Saturday 29 June 2013

प्रेम चंद  , प्रेमचंद  हैं और टैगोर , टैगोर । दोनों में लगातार बदलाव और विकास हुआ है । दोनों में ही लगातार औपनिवेशिकता का विरोध अपने अपने स्वभाव और परिस्थितियों में  विकसित हुआ है । बंगाल में एक समय ऐसा भी रहा है जब वह समाज अंगरेजी शिक्षा और  सभ्यता की आधुनिकता से प्रभावित रहा । १ ८ ५ ७ की स्मृतियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में वह बात नहीं रही, न अंगरेजी शासन की तरफ से न हिंदी जनता की तरफ से । दोनों ही एक दूसरे  के प्रति संदेह रखते थे । लेकिन बंगाल तेजी से बदला ,जब अंग्रेजों ने उसको दो टुकड़ों में विभाजित करके अपनी चाल चली । हमको इन सारी परिस्थितियों का ध्यान रखना होगा । अन्यथा हम प्रेम चंद और टैगोर दोनों के प्रति न्याय नहीं कर पायेंगे । दोनों ही भारतीय समाज के महान और क्लैसिक रचनाकारों में आते हैं । टैगोर महान हैं अपनी सघन और  गहरी रचनाशीलता से न कि नोबल पुरस्कार से । वह न भी मिलता तो भी उनकी महत्ता में कोई फर्क  नहीं पड़ता  ।

Thursday 27 June 2013

वह चिड़िया
मुझे पसंद है
वह अपने घोंसले से बाहर
आरही है जैसे
बकरियां सुबह -सुबह
अपने बाड़े से बाहर आती हैं
तो कितना उछलती-कूदती
और सींगों से सींग भिडाती हैं
मस्ती रहित जीवन
निस्पंद है जैसे हो
कोई सन्देश

वह चिड़िया
चहचहाती है जैसे बाँध को तोड़कर
बहने वाला जल उछलता है
अपने रंग की निर्मलता के संग नृत्य करता हुआ
रोज सुबह वह टिटहरी चहलकदमी करती है
जब अमलतास और शिरीष के फूल
खिलने की होड़ में
एक दूसरे  के गले मिलते हैं

वह लडकी
कितनी सुंदर है
जिसने अपना रास्ता
सूरज की चाल को देखकर चुना


वह लडकी सोचती है
पेड़ों में फूल खिलने  से लगाकर
बीज बनने  की प्रक्रिया तक
केवल पुस्तकों से नहीं
बीज को अंकुरित होते देखकर जानती है
फल और पेड़ दोनों का हालचाल ।

वह लडकी सोचती है













लोक के बीच जाकर
कभी कभार
टांग कर बया का घोसला
अपने आवारा पूंजी से सने
ड्राइंग रूम में
नहीं हो सकती कविता
लोक की ।

वहां अब भी
माटी बोलती है
भेद खोलती है
कि जो लोग
लाठी से थन छूते हैं
वे नहीं जानते
कि दूध की अपनी ताकत क्या है ?
जिन्होंने केवल दूध पीया है
वे क्या जाने कि मरखनी गाय को
न्याने से बांधकर
 नसीटना पड़ता है दूध
तब अंगूठे ही जानते हैं
कि गाय,थन और बाल्टी के
त्रिभुज पर टिका
श्रम का संगीत
लोक-लय का सृजन करता है ।






Wednesday 26 June 2013

पूंजी से जुड़े अखबारों की  गहरी प्रतिबद्धता पूंजी के पक्ष और श्रम की शक्तियों के विरोध में वातावरण बनाये रखने की होती हैं यद्यपि वह तटस्थ होने का ढोंग करता है । असलियत उसकी खुल भी जाती है तो वह बड़ी बेशर्मी से दिशा बदल लेता है । उसका चरित्र ही होता है अपनी किसी बात पर दृढ़ता से न टिकना । भला हुआ नेट तकनीक के विकसित होते चले जाने का , जो सारे भरम बड़ी आसानी से खोल देती है । अब अखबार को वह आज़ादी नहीं जो वह मीडिया के नाम पर भोगता रहा है । सोशल  मीडिया ने आज़ादी का दायरा तेजी से विकसित किया है और झूठ -अफवाह फैलाने वालों का पर्दाफ़ाश भी किया है । यद्यपि वे ताकतें यहाँ भी अपनी जबान दराजी करने के लिए तत्पर रहती हैं ।

Monday 24 June 2013

स्थापत्य कला ही नहीं होती ,अनुभव प्रसूत विज्ञान भी होती है । वैसे तो सारी कलाएं ही अपने समय के  तर्क से संचालित होती हैं और उनमें जीवनानुभवों  के रूप में विज्ञान का एक पक्ष रहता है ,उसी का उपयोग हमारे मेहनतकश शिल्पी करते रहे । ताजमहल तो यमुना के ठीक किनारे पर खडा है और किले हज़ारों सालों से गिरिशिखिरों  पर । हमारे पूर्वज हमारी तरह हर चीज में चमत्कार खोजने के बजाय जीवन के नये से नये  अनुभवों का आनंद लेते थे और अपने कर्म पर भरोसा रखते थे । केदारनाथ का मंदिर उसी अनुभव-प्रसूत कर्म का प्रमाण है ।

Sunday 23 June 2013

जो लेखक खतरे पैदा करता है और स्वयं खतरे उठाकर पाठकों को भी ऐसी ही नसीहतें देता है वह भला कला की कीमियागीरी और आधुनिक रीतिवाद के उपासक 'साहित्यकारों ' को क्यों कर पसंद आयेगा ? फिर भी कुछ हैं जो फटे जूते वाले प्रेमचंद  को किसी से किसी भी तरह कम नहीं मानते । उनके साहित्य पर करोड़ों नोबल पुरस्कारों को न्योछावर किया जा सकता है । जिनके दिमाग अभी भी औपनिवेशिक दासता के घटाटोप से मुक्त नहीं हो पाए हैं और जिनकी सारी जिन्दगी पुरस्कारों के  आस पास घूमती है । वे किसी भी बहाने से उसी तरह के रास्तों को खोज निकालते हैं । रहा गुरुदेव टैगोर का सवाल , साहित्य - संस्कृति के निर्माण में उनका कोई छोटा योगदान नहीं है । वे अपने मुक्तिकामी साहित्य से महान हैं न कि नोबल प्रस्कार से ।
मिश्र  जी ने शिव की तरह
जीवन भर हलाहल का
पान किया और
सुधा पान कराया
उनको जो जीवन की
सबसे निचली सीढी पर
बैठे रहे
सत्य के सच्चे साधक
और सौन्दर्य के उपासक को
प्रणाम । प्रणाम ॥ प्रणाम ।॥

Saturday 22 June 2013

वर्तमान  तथाकथित नव-उदारवादी व्यवस्था ने तीर्थ-स्थानों को बाजारू पर्यटन में बदलकर पहाड़ों-सरिताओं के  प्राकृतिक सौन्दर्य को  तबाह कर दिया  है उसी का परिणाम है यह प्रकृति -आक्रोश और  उसकी विध्वंश  -लीला । हम जब तक कारण की तलाश में गहरे नहीं उतरेंगे तब तक उसके सही समाधान तक नहीं पहुच सकते । इस समय एक ओर  प्रकृति है तो दूसरी ओर विकास की वे अथाह दौलत वाली शक्तियां जो प्रकृति-दोहन को ही "विकास" की अवधारणा के रूप में स्थापित कर चुकी हैं । वे जानती हैं कि यह सब शमशानी वैराग्य की तरह है । कुछ दिनों में सब भुला दिया जाएगा और जल्दी ही लोग क्रिकेट की हार-जीत के धंधे में लग जायेंगे । किसी बात  से सबक लेना यदि हमने सीखा होता तो महाशक्ति बनने  का सपना देखने -दिखाने वाले देश को यह त्रासदी नहीं देखनी पड़ती । अब यहाँ भी मंदिर बनाने वाले फिर आ रहे हैं ।  
देश के हिंदी विभाग लम्बे समय तक रीतिवाद के प्रतिमानों से साहित्य-संस्कृति  को आंकते रहे । दिल्ली विश्व-विद्यालय ही  लम्बे समय तक नगेन्द्र के "रस सिद्धांत" में डूबा  रहा । कालेजों विश्व-विद्यालयों में नौकरी लगवाना भी ऐसे ही " आचार्यों के निरंकुश हाथों में रहा । आज तक भी इससे पूरी तरह मुक्ति कहाँ मिल पाई है ? लेकिन किसी भाषा -संस्कृति का विकास केवल हिंदी अध्यापकों या कुछ साहित्य सर्जकों के हाथों में नहीं हुआ करता । उसमें पूरी जाति को खपना पड़ता है । समाज- विज्ञानियों और वैज्ञानिकों सभी को । अंगरेजी को विकसित करने में उस जाति के वैज्ञानिकों-समाज-विज्ञानियों , औद्योगिक प्रबंधन आदि सभी का तो योगदान है । हमारे देश की सभी जातियों ने औपनिवेशिकता का क्रूर अभिशाप भोगा है । यह तो भला हुआ स्वाधीनता -आन्दोलन का कि हिंदी उसके माध्यम से ज्ञान की चारों दिशाओं में फ़ैली और उसको महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा अग्रचेता "सम्पादक" प्रेरक और दूर-दृष्टा
व्यक्तित्व मिला । बहरहाल , इस सन्दर्भ में राम विलास जी की याद आती है , जिसने अपने अंगरेजी ज्ञान के माध्यम  से हिंदी को चारों कोने फैलाने की कोशिश की । साहित्य से कम बड़ा काम उन्होंने भाषा के क्षेत्र नहीं किया ।

Friday 21 June 2013

अंगरेजी में या कहें पूरी अंग्रेज  जाति ने साहित्य-संस्कृति , ज्ञान और विज्ञान में अपनी भाषा को आधुनिकता की बुलंदियों पर 
पंहुचाने में क्या कुछ नहीं किया । पूरी जाति  अपनी भाषा के लिए समर्पित रही । उनकी विडंबना यह थी कि वे अपनी भाषा से गहरा अनुराग रखते थे और उसको ज्ञान - विज्ञान में अद्यतन बना ने में सक्रिय  भूमिका अदा करते थे । इतना ही नहीं अपने भाषा-साहित्य ज्ञान का दूसरों को अनुभव कराकर अपनी गुलाम जातियों में गहरा हीनता का भाव भर देते थे । हमारे यहाँ आधुनिकता का जनक माने जाने वाले राजा राम मोहन रे तक उनके इस प्रभाव में थे किन्तु गांधी - भगत सिंह नहीं थे । वे जानते थे कि किसी भी कौम को भाषा और संस्कृति - वर्चस्व से लम्बे समय तक मानसिक गुलाम बनाए रखा जा सकता है । इससे उच्च वर्ग का फायदा है । नुकसान  होता है निम्न-मध्य और गरीब वर्ग को । वह अपनी भाषा के बिना आज़ाद नहीं हो सकता । किसी भी व्यक्ति की आत्मा उसकी निजभाषा में निवास करती है । अंगरेजी दिमाग की भाषा हो सकती है , दिल की कभी नहीं । निज भाषा की पगडंडी पर चलकर एवेरेस्ट फ़तेह किया जा सकता है । भारतेंदु जी ने गलत नहीं कहा कि --"बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत  न हिय कौ  शूल " ।
हिंदी का सवाल लोकतंत्र से जुडा  है । बिना निजभाषा के कैसा लोकतंत्र ? वामपंथी आन्दोलन  की सबसे बड़ी दिक्कत ही इस प्रश्न पर रही है । बंगाल में उसका आधार बांग्ला रही और केरल में मलयालम , इसी वजह से गरीब वर्ग तक उसकी जड़ें जा पहुँची । हिन्दी क्षेत्र के लोग अपने सोच को अपनी भाषा में जाहिर नहीं कर पाए । साहित्य में अपनी भाषा में काम हुआ । दूसरे ज्ञान- अनुशासनों में गंभीर और मौलिक काम अंगरेजी में ही होता रहा । यह जरूरत मध्य और निम्न वर्ग की थी । उच्च वर्ग ने अपना अलग समाज बनाया और अपने लिए अलग से सुविधाएं विकसित कर ली । यही देश का शासक वर्ग बना । इसी की भाषा और संस्कृति की एक अलग धारा बनती  रही । आज हाल यह है कि यदि अंगरेजी नहीं आती तो आप कहीं के नहीं हैं । अब गांधी की याद भी किसी को नहीं आती । महान शहीद भगत सिंह की वे बातें भी लोगों को याद नहीं जो उन्होंने  निज -भाषा के बारे में कही हैं ।बाजारवादी व्यवस्था ने माहौल को बहुत बिगाड़ दिया है । 

Thursday 20 June 2013

पहाड़ों को
पहाड़ जैसी जिन्दगी
जीने दो
यदि उनकी जिन्दगी को
आदमी की नकली जिन्दगी
बनाओगे तो
वे एक दिन अचानक रात में
तुम्हारे ऊपर टूट पड़ेंगे ।
 
नदियाँ उतनी सीधीसादी
 सरल नहीं हैं जितनी
  तुमने अपने
शब्द-कोश के
अभिधेयार्थ से समझ रखा है
उनको रास्ता नहीं दोगे
तो वे भयानक सर्पिणी की तरह
तुम्हें लीलते
देर नहीं लगाएंगी ।





Saturday 15 June 2013

मीडिया को हम जैसा न्यायप्रिय समझते हैं वैसा वह होता नहीं है । उसका भी एक वर्ग-चरित्र होता है । वह पूंजी और पूंजीवादी  व्यवस्था  का प्रचारक भी तो है । इस बात को हम जब तक नहीं समझेंगे तब तक मीडिया  की असलियत को नहीं जान पायेंगे । वह वही करता है जिससे उसका व्यवसाय  चलता रहे । 

Tuesday 11 June 2013

आओ लौट चलें
अपने गाँव
वे भी लौट गए
जो निकले थे बदलने के लिए
ख़म ठोक  कर
ऐसा लगा
यह उनका हवाखोरी करने का समय था
मीडिया के चुहलाबाजों  को गच्चा देने का ।


आओ लौट चलें
अपने गाँव
वे ही करेंगे ढिबरी टाइट
क्योंकि लोकतंत्र की लालटेन
आज भी उनके ही पास है

आओ लौट चलें
अपने गाँव ।
दुनिया में सत्ता की राजनीति करने से बड़ा चस्का शायद ही कोई दूसरा होता हो । इसलिए परिवार से लगाकर साहित्य - संस्कृति सभी में लोग ये काम करते हैं । राजनीति जीवन का आपद धर्म न होकर सामान्य और जरूरी  धर्म है । धर्म और राजनीति का गठजोड़ भी यही प्रमाणित करता है ।

Sunday 9 June 2013

चीनी कहावत है
कि आप पहाड़ को देख नहीं पाते
क्योंकि आप पहाड़ पर होते हैं

दुखों के सौ करोड़ पहाड़ों पर खड़े
बीस करोड़ लोग
क्या कर रहे हैं ?
पहाड़ों को देख रहे हैं
या दुःख को ?

वह समय भी आयेगा
जब पहाड़ खुद को
देख सकेंगे ।