगमग बस्ती फूलों की
ज्यों बड़ी गिरस्ती फूलों की
खुशबू भरे उसूलों की
मेघ घिरे हैं आसमान में
फिर भी गाते पीले फूल

रंग-बिरंगा आँगन इनका
काम-काज सब इनके मन का
कुछ भी लोभ नहीं है धन का
इसीलिये तो नाच रहे हैं
गाते गाते पीले फूल |


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रेल चली,रेल चली
पेनशर्स्ट से रेल चली
मिरान्डा को रेल चली
बोंडाई से आती है
क्रोनाला को जाती है
क्रोनाला से लौट के
बोंडाई पहुंचाती है
पेनशर्स्ट से चल दी रेल ,
पहुँच गए हम मोरडेल
मोरडेल पर सीटी बोली
जा पहुंचे हम ओटली
नदी बीच में आती है
रोज तराने गाती है
नावों में बैठाती है
रेल चली,रेल चली
पुल से पार कराकर
हमको कोमो पर पहुंचाती है
अब बच्चो बजाओ ताली
जा पहुंचे जनाली
जनाली से कुछ ही पैंड
जा पहुंचे हम सदरलैंड
गार्ड के हाथ में चावी
पहुंचा दिए किरावी
बिना भूल ,बिन खामियां
पहुँच गए हम गामिया
लेकर पूरा टांडा
जा पहुंचे मिरांडा |

मेरी दिन-चर्या

घर से पैदल
चलकर जाता ,
दादाजी की उंगली पकडे
कभी गोद में भी चढ़ जाता 
स्टेशन पर टिकट कटाता ,|
आते रेल
तुरत चढ़ जाता ,
बैठे-बैठे खाना खाता ,
कविता गाता, गीत सुनाता ,
ठीक समय
शिशु-घर में जाता ,
खूब खेलता और खिलाता ,
डैनी जैसा कहे बताता ,
काम रोज का पूरा करके
वापस फिर घर को आ जाता |
दादी के संग गप्प लड़ाकर
धीरे-धीर मैं सो जाता |
मम्मी आती पापा आते ,
जगकर सबका ,
मन बहलाता |
धूम मचाता
खाना खाकर
फिर सो जाता |

,

Monday 16 July 2012

लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे
मम्मी मिलेंगी ,
पापा मिलेंगे
लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे |
दादी मिलेंगी
दादू मिलेंगे
लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे |
नानी मिलेंगी
नानू मिलेंगे
लाला को कौन कौन
घर पर मिलेंगे |
हवा चली ,हवा चली
ठंडी ठंडी हवा चली
सूरज ने ढकी रजाई है
बादल ने आँख दिखाई है
सर्दी की ऋतु आई है
मन को भाती मूंगफली |
वेस्टफील्ड में आए हैं
तन-मन सब सरसाए हैं
रंग ने रंग दिखाए हैं
खिल गयी मन की कली-कली
चमक भरा बाज़ार है
जीवन का आधार है
सब कुछ ही व्यापार है
यही बात बस एक खली |
--------२२ जून २०१२

           
लाला हलवा खायेगा
अभि हलवा खायेगा
हलवा लेकर क्रोनाला के
बीच पे जायेगा
मीठा-मीठा है हलवा
ताजा-ताजा है हलवा
मेवों के संग मिल-करके
खुशबू देता है हलवा |
जो खायेगा वही एनर्जी पायेगा ||
हलवा हिन्दुस्तानी है ,
डिश जानी-पहचानी है
जो खायेगा उसके तन में
लाता रंग-जवानी है |
जो खायेगा ,आगे बढ़ता जायेगा |
मीठे से ये है बनता
देशी घी भी है डलता
आते या सूजी के संग में
मीठा जल भी है मिलता |
जो खायेगा, अपना रंग जमाएगा |

Thursday 12 July 2012

दादा जी ,दादा जी
कहाँ चले तुम दादा जी
सिरपर टोपी ,हाथ में डंडा
पहन के कपडे सादा जी |
दादा जी का डंडा है
ज्यों गंगा का पंडा है
यही एक हथकंडा है
और नहीं कुछ ज्यादा जी |
दादी जी की लाठी है ,
आगे की सहपाठी है ,
बूढों की परिपाटी है ,
ये बोझ सभी ने लादा जी |
अब की जब हम आएँगे ,
खूब मिठाई लायेंगे ,
अभि को खिलायेगे ,
रहा हमारा वादा जी |
या रोगी संसार में ,कितने रोगी लोग |
जितने तरह की औषधि ,उससे ज्यादा रोग ||
लाख-करोड़ों इंजनियर ,डाक्टर बने कितेक |
पैसे के हैं यंत्र सब ,इन्सां बना न एक ||
जो भी घर में घुस गया ,केवल उसकी मौज |
ईंटा-गारा ढो रही ,बाकी उनकी फ़ौज ||
मेघा आए उमड़-घुमड़ कर
नभ में छाए उमड़-घुमड़ कर
जब चाहें आ जाते हैं
सूरज को धमकाते हैं
हमको आँख दिखाते हैं
हाथों में छाते पकडाए ,उमड़-घुमड़ कर
आते हैं तो आते हैं
अन्धकार कर जाते हैं
घर में हमें छ्हिपाते हैं
पानी के पीपे ढरकाए ,उमड़-घुमड़ कर

Wednesday 11 July 2012

आष्ट्रेलिया आए हैं
गीत विदेशी गाए हैं
अपनी-अपनी सुनते हैं
अपनी-अपनी कहते हैं
अपनी बोली भाषा के संग
पेंशर्स्त में रहते हैं
जैसे गाय के जाए हैं |
रोज मिरांडा जाता हूँ
अभि को पहुंचाता हूँ
अवधि पूर्ण हो जाने पर
वापस लेकर आता हूँ
दस से चार बजाए हैं |
वेस्टफील्ड एक मॉल है
बाजारू जंजाल है
इस चमक-दमक की दुनिया में
बुरा हमारा हाल है
मन ने प्रश्न उठाए हैं |
क्रोनाला का सागर-तट
मेरे मन का अक्षय-वट
हरदम भरता रहता है
मेरे भीतर घट प्रति घट
ह्रदय-सिन्धु सरसाए हैं |

Tuesday 10 July 2012

धूप खिली,धूप खिली
मीठी-मीठी धूप खिली
इधर खिली उधर खिली
उधर खिली इधर खिली
आँगन-आँगन धूप खिली
आसमान से आती है
आकर हमें जगाती है
परियों सी मुस्काती है
बातें करती भली -भली |
कभी पेड़ पर चढ़ती है
अन्धकार से लडती है
ठण्ड से अकडती है
खेल खेलती गली-गली |

Wednesday 2 May 2012

आपकी अपनी जमीन पर कवितायेँ भी खिनुवा के पेड़ की तरह उगती हैं | यही आपकी वास्तविक काव्य- भूमि है | अपनी भाषा और व्यंजना में भी बेजोड़ | खिनुवा तो थोड़े में बहुत कुछ कह जाती है | बधाई |

Sunday 29 April 2012

  छन्दहीन  इस समय में शेरपा का श्रम से लबालब व्यक्तित्व जीवन का बेहद रूपवान छंद रचता है |अफ़सोस यह है कि  यह छंद आवारा पूंजी से अघाए वर्गों की जिन्दगी में संगीत की तरह कहीं सुनाई नहीं देता | कविता का यह शेरपा हमारे व्यक्तित्व का अंग भी बने तभी जाकर दुनिया का वास्तविक छंद  रचा जा सकता है |यह कविता का लोक भी है और लोक की कविता भी |

Saturday 28 April 2012

"दर-असल, आज भी मैं तुलसी की इस बात से सहमत हूं कि कविता का मोती "हृदय-सिंधु" में पलता है - "हृदय सिंधु मति सीप समाना" । दूसरी ओर अनुभव होता है कि आज के अधिकांश कवियों के हृदय, पोखरे या छोटी-बड़ी ताल-तलैयों से ज्यादा बड़े नहीं रह गए हैं । आत्मविस्तार की बजाय वहां प्रलोभन , यश-कीर्ति , प्रशस्ति-पुरस्कार का मायाजाल उसके हृदय को निरन्तर संकुचित कर रहा है । पुराने कवियों से तो जैसे आज का कवि कुछ सीखना ही नहीं चाहता"
मध्य वर्ग का निम्न मेहनतकश वर्ग की जिन्दगी के अनुभवों से लगातार कटते और दूर होते जाना और अपने ही एक मिथ्या क्रांतिकारी संसार में हवाई किले बनाना |यह मध्यवर्गीय बीमारी है | इससे मुक्ति तभी सम्भव है जब उसके जीवन के सैद्धांतिक-विचारधारात्मक सरोकार ही नहीं वरन व्यावहारिक जीवन में भी वह निम्न - मेहनतकश वर्ग से स्वयम को सम्बद्ध रखे |इससे उसके जीवनानुभव भी समृद्ध होंगे और उसका व्यक्तित्त्व -निखार भी होगा | फिर उसकी कला  का तेज  ही कुछ अलग तरह का होगा | उसमें धैर्य भी आ जायगा और प्रसिद्धी  , पुरस्कार एवं सम्मान पाने की लालसा भी कम हो जायेगी |
सच तो यह है कि  अपने भीतर वह  इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर  की बड़ी दुनिया बहुत कम नज़र आती है | कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का निर्माण करता है वह उसका जीवन  से कटा हुआ मनोगत यथार्थ होता है | इसलिए मुक्तिबोध ने अन्दर -बाहर की द्वंद्वात्मक एकता  पर विशेष बल दिया है |यदि उसका केवल अंदर ही आता है तो वह  विखंडित है , यही बात बाहर के साथ भी है |

Friday 27 April 2012

 ये आज के लोक-स्वर के महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय युवा रचनाकारों में आते हैं | इन्होने अपने जीवनानुभवों के आधार पर कविता की अपनी एक नई जमीन तोडी एवं बनाई है|इस जीवन की  विशेषता है कि  श्रम से जुडा  होने से इसकी प्रकृति में ही काव्यत्व अन्तर्निहित है ----" राम तुम्हारा चरित स्वयम ही काव्य है "  की तरह |निर्मला जी ने मूलत संताली में लिखा और उनका हिन्दी में अनुवाद अशोक सिंह ने किया | जहां तक मुझे याद है कि निर्मला पुतुल की कवितायेँ २१वी  सदी के  लगते ही आने लग गयी थीं |" नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द "और " अपने घर की तलाश में "-- शीर्षकों से आए दो काव्य- संग्रहों में पुतुल की कविताओं में  अंतर्वस्तु की जो तेजस्विता एवं मौलिकता नज़र आती है वह आज की कविता को एक नया आयाम देती है |यहाँ एक आदिवासी स्त्री का स्वर तो है ही साथ ही आदिवासी जीवन - मूल्यों और संघर्षों का एक सजीव काव्यात्मक इतिहास भी है | इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि हम अपनी बेचैनी के ताप के साथ एक गहरी नदी में अवगाहन कर रहे हैं | शिल्प भी इनका अपना है , आदिवासी अंतर्वस्तु की तरह आदिवासी शिल्प --- अपनी सहजता में मुखरित |यह कविता हमको अपने अंधरे के खिलाफ उठने की सीख देती है | अन्धेरा बाहरइसलिए अपनी बेटी मुर्मू से  ही नहीं है वरन वह हमारे भीतर भी है |इसलिए कवयित्री अपनी बेटी मुर्मू को संबोधित करते हुए कहती है कि ---
                                                             उठो, कि तुम जहां हो वहाँ से उठो
                                                             जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है
                                                              उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी
       जब निर्मला पुतुल का पहला काव्य- संग्रह प्रकाशित हुआ था , उसी समय मैंने उसकी समीक्षा की थी |इस कविता से विशवास हुआ  कि हिन्दी कविता का भविष्य इन हाथों में सुरक्षित है |अनुज लुगुन की दिशा भी यही है | अभी उनकी ज्यादा कवितायेँ नहीं पढ़ पाया हूँ |
जब साहित्य-मात्र ही हाशिये पर धकेला  जा रहा हो तब इसके कारण हमको उपभोक्तावादी तंत्र  में खोजने चाहिए | अब अपने देशी साहित्य में ही जब व्यक्ति क्षीण-रूचि हो रहा है तो इस सब का असर अन्य स्थितियों पर भी होगा | इसके बावजूद चयनित और चर्चित विश्व साहित्य के संपर्क में अल्पसंख्यक युवा आज भी रहता है |

Thursday 26 April 2012

फ़िलहाल कोई  मुख्य स्वर जैसी बात नज़र नहीं आती | जो कुछ है वह मिलाजुला है | वर्चस्व स्त्री एवं दलित स्वरों का कहा जा सकता है | हाँ , लोक- स्वर भी आजकल सिर चढ़कर    बोल ता दिखाई दे रहा है | जन- जीवन से जुड़ा  हुआ स्वर आज यदि किसी धारा में देखा जा सकता है तो वह इसी  लोक-स्वर वाली कविता में सबसे ज्यादा है |यों तो , मध्यवर्गीय कविता  की वैचारिकता में भी इस स्वर को सुना जा सकता है | मध्यवर्ग में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद ने उसे जन- जीवन से काटने का काम किया है |
आवारा पूंजी ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है और इसे वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है , उसका जितनी तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए था , वह बहुत कम हो पाया है | बड़े संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई को सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग - विमर्श को किनारे करने का काम किया है |स्त्री और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना और वर्ग-विमर्श  की कीमत पर नहीं | जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो खंड विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है |अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर  आदिवासी और अल्पसंख्यक विमेशों की तन भी छेड़ने में लगे हैं | जबकि  इन सभी की जड़ में वर्ग-विषमता रही है | इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई  आंच आती हो | क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी लाना जैसा लगता है |अभी तो बुर्जुआ जनवादी  चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता  में लगता है , जिससे राजनीति में व्याप्त सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों का खात्मा किया जा सके |
उत्तर ----दोनों स्थितियां ही अतिवादी हैं | परम्परा के प्रति निषेध और स्वीकार का रिश्ता ही द्वंद्वात्मक संतुलन पैदा करता है | महाकवि कालिदास बहुत पहले कह गए हैं कि न तो पुराना सब कुछ श्रेष्ठ है और न सम्पूर्ण अभिनव ही वन्दनीय है |पुराने में भी श्रम से रचित मानव - सौन्दर्य है और नए में भी |दोनों की सीमायें भी हैं |आधुनिकतावादी कवियों में परम्परा के प्रति  निषेधवादी रहता है , जो या तो परम्परा से अनभिग्य  होते  हैं या आधुनिकता के मिथ्या-दंभ में ऐसा करते हैं |  लोक-धर्मी काव्य-परम्परा के कवियों में परम्परा और नवीनता के प्रति संतुलन देखने को मिलता है |

Wednesday 25 April 2012

५वे प्रश्न का जबाव -------
      हाँ,मैं जनपदीय आधार के बिना ,फ़िलहाल की स्थितियों में ,रचना को असंभव तो नहीं मानता किन्तु बुनियादी जीवनानुभवों तक के संश्लिष्ट और व्यापक यथार्थ की रचना करने के लिए जनपदीयता को उसका बुनियादी आधार मानता हूँ| दुनिया की बात तो मैं नहीं जानता किन्तु अपने देश की काव्य-परम्परा में कविता की महान रेखा जनपदीय आधारों  पर ही खींची जा सकी है | भक्ति -काव्य की महान  काव्य-परम्परा का मुख्य स्रोत जनपदों से ही प्रवाहित हुआ है | जो  महा- जाति [नेशन ] अपने जनपदीय आधारों पर टिकी हो  वहां तो यह बहुत जरूरी हो जाता है |हिन्दी एक महाजाति है , जिसके अनेक जनपदीय जीवनाधार आज भी प्रभावी स्थिति में हैं |आज भी हमारे यहाँ किसान -जीवन से उपजी वास्तविकताओं का गहरा असर हमारे मन पर रहता है |हमारे जीवन-संचालन में  उसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका आज भी कम नहीं है |ब्रज, अवधी ,बुन्देली ,छत्तीसगढ़ी , मैथिली , भोजपुरी, पहाडी  , राजस्थानी  आदि जनपदीय संस्कृति के बिना महान हिन्दी-संस्कृति का भवन बनाना शायद ही संभव हो पाए | रही वैश्विक और राष्टीय होने की बात ,ऐसा यदि जनपदीय आधार पर होगा तो वह  इन्द्रियबोध , भाव और विचारधारा के उन महत्त्वपूर्ण स्तंभों पर टिका होगा , जो हर युग की कविता को महाप्राण बनाते हैं | जहाँ तक इस कसौटी पर आज के  युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही कविया का सवाल है तो इतना ही कहा जा सकता है की ज्यादातर कवि जनपदों के प्रति रागात्मक स्थितियों में हैं , उनका विचारधारात्मक आधार बहुत सुदृढ़ नहीं हो पाया है , लेकिन संभावनाएं यहीं हैं |इसमें कुछ युवा अभी अधकचरी स्थिति में भी हो सकते हैं | आकर्षण  और प्रलोभन यहाँ बिलकुल नहीं हैं क्योंकि यह "खाला का घर" नहीं है |
    
विचारधारा का कोई न कोई रूप हर समय की कविता में रहा है | यह अलग बात है कि उसका सम्बन्ध किसी भाव-वादी विचारधारा से हो |विचारधारा के बिना तो शायद ही कुछ लिखा -कहा जा सके |जो लोग स्वयं को विचारधारा से अलग रखने की बात करते हैं , उनकी भी अपनी छिपी हुई विचारधारा अपना काम करती रहती है | वे तो वैज्ञानिक-द्वद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा को रोकने के लिए इस तरह की दुहाई देते रहते हैं , जिससे शोषक अमीर वर्ग की विचारधारा अबाध गति से फूलती -फलती रहे और शोषित मेहनतकश वर्ग की विचारधारा अवरुद्ध रहे |आवारा पूंजी  का निर्बाध खेल चलता रहे | जिन अनुभवों को निजी अनुभव कहा जाता है ,उनमें समाज के अनुभवों और परंपरा से चली आती मान्यताओं की गहरी मिलावट रहती है |समाज -निरपेक्ष निजी अनुभवों की बात करना वैसे ही है , जैसे सरोवर में स्नान करते हुए स्वयं को आर्द्रता-निरपेक्ष बतलाना |यह अलग बात है कि समाज में प्रचलित अनेक रूढ़िबद्ध  विचारों और मान्यताओं के हम विरोधी हों |रचना का आधार तो कैसे भी बनाया जा सकता है ,प्रश्न यह है कि उस रचना के जीवन-घनत्त्व  का स्तर क्या है ?इस प्रवृति के पीछे कवि का मध्यवर्गीय अवसरवाद है और यह आजकल बड़े- बड़े नामधारियों में देखने को मिल रहा है | "कोई- कोई साबुत बचा कीला -मानी पास" |यह सच्चे कवियों का परीक्षा- काल चल रहा है |
३--- निस्संदेह,हर युग में वर्गीय अनुभवों की सीमाओं में कविता की जाती रही है |कबीर ने जब अपने  वर्ग-अनुभवों के आधार पर कविता की तो तत्कालीन उच्च-वर्ग ने उसे उसी रूप में शायद ही समझा | उसके सामाजिक-सांस्कृतिक अभिप्रायों की वास्तविकता का उदघाटन आधुनिक युग में आकर हुआ , जब वर्गीय समझ सामने आई |  मीरा ने अपने जीवनानुभवों के आधार पर भक्ति-कविता को एक नया मोड़ दिया |आज का दलित कवि अपने अनुभवों से काव्य परिदृश्य में हस्तक्षेप कर रहा है |आज का युवा कवि भी अपने वर्गीय अनुभवों की कविता लिख पा रहा है , जिन कवियों के पास लोक-जीवन के अनुभव नहीं हैं , वे लोक-जीवन से सम्बद्ध कविता को आंचलिकता के खाते में डाल देते हैं | नई कविता में मुक्तिबोध और अज्ञेय की जो दो काव्य धाराएं अलग-अलग नज़र आती हैं उसका कारण वर्गीय दृष्टि है |मुक्तिबोध बेहद वर्ग-सचेत कवि हैं , निम्न मेहनतकश वर्ग की पक्षधरता के साथ वर्गांतरण की प्रक्रिया को वे  कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं | ऐसा आज तक कोई दूसरा कवि नहीं कर पाया है |इसलिए भी उनकी कविता में दुर्बोधता दिखाई देती है |आज के युवा कवियों में ये तीनों धाराएं  दिखाई पड़ती हैं | एक अज्ञेय प्रवर्तित मध्यवर्ग की व्यक्तिवादी धारा , दूसरी मध्यवर्गीय जीवनानुभवों तक सीमित जनवादी धारा और तीसरी निम्नवर्गीय लोक-धर्मी काव्य धारा | मेरा मन इनमें तीसरी धारा के साथ रमता है और मैं इसको सबसे महत्त्वपूर्ण  मानता हूँ |

Tuesday 24 April 2012

२--लोकधर्मी कविता को यद्यपि एक आंचलिक काव्यधारा के रूप में देखा गया तथापि जीवन के बुनियादी सरोकार हमें इसी काव्यधारा में नज़र आते हैं |यह मध्यवर्गीय भावबोध से सम्बद्ध कवियों की काव्यधारा के सामानांतर एक अतिमहत्त्वपूर्ण और बुनियादी काव्यधारा है | आधुनिक युग में जिसके प्रवर्तन का श्रेय निराला को जाता है | आपने जिन कवियों का नाम लिया है वे इस धारा का विकास करने वाले प्रतिनिधि कवियों में आते हैं | मुक्तिबोध यद्यपि इस धारा से कुछ अलग से दिखाई देते हैं और उनकी मनोरचना मध्यवर्गीय कविता के ज्यादा समीप नज़र आती है किन्तु जब मुक्तिबोध नयी कविता की दो धाराओं का उल्लेख करते हैं तो वे भी बुनियादी तजुर्बों को कविता में लाने और रचने की दृष्टि से इसी काव्य- परंपरा में आते हैं | वे कविता में कवि-व्यक्तित्व के हामी होने के बावजूद व्यक्तिवाद के विरुद्ध काव्य-सृजन करते हैं |यह भी जनधर्मी काव्य-परंपरा का एक रूप है | कविता में जिनका बल जनवादी जीवन-मूल्यों का सृजन करने पर रहता है और जहाँ  जन-चरित्र तथा जन-परिवेश अपनी समग्रता में आता है , वह सब लोक-धर्मी  काव्य-धारा का ही अंग माना जाना चाहिए |कुमार विकल , शील आदि कवियों की कविता भी इसी कोटि में आती है | लोकधर्मी काव्य-धारा की यह विशेषता रही है कि वह  उस शक्ति का निरंतर अहसास कराती है जो मानवीय मूल्यों की दृष्टि से हर युग की सृजनात्मकता का अभिप्रेत रही है |
                            युवा पीढी में अनेक कवि हैं जो इस काव्य-धारा का विकास कर रहे हैं |एक ज़माने में अरुण कमल , राजेश जोशी , उदय प्रकाश ,मदन कश्यप अपनी  जन- संस्कृति -परकता की वजह से इस धारा का विकास करने वाले कवियों में चर्चित हुए | इनके बाद की पीढी में एकांत, का नाम बहुत तेजी से उभरा और नए युवा कवियों में केशव तिवारी , सुरेश सेन निशांत, महेश पुनेठा ,अजेय , नीलेश रघुवंशी , कुमार वीरेन्द्र ,निर्मला पुतुल , रजत कृष्ण,विमलेश त्रिपाठी , भरत प्रसाद , अनुज लुगुन, आत्मा रंजन, आदि कवियों की कविताओं से मैं परिचित हूँ | इस सूची में इनके अलावा और नाम हो सकते हैं क्योंकि दूर जनपदों में ऐसी कविता खूब लिखी जा रही है | हमारे यहाँ राजस्थान में ही विनोद पदरज यद्यपि  छपने-छपाने में बहुत संकोच बरतते हैं लेकिन जितना और जो उन्होंने लिखा है वह इसी धारा को पुष्ट करने वाला है |
आज युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही हिंदी कविता का परिदृश्य हर समय की तरह मिला-जुला है जैसे पूरे समाज का है | समाज की प्रवृतियाँ आज की युवा कविता में भी दिखाई देती हैं |कविता का सारा व्यापार कवि के जीवनानुभवों से चलता है |जीवनानुभव जितने व्यापक और बुनियादी होंगे ,कविता की कला भी उतनी ही व्यापक और असरदार होगी | इस समय की कविता पर मध्यवर्गीय जीवनानुभवों का वर्चस्व बना हुआ है |उसमें आज के विवेक और आधुनिक बोध की धार तो है किन्तु वह अयस्क-परिमाण बहुत कम है जो जिन्दगी की खदानों से सीधे आता है |अरुण कमल की कविता की एक पंक्ति लगभग सूक्ति की तरह उधृत की जाती है ----" सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार " |  आज स्थिति यह है कि  धार ज्यादा है और लोहा बहुत कम रह गया है | इसका कारण है मध्यवर्ग और निम्नवर्गीय मेहनतकश के जीवन में दूरी का बढ़ते चले जाना | कुछ लोकधर्मी युवा कवि अवश्य हैं जो इस दूरी को कम करने की कोशिशें लगातार कर रहे हैं इसलिए उनकी कविता में धार और लोहे का आनुपातिक संतुलन ज्यादा नज़र आता है |

Monday 23 April 2012

एक गैर-हिंदी -भाषी महानगर में आपने कविता की अपनी जमीन को सहेज कर रख रखा है , यह बेहद सुखकर और प्रीतिकर  है |कविता को सच की दीवार की एक-एक ईंट के रूप में परिभाषित करना आपकी वस्तुगत कल्पनाशीलता और यथार्थ के रू-ब-रू  होने का सबूत है | अन्य कवितायें भी आपके मिजाज का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं |भाव का विवेक के साथ साहचर्य बनाये रखना आपकी सृजन - कला की खासियत है |

Saturday 21 April 2012

केशव जी की कविताओं पर महेश जी ने बहुत सटीक और सूत्र पद्धति में सही लिखा है |कविता वास्तव में क्या होती है और हो सकती है यह इस आलोचना और कविता दोनों से समझा जा सकता है | कविता यदि आज शब्दों और दिलों में बची हुई है तो उसका एक रूप यह भी है और यह उसका मर्मस्पर्शी एवं सजीव रूप है | बूढ़े के सन्दर्भ  से गांधी की व्यंजना से कविता इस समय से सीधे जुड़ जाती है | आज की बाजारू सभ्यता ने हमारे जीवनादर्शों को बुढ़ाई के खाते में जबरन धकेल दिया है | प्रेम के मर्म में पैठ बनाने में केशव जी को काफी हद तक सफलता मिली है |कहा जा सकता है कि केशव जी के रूप में भविष्य और वर्तमान की कवि-संभावनाएं छिपी हुई हैं |

Thursday 12 April 2012

पाँव हैं,
पदचाप हैं ,
पर चल नहीं पाता,

सोच है,
दिमाग भी है
पर, सोच नहीं पाता

हाथ हैं ,
भुजाएं हैं ,
पर कितना कर्महीन हूँ ,

खाता हूँ खूब-खूब
एक-दो बार नहीं ,
पांच-पांच बार
जुगाली करता हूँ सिर्फ
रस नहीं बनता कि
सरस हो जीवन - सरिता ,

ह्रदय होने का
करता हूँ दिखावा
ह्रदय हो नहीं पाता |

Monday 26 March 2012

रजत भाई  को बहुत- बहुत बधाई , सुखद संयोग था कि  मैं और शाकिर भाई २४ मार्च को अमर कंटक में थे | २३ मार्च को शहीद भगत सिंह के बलिदान दिवस पर बिलासपुर के आयोजन में शामिल होने का प्रसंग था | यहीं मालूम हुआ कि रजत अमरकंटक आये हुए हैं , तो अमरकंटक से नर्मदा और सोन  नदियों के उदगम स्थल को देखने और मित्रों से मिलने की लालसा को जैसे पंख लग गए , यहीं मालूम हुआ कि कवि-कथाकार उदय प्रकाश भी यहीं हैं तो मन में घोड़े दौड़ने लगे | अमरकंटक में मालूम हुआ कि रजत कल ही जा चुके और उदय प्रकाश यहाँ से २७ किलो मीटर की दूरी पर हैं तो नेत्रों में उनकी छवि को बसाकर लौट आना पडा , बहरहाल ,अधूरा सुख  फिर भी मिला, प्रसंग से ही सही | बिलासपुर लौटना था , वहां उत्तर - आधुनिक दर्शन और हिन्दी कहानी पर आदरणीय राजेश्वर सक्सेना जी का व्याख्यान सुनने का लोभ मन में था |

Tuesday 20 March 2012

दर्द सहने और उसके अहसास में जितनी दूरी है अशआर की गुरुता और दर्द के घनत्त्व में उतना ही फर्क आ जायगा | शेर तो दोनों ही स्थितियों में निकल सकते हैं |

Thursday 8 March 2012

अवधारणाएं ,निस्संदेह  जीवनानुभवों  से बनती हैं |पहले स्त्री को अधीन किया गया , जैसे शूद्र कहलाने वाले समुदाय को , बाद में उनको शास्त्र-सम्मत घोषित किया गया | जिसका उपयोग स्वामी वर्ग ने तब तक किया जब तक कि  अधीनस्थ ने एकजुट होकर उसका तब तक प्रतिकार किया जब तक कि  वह स्थिति पूरी तरह बदल नहीं गयी |इसीलिये जीवनानुभवों को पदार्थ जैसी संज्ञा प्रदान की जाती है |आज भी यह संघर्ष अनेक रूपों में जारी है |जीवनानुभव बदल जायेंगे तो धर्म-शास्त्रों की जकडबंदी ढीली होती चली जायेगी |अनिश्चितता और असुरक्षा का बोध भाग्यवाद तथा धर्मवाद को जीवित रखने में बड़ी भूमिका अदा करता है |

Wednesday 7 March 2012

फाग के भीर अभीरन त्यों , गहि गोबिँदै ली गयी भीतर गोरी |
भाइ करी मन की पद्माकर , ऊपर नाइ अबीर की झोरी   |
छीनि  पितम्बर  कम्मर तें , सु बिदा दई  मींड कपोलन रोरी |
नैन नचाय  कही मुसकाय , लला फिर अइयो खेलन होरी |

Tuesday 6 March 2012

आज बिरज में होरी रे रसिया , होरी नाय खेले तो बरजोरी रे रसिया |
काऊ के हाथ कनक पिचकारी , काऊ के हाथ कमोरी रे रसिया ----आज बिरज में होरी रे रसिया | होली-धुलेंडी पर रंग-भरी मंगलकामनाएं

Monday 5 March 2012

किसी भी देश की जनता के लिए अपनी भाषा का सवाल उसके सम्पूर्ण अस्तित्व का सवाल होता है किन्तु हमारे जैसे औपनिवेशिक गुलामी से गुजरे हुए देशों में यह वर्गीय विडबना में फंसकर केवल निम्नवर्ग का सवाल बनकर रह जाता है |आज देश में अंगरेजी से ऊंची नौकरियों पर आसानी से उच्च-और उच्च -मध्य वर्ग कब्जा कर लेता है |उसके लिए अंगरेजी में शिक्षा एक तरह का आरक्षण है और सत्ता पर काबिज रहने का एक सस्ता नुस्खा भी |सामान्य जन के साथ यह एक ऐसा षड्यंत्र है जो आसानी से समझ में नहीं आता |यह दिक्कत सामान्य मध्य और निम्न मध्य वर्ग के बच्चों के साथ है जिनकी आवाज अभी नक्कार-खाने में तूती की आवाज जैसी भी नहीं है |तथाकथित लोक-तांत्रिक सता का गठन जाति-सम्प्रदाय पूंजी और गुंडई के सहयोग से हो जाता है , दूसरे ग्लोब्लाएजेशन ने कोढ़ में खाज का कम अलग से कर दिया है |जरूरत है कि इस सवाल को लेकर उक्त वर्गों का युवा वर्ग सामने आये और इसे एक राजनीतिक सवाल बनाये तो क्या नहीं हो सकता है |

Friday 2 March 2012

जो लोग यह मानते हैं कि  फलां-फलां का मूल्यांकन नहीं हो पाया है , उनका मूल्यांकन करने का प्रयास दूसरों को करना चाहिए | लोकतंत्र का युग है , जहां किसी को किसी ने कोई अच्छा काम करने से रोक नहीं रखा है | हमेशा शिकायत करते रहने और कुछ नामवर आलोचकों को कोसते रहने से बात बनने वाली नहीं है |समझदार लोगों को अपना आलस्य त्याग कर आलोचना-कर्म में तत्परता से लगना चाहिए ,जिससे उपेक्षितों का भला हो सके |

Wednesday 22 February 2012

हिंदी जातीय भाषा के रूप में आई है जब कि अन्य भाषा-बोलियाँ जनपदीय स्वरूप में आगे बढी हैं | हिन्दी के सामने उर्दू, अंगरेजी और जनपदीय बोली-भाषाओं के अंतर्विरोध भी रहे हैं | हिन्दी का संघर्ष इस मायने में तिकोना रहा है | हिन्दी को अपनी जगह बनाने में बहुत मेहनत-मशक्कत करनी पडी है और आज तो वह फिर से एक बेहद कठिन दौर से गुजर रही है | हिन्दी क्षेत्र का अलगाव भी इसका बड़ा कारण  रहा है |इसके बावजूद वह संवाद का माध्यम बनी है |रही साहित्य की लोकप्रियता की बात ,उसमें आधुनिक-बोध और कलात्मकता का नया परिप्रेक्ष्य उसकी गति को अवरुद्ध करते चलते हैं , जो एक भाषा की परिपक्वता के लिए बेहद जरूरी हैं

Monday 20 February 2012

बहुत सही विश्लेषण किया है |ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक परिप्रेक्ष्य के बिना केवल राजनीति की भाषा में चीजों को समझे जाने की प्रक्रिया ने हमेशा गड़बड़ी की है |उर्दू की जमीन को जाने बिना हम विभ्रम की गलियों में भटकते रहेंगे या फिर उनको साम्प्रदायिकता का रंग दे देंगे |आपने उर्दू की जमीन से उसकी हकीकत को समझा है |सही परिप्रेक्ष्य के गंभीर  चिंतन-परक  आलेख के लिए  बधाई

Friday 17 February 2012

 प्रामाणिक जबाव दिया है आशुतोष जी ,हर भाषा की अपनी प्रकृति,इतिहास और परम्परा होती है |हिन्दी की भी अपनी समृद्ध परम्परा है फिर हिन्दी क्षेत्र इतना विशाल और विविधता सम्पन्न है कि  उसकी रचनात्मकता के छोर उसकी विविधता में ही पकडे जा सकते हैं |दूर की चीजें सभी को सुहावनी लगती हैं |

Thursday 16 February 2012

  गीत

अँधेरे में
  
रात ब्याध के
           -घेरे में
दिन कटा
           अँधेरे में |
खंड-खंड पाखण्ड कि
                इतना
कोई  बिरला बूझे |
तकनीकी तलवारें
                तनती
दीपशिखा से जूझे |
मन का औरंगजेब
                  छिपा
शैतानी डेरे में |
 
ऐसा बिजली-समय
            अभी तक
       किसने था देखा |
 व्योम-भाल पर
                  खिंची
काल की
विद्युत्-गति रेखा |
सांस घुटी सूरज की
             लेकिन
सूखे झेरे में |

पोखर -तट के
पेड़ निरखते
    सूनी आँखों से |
रक्त टपकता
   रूप-विहग के
   श्रम की पाँखों से |
सूखी नदी ,
पहाडी नंगी
जंगल-खेरे में |

मन-मिरगा को
चैन नहीं
  आकाश गहा
         तब भी |
बीहड़ बाजारों का
       बीयाबान रहा
          तब भी |
सारी उमर
गुजारी हंसा
       तेरे- मेरे में |

    

Wednesday 15 February 2012

   अँधेरे में
      
         रात ब्याध के
                  घेरे में
         दिन ढका
                अँधेरे में |

         खंड-खंड पाखण्ड कि
                              - इतना
                कोइ बिरला बूझे ,
         तकनीकी तलवारें
                             --तनती
         दीपशिखा से  जूझे |
         मन का औरंगजेब
                           छिपा
                शैतानी डेरे में |


   अँधेरे में
      
         रात ब्याध के
                  घेरे में
         दिन ढका
                अँधेरे में |

         खंड-खंड पाखण्ड कि
                              - इतना
                कोइ बिरला बूझे ,
         तकनीकी तलवारें
                             --तनती
         दीपशिखा से  जूझे |
         मन का औरंगजेब
                           छिपा
                शैतानी डेरे में |


   ऐसा बिजली समय
     अभी तक
   किसने था देखा ,
   व्योम भाल पर
   खिंची काल की
    विद्युत् -गति रेखा |
   सांस घुटी सूरज की
                  लेकिन
   सूखे झेरे में |

  रात ब्याध के
             घेरे में
   दिन ढका
         अँधेरे में |
     
 
 यह गद्य -अंश ही  नहीं ,प्रेमचंद जी की एक बेहतरीन कविता भी है |पीड़ा की गहरी अनुभूति और उससे मुक्ति के उपाय का दर्शन आँखें खोलने वाला है | जो लोग इस समय इतिहास का अंत देखने और करने में लगे हैं ,उनको देखना चाहिए कि यह दुनिया उतनी ही नहीं है जिसमें वे कूप-मंडूक की तरह रहते हैं |

Tuesday 14 February 2012

 लोक-कविता और मध्यवर्गीय कविता का फर्क हमको तब समझ में आता है जब हम गिर्दा जी जैसे किसी लोक-कवि के अन्तरंग-बहिरंग की खूबियों को बहुत नजदीक से देख-समझ पाते हैं | महेश जी की कविता को इन्ही लोक-सरणियों से ऊर्जा हासिल होती है |लोक- कवि सीधे-सीधे जीवन-साक्षात्कार करता है इस वजह से उसमें जीवन-विधायक तत्त्वों की स्वतस्फूर्त ऊर्जा आ जाती है |जो कवि विचारधारा से जीवन की यात्रा करते हैं  उनमें जीवन -तत्त्व की कमी रह जाती है | बहरहाल, एक कद्दावर लोक- कवि से यह आलेख परिचित कराता है |किन्तु शीर्षक में 'कोहराम' शब्द खटकता है | यह नकार को व्यक्त करता है जब की गिर्दा जी के लोक-कवि की भूमिका द्वंद्वात्मक है |