Tuesday 16 September 2014

एक कविता


मैं उदास क्यों हूँ ?

मैं क्यों उनके असर में आता जा रहा हूँ ,
जो मेरी उदासी को बढ़ाते हैं
सैर सपाटे के समय भी
वे कांटे     बिछाते हैं
मेरे अपने सोच को छीन कर
वे अपनी शैतानी , लालच और दैत्याकारी   सफलता की
मनुष्य विरोधी  कहानियों को 
आसमान से फैंकते है
मेरे दिमाग को
स्वाधीन क्यों नहीं रहने देते वे
मुझे रोज रोज उदासी के परदे से
ढकते हैं
और वह जीवन--सत्य भी
जो हज़ारों सालों से पहले आदमी की बात करता  था
बाद में किसी और की
यह कैसी दुनिया है
जो चीजें मेरे हाथ में देकर
मेरे जीवन की सारी खुशियाँ छीन रही है
मेरी स्वाधीनता पर सबसे बड़ा पहरा लगाया जा रहा है
जब से टेलीपैथी  की इस  दूर बैठी दुनिया ने
मेरे आँगन में अपनी खाट बिछाई है
मेरा स्वभाव बदल रहा है
मेरी इच्छाएं बदल रही हैं
मेरा ज्ञान बदल रहा है
मेरी क्रियाएँ बदल रही हैं
इतने तक होना ,  फिर भी ठीक  है
संकट यह है  कि   मेरा शील
मेरा ईमान बदल रहा है
मेरा सौंदर्य बोध बदल रहा है
और वह उस दिशा में जा रहा है
जहां एक खूनी जंगल पसरा हुआ  है
 अब मैं उदास ही नहीं
हैवानियत की और भी जाने लगा हूँ
मैं अपनों से बिछुड़ने लगा हूँ
मैं अपने गाँव के किनारे बहने वाली नदी से
उसके होते हुए विमुख हो  रहा हूँ
 मुझे पता नहीं कि 
झेलम में इतनी गाद  किसने भरी 
कि  वह जल--प्रलय का कारण बनी 2014 के सितम्बर माह में
यह एक दिन का काम नहीं
 जिसने किया है
वह हमारे आस पास दिखाई नहीं देता
उसकी नज़र हमारे पहाड़ों , नदियों पर है
उसने अपनी दानवाकार यंत्र विद्या से
मुझे उदास किया है
उसके नीचे छिपे है युद्ध के ऐसे हथियार जो
कितने हिरोशिमा और नागासाकी
जैसी प्रलय मचा सकते हैं
यह कैसी दुनिया है जो
लगातार मेरी उदासी को बढ़ाती जाती है ।



 जीवन सिंह ,
1 /14 अरावलीं विहार ,
काला कुआ ,
 अलवर (राजस्थान )301002
mob 09785010072
 

Tuesday 8 July 2014

 यह लड़की 



यह लड़की
बेनागा  रोज
अपना काम पूरा करती है
बिलकुल सूरज की तरह
जैसे वह अपने समय पर
आता और जाता है
यह लड़की पढ़ने की अपनी उम्र में
पढ़ने नहीं गयी
यह लड़की
नहीं जानती
कि खेलने--खाने की
कोई उम्र होती है
दूसरे  घरों की सफाई
का जिम्मा इस पर है
यह झाड़ू--पौंछा लगाने के बाद
झूठे बर्तन साफ़ करती है
और उतना पाती है
जिससे इसके पेट की आग
 बुझ सकती है
यह भी देश की नागरिक है
वोट  देती है
देश का वह काम करती है
जिसे दूसरे करने से झिझकते
और अलसाते हैं
यह बेनागा उसी काम को करती है
फिर भी इसकी जगह
कूड़े---करकट की तरह
कूड़ेदानों में है।


इसे रेल की यात्रा करने से पहले
 सौ बार सोचना पड़ता है
इसे वे कपडे पहनने पड़ते हैं
जो दूसरों ने उतार कर फेंक दिए हैं
इसे वह खाना पड़ता है
जो दूसरों के पेट में समाने से रह गया है
यह इसी देश की नागरिक है
यह वोट भी देती है




इसे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि आज कोई तीज---त्यौहार है
दीवाली इसके लिए इतना ही अर्थ रखती है
कि दूसरों की दया होगी
तो इसे भी बचीखुची मिठाई मिल जाएगी
यह दूसरों की दया पर निर्भर है
कि यह ज़िंदा रह सकती है
इसके ऊपर कितनी नज़रों के पहाड़ रोज टूटते हैं
यह लड़की फिर भी डटी  हुई है
जिंदगी के मोर्चे पर
यह हमेशा एक युद्ध के बीच में है
जीवन भर युद्ध
एक ऐसा युद्ध जिसमें
रोज मरना  पड़ता है
फिर भी यह निरंतर युद्ध लड़ती है
और इंसान बनी रहती है।
जितना पसीना बहाती है
उससे बहुत कम  पाती है
यह लड़की इसी देश की नागरिक है
और वोट भी देती है।

इसने कभी कोई पाप नहीं किया
इसलिए इसे कभी पुण्य करने की
जरूरत ही नहीं पडी
जो पाप नहीं करता उसे
पुण्य करने की जरूरत कहाँ है
पुण्य वही करता है
जो पहले खूब सारे पापों की गठरी
अपने सिर  पर धर लेता है
यह लड़की निष्पाप जीवन का
सबसे बड़ा प्रमाण है।








































Tuesday 3 June 2014

यह अलग रास्ता है

कोई जगह ,
कोई समय ऐसा नहीं ,
जहां
यह सूर्य नहीं चमकता
बादल कितने ही काले ,
डरावने क्यों न हों
इसे ढक  नहीं पाते
किन्तु , यह अलग रास्ता है
सबसे अलग
अकेले पड़  जाने वाला
जहाँ खाने को घास की रोटियां हैं
छप्पन भोग नहीं
जो छप्पन भोग करने  और सोने के लोटों में
गंगाजल पीने वाले गीतों में शामिल हैं
वे न इस पर चलते हैं
न इस दिशा को
अपने गणित में शामिल करते हैं 


यह किसी मजहब, धर्म और देश से होकर
नहीं गुजरता
कोई जाति  भी यहां नहीं होती
धरती का हर कोना
इससे प्रकाशित होता है
देश इसे नहीं  बनाते
यह देशों को बनाता है
इतिहास इसके आँगन में खेलता है
भूगोल इसके पीछे पीछे चलता है
यह संस्कृति को
करवट की तरह बदल देता है

यह सूर्य की तरह कभी अस्त नहीं होता
चन्द्र की तरह कभी गर्म नहीं
यह आकाश की तरह निर्मल
धरती की तरह उदार
और सागर --सी गहराई लेकर 
इसे आत्मा के अपने राग की तरह
सबसे उदात्त और ऊंचे स्वर में ही गाया जा सकता है

Wednesday 14 May 2014

सकारात्मकता जब तक
 ईमानदारी और त्याग के पांवों पर
चलती है ,एक हवा बनी रहती है
किन्तु जब बेईमान आँधियाँ
उसकी जगह लेने लगती  हैं
तो सकारात्मकता लंगड़ी हो जाती है
उसकी जगह  पर भेड़िये ,सियार
वैसे ही आ  जाते हैं 
जैसे जंगल में
 छोड़ी हुई शिकार को
खाने के लिए आ जाते हैं।

Tuesday 13 May 2014

आज बुद्ध पूर्णिमा है। महात्मा बुद्ध जैसी महान हस्ती का जन्म दिन ,जिनको हमारे यहां के  पहले  समाज शास्त्री होने का गौरव  हासिल है।जो व्यक्ति को उसके मजहब , जाति  ,लिंग और औहदे से न देख कर केवल इंसान के रूप में देखते हैं। हजारों साल पहले  जीवनानुभवों से जितना उन्होंने सीखा उतना शायद ही किसी अन्य  व्यक्तित्त्व  ने सीखा हो। बुद्ध का महत्त्व आज भी इस रूप में है कि वे व्यक्ति को अपना पिछलगुआ नहीं बनाते। वे कहते हैं कि अपने दीपक आप बनो।  विवेकानंद उनके दर्शन से पूरी तरह सहमत नहीं थे फिर भी उन्होंने माना कि बुद्ध ही एक व्यक्ति थे ,जो पूर्णतया तथा यथार्थ में निष्काम कहे जा सकते हैं। वे मानते थे कि ---अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्न से होगी। अन्य कोई इसमें तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता। स्वयं अपनी मुक्ति प्राप्त करो। जबकि दूसरे महापुरुष अपने पीछे चलने की सलाह देते हैं।  वे मानते थे कि चीजें परिवर्तित  होती हैं।
 जो  लोग  दूसरों की  तरफ देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं ,वे अपने हक़ की लड़ाई भी याचना भाव से लड़ते देखे  जाते हैं।  मेरी माँ अक्सर एक कहावत कहती थी  ----आस बिरानी जो करै , जीवत  ही मर जाय। दूसरे  की आशा मत करो , . दूसरे  की आशा करोगे तो उसका गुलाम बनकर रहने को अभिशप्त होना पडेगा।     

Friday 9 May 2014

मैंने इस बहस को आज सुबह  २३ घंटे बाद पढ़ा। मैं इस पर चुप ही रहता ,किन्तु इसमें मेरा  नाम होने की वजह से मुझे  अपना पक्ष रखना जरूरी लग रहा है। मैं यहां बतला  दूँ कि इन कवियों पर 'पुनर्परीक्षण ' स्तम्भ के अंतर्गत एक श्रृंखला के रूप में --कृति ओर ---पत्रिका के पांच अंकों में विस्तार से  मैंने तब  लिखा था , जब विजेंद्र जी के हाथ में इस पत्रिका का पूर्ण सम्पादन था ,तब भी  यह इनकी कविता का पुनर्मूल्यांकन था , जिसमें इनकी सीमाओं का विशेष उल्लेख था। तब भी , जहां तक मुझे याद आ रहा है , इनको क्षद्म कवि जैसी संज्ञा प्रदान नहीं की गयी थी।  मैं इनकी कविताओं की सबसे बड़ी सीमा इनकी अंतर्वस्तु का विस्तार  न हो पाना मानता हूँ। जिसकी वजह इनके जीवनानुभवों का मध्यवर्ग तक सिकुड़ कर रह जाना है। ये जीवन का आलोचना धर्म तो निभाते हैं ,किन्तु उस अवस्था तक नहीं पहुँच पाते , जहां काल्पनिक ही सही , समता के  मुक्त भाव का साहचर्य पाठक को मिलता है।  क्षद्म कवि तो कवि होता ही नहीं। चूंकि ये कवि ,युवा वर्ग के आदर्श के रूप में पेश किये जाते  रहे  हैं  ,और मुक्तिबोध की कविता के बड़े प्रयोजन तक  को अनदेखा किया जा रहा था ,इसलिए भी यह उपक्रम जरूरी  आलोचना धर्म मानकर किया गया था।इसके अलावा नागार्जुन , केदार, त्रिलोचन की कविता की बड़ी जमीन  और उसकी परम्परा को  आँख ओट करने की रणनीति की आहटें आने लगी थी।चूंकि समाज में वर्ग विभाजन तेजी से बढ़ा है ,इस वजह से कविता का स्वरुप भी बदल रहा है।इसमें क्षद्म और असली की टक्कर  न होकर वर्गीय सीमाओं में संघर्ष की जो स्थितियां बनती  हैं , बहस उन पर होनी चाहिए।  इन आलोचनाओं की वजह से कई जगह मुझे ध्वंसकारी आलोचक के खिताब से भी नवाजा गया।  यह दरअसल तब भी होता है , जब हम प्रवृत्तियों को दरकिनार कर कुछ व्यक्तियों के  नामों से ही अपना काम निकलने लगते हैं।  हमारी बातें कविता से पुष्ट हों तो बात ज्यादा साफ़ और प्रामाणिक होगी। तात्कालिक  सरलीकृत सूत्र उत्तेजना तो पैदा कर सकते हैं ,कहीं पहुंचा नहीं सकते।

Wednesday 7 May 2014

व्यापार की
एक ही नैतिकता होती है
सिर्फ व्यापार
व्यापार और केवल व्यापार
इसकी पहली शर्त है ---
धोखा , झूठ ,फरेब के
विभ्रमकारी
पहाड़ खड़े करना

व्यापारी जब
राजसत्ता से गलबहियां
लेने लगता है
और उससे  अपना नाता
दाम्पत्य में बदल लेता है
तो समझो बेड़ा  गर्क है
यही फर्क है
जब व्यापारी
जंगल का शिकारी बन जाता है
वह सबसे पहले
 आदमियत का चोला उतारता है
और खरगोशों का शिकार कर
स्वयं को धनुर्धर घोषित करा लेता है
वह गुण ,ज्ञान और जोग की खेप लादकर
ब्रज में प्रवेश करता है
अब यह गोपियों पर है कि
वे उसे कितना समझती हैं।

Tuesday 6 May 2014

भानगढ़ अलवर जिले का एक सीमान्त ,किन्तु किंवदंतियों का एक ऐसा भग्न स्थल है ,जहां पहुँच कर इतिहास का एक ऐसा पृष्ठ आँखों के सामने होता है ,जो कभी अंधविश्वासों और सत्ता संघर्ष की भेंट चढ़ गया। यह आमेर नरेश और अकबर के सेनापति मान सिंह के छोटे भाई माधो सिंह की अपनी जागीर में बना हुआ था ,जो किसी  तांत्रिक सेवड़े की हरकतों से अंधविश्वासों की बलि चढ़ गया।  इस समय पुरातत्त्व विभाग इसकी देखरेख करता है और यह अलवर के पर्यटन स्थलों में से एक है। पहले यह आमेर और जयपुर का हिस्सा रहा ,बाद में जब अठारहवीं सदी  के अंत में एक नयी रियासत  अलवर बना ,तो यह उसके हिस्से में आया , या कहें प्रताप सिंह ने इसकी सीमा तक अलवर राज्य बना लिया।
शून्य सबको धारण करता है
इसलिए शून्य कभी रहा नहीं करता
जब हवा ज्यादा गर्म होती है तो
ऊपर उठ जाती है
उसकी जगह को उससे
ठंडी हवा घेर लेती है
इससे विक्षोभ पैदा होता है
 प्रकृति का यह नियम
एक व्यवस्था बनाता है
फिर भले ही वह
अव्यवस्था क्यों न हो

लेकिन दूसरा सच यह भी है कि
 ज्ञान और अनुभव
जब बरगद के पेड़ की जटाओं की  तरह
एकीभूत हो जाते हैं
तो आँधियाँ भी
अपना रास्ता बदल लेती हैं।
रचनाकार एक सीमित व्यक्तित्त्व लेकर जन्मता है , किन्तु वह अपने जीवनानुभवों का निरंतर विस्तार करता है ,जो उसका आत्म विस्तार कहलाता है।  उसकी रचना ही यह बता देती है कि रचनाकार के व्यक्ति का घेरा कितना बड़ा है।  जो रचनाकार आत्मविस्तार नहीं कर पाते ,वे रचना को भी बड़ी नहीं बना पाते। एक जगह कदम ताल करते रहने से मंजिल पूरी नहीं हुआ करती , स्वास्थ्य जरूर अच्छा रह सकता है।

Monday 5 May 2014

विकास वन- प्रांतर
 उजाड़ कर
हो सकता है
नदियों को प्रदूषित कर
विकास की गंगा
बहाई जा सकती है
पहाड़ों के बांकपन और
उदात्त उत्तुंगता  को
मैदान में खदेड़ कर
विकास की  पटरी
बिछाई जा सकती है
वैसे ही जैसे श्रम-शक्ति
और भू-सम्पदा  को
उपनिवेश बनाकर
यूरोप ने अपने यहां
विकास का समुद्र बना लिया था
इतिहास की कोठरी में
वह भूत बैठा है
 देर से ही सही
लगता है धीरे धीरे यह बात
समझ में आ रही है

अन्धेरा पहले से बढ़ा है
क्यों कि बाज़ार का भाव
तेजी  से चढ़ा है
जब जब बाज़ार भाव बढ़ता है 
तब तब अन्धेरा
आसमान  चढ़ता है 

बाजार की रोशनी
बहुत बड़ा धोखा है
यह रोशनी की कांख में
अन्धकार छिपा कर लाता  है
और उसे विकास बतलाता है 
इसने न जाने दूसरों का
 कितना रक्त पिया  है
कितना सोखा है
इंसानियत के रथ को
इसने ही रोका है

बाज़ार अब
 तख्ते ताऊस पर बैठना चाहता है
इसे पता नहीं कि
दिल्ली अभी दूर है
यह नहीं जानता 
 दीवाने ख़ास गुलाम हो सकता है 
   दीवाने आम नहीं। 




जिम्मेदार वे ही नहीं होते
जो बने बनाये रास्ते पर
कब्जा करके
उसका विस्तार करते हैं
वे भी होते  हैं
जो रास्ता बनाते नहीं सोचते
कि इस पर कभी
चोर,उचक्के ,मवाली
धोखेबाज ,तानाशाह
और हत्यारे भी चल सकते हैं

जिम्मेदार वे भी होते हैं
जो पहले विष बीज बोते हैं
और फसल आने के समय
रोने लगते हैं।
अवकाश कितना जरूरी है स्वास्थ्य के लिए। काश ,यह  दुनिया के सभी मेहनतकशों को भी सुलभ होता।आज कई दिनों के बाद फिर फेसबुक पर। अंतराल न हो तो जीना दूभर हो जाए। रविवार न हो तो जानिये कि कैसी हो जाएगी यह दुनिया ?
इस बीच १ मई को मजदूर दिवस पर अपने नगर के श्रमिक संगठनों के साथ हिस्सेदारी की और ५ मई को युगपुरुष कार्ल मार्क्स के बारे में सोचता रहा कि किस तरह से कहाँ जा पहुंचा था यह महापुरुष। पुरुष नहीं पुरुष-श्रेष्ठ। आगे भी मानवता की राह इन्ही के चिंतन से बन पाएगी।
बनारस के महासंग्राम पर नज़र है , कौरव कितने ही तीसमारखां क्यों न हों ,जीत पांडवों की होगी , तभी सत्य पर विश्वास  बना रह सकेगा। बनारस का मतदाता समझदारी से काम लेगा ,इस पर पूरा भरोसा है।  

Saturday 26 April 2014

उन्माद की सिला  पर बैठकर
गंगा  पार नहीं की जा सकती
गंगा  पार करने के लिए
काठ की नाव
और लहरों के परिवार का केवट  चाहिए
काठ की नाव का  पानी से तरंगसिद्ध 
नाता होता है
वह धीरे धीरे
अपना अस्तित्त्व भूल
पानी का संग पकड़ लेता है
पत्थर कभी ऐसा नहीं करता।
निस्संदेह, जनता भी लोकतंत्र में अपने नेतृत्त्व चुनाव के लिए जिम्मेदार होती है जैसी जनता होगी  नेता  भी वैसा ही होगा ।लेकिन जनता के विचार , दृष्टि , अध्ययन , स्वभाव , वर्ग इत्यादि  एक समान  नहीं हुआ करते।  बात यह भी तो है कि  जब नेतृत्त्व अपने हाथ में कमान ले लेता है तो उसकी जिम्मेदारी बढ़  जाती है।हमारे यहां  लोकतंत्र अभी ऐसा नहीं हुआ  है कि उसकी कोई सीमा न हो ,इसलिए नेतृत्त्व और जनता दोनों का एक दूसरे पर दबाव बनाये रखने की जरूरत हमेशा बनी रहती  है। जब जहाज समुद्र में  या आसमान में उड़ने वाला विमान आकाश में उड़ रहा होता है , उस समय सवार लोगों के हाथ में कुछ नहीं रहता।जब एक वर्ग के हाथ में सत्ता आ जाती है तो वह बहुत गोपनीय तरीके से उसका उपभोग करने लगता है। क़ानून भी असीमित नहीं होता ,मानव स्वभाव क़ानून की हदें लांघते हुए उसे भी अपना जैसा बना लेने की सामर्थ्य रखता है। लेकिन बदलाव की प्रक्रिया यही है कि ऐसे समूह का निर्माण करो , जो चीजों को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखता हो।  यही वजह है कि लोकतंत्र में ज्यादा  बुरे में से कम बुरे को चुनना जारी रहता है। 

Friday 25 April 2014

श्रद्धा का रिश्ता कर्म से होता है। एक बार प्राप्त किये गए यश से श्रद्धा की निरंतरता नहीं बनती।  यदि व्यक्ति ,सामाजिक कर्म के प्रति अपना दायित्त्व न निबाहे और उदारता में गच्चा खा जाए तो श्रद्धा को अपनी जगह से भागते देर नहीं लगती।  इसीलिये श्रद्धेय को हमेशा परीक्षाकाल से गुजरना पड़ता है।
गलती जहाज का चालक करता है और उसका खामियाजा  जहाज में सवार यात्रियों को भुगतना पड़ता है। जैसे देश का नेतृत्त्व गलती करता है और खामियाज़ा देश की जनता को भोगना पड़ता है।

Wednesday 23 April 2014

कुतर्क का दम्भ
अतर्क की शेखी
रूढ़ियों की तरफदारी
अंधविश्वासों की वकालत
और विमत का अनादर
कोई इनमें एक भी
हवा में लहराता नज़र आए
तो समझो फासिज्म का भेड़िया
दरवाजे तक आ पहुंचा है।

Tuesday 22 April 2014

रोड शो हुआ
न किसी की सुनी
न छुआ

अपनी ही ढपली
 अपना ही राग
अपने ही चूहे
अपने ही काग
एक मतदाता ने कहा
क्या करें
कहाँ जाएँ
अपने मन का विकल्प
कहाँ से लाएं
इधर खाई तो उधर कुआ।
दुनियावी  ज़िंदगी में विदूषक की पैठ सबसे गहरी होती है। वह जितने तरह की मार झेलता है और वह भी हँसते -हँसते , इस रहस्य को शेक्सपीयर खूब जानते और समझते थे।विदूषक को जमीनी अनुभव होते हैं ज़िंदगी के। शेक्सपीयर , कदाचित इस जीवन-रहस्य को भी जानते थे ,कि दरबारी जीवन की षड्यंत्रपूर्ण सचाइयों को जितना विदूषक जानता  और समझता है , उतना  अनुभवहीन ज्ञानी भी नहीं।  यही तो महानता है इस महान रचनाकार की। उनकी स्मृति को सादर नमन।

Monday 21 April 2014

शब्द के पीछे जितनी सत्य कहने की ताक़त होगी ,वह उतना ही लयात्मक और मर्मस्पर्शी होगा। झूठ  में रहने से शब्द की लय गड़बड़ा जाती है ,फिर गद्य भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता।  प्रेम चंद  अपने जमाने में सच के सबसे ज्यादा नज़दीक थे तो उन जैसा गद्य भी उनके समकालीन लेखकों का नहीं है। प्रेमचंद पाठक के मन में भीतर तक उत्तर जाने वाला गद्य लिखने में इसी वजह से समर्थ हुए क्योंकि उन्होंने जिंदगी के सच को बहुत नज़दीकी से समझ लिया था। कविता में निराला जी ने यही काम किया।कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी के सत्य की लय जितनी खंडित और टूटी हुई होगी ,शब्द की लय भी उसी सीमा तक उखड़ी हुई होगी। वह जितनी समग्रता में होगी ,शब्द अपनी लय को उतना ही साध लेगा। 
सच कहने , सुनने  ,समझने और बर्दाश्त करने का दायरा और माद्दा  जितना सिकुड़ता जाता है , मानवता का स्पेस उतना ही कम  होता जाता है। कदाचित अपने समय में यही होता देखकर कबीर ने कहा था ------संतो देखत जग बौराना। साँच कहूँ तो मारन धावै , झूठे जग पतियाना।
नन्द बाबू के शतायु होने की कामना।  वे  निरंतर स्वस्थ---प्रसन्न रहते हुए अपनी अदा के साथ और उन्मुक्त-प्रफ्फुलित विनोद भाव की माधुर्यमयी जिजीविषा के अनहद नाद की तरह कविता में और हमारे जीवन में गूंजते रहें।  उनके द्वारा हास्य-विनोद के रूप में कहा एक  दोहा याद आ रहा है।  यह उस समय का है , जब विश्वविद्यालय अपने मुख्यालय पर परीक्षकों को बुलवाकर  कापियां जँचवाया करता था। तब चाय पीते हुए चुहलबाज़ी और अपनी ऊब को मिटाने के उद्देश्य से हम  कुछ इस तरह सोचते थे।  कई दोहे उस समय गढ़े गए, उनमें से एक इस प्रकार से है। उनके बैसाखमासी  जन्म- दिन पर उनको समर्पित ----
-कछु बाँची ,जांची नहीं , अंक सबन पै दीन।
तुम्हरी समता को करै ,जीवन सिंह प्रवीण। 

Sunday 20 April 2014

तराजू जिसने बनाई
बहुत बड़ा आविष्कारक था वह
जितना वजन
एक पलड़े में रखा जाता है
दूसरा पलड़ा भी
उतना ही सारतत्त्व
सुलभ कराता है

जिसने समय के तराजू में
चीजों को नहीं तोला
उसके निर्णयों  में
या तो पासंग होगा
या फिर झोल।
जो यह सोचते हैं कि तरक्की के लिए तानाशाही जरूरी है ,वे नहीं जानते कि तानाशाह सत्ता के मद से बौराकर केवल सत्ता पिपासु   वर्ग के हित  में काम करता है।   वह कभी पूरे देश और समाज हित में काम नहीं  नहीं करता।  वह सिर्फ अपनी सनक से   काम करता है और उसी का  प्रचार ,समाज--देश की उन्नति के रूप में कराता है।  उन्नति एक वर्ग विशेष की होती है।  जैसे हमारे देश की पूंजी पर धीरे--धीरे बड़ी चालाकी से एक बड़े पूंजीपति वर्ग का कब्जा होता जा रहा है। जबकि    असलियत यह है कि गरीब  आज  पहले से ज्यादा गरीब हुआ है ।  हमारी नज़र अमीर और उसकी अमीरी से जब तक नहीं हटेगी ,हम असलियत को न देख पाएंगे, न जान पाएंगे। मीडिआ प्रचार  से अपना दृष्टिकोण बनाने का सबसे भारी  नुकसान यही होता है कि वह हमको तानाशाह में अच्छाइयाँ दिखाने लगता है और विवेकशून्य हो जाने की हद तक ले जाता है ,  तानाशाही ऐसे ही आया करती है। उसके लिए वही वर्ग जिम्मेदार होता है जो तानाशाही के अंदरूनी चरित्र को नहीं समझता।  जन -नेतृत्त्व के  निर्णयों की दृढ़ता और तानाशाही में बहुत फर्क होता है।बड़े वर्ग की सामूहिक आकांक्षा के आधार पर  लोकहित में लिए गए सामूहिक  निर्णयों  पर डटे  रहना और उनको वर्ग--विशेष के विरोध के चलते व्यवहार में लाने का प्रयास करना  तानाशाही नहीं होती।

Saturday 19 April 2014

कोई भी डिक्टेटर तब पैदा होता है , जब उसकी हाँ में हाँ मिलाने वालों की बाढ़ आ जाती है और विवेक उड़नछू हो जाता है।
कल यकायक
एक तितली उड़ती हुई आई
उसने मेरे काम में खलल डाला 
मैंने उसे अपने पाँव से
मसल  दिया
लेकिन यह क्या हुआ 
मेरा  मन कोसता  रहा देर तक मुझे
इसी से  मैंने जाना कि
जब मन डिक्टेटर हो जाता है
यही करता है।

Friday 18 April 2014

इतिहास के चहरे पर
चेचक के उभरते दागों  की
सही शिनाख्त करना
उसी तरह जरूरी है
जैसे रोग का निदान कर लेना।
चिंता की बात यह है
कि दीमक पेड़ की जड़ों तक
पंहुचने को है
और हम अपने घेरे के
ज्ञान----विद्यालय से
बाहर नहीं आ पा रहे हैं
पेड़ कभी घर की छत के नीचे नहीं पनपता
उसके लिए जंगल की ख़ाक छाननी पड़ती है
उन्होंने जो विष बीज बो दिए हैं
वे अब फलने को हैं

गलतियों का तूफ़ान
समुद्र की शान्ति की परवाह नहीं करता
हमको और गहरे में उतारना होगा
और जानना होगा कि
लहरें उठती कहाँ से हैं ?
कम  क्यों होते जा रहे हैं वे लोग
जो पूरब को पूरब ही जानते हैं
गलतियां कभी मुआफ नहीं करती
पर इंसानियत के लिए
हमेशा बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है
और वह भी निरंतर
इंसान बने रहकर।
 

Thursday 17 April 2014

कहते हैं
भय के बिना
प्रीति  नहीं होती
मुद्दत हुए इसको कहे
मैं नहीं समझ पाया
इसका मतलब
मैंने जब
भय के पास जाकर देखा
तो वहाँ नफ़रत की विषैली पसरकटेरी
उग आयी थी 
भय सामंती गुफाओं से
भेड़िये की तरह  निकलता है
लोकतंत्र  के उत्सव में उसके लिए कोई जगह नहीं
लोकतंत्र  चैत्र के कुसुमाकर मास की तरह होता है
जहां शिरीष की गंध
आदमी , आदमी में कोई भेद नहीं करती।

Tuesday 15 April 2014

अच्छे दिन वे
कैसे ला सकते हैं
जिन्होंने पहले से
बुरे दिन दिखा रखे हैं
बाज़ सबसे पहले अपने
 पड़ौसी पक्षियों पर ही
झपट्टा मारता है
बाज़ , बाज़ ही होता है
मुर्दा जीवन का विश्वासी
वह चाहता है ---
 अकेले का जंगल राज।
हमारे यहां  काव्य के तीन हेतुओं में प्राचीन आचार्यों ने "अभ्यास " को भी उतना ही बराबर का दर्जा दिया है ,जितना प्रतिभा और व्युत्पत्ति ---को। प्रतिभा में जीवनानुभवों का संकलन भी आता है और व्युत्पत्ति में अपने समय का सत्य--बोध तथा शास्त्रीय ज्ञान। मुक्तिबोध भी प्रकारांतर से और अपने समय के हिसाब से इन तीन कारकों का उल्लेख बार बार करते हैं।  रियाज़ और अभ्यास के बिना न विज्ञान फलित होता है ,न कला। अभ्यास हमारे जीवन की दिशा को साधे ---सहेजे रखने के काम भी आता है।कुमार गन्धर्व ने कबीर के भजनों को अपनी कला का प्रदान अभ्यास से यानी अनुभवों की नवीनता से इस तरह कर दिया था कि वह गन्धर्व की अपनी कला बन गयी। इस बहस को जिन बंधुओं ---मित्रों ने, खासकर विजेंद्र जी और कर्ण सिंह चौहान जी ने ---- उपयोगी और काम की बनाया ,उनके प्रति बहुत बहुत  आभार।  

Monday 14 April 2014

लहर की नाव पर बैठकर
जो अपना वोट देगा
क्या वह जानता है कि 
ये लहर
कुछ दूर चलकर
एक ऐसे भंवर में
बदल जायगी जो आपको
कभी किनारे नहीं लगने देगी
डूबने से बचना है तो
लहर से बचो
अपनी पतवार  स्वयं बनो
जैसे मल्लाह के हाथ
 बनते  है और नाव अपने
ठिकाने पर लगती है। 
मित्रवर कर्ण  सिंह जी ने मेरी बात में 'गया सब कुछ गया' का अर्थ खोजा है। मेरी दृष्टि में यह आज की  कवित्ता के रूप-विधान को लेकर मेरे मन में उत्पन्न हुआ प्रश्न है। कविता शब्द का प्रयोग कविता के लिए कब से शुरू हुआ ,यह तो खोज का विषय है किन्तु हज़ारों सालों से यही  शब्द चला आरहा है।उसके निरंतर परिवर्तित होते रहने के बावजूद।  इसी तरह से छंद भी।  आदिकवि वाल्मीकि के मुख से एक निश्चित लय में जो बात निकली , वही उनके लिए और बाद में दूसरों के लिए भी छंद बन गयी।  जब वही छंद अपने समय को व्यक्त करने में बाधक बनने लगा ,उसकी एक रूढ़ि बन गयी तो मुक्तिशोधक कवि ने छंद को मुक्त कर लिया और उसको अपनी एक खुली हुई  लय दे दी।  एक निश्चित -क्रम में शब्दों का स्थापत्य ही तो कविता में  लय पैदा करता है।  जो गद्य की लय से उसे अलग करता है।  कविता का शब्द-विन्यास गद्य के शब्द विन्यास से भिन्न प्रकार का होता है , यद्यपि गद्य--काव्य नाम की विधा भी अलग से चली ,किन्तु कविता के सामने वह ज्यादा टिक नहीं सकी । उसमें भावुकता की हलचल ही ज्यादा रही ,  जबकि कविता के मुक्त छंद की लय में संतुलन बना रहा। लय का मतलब जहां तक मेरी समझ में आता है कविता की अंतर्वस्तु के अनुरूप उसका विशिष्ट शब्द -विन्यास , यह कवि की कल्पना ---शक्ति  और वस्तु --अर्जन की प्रक्रिया से आता है , जिसे पुराने आचार्य सरस्वती  सिद्ध होना कहा करते थे। मेरी यह समझ है  कि पुरातनता या परम्परा जैसे सर्वथा वरेण्य नहीं होती वैसे ही सर्वथा त्याज्य भी नहीं। इतिहास भी तो अपनी तरह से मानवता के लिए प्रतिरोध और सामंजस्य के द्वन्द्वों में फलीभूत हुआ है।तभी हम आगे जाने के लिए कभी कभी पीछे की ओर भी देख लिया करते हैं। 

Sunday 13 April 2014

आजकल की कविता मुक्त छंद से छंद मुक्ति की ओर तेजी से बढ़ रही है। जबकि हमारे पुराने  और कई आज के कवि भी अपने मन में संगीत,लय और नाद-गति का संस्कार संजोये रखते हैं।  वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का बद्धमूल  संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।कवि-प्रतिभा उसे एक आतंरिक लय के रूप में अपने मन में सहेजे रखती है ,जिससे कविता का मुक्त छंद स्वरुप ग्रहण करता है। राजशेखर सरीखे आचार्य ने अपने जमाने में यह बात अपने अनुभव से लिखी थी कि कविता करना तो जैसे तैसे अभ्यास से भी हो जाता है किन्तु उसे सबके लिए पठनीय बनाना या कहें समाज  और ,सहृदय के काम का बनाये रखने का काम वे ही कवि कर पाते हैं , जिनको सरस्वती सिद्ध होती है। आज सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है ,कवि को लोक-ह्रदय की पहचान होना। राजशेखर  कहते हैं--------
                                                          करोति काव्यम प्रायेण ,संस्कृतात्मा यथातथा।
                                                          पठितुम् वेत्ति परम स ,यस्य सिद्धा सरस्वती।
सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है कवि के वाह्य और आतंरिक जीवन का व्यापक स्तर पर सामंजस्य। इसी से कविता में भाव की लयात्मक अनुगूंजें उत्पन्न होती हैं।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।अब जब से व्यक्ति संगीत का प्रयोक्ता न होकर केवल भोक्ता बनकर रह गया है तो हमारे दिल से जीवन की आनन्ददायिनी लय निकलती चली जा रही है। लय दरअसल सामूहिकता के बिना नहीं बना करती।  जीवन में अलगाव सबसे ज्यादा हमारी जीवन--लय को तोड़ने का काम करता है।  लयविहीन भाषा निरा  और थोथा गद्य होती है।लय का मुख्य काम है जीवन की तरंगों को समूहन करना ,जिससे कविता का साधारणीकरण होता है और वह व्यक्ति से समाज की संपत्ति बन जाती है।  

    

Saturday 12 April 2014

क्यों नहीं। लग रहा है कि ईशमधु जी आपका बचपन ब्रज--भूमि के इस नगर की गलियों में खेलकूदकर बड़ा हुआ है। आपकी मृदुता में कहीं इसी ब्रज की रज का कोई कण तो नहीं मिला हुआ है। ब्रज भाषा अपने माधुर्य के कारण कई शताब्दियों तक काव्यभाषा बनी रही। आपको बतला  दूँ कि 1984 या 1985 की बात है, कामां  में राजस्थान साहित्य अकादमी के एक आयोजन में ---राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी ---के गठन करने का प्रस्ताव पास किया गया था। उदयपुर से नन्द बाबू भी उसमें शामिल थे। उन्होंने अपनी काव्ययात्रा की शुरुआत ब्रजभाषा में कवित्त---सवैये रचकर की थी।आयोजन समाप्ति के बाद वे मुझे भी अपने साथ अपनी बहिन के घर मथुरा ले गए थे। मैं भी निस्संकोच उनके साथ हो लिया था। वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।
कामां ,डीग,भरतपुर ,मथुरा ,गोवर्धन की एक बड़ी खूबी है यहां का रसिया गायन। कामां ने मनोहर और गिर्राज जैसे नौटंकी के बड़े लोक  कलाकार  हिंदी को दिए हैं।पहले यहां आयोजन होते रहे हैं किन्तु जबसे अकादमी व्यक्ति--केंद्रित हुई उसका भट्टा  बैठता चला गया।साहित्य उत्सवों को कार्पोरेट सेक्टर ने अपनी जेबों में डाल  लिया।    

Friday 11 April 2014

हमारे दोस्त के के बांगिया  साहब ने दौसा जिले में स्थित प्राचीन कालीन एक अद्भुत और बेमिसाल बावड़ी का चित्र लगाया है। यह चाँद बावड़ी है और इसे प्राचीन कालीन निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा बनवाया गया था। इससे हमारे अलवर की बुनियाद रखे जाने से शुरुआती रिश्ता रहा है।  इस पर मेरी टीप इस प्रकार से है -------एक दोहा इस बारे में अलवर में अभी तक प्रचलित है। बाला किले के पीछे की पहाड़ियों में एक छोटा-सा गांव है। नाम हैं ढढीकर। आभानेरी इस नगरी का नाम बोलने में असुविधा होने की वजह से हुआ होगा। पहले आभानेर नाम रहा। दोहा इस प्रकार से है -------
                                                          गाँव ढढीकर जानिये , अलवर गढ़ के पास ।
                                                          बस्ती राजा चंद  की , आभानेर  निकास। ।
यह माना जाता है की अलवर का बाला किला 10 --11 वीं शताब्दियों में निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा एक कच्ची गढ़ी  के रूप में बनवाया गया था। संभव है कि वे लोग कभी इसी आभानेरी से इन अरावली पहाड़ियों में आकर बसे  हों। बहरहाल , आभानेरी की चाँद बावड़ी वास्तु कला और जल संग्रह के अद्भुत जलाशय की दृष्टि से आज भी चमत्कृत करती है।इसकी सीढ़ियों के  उतार जिस समकोण और बहुलता के रूपकों में बनाये गए हैं उसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। यह    हमारे शिल्पियों की उस चकित कर देने वाली शिल्प-दृष्टि का प्रमाण भी है  , जो अनेक प्रयोगों को करने के बाद हासिल होती है।  काश, इन पूर्वजों की इस वैज्ञानिक पद्धति का विकास आगे भी चलता रहता ,तो हमारा मध्य और आधुनिक काल वैसा नहीं होता , जैसा आज है। यहां हर्षद माता का एक अति प्राचीन मंदिर भी है , जो एक ऊंचे चबूतर पर  बनाया गया है।  यह भी तत्कालीन वास्तु कला का एक बेमिसाल नमूना है।  

Thursday 10 April 2014

प्रिय भाई शम्भु  नाथ जी ,
आपका हिंदी साहित्य कोश  निर्माण में सहभागिता का आमंत्रण पाकर खुशी तो हुई ही ,उत्साहवर्धन भी हुआ। हिंदी के अपने क्षेत्र तो अपने दायित्त्वों  को पूरी तरह से भूले हुए हैं। पहले भी कोलकाता इस मामले में अग्रणी रहा है। हिंदी को जो प्रोत्साहन आपके यहां से मिला है ,वह आज भी उल्लसित करता है। रवीन्द्र न होते तो हम कबीर को शायद ही जान पाते।  आप कोश -निर्माण के काम को हाथ में लेकर हिंदी--हित  का बहुत महत्त्वपूर्ण और बेहद जरूरी काम पूरा करेंगे। मैं अपनी हैसियत के हिसाब से इसमें जरूर करना चाहूंगा।
आपने मुझसे राजस्थान की लोक-भाषाओं  ,लोक--संस्कृतियों ,और लोक कलाओं  पर लिखने को कहा है। इनकी सूची इस प्रकार से है ------
लोक भाषाएँ -------मारवाड़ी ,मेवाड़ी ,ढूंढाड़ी ,हाडौती ,शेखावाटी ,मेवाती और ब्रज।
लोकसंस्कृतियाँ --------उक्त लोकभाषाओं से सम्बंधित लोकसंस्कृतियां ही यहां की प्रमुख लोकसंस्कृतियां हैं।
लोककलाएं--------लोकसंगीत और लोक नाट्य ,---जिनमें ख्याल की कला मुख्य रही है। ख्यालों की कई शैलियाँ यहां प्रचलित रही हैं ,जिनके ऊपर सम्बंधित अंचलों के विशेषज्ञ लेखकों से लिखवाया जाना उचित होगा।
मैं इनमें राजस्थान के पूर्वी अंचल की लोक भाषाओं , लोक संस्कृतियों और लोक कलाओं पर लिख सकता हूँ। इनमें मेवातीऔर ब्रज से सम्बंधित प्रविष्टियाँ हो सकती हैं।
आप जो कहेंगे उस काम को करने का पूरा प्रयास करूंगा। शुक्रिया। 
                                                                                            जीवन सिंह ,अलवर , राजस्थान
कामां ,जिसे पौराणिक नगरी होने का गौरव हासिल है ,मध्यकाल से पूर्व की प्राचीन नगरी है। इसका ब्रज के वनों में केंद्रीय स्थान रहा है। इसे कामवन इसीलिये कहा जाता है।  कोकलावन इसके बहुत नज़दीक है। वहाँ नंदगांव होकर जाते हैं। नंदगांव , कामां के पास सीमावर्ती  कस्बा  है ,यद्यपि उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में आता है।आज भी नंदगांव के हुरियार , बरसाने की हुरियारिनों से लट्ठमार होली खेलने के लिए जाते हैं और रसिया गाकर आपस में सात्त्विक प्रेमदान की परम्परा का निर्वाह करते हैं।  ब्रज-संस्कृति में प्रेम तत्त्व ही प्रधान रहा है , जिसके प्रति रसखान जैसा पठान कवि इतना सम्मोहित हो गया कि उसने यहीं का होकर रहने की कामना की।   कामवन  अपने चौरासी कुंडों ,चौरासी खम्भों और चौरासी मंदिरों के लिए जाना जाता है।  विमल कुण्ड यहां सरोवर मात्र न होकर लोक ---समाज के लिए आज भी तीर्थ स्थल की तरह है ।  आज भी यहां यह लोक मान्यता है कि आप चाहे चारों धाम की तीर्थ-यात्रा कर आएं , यदि आप विमल कुण्ड में नहीं नहाये तो आपकी तीर्थ ---भावना अपूर्ण रहेगी।
  शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रणेता और पुष्टिमार्ग के संचालक तथा सूर सरीखे महान कवि के प्रेरणा स्रोत वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने जब अष्टछाप का गठन किया तो जिन वात्सल्य रूप कृष्ण अर्चना की नयी भक्ति पद्धति विकसित की ,जिसमें सवर्णों के साथ दलितों और स्त्रियों तक को जगह दी गयी ,यद्यपि मीरा जैसी स्वाधीनचेता कवयित्री आग्रह के बावजूद इसमें शामिल नहीं हुई ,इस नगर में उनकी दो पीठ स्थापित है ----एक चन्द्रमा जी और दूसरी मदन मोहन जी। बहरहाल कामां का इतिहास बहुत समृद्ध और सांस्कृतिक तौर पर बहुत उन्नत रहा है।
इस नगरी का जयपुर रियासत से अठारहवीं सदी  में तब रिश्ता हुआ ,जब सवाई जय सिंह ने यहाँ अपने एक सूबेदार कीरत सिंह को भेजा , जिसका परिणाम भरतपुर रियासत के जन्म के रूप में हुआ। कदाचित उसी समय कालवाड़ से हमारे पूर्वज यहां आकर बसे  और उन्होंने कामां से पांच कोस दूर जुरहेडा गाँव बसाया।
            भाई प्रेम चंद  गांधी का शुक्रिया कि उन्होंने जयपुर के संगी---साथियों से मिलने का मौक़ा सुलभ कराया।अन्य सभी दोस्तों के प्रति बहुत बहुत आभार। 

Wednesday 9 April 2014

हक्सले अपने आसपास के घटित पर पैनी निगाह रखने वाले विचारक हैं । उनका  यह भविष्य कथन उन दो विश्व युद्धों की भवितव्यता भी  है , जो विश्वस्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अपने  बाज़ार की  जगह बनाने के लिए किये गए थे।  बाज़ार की ताकतें हमेशा एकाधिकार चाहती हैं।औद्योगिक  पूंजी जहां श्रम के साथ मिलकर  एक तरफ व्यक्ति को सामंती सम्बन्धों से मुक्त करने का काम करती है , वहीं दूसरी तरफ वह श्रम को दरकिनार कर  अपने बाज़ार के फैलाव के लिए युद्ध करा देने और तानाशाही को थोप देने का काम भी "लोकतांत्रिक" तरीके से करा देती है।हमारी १६वीं लोकसभा के चुनाव की पीछे सटोरिया पूंजी और बाज़ार की ताकतों का एकजुट होना अनायास नहीं है , जिनका भीतरी सूत्र विश्व-साम्राज्यवादी ताकतों से मिला हुआ है। बहुत सामयिक और सटीक बात उद्धृत की गयी है।  
बहुत बहुत  धन्यवाद भाई अग्रवाल साहिब ,मुद्दत बाद जयपुर जाना हुआ ,केवल इस लोभ से कि पुराने साहित्य -सहचरों -मित्रों से आँखें चार होंगी।  वे हुई भी। अग्रवाल साहब से पहला सम्बन्ध--सूत्री परिचय 1974 साल के अगस्त में स्थानांतरण के सिलसिले में हुआ। मुझे शिकायतन जरिये कलक्टर सिरोही से  दूरस्थ धुर ईस्ट में दण्डित करने के इरादे से अलवर नहीं ,दौसा भेजा गया , जहां से आपातकाल लगने पर  १९७५ के अंत में बूंदी भेज दिया गया। उस जमाने में नौकरियों में  न आज की सी राजनीतिक दखलंदाजी थी ,न तबादला होना कोई आफत जैसा था। तबादले का फायदा यह था कि नयी जगह के नए दोस्त,नयी प्रकृति , नया परिवेश , नया भाषा-बोली का संस्कार  मिलते थे। मैं तो यह मानता हूँ यदि  देश में आपातकाल न लगा होता और मेरा बूंदी तबादला न हुआ होता तो मैं राजनीतिक दृष्टि से आज दक्षिणपंथी होता। मेरा किशोरावस्था का पालन-पोषण एक बेहद वैष्णव ब्राह्मण  पारम्परिक परिवार में हुआ। जो हमारे नज़रिये को दक्षिणमार्गी बनाता  है ,जिसकी वजह से  हम वास्तविक जीवन-यथार्थ को नहीं समझ पाते। बहरहाल , मैं अलवर तो इसके ठीक १० साल बाद १९८४ में आया। बूंदी से अक्सर कोटा आना जाना होता था ,जहां यथार्थ की जटिलताओं को समझाने और खोलने के लिए मथुरा से औद्योगिक संगठित श्रमिकों को श्रम-सम्बन्धों की शिक्षा देने   के लिए  उत्तरार्ध पत्रिका के सम्पादक सव्यसाची आया   करते  थे। यह सब आपातकाल होने के बावजूद होता था। एक तरफ हम २० सूत्री कार्यक्रम का गुणगान करते थे तो दूसरी तरफ
उनके पीछे छिपी असलियत को तलाशते थे। बूंदी से 1979 में गंगापुर सिटी गया और वहाँ से अलवर आया। बूंदी---कोटा के तीन साल मेरे लिए सबसे  अलग स्मरणीय हैं। इस अवधि में मैं एक ऐसी  जगह पर रहा ,जहाँ सूर्य मल मिश्रण सरीखा महाकवि हुआ। १८५७ के पहले स्वाधीनता संग्राम का निडर प्रतापी  योद्धा कवि -पंडित।जिसके वंश-भास्कर से राजा भी नाराज़ हुआ ,लेकिन उसने सच कहने से परहेज़ नहीं किया।  कदाचित ऐसी ही वज़हातों से  १८५७ के संग्राम का सबसे बड़ा जन-संग्रामी केंद्र हाड़ौती ,खासकर कोटा रहा।
अलवर मेरे लिए अपने घर की तरह बन गया है। यहाँ के इतिहास-भूगोल और खासकर यहाँ की सामासिक संस्कृति के सबसे बड़े गायक ख्याल-प्रणेता अलीबख्स के लोक--संगीत ने मुझे यहीं का बना दिया। ८ अप्रेल को जयपुर में बहुत दिनों बाद हुए साहित्य-समागम  में भाग लेने की बेहद खुशी है।

Sunday 30 March 2014

प्रिय भाई पीयूष जी ,
आपका अशोक वाजपेयी जी की कविताओं पर लिखने का आमंत्रण मिला ,खुशी  हुई कि आपने मुझे इसके क़ाबिल समझा। जबकि मैं जानता हूँ कि मेरे अपने शिविरों में ही मैं कहीं नहीं हूँ। कविता पर लिखना मेरा शगल नहीं है वरन यह मेरे लिए जीवन की उस सौंदर्यात्मक लय की कलात्मक अभिव्यक्ति को पहचानने का उद्यम है ,जो हमारे जीवन की अपूर्णताओं को और अधूरेपन को ,उसकी रिक्तता को भरने का काम करती है। इसीलिये हर युग के आगे -पीछे बढ़ते-हटते जीवन का हिसाब रखने के लिए आत्मा की आवाज के रूप में कविता लिखी जाती रही है। मुझे अच्छा लगता यदि मैं स्वयं को वाजपेयी जी की कविताओं का सुसंगत  अध्येता पाता।मैं स्वीकार करता हूँ कि  उनकी काव्यसम्मत  गम्भीरता को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ पाने में मैं स्वयं को सक्षम नहीं पाता। लिहाजा उनकी कविता के साथ न्याय कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा।आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे।
                                                                                             प्रसन्न होंगे ,                 जीवन सिंह 

Wednesday 19 March 2014

प्यारे दोस्त सलीम भाई ,
आपका गजल संग्रह --एक सवाए सुर को साधे ---पढ़ तो तभी लिया था, जब आप इसे दे गए थे। किन्तु कई कामों के चलते हुए इस पर लिखने का अवसर नहीं मिल पाया।इस बात का अफ़सोस है।  सोचता रहा कि अब लिखूं, अब लिखूं। बहरहाल ,आज मन पापी ने कमर कसी कि अब तो लिखना ही है। इस सम्बन्ध में जो सोच पाया , लिख रहा हूँ।
पहली  यह है कि आपने छोटी बहर  को साध लिया है ,जैसे वामन अवतार ने तीन पैंड में धरती को नाप लिया था।आपने समय को नापने की कोशिश की है। ग़ज़ल अपनी सादगी के लिए जानी जाती है और अपनी गहराई के लिए भी। गहराई की बात तो शायर की जिंदगी से जुडी हुई है ,जो शायर अपनी जिंदगी  के दरिया में जितना गहरा उतरता है , वह उतने ही चमकदार और बेशकीमती  मोती  ढूंढ कर लाता है। आपने भी अपने हिसाब से उतरने की कोशिश की है।  आज की स्वार्थपटु दुनिया में जो लोग जिनकी जय बोल रहे हैं , उसमें सचाई न होकर या तो भय रहता है या फिर डर। दुनिया डर और लोभ के दो पहियों पर चलती है। सच बोलने और उसको समझने वाले यहाँ कितने से हैं।  आज के राजनीतिक माहौल में आपका मतले का  यह शेर बहुत मौजूं है -----ये तेरा भय बोल रहा है /जो उनकी जय बोल रहा है / 
ग़ज़ल में आज तंज़ बहुत मानी रखता है ,जो आपकी ज़बानी बहुत सलीके से यहाँ अल्फ़ाज़ों में गुंथा हुआ है। भाषा में खुलापन  है , जो इस बात का सबूत है कि आप जिंदगी में खुलेपन की महक के कायल हैं। तभी तो 'मालामाल' जैसा शब्द आपके यहाँ अपना वेश बदल कर अर्थ के जंजाल में ऐसी घुसपैठ करता है कि लड़की को   दुःख से मालामाल कर देता है। काफिया हो तो ऐसा जो अपने मूल अर्थ को खोकर अपने नए और शायर के दिए अर्थ में समा जाय।  शब्द वही होता है जो कवि  के अर्थ के पीछे दौड़ने लगे।  यह कथ्य का नया आविष्कार होता है और इसे ही सृजन की नयी रेखा खींचना कहा जा सकता है।
इसी तरह हमारी ज़िंदगी में आज ऐसे नए सामंत पैदा हो गए हैं जो अपने आतंक से अपना काम निकालते हैं।  नए तथाकथित नेता ऐसे ही तो हैं जो बादलों को धमका कर उनसे पानी निचोड़ लेते हैं।  जो किसी को धमाका नहीं सकता वह नेता कैसे हो सकता है।  सही तो कहा है आपने -----बादल को धमकाया जाए/फिर पानी बरसाया जाए। '  इस समय में आतंक के अनेक रूप हैं ,जिनकी अच्छी खबर आपने कई अशआरों के माध्यम से ली है।
आपने इन ग़ज़लों में अपनी ज़मीन अलग से बनाई है ,यह इनकी खासियत है। मुरलीधर और गिरिधर में क्या फर्क हो सकता है ,बारीकी से आपने इस बात को समझा है। यह शब्द की नहीं, अर्थ की बारीकी है , जो आपके यहाँ प्रतीकों की तरह आया है।  यह संयोग मात्र नहीं है कि हमारी महान और क्रांतिचेता कवयित्री मीरा  ने अपना आराध्य गिरिधर कृष्ण को ही बनाया था। वह गोपाल जो ब्रज की रक्षा और इंद्र का दर्प-दलन करने के लिए गिरिधारी बनता है। आदमी के स्वार्थी और काँइयाँपन की खबर आपकी इन ग़ज़लों में सबसे ज्यादा है और यही इनकी खूबसूरती है।
जहां तक इनकी भाषा का सवाल है वह लोगों को , अपने पाठकों को अपने नज़दीक  वाली भाषा है। अपने पास यह अपने पाठक को निमंत्रण देकर बुलाती है। इसके बावज़ूद यह अपने ढंग से अपनी बात को भी आसानी से पाठक के हाथ में किसी फल के उपहार की तरह आ जाती है।  आपकी साफगोई  को इसमें आईने की तरह देखा जा सकता है। और बहुत - सी बातें हो सकती हैं।  फिलहाल इतना ही कि आप अपने समय की जटिलताओं को और आदमी से उसके रिश्तों को  आगे बढ़कर समझने की कोशिश करते रहेंगे ताकि आपकी यह कविता यहीं तक ठहरकर न रह जाय।
                                                           मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
                                                                              आपका ----जीवन सिंह , अलवर 

Monday 17 March 2014

तभी तो पुराने लोगों ने साहित्यकार  के आचरण को उसके लेखन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना है। हमारे मिथकों में रावण भी बड़ा विद्वान् है। दुर्योधन भी बहुत बड़ा योद्धा और वीर है , द्रोणाचार्य मनीषी और युद्धकला का प्रशिक्षण देने में निष्णात हैं ,भीष्म पितामह परम ज्ञानी और त्यागी -तपस्वी  भी हैं पर ये न्याय की तरफदारी नहीं करते ,बल्कि अन्याय करते हैं या उसके पक्ष में रहते हैं ,इसलिए ख़ास  होकर भी महान नहीं हैं।ये  इतिहास  निर्माता नहीं  वरन  उसके विद्ध्वंसक हैं। यही हमको उन साहित्यकारों के बारे में समझना होगा , जो अपनी प्रतिभा का मेल तिकड़मों और जोड़तोड़ से करते हुए इस दुनियादारी का पूरा भोग करते हैं , सच तो यह है कि ऐसे लोग अपने समय के सबसे बड़े उपभोक्ता होते हैं।  जब तक प्रगतिशीलता की तूती  बोल रही थी ,या कहें उसके जोड़तोड़ से जीवन-लाभ मिल रहा था ,तब तक उसके साथ थे ,अब जब उसका खेल ख़तम जैसा लग रहा है ,तो पाला बदल लेने में किस बात का संकोच ?कोई मुकदमा तो चलाने नहीं जा रहा। फिर जो लोग  उनसे लाभ लेते रहे हैं , वे तो साथ ही रहेंगे। हुक्का-पानी बंद कर देने का समय रहा नहीं। 

Sunday 9 March 2014

आदरणीय भाई आग्नेय जी ,
'सदानीरा' के अंक समय पर मिले किन्तु उनको पढ़ लेने के बाद भी मैं समय पर अपना जवाब  नहीं लिख पाया ,इसका अफ़सोस है।आपका बहुत बहुत आभारी हूँ कि आपने इस बहाने मुझे याद किया।  आपने पहले ही अंक में सही शुरुआत की कि"समकालीन हिंदी कविता में इतनी अधिक कविता है कि वह अब कविता नहीं रही।" इसके ऊपर मिरोस्लाव होलुब के ये शब्द ----तो आँखें खोलने वाले हैं -------"हर चीज में कविता है /यह कविता के खिलाफ /सबसे बड़ा तर्क है /"-- तथ्य यह  है कि आज के अधिकाँश कवि , कविता रचते नहीं , बनाते हैं। इसीलिये कवियों की बाढ़ सी आई हुई है। धनवान लोगों ने यहाँ भी अपना डेरा जमा लिया है। प्रकाशक को पैसा दो और ढेरों कविता संकलन एक साथ छपवा लो।सम्पादक से  सम्बन्धों के आधार पर  रिव्यू करा करा कर यशस्वी बनना  , पुरस्कार झटकना ये सब पैसे वालों के बांये हाथ का खेल हो गया है ,फिर यदि आप तगड़े अफसर हैं तो क्या कहना है ? कवि -कर्म अब साधना की जगह जोड़-तोड़ और धन का गोरखधंधा बनता जा रहा है। अपवाद  स्वरुप ही कवि बचे हैं। विश्व कविता की पत्रिका ---सदानीरा के उत्साहपूर्ण प्रकाशन के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएं।  प्रसन्न होंगे।     सादर ,-----जीवन सिंह , अलवर, राजस्थान
               पुनश्च ,  आपके मकान के सामने से निकलता हूँ तो आपकी याद आये बिना नहीं रहती।  आपका अलवर में उस समय होना एक व्यक्तित्व का होना था।अलवर का भौतिक विस्तार जितनी तेजी से हो रहा है ,आत्मीयता का अंतःकरण उतना ही सिकुड़ रहा है। फिर कवि-कर्म क्यों कर न कठिन होगा ? बहरहाल ,जीवन सिंह 
बंधुवर एकान्त जी ,
वागर्थ का नया अंक मिला। धन्यवाद। इसके लोकमत में प्रकाशित
कविता-चोरी प्रसंग पर मेरे मन में कुछ बात यूँ आई ---------

कवि जो
चोरी करता है शब्दों की
नहीं जानता
कि नहीं पहुंचा जा सकता
मंजिल तक , बैठे बैठे
अपने पैरों से पिपीलिका
 उतर जाती है
दुर्लंघ्य पर्वतों के पार


कोयल अपने स्वर में गाती है
तभी मालूम पड़ता है कि
वसंत आ गया है
ऊँट को सुई के छेद से
मत निकालो कवि
यह काम तुम्हारे बस  का नहीं

यह जीवन सरिता
सबके लिए खुली है
चुल्लू भर पानी
अंजलि में भर लेने से
वह नदी नहीं हो जाती
कविता कैसे हो सकती है
पानी के बिना
कवि जो चोरी करता है
शब्दों की
क्या इतना भी नहीं जानता ?
                                 जीवन सिंह , अलवर , राजस्थान
                                 मोबाइल ---09785010072

Saturday 8 March 2014

आरती जी ,
'समय के साखी' का ताजा अंक मिला। आपके सम्पादकीय , समय का चुनाव जिस तरह से करते हैं , वह सबसे अलग तो होता ही है ,आज की परिस्थितियों को समझने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण। आपने इस बार सौ वर्ष पहले शुरू हुए पहले विश्व युद्ध की तह में जाकर आज को समझने की सही कोशिश की है।  यह बाज़ार और महाजनी पूंजी को येन केन प्रकारेण बढ़ाते रहने वाला  व्यापारी ही है , जो युद्धों को भड़काता है। युद्ध की जड़ में व्यापार और बाज़ार ही होता है किन्तु वह बहाना कोई और टटोलता है।  दुनिया जब इस रहस्य को समझ जायगी तो युद्ध की परिस्थितियों का अंत हो जायगा। आपने सोचने को मजबूर कर देने वाला , बेहद सामयिक और मौजूं सम्पादकीय लिखा है। बधाई स्वीकार करें।
पाश की कविता के खुले,खतरनाक और  कोमल पक्ष पर कृष्ण मोहन झा का लेख पढ़े जाने योग्य है।खासकर ये पंक्तियाँ सूक्ति की तरह मन में बार बार आती रही -----प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया /जिन्हे जिंदगी ने बनिया बना दिया।
 चंद्रकांत देवताले का मराठी काव्यानुवाद बहुत पसंद आया।महान संत  कवि  तुकोबा की कवितायेँ चार सौ वर्ष पहले की हैं ,किन्तु आज जैसी लगती हैं। यह कविता ,किताब से नहीं ,  जीवन की उस किताब से रची गयी है ,जो आज बहुत कम पढ़ी जाने लगी है।  कविता के लिए यह संसार ,प्रकृति और जीवन का द्वंद्वात्मक स्वरुप ही सबसे बड़ी किताब होता है। कितना सही कहते हैं संत कवि तुकाराम ------"ग्रंथों को बांचता रहूँ ,उम्र कहाँ इतनी /और समझ लूँ ,सब कुछ ऐसा बुद्धिमान भी नहीं /" लेकिन जिंदगी की किताब को वे जीवन भर बांचते रहे। उसी ने उनको संत और कवि दोनों बनाया।
अभी इतना ही  पढ़ा है।  कल ही तो पत्रिका मिली है। बहुत अच्छा , छोटा और साथ रखने योग्य अंक है। पत्रिकाओं की भीड़ में सबसे अलग।
                                                                                                                                    जीवन सिंह , अलवर , राजस्थान

Thursday 20 February 2014

आदरणीय भाई ,
आपका प्रेरणादायी पत्र।
मुझे इस तरह की निराशा नहीं है कि मैं नागर साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़कर केवल लोक-साहित्य की ओर प्रस्थान करूँ।उससे कटने  का कोई इरादा नहीं है।उसके साथ इस काम को भी करूँ तो निराशा दूर होती है और सुकून का एक नया क्षेत्र मिलता है।    काम करने के अनेक क्षेत्र होते हैं , इसी तरह साहित्य भी विविध-क्षेत्रों में संचरण करता है।   मैं सोचने लगा हूँ कि केवल  मध्यवर्ग में फंसे रहकर हम  अपनी शक्ति--ऊर्ज़ा को बेजा भी करते हैं।  लोक--जीवन में भले ही मध्यवर्गीय दुनिया का सुयश न मिले , लेकिन जनवादी चेतना का काम यहाँ  भी किया जा सकता है।जो हमारी आलोचना के लिए भी  एक सहज और नया संसार खोलता है।   पिछले दिनों यह प्रयोग अलवर से दो साल से प्रकाशित हो रहे एक पाक्षिक अखबार ---'सलाम मेवात'----में  करके देखा है।  यहाँ भले ही , वैसी कीर्ति और वैसा बखान नहीं होता किन्तु इस क्षेत्र में भी एक जगह है जहां हम अपनी ऊर्ज़ा का सार्थक प्रयोग कर सकते हैं। वह मनुष्य भी तो यहाँ है , जिसके लिए हम लिखते हैं। इस अखबार में,मैं मेवाती बोली में एक नियमित कालम लिख रहा हूँ , जो मेवात के लोगों में लोकप्रिय हुआ है। उसकी पुस्तिका भी वे प्रकाशित करवा रहे है। यह लोकधर्मिता से जुड़ा सीधा काम है। जिसमें किसी तरह की बनावट भी नहीं। दूसरे , साम्प्रदायिकता से सांस्कृतिक  प्रतिरोध भी।
                              फिर आलोचना के  क्षेत्र में भी ,जो कुछ थोड़ा बहुत बन पायेगा ,वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार करता रहूंगा। मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इसी काम में अपने को संलग्न रखना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता ।इससे मन व्यर्थ में अपने व्यक्तिवाद को सहलाने में लगा रहता है। मैं यह मानता हूँ कि सक्रियता के बिना कोई चारा नहीं है लेकिन वह मनमुआफिक हो,बस मेरा इतना ही मतलब है। मैं निराश कतई  नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं   अपने लोक---क्षेत्र  में भी रहूँ , जैसे अपने किसान--परिवार के साथ रहता हूँ।ब्रज और मेवात दोनों मेरे अपने हैं और बड़े अंचल हैं।
                         जहां तक प्रकाशन का सवाल है वह अभी तक अपना पैसा  लगाकर ही तो कराया है। हर बार प्रकाशक ने पैसा ही तो लिया है।तीसरी किताब तो पूरी अपने खर्चे से प्रकाशित करवाई , जो अभी भी पडी हुई है। बेचने की कला आती होती तो अपने  आप ही प्रकाशित करा लेते।लेखक संगठन भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचते। बहरहाल ,आपकी  कवितायेँ लगातार पढता रहता हूँ। आपकी कविताओं से सम्बंधित  आलेखों को एक रूप देकर पुस्तकाकार  छपाने की मन में बहुत दिनों से हैं , लेकिन तरह तरह के अवरोध आड़े आ जाते हैं।    
                                    आपके पत्र हमेशा प्रेरित करते रहे हैं।आदरणीया भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें।
                                                                                                                                     आपका
                                                                                                                                    जीवन सिंह   

Saturday 15 February 2014

तहलका पत्रिका में शालिनी माथुर का एक आलेख पढ़ा ---मर्द के खेला में औरत का नाच। उस पर मेरी टीप ------

इस विस्तृत आलेख में सच का एकपक्षीय  बयान ज्यादा है। और वह भी जैसे जान बूझकर प्रगतिशीलता और जनवाद को बदनाम करने के उद्देश्य से। जनवाद में अनेक तरह के लोग शामिल हैं केवल ये ही नहीं , जिनकी गिनती यहाँ कराई गयी है।  जनवादी वह है जो जनतंत्र को सही मायने में लाने की भूमिका में रहता है।  जो जनवादी नहीं होता वह निरंकुशता के लिए किसी न किसी बहाने से जमीन तैयार  करता रहता है। 
    पवित्रता का बोध कराना सही  है किन्तु उसकी आड़ में किसी तरह के शोषण-उत्पीड़न के लिए रास्ता बनाना पवित्रता का क्षद्म होगा। और  यदि वह जिंदगी  के सच पर आवरण डालता है तो वह पवित्रता नहीं, कलुषता है। ताली दोनों हाथों से बजा करती है।  यह सच है कि पितृसत्ता वाले समाजों में हमेशा स्त्री-शरीर का शोषण -उत्पीड़न सबसे ज्यादा हुआ है और आज भी हो रहा है। किन्तु आज स्थितियों में परिवर्तन तेजी से हुआ है।  उच्च और उच्चमध्य वर्ग की स्त्रियां आज पहले समयों की तुलना में ज्यादा मुक्त हैं , वे सोचती-विचारती और अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त भी कर रही हैं।  वे अपने मन के भीतर के यथार्थ को व्यक्त करने का साहस भी जुटा रही हैं।  यह उस पितृ-सत्ता का प्रतिरोध भी है ,जिसकी  जकड़बंदी में वे रहती आई हैं। जैसे स्त्री शरीर बेचने की परिस्थितियां ,व्यवस्था ने बनाई हैं वैसे ही आज के घनघोर  बाज़ारवाद के युग में पुरुष भी अपने शरीर को बेचने लगा है और वर्ग-विशेष की  स्त्रियां अपनी कामना-पूर्ति  के लिए उसे खरीद रही हैं । इसमें बहुत सी विकृतियां भी आती हैं। लेकिन जब कोई समाज बंधनों को तोड़ता हुआ मुक्ति-पथ पर चलेगा तो कई तरह के विचलन भी होंगे। जब नदी में बाढ़ आती है तो वह कगारों को तोड़ती चली जाती है।
   आज  सरप्लस  पूंजी का जो अकूत खजाना एक वर्ग-विशेष के पास इकट्ठा होता जा रहा है वह भी अपने लिए यौन-क्रिया को बाज़ार की तरह बनाता जाता है। वह बिकने और खरीदने की वस्तु  बनती चली जाती है।इस प्रक्रिया में स्त्री ही नहीं , पुरुष भी वस्तु बनता  जाता है।   यह मानव स्वभाव की गति-दुर्गति दोनों है। यह मार्क्सवाद नहीं , फ्रायडवाद है। मार्क्सवाद में  स्त्री भोग की वस्तु  नहीं होती , वह आज जैसे पूंजी के बाज़ार में होती है।  मार्क्सवाद में स्त्री का दर्ज़ा पुरुष की बराबरी का है।  वहाँ किसी तरह की उंच-नीच नहीं।  यौन वहाँ एक  यथार्थ और प्राकृतिक क्रिया है, जिसकी जितनी जरूरत पुरुष को है ,उतनी ही स्त्री को भी।  प्रकृति ने संतुलन पैदा किया है और इसके स्वरुप को द्वंद्वात्मक बनाया  है। बहरहाल , संदर्भित कहानियों की व्याख्या-विश्लेषण एक पक्ष को बहुत उभारकर किया गया  है , जिससे संतुलन गड़बड़ा गया है।

Friday 14 February 2014

विजेंद्र को उनकी घने पर लिखी कविता पर पत्र
   15 फरवरी 20014

आदरणीय भाई ,
भरतपुर के घने की स्मृतियाँ और वर्त्तमान के द्वंद्व से रची आपकी नयी कविता पढ़कर सुख मिला।  कविता में शब्द की कला को आप अपनी तरह से सहेजते हैं।  यही कवि की निजता होती है।  समय तो एक समय में जीने वाले सभी कवियों को लगभग एक जैसा मिलता  है। उसकी वर्गीय मनोरचना और जीवन व्यवहार उसे वही स्वरुप प्रदान करता है जो वह अपने अनुभवों और जीवन-दृष्टि की रासायनिक प्रक्रिया से अपना काव्य-रसायन तैयार करता है।  आपके यहाँ शब्दों की तरंग कुछ अलग तरह से कानों में गूंजती है। प्रकृति के  रूप-रस-रंग और जीवन की दुर्गम  घाटियों  से गुजरते-लुढ़कते  समय और रिश्तों के संघातक तनाव से जो कविता सृजित होती है ,उसका छंद यहाँ  भिन्न रूप में  दिखाई  देता  है।  यहाँ  स्मृति से वर्त्तमान की यात्रा  है और वर्त्तमान से स्मृति की। इसमें स्मृति बाज़ी मारती है और वर्त्तमान सूखे ठूंठ की तरह निर्जीव सा लगता  है। तभी "कुछ नहीं बदला " इस कविता की केंद्रीय टेक--पंक्ति  बनती  है जैसे   संगीतकार ठहरकर आलाप लिया करते हैं और जाहिर करते हैं कि उनकी तान का सारा ताना-बाना यहाँ से निकला है। प्रकृति में हर दिन नया सूर्य उगता है ,जीवन में नहीं। इसीलिये प्रकृति में कुछ नहीं बदलता नज़र आता है , जबकि बदलता है यहाँ व्यक्ति ----"कुछ अधिक उदास ,रिक्त और विचलित "। यहाँ भी यदयपि एक परिवर्तन है ----नहीं देखा कोई साइबेरियन सारस /पंख फड़फड़ाकर करता गर्जनाएं /वे मेहमान अब क्यों नहीं आते / यहाँ बदलाव उदासी को बढ़ाने वाला है। जीवन में तो उदासी और खालीपन है ही। इसमें प्रकृति ही अपनी पगडंडियों से नया सूर्य दिखलाती है।  कविता के भीतर समाई लय शब्द की शक्ति को गति-प्रेरित करती है।  मुक्त छंद में  अर्थ का वहन कैसे किया जाता है यह कविता बहुत सहजता से बतला जाती है।
   इसी कविता के सन्दर्भ से अपने मन की कहूँ तो मुझे भी सभी बातों से विरक्ति सी होने लगी है।  झूठ,छल, कपट और चाटुकारिता तथा मुंह देखकर टीके करने वाला आचरण इतना प्रभावी बनता  जा रहा है कि कहीं जैसे जगह ही नहीं बची है कि अपना पाँव भी टिका सकें।  गहरा अकेलापन जीने को जैसे अभिशप्त हैं।प्रकाशक तीन साल से जुल दे रहा है। जबकि धनिकों और पद -धारी जुगाड़ुओं ने बाज़ी मार ली है।  साहित्य में भी इतनी उठा-पटक और बे-ईमानी आती जा रही है कि ईमान को जैसे कोई जगह ही नहीं बचेगी।  एकला  चलो और देख के चलो  ----के अलावा कोई गति नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो ---"सबको अपनी -अपनी पडी हुई है।" वैसे ही हम  लोग शहरी मानकों की दृष्टि से पिछड़ी  जगहो पर रहते हैं। मुझे तो अब  नागर  साहित्य  से अच्छा लोक-साहित्य में काम करना लगता है।  इसीलिये पिछले दिनों मेवाती के बात साहित्य पर काम करना शुरू किया है। यहाँ किसानों के बीच मन की कहना--लिखना  सुकून देता है। साहित्य की शहरी दुनिया में ऐसा कहाँ ? नाम-धाम की न मुझे पहले कोई चिंता थी न अब। काम करने के लिए बहुत सारे  क्षेत्र हैं।आपको अपने मन की लिख दी है , जो इन दिनों  मेरे  मन की वास्तविकता है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराशा के दौर में हूँ। इतना जरूर है कि मेरी आशा का केंद्र बदल रहा है।  बहरहाल , आदरणीया भाभी जी को मेरे प्रणाम कहें।
                                                                                                               आपका ----जीवन सिंह  

Thursday 13 February 2014

रचना ,आज तुम्हारे जन्म-दिन की याद वेलेंटाइन डे की वजह से आई। यह संयोग है कि तुम्हारा जन्म आज के दिन श्योपुर  कलां ---मध्य प्रदेश में एक डिस्पेंसरी में  14 फरवरी 1972 के दिन हुआ। उस  रोज शिवरात्रि भी थी।कितने संयोग एक साथ थे। श्योपुर कलां उस समय जिला मुख्यालय नहीं था ,वह डाकुओं के लिए मशहूर मुरेना जिले में आता था।इस समय वह जिला मुख्यालय बन गया है।   उस समय वहाँ डाकुओं का जोर भी था। जयप्रकश नारायण उनका आत्मसमर्पण कराकर उनको जीवन की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न ही नहीं कर रहे थे  बल्कि ला रहे थे। श्योपुरभी उनका केंद्र था।हम उस समय चम्बल नदी को नाव से पार करते थे , उस समय चम्बल पर पुल नहीं बना था, जो राजस्थान के सवाई माधोपुर से श्योपुर को जोड़ता है।  उसके बाद एक बार जब मैं मुक्तिबोध के जीवन और साहित्य पर केंद्रित एक साहित्यिक कार्यक्रम  में  श्योपुर गया  तो चबल पर पुल बन गया था,  इसी श्योपुर में 1917  में हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म  हुआ था।  तब यह ग्वालियर रियासत के अंतर्गत मराठों के आधिपत्य वाला एक हिस्सा था।  यहाँ तभी सीप नदी के किनारे एक पहाड़ी पर किला बनाया गया था ,जो उस समय के राजतंत्र की एक सुरक्षात्मक जरूरत था। उस समय यहाँ किले के भवनों में वह सरकारी कालेज चलता था , जिसमें मेरी नियुक्ति हुई थी। यह हमारे लिए  नयी और अनजानी जगह थी। लेकिन रोज़ी-रोटी के जुगाड़ के लिए अपने मोह को त्यागना पड़ता है। इसीलिये जगह जगह की ख़ाक छाननी पड़ती है लेकिन इससे हमारे जीवनानुभवों में वृद्धि होती है।  एक जगह तो  पानी  भी सड़ने लगता है।  इसीलिये हमारे यहाँ ऋषियों ने ---चरेवैती- चरेवैती यानी चलते रहो , चलते रहो  ---की शिक्षा दी है।  बहरहाल , तुम्हारे जन्म दिन के अवसर पर इतनी  सारी बातें याद आ गयी। इतनी बातें और किसी के  जन्म से जुडी हुई नहीं हैं , तुमको ये याद रहें इसलिए भी लिखा है। चाहो तो इनको नोट करके  अपनी  डायरी में लिख सकती हो और अपने बच्चों को भी बतला  सकती हो। 
हर  व्यक्ति के जीवन का अपना इतिहास होता है और परिस्थितियां होती हैं ,जिनके बीच उसका निर्माण हुआ करता है। 
तुम्हें मम्मी, पापा ,बहिन ,भाई सभी की  तरफ से जन्म दिन की बहुत बहुत  बधाई और स्नेह।  संजय और बच्चों को ढेर सारा प्यार।ब्यान  जी सा को नमस्ते । . 
                                                                                                                                                      ------ मम्मी -पापा ,  १४ फरवरी 2014 माघ शुक्ल  संवत 2070

Monday 27 January 2014

राष्ट्रपति के गणतंत्र दिवस पर किये  गए औपचारक राजनीतिक  सम्बोधन में देश में सक्रिय सभी  राजनीतिक दलों की राजनीति पर  छींटे पड़े हैं ,जिसमें समझ लेने की दिशा में  दलगत संकेत और व्यंजनाएं भी हैं। इसमें कांग्रेस की राजनीति को भी छोड़ा  नहीं गया है।  मनमौजी अवसरवाद  और साम्प्रदायिकता वाली विखंडनकारी राजनीति के संकेत को भी आसानी से समझा जा सकता है।  जहां तक लोक-लुभावनता  का सवाल है वह लगभग पूरी राजनीति का गोरखधंधा बन चुका है।अराजकता और आंदोलन में फर्क कर लिया जाता तो शायद लोक-लुभावन अराजकता जैसा प्रत्यय ---ख़ास तौर  से सद्य-गठित अनुभव रिक्त आम आदमी  पार्टी संकेतों की चपेट में आने से बच जाती।  इस सम्बोधन में वामपंथी दलों की जनसंबद्ध राजनीति का नोटिस न लेना ---नव - उदारवादी अर्थ--नीतियों को इस प्रसंग में किसी भी रूप में जिम्मेदार  ठहराने से किनारा करना है।  

Saturday 25 January 2014

सबके बच्चे पढ़ना-लिखना और मनुष्यता के पथ पर आगे बढ़ने की इच्छा रखते हैं।  यह अलग बात है कि निर्धन और असहाय वर्ग के बच्चों को यह सुविधा नहीं मिल पाती।  धनाढ्य  वर्ग तो अपने बच्चों को अमरीका-इंग्लेंड भेजकर भी  पढ़ा लेता है।सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है और वर्गीय शिक्षा -प्रणाली को स्वाधीनता के नाम पर फैला दिया जाता है।  समाज वर्गों में गुजर-बसर करता  है तो शिक्षा-चिकित्सा और धन अर्जित करने की प्रणालियां भी वर्गीय होती हैं।इसलिए भाषा--माध्यम भी दो तरह के बना दिए जाते हैं।  अंग्रेजी - माध्यम से पढ़ने वाला ऊंची नौकरियों पर कब्जा जमा लेता है और हिंदी माध्यम वाला निम्न--मध्यवर्गीय नौकरियों तक ही अपनी पहुँच बना पाता  है।  इसमें भी प्रतियोगिता आड़े आती है.।   
यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मीडिया भी पक्षधर की भूमिका अदा करता है ,उसी वर्ग की पक्षधरता , जिसका वर्चस्व और पूंजी उसमें लगी होती है।  उसी के पक्ष में मतदाता के मन को तैयार करके अपने आधीन बना लेने की जुगत भिड़ाना है और कुछ नहीं।  मतदाता को यह भ्रम रहता है कि यह  बात बड़े तटस्थ ढंग से कही जा रही है।  जबकि होती है गण-विरोधी पूंजी परस्त ताकतो की तरफदारी। इस बात का मतलब क्या है कि यदि आज चुनाव हो जाय तो। यह तो वही बात हुई कि ----"सूत  ना कपास और कोरिया ते लठम्-लठा।"

Friday 24 January 2014

जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान ने झांसी की रानी को " खूब लड़ी मर्दानी " कहा था। प्रवाह के पाट की चौड़ाई और गहराई के आधार और आकार-प्रकार को देखकर पुरुष प्रधान समाज में प्रकृति-पदार्थों का लिंग निर्धारण किया जाता रहा।   यह भाषा के निर्माण पर पुरुष प्रभुत्व का परिणाम है।  आहार, वेश ,सभ्यता सभी पर  प्रभुत्व अपना असर छोड़ते  हैं।  बिम्ब-रूपक और अवधारणाएं भी ऐसे ही बना करती। प्रभुता -परिवर्तन होते ही ये सब बदलने भी लगते हैं। 

Wednesday 22 January 2014

जब  घनघोर अन्धकार होता है तब  जुगनू और एक छोटा-सा दीपक भी प्रकश - स्तम्भ का काम करता  है।एक अदना-सा कवि बादशाहों के राज्यों पर अपनी कविता के प्रकाश से भारी पड़  जाता है।   
"आप " ने रोका है
घोड़े को ,
जो दिग्विजय के लिए
निकला है ,
कुछ लोग अब
कह रहे हैं 'आप" को भी तीसरा  घोड़ा
और पहले-दूसरे  घोड़े को घास।

घोड़े  घोड़े ही रहेंगे
घास रहेगी घास
जब तक यह घास है
तभी तक आस है
जब यह भी घोड़ा बन जायगी
तो घास  की शामत आ जायगी।
अपनी तरफ से काम को सोच-समझकर करने के बावजूद छिद्रान्वेषी लोग हर स्थिति में दोष ढूंढ लेते हैं।  जिनका काम ही हर-हमेश दूसरों के दोष ढूंढना होता है , कुछ करना नहीं होता ,उनको काम करते  हुए लोगों में छेद  मिल ही जाते हैं। सबसे मुश्किल होता है --मैदान में उतर कर काम करना। उसीसे सोच बनती  भी है और उसमें परिवर्तन भी होता है। जो काम में उतरता ही नहीं , वह क्या करके गलती करेगा।  काम करने के साथ ही गलती भी जुडी हुई है। 

Tuesday 21 January 2014

संतोष की बात है कि केजरीवाल की सरकार का धरना खत्म हुआ किन्तु यह प्रसंग कई तरह के सवाल खड़े करते हुए चेतावनी भी दे गया है।  अपनी भाषा पर नियंत्रण , गहरी मानवीय सोच और व्यवहार तथा सरकार चलाकर दिखाना और सादगी,ईमानदारी तथा कर्तव्यपरायणता की मिसाल पेश करने से ही यह कारवाँ आगे जा सकता है , इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।  अपने लोगों को अनुशासन और संगठन की डोर में बांधे रखना भी कम चुनौती नहीं है।  इसे भानुमती का कुनबा बनाने से भी बचना चाहिए और अंतर्राष्ट्रीय से लगाकर राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी बात रखनी चाहिए तथा जाति , मज़हब , क्षेत्र ,धन और बाहुबल से ऊपर उठकर एक नए तरह की राजनीति करने का जो सन्देश गया है  वही  दूर तक चलते रहना चाहिए।  यह नट की  तरह पतली डोर पर संतुलन साधकर चलते रहने का खेल है ,खाला का घर नहीं।  
ब्रज अंचल में  अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में  एक नयी रियासत डीग की स्थापना हुई  , जो बाद में भरतपुर के नाम से जानी गयी।कुछ समय तक डीग उसकी राजधानी मुख्यालय का काम करती रही।   यह मुग़ल काल के लगातार होने वाले विघटन की स्थितियों में हुआ , जब स्थानीय ताकत केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध खड़गहस्त हुई।  इसी में से तत्कालीन जाट  सत्ता का अभ्युदय  हुआ और इसके पहले शासक राव बदन सिंह ,सवाई जय सिंह ,जयपुर की अधीनस्थता में बने।  बाद में इसके दूसरे स्वाधीन  और सबसे प्रतापी शासक महाराजा सूरज मल रहे।  इनके समय में डीग के सुरम्य एवं बेहद कलात्मक --- उद्यान एवं जल-भवन निर्माण कराया गया।  ये कुराई कला के -प्रासादों के  रूप में बनाये गए। वास्तु कला की दृष्टि से बेजोड़ और ताजमहल की स्थापत्य  कला से होड़ बदते हुए। भादों के महीने में यहाँ ---लठावन का मेला लगता है ,जिसमें इन भवनों के बीच बने रंग-बिरंगे फव्वारे चलाये जाते हैं।  इससे इंद्र - धनुष जैसी प्राकृतिक सुषमा को निहारने और उसमें डूब जाने का अवसर मिलता है।कला , हमारी जिंदगी को नित्य नया बनाने का काम करती रहती है। 
१९ जनवरी रविवार को अलवर के सृजक संस्थान के मित्रों ने ---राजनीति का वर्त्तमान और आगे की सम्भावनाएं-----विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें मुख्य वक्ता दिल्ली वासी और 'सब लोग' (राजनीतिक मासिक ) तथा 'संवेद '(साहित्यिक मासिक) के सम्पादक श्री किशन कालजयी थे। उन्होंने कहा कि राजनीति आज अनेक लोगों के लिए बिना मेहनत के प्राप्त अकूत दौलत संचित करने का जरिया बन चुकी है ,सत्ता का दम्भ और नशा इससे अलग है । इस वजह से लोकतंत्र में  सत्ता के नए सामंत पैदा हो गए हैं। ,सत्ता की  दलाली करने वालों का तो जैसे जाल बिछ गया है ।इससे लोकतंत्र की गति में अवरोध पैदा हुआ है।  आम आदमी का यही गुस्सा है , जो बार बार फूट कर निकलता है । आम आदमी झूठा और सामंती किस्म का लोकतंत्र नहीं चाहता। उनका कहना था कि  आज के पूंजीपरस्त राजनीतिक दल पहले राजनीति में पूंजी का निवेश करते हैं और इसके बाद उसी से अपार सम्पदा और वैभव के  मालिक बन जाते हैं। यह कुचक्र चलता रहता है।  इसी से भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है और वह आम आदमी की जान का लेवा बन जाता है।  आम आदमी का सबसे बड़ा कष्ट यही है।  इसी लिए जब उसे इससे निज़ात पाने की कोई  गली मिलती है तो वह बेझिझक  उस पर चल देता है।  दिल्ली के चुनावों में इसीलिये उसने नया रास्ता खोजा है।  यह अलग बात है कि इस नए  रास्ते में आगे की सम्भावनाएं ही नहीं ,  कितनी ही तरह के  अवरोध भी  हैं क्योंकि जिनके हाथ से सत्ता जायगी , वे आसानी से उसे अपने हाथ से नहीं जाने देंगे।  अतः , बहुत सम्भलकर चलने की जरूरत है। आचरण की सजगता के बिना आगे की सम्भावनाएं धूमिल होने का ख़तरा बना रहता है।  इसलिए  फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। 

Monday 13 January 2014

मकर संक्रांति का पर्व एक ग्रामीण और किसानी पर्व है --ठेठ देहाती ----, गिंदड़ी ,गिल्ली-डंडा ,सतोलिया से मन बहलाने, आमोद-प्रमोद का पर्व ।जयपुर में यह पतंगबाजी का त्यौहार है ।  ब्रज में इस पर्व पर कुश्ती-दंगल  होते रहे हैं।  दिन में चने का शाक खाने के लिए , चने के खेतों में झुण्ड के झुण्ड जाते  हैं/थे ।इसे तोता बनना  कहा जाता है।कहते हैं कि चलो,तोता बनने चलें ।    समय बदलने पर अब यह ठेठ और अंदर के गाँवों में  रह गया है।कल अलवर के भीतरी गांवों में जाना हुआ ,जहां इस पर्व की पूर्व-संध्या का नज़ारा देखने को  मिला --ख़ास और से ग्रामीण महिलाओं में  , जो अपनी ससुराल से पीहर जा  रही थी। रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी । मैं जिस बस में लौट रहा था, उसके आगे चल रहे ट्रक के पीछे लिखा हुआ था -----'मार हौरन , निकल फ़ौरन ।' क्या तुक भिड़ाई है। किसी ड्राइवर की सूझ-बूझ हो सकती है।  इस पर्व पर मित्रों को शुभकामनाएं।    

Saturday 11 January 2014

क्षमा चाहता हूँ कि मैं दिन में एक बार सुबह  फेस बुक खोलता हूँ। और इसके लिए एक से डेढ़ घंटे का समय देता हूँ  ।  तकनीक का कमाल है कि समय , काम और दूरी को उसने कितना कम कर दिया है और लोकतांत्रिक तौर पर एक अभूतपूर्व मंच प्रदान कर दिया है।  इस मंच पर आए अपने सभी आदरणीय अग्रजों और बंधुओं का आभारी हूँ कि बहस को दूर तक ले गए। 
मेरा मानना अब भी यह है कि आम आदमी पार्टी का पूरा  रास्ता नहीं,पगडंडी है। जब सामने बीहड़ हो और उसे  पार करना हो और रास्ता होने के बावजूद वह किसी  वजह से आँखों में नहीं आ पा रहा हो ।  हो भी तो अंदर घुस कर बहुत दूर हो तो पगडंडी ही कुछ समय के लिए रास्ते का रूप ले लेती है।  जैसे जहां पेड़ नहीं होते,वहाँ एरण्ड का पौधा ही पेड़  कहलाता है। यह सच है कि  आम आदमी पार्टी अभी अपने पूरे फॉर्म में नहीं है। उसकी कोई स्पष्ट शक्ल भी नहीं है। फिलहाल वह स्टॉप गेप  अरेंजमेंट  की तरह लगती है है।इसीलिये दिल्ली की जनता ने ,चूंकि वहाँ वामपंथी उपस्थिति प्रभावी नहीं है , बेहद दुखी होकर और राजनीति से नफ़रत  करने की स्थिति तक ऊबकर, दोनों ही बड़े राजनीतिक दलों को आईना दिखाने  की असमंजस और दुविधाग्रस्त कोशिश की है और इतिहास ने राजनीतिक दिशाहीन और अनुभवहीन एक प्रबंधन समूह पर बहुत भारी बोझ डाल  दिया है यह भविष्य पर है कि वे इसे कितनी दूर तक और कैसे ढ़ो  सकेंगे ? एक बच्चे के सामने बूढ़ों जैसी आकांक्षाएं व्यक्त करना मुझे किसी भी दृष्टि से न न्यायपूर्ण लगता है न उचित ही।  मैं मानता हूँ कि वाम पंथियों के पास आम आदमी का महत्त्वपूर्ण  विजन है और उनकी संघर्ष का बेहद चमकदार इतिहास भी है।  मेरा यह भी मानना है कि रास्ता भी वही है किन्तु कई बार इतिहास सामान्य जन को बहुत बड़ी उलझन में लाकर फंसा देता है तब जो रास्ता दिखाई देता है ,उसी पर बात करने की जरूरत होती है।  तब छोटे आदर्श ही भाने लगते हैं।और हम  इसी रास्ते से वहाँ तक पंहुच सकते हैं जहां पंहुचना चाहते हैं।यह विकल्प नहीं एक छोटी-सी पगडंडी  जरूर है।    

Friday 10 January 2014

जो लोग व्यवस्था- परिवर्तन के इंतज़ार में हैं और वर्त्तमान से सीख नहीं लेते , उसकी जरूरतों और जन की आकांक्षाओं का अंदाजा नहीं लगा पाते , वे अपने समय की नब्ज पकड़ने में विफल रहते हैं।  समय की नब्ज , जिसने पहचान ली वह नेतृत्वकारी भूमिका में आ जाता है। फिर उसकी टोपी के नकलची मैदान में उतरने लगते हैं।    भ्रष्टाचार, आम आदमी की जिंदगी को सबसे ज्यादा तबाह करता है और उससे उसकी नैतिकता को धीरे-धीरे छीनता  जाता है।वह  सादगी को छोड़कर  प्रदर्शन के सामंती आभामंडल का शिकार होता जाता है। इसीलिये जब सादगी और औसत नैतिकता की छोटी-सी लहर भी चलती है ,तो वह उसके मन को लुभाती है।  प्रतिरोध,संघर्ष और उसके साथ एक तात्कालिक विकल्प उसीके भीतर से नज़र आता है। अस्वस्थ व्यक्ति को  फौरी राहत की जरूरत होती है। वह व्यवस्था बदलने तक का इंतज़ार नहीं कर सकता। इसीलिये वह अपने भीतर के' नियतिवाद' को नहीं छोड़ पाता।  आम आदमी बहुत दूर की नहीं सोच पाता। वह तात्कालिकता से सर्वकालिकता की और बढ़ता है ,सर्वकालिकता से तात्कालिकता की उल्टी यात्रा नहीं करता।उसको राहत देने में नैतिकता सबसे ज्यादा मददगार होती है।   नैतिकता के सवाल से उसकी  संस्कृति जुडी रहती है।  दुनिया का इतिहास बतलाता है कि व्यक्ति और समाज ने अपनी तरह से अपने समय की नैतिकता के लिए भी बहुत बड़े युद्ध और आंदोलन किये हैं। ऐसे समय में वह रोटी और राजनीति के सवालों को भी भुला देता है।आज देश में जो राजनीतिक-नैतिक  हलचल है और जिसने संकीर्ण सोच और व्यवहार की ओछी राजनीति  पर अपना जो दाव  चल दिया है ,उसका भविष्य मानवता के लिए अच्छा ही होगा , ऐसा मानने में संकोच नहीं होना चाहिए।  अभी इस नैतिकता और सादगी की एक ही विचारधारा है ---स्वराज्य और सुराज्य।  विचारधारा और विश्व -दृष्टि का स्थान यहाँ  रिक्त है ,जिसकी पूर्ति  इसके सहयोगी कर सकते हैं ।   

Thursday 9 January 2014

आज, कवि विजेंद्र अपने जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।  उनके सद्य-प्रकाशित कविता संग्रह---बनते मिटते पाँव रेत में---से उनकी एक कविता ---धरती का अंतःकरण -- की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनको भावी स्वस्थ और गतिशील जीवन की शुभकामनाएं देता हूँ।
                                                                            जल ही उद्गम है जीवन का
                                                                             खिले शतदल का
                                                                             यह कविता का भी सच है
                                                                            जो लेता है नए नए रूप
                                                                            भूमिगत-----भू आकृतियों का सघन मूर्तिशिल्प
                                                                             कहाँ दिखाई देती है धरती के गर्भ में
                                                                             जल धाराएं आँखों को
                                                                             अनेक पुरानी  स्याह चट्टानों की बेजोड़ कटाने
                                                                              काल की छेनियों के वक्र निशान
                                                                              हथौड़े की उछटती  चोटें
                                                                              सुनाई पड़ती हैं
                                                                               टकराती सागर लहरों में
                                                                             चूने के पत्थर ,जिप्सम, चाक ,चट्टानी नमक
                                                                               घुला पानी
                                                                            कहाँ है इतनी घुलनशीलता जीवन में
                                                                               मन में, विचार में, सूझबूझ में
                                                                                 घुलनशीलता का जन्म होता है रसायन की
                                                                                 बूंदों
                                                                                  -------------
                                                                                 ------------------



                                                                                 भूमिगत स्थलाकृतियाँ
                                                                                  मेरे ह्रदय में प्रतिबिंबित
                                                                                   धरती का अंतःकरण  बताती हैं













   
आदर्श,सादगी और नैतिकता ही किसी सिद्धांत के पाँव हो सकते हैं।  सत्ता के भूखे लोग इन सबको भूल रहे थे या भूल चुके थे।   गांधी की कमाई खाने वाले भी। आम  आदमी पार्टी के कुछ सद्यानुभवी  युवा-प्रौढ़ों ने गांधी के पथ को अपनाकर , राजनीतिक फैसला किया ,जिसकी  घुटे राजनीतिक दलों और उनके  अंध-समर्थकों तथा जन-मिजाज को न भांप पाने वाले लोगों ने पहले तो  खिल्ली उड़ाई। अब वे   ही  कह रहे  हैं कि ----इस नयी ' बला'से सीखो। बहरहाल , इस तरह की नयी  शुरुआत जितनी दूर  तक चल सके ,  चलनी चाहिए ---"-इस  हिमालय से  कोई गंगा निकलनी चाहिए " (दुष्यंत कुमार )

Wednesday 8 January 2014

लोकधर्मी काव्यपरम्परा के गम्भीर और प्रतिष्ठित कवि एवं  सौंदर्यचेता विजेंद्र जी आज अपने जीवन के उन्यासी वर्ष पूरे कर रहे हैं।  कल से उनका अस्सीवाँ लग जाएगा।  कविता को समग्रतः  समर्पित और अपनी प्रतिज्ञाओं -संकल्पों के प्रति अटूट एवं सुदृढ़ आस्था रखने वाला ऐसा कवि विरल होता  है। जीवन-प्रणाली और विचारधारा को अपनी जमीन  के भीतर से रचने की ललक और अपनी विराट परम्परा के सारतत्त्व को अपनी पूंजी बनाकर चलने  वाले  तथा वर्त्तमान और भविष्य को आँखों में संजोये रखने वाले विजेंद्र सबके चहेते नहीं हैं।  यह उनके चरित्र की दृढ़ता का सबूत है।  वे मध्यवर्ग की ताकत को जरूरी मानते हुए भी प्रेरक नहीं मानते । प्रेरणा का स्रोत उनके लिए कर्मण्य -जीवन की वही ताकत है , जो जीवन की बुनियाद में लगे पत्थर की तरह होती है। जिसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा और अनदेखी होती है।  बहरहाल, विजेंद्र जी बड़े हो रहे हैं और लगातार  लिख-पढ़ और सोच रहे हैं , कर्मरत हैं। २०१३ में  जयपुर के वाङ्मय प्रकाशन से उनका नया कविता संग्रह आया है ----- ' बनते मिटते पाँव रेत  में'।  उनको बधाई, मुबारकबाद और जीवेम शरदः शतम की  शुभकामनाएं।  
 वही कवि -रचनाकार  टिकाऊ होगा  और जन-मानस  को दूर तक प्रभावित करने वाला भी ,  जो अपने  अंतरंग -बहिरंग का एका अपने जीवन और रचना दोनों से प्रमाणित कर सकेगा। कविता, पूंजी संकलन का कोई  व्यवसाय -क्षेत्र नहीं है ,जहां सफलता को ही सब कुछ मान लिया जाता  है । यह सार्थकता की नींव पर संरचित दुनिया है ,जिसमें नैतिकता और जन-संस्कृति के झरोखों से आने वाली  धूप -हवा  के बिना स्वास्थ्य बिगड़ने का ख़तरा हमेशा रहता है ।यह सच्चे योग-साधकों का एक ऐसा संसार है ,जिसमें शिथिल समाधि होते ही सब कुछ गड़बड़ा जाता है।   इसीलिये तो पूंजी- व्यवसायी इस दुनिया से दूर रहते हैं या फिर अपनी सरप्लस पूंजी से धर्मादे की तरह   कुछ इनाम-इकरार घोषित कर इसमें घुसने और अपनी साख बचाने का प्रयत्न किया करते हैं।आजकल सरप्लस पूजी के घुसपैठियों ने इसमें भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है।  वे अनेक शक्लों में इसके अंतरंग में प्रवेश पा चुके हैं।  इसे  बाज़ारवाद  के रंग के रूप में भी देखा जा सकता है।  आत्म-विज्ञापन की आतुरता को  भी  भौंडी और बेहूदी व्यावसायिक विज्ञापन की ठगी और टटलूबाज़ी के समानांतर देखा  जा सकता  है।  

Tuesday 7 January 2014

बेवजह किसी के अच्छे कार्यों की  तारीफ़ करने वाले लोग  आज की विशुद्ध बाजारू दुनिया में विरल  हैं।    चतुर-चालाक लोग आदिकाल से हैं और चापलूसी तथा  झूठी मुंह-देखी प्रशंसा ,किसी प्रयोजन को साधने के लिए करना लगभग हर व्यक्ति की आदत में होता है।   . तटस्थता और निर्वैयक्तिकता बड़ी जीवन-साधना से  आती है।  जिसे किसी भी अस्त्र से परास्त नहीं किया जा सकता, उसे उसकी झूठी -प्रशंसा का अस्त्र एक सेकिंड में परास्त कर देता  है।कवि लोग अपने आश्रयदाताओं की झूठी प्रशंसा करके इनाम ही नहीं , बड़ी-बड़ी जागीरें ले लेने की कोशिशें किया करते थे। अपनी प्रतिभा को इसी तरह आज का आदमी भी बेचता है।  पुरस्कार-सम्मानों की दुर्गति भी ऐसे लोग कर दिया करते हैं।     
हर व्यक्ति चाहे कवि न हो किन्तु उसका कवि-हृदय होना ही आधा-सा कवि होना है।  कविता, व्यक्ति के बहिरंग को उसके अंतरंग में खोजने की कला है। 

Monday 6 January 2014

सीखि  लीन्हो रोध , प्रतिरोध, क्रोध , क्षोभ सब
सीखि  लीनी  गाँव ,खेती , किसान की बड़ाई है।
 सीखि लीनी सदी की बदी ,औ  फूलन सौं लदी  
 मंजूषा में जैसे सोने की प्रतिमा सजाई है।
जीवन कहत याकौ बानक  विचित्र    जामें
धरती पै आसमान की बैठक जमाई है। 
कविता करनौ हंसी-ठट्ठा ना है होरी कौ
ग्रीषम की खेती है, त्वचा-स्वेद की कमाई  है । 

Sunday 5 January 2014

बहुत गर्मी में थोड़ी-सी छाया का आसरा मिलना भी सुखदायी होता है ।  किसी 'छाया'से इससे ज्यादा उम्मीद लगाना वास्तविकता की  अनदेखी करना है । यह किसी से छिपा नहीं है कि "आप" का अपना कोई ढांचा नहीं है। वह विशुद्ध  अवसरानुकूल पैदा हुई आकस्मिक परिस्थिति की देन  है ।उसका कोई सुचिंतित विधान नहीं है।  उसका भरोसा है वह आम आदमी ,जिसका मौजूदा राजनीति ने दम घोंट दिया है। जब कि उसके सामने राजनीति के मंजे हुए  धुरंदर खिलाड़ी हैं , जो दाव , लगने की फिराक में हैं।  जिनकी  नज़र मछली के शिकार पर बगुले की तरह रहती है। फिर भी , आशा करनी चाहिए कि राजनीति के  धौंसे  में  यह छोटी  -सी  धमक अपना रंग जरूर दिखायेगी।एक पत्थर उछलता है तो आकाश में कम्पन  होता ही है।        

Saturday 4 January 2014

सत्ता के महल के प्रवेश द्वार पर 
सावधान रहना प्रहरी
यहाँ जो आता है
 राग - ध्वज के
रंगों की छाया में
अंगड़ाइयां लेता है
यहाँ खेत-कारखाने नहीं
बड़े- बड़े दुर्गों  से
सामना होता है
यह भूलभुलइयों का मैदान है
बच्चे पहले यहाँ
लुकाछिपी ,आंखमिचौनी और
किलकिलकांटिया का खेल, खेलते हैं
सावधान रहना प्रहरी
यहाँ शतरंज और चौसर की
चालें चली जाती हैं
यह खाला का घर नहीं
यहाँ पानी भी
बावड़ियों के
सबसे नीचे तल  में
ढूंढें से मिलता है
यहाँ एक ऐसा वृक्ष है
जिसके फल देखकर ही
लार टपकने लगती है
इसमें प्रवेश कर लेने पर
 छोटा घर अच्छा नहीं लगता
और न ही छोटी सवारी ,
नारद, भव , बिरंचि , सनकादि भी
यहाँ आकर अपना रास्ता भूल जाते हैं
सावधान रहना
अभी तुमने न कुछ देखा है
न जाना है
कि रास्ता क्या है ?
और उसकी पगडंडियां नहीं हैं
चलो ,बढ़ते चलो
धरती पर मजबूती से
अपने पांवों को टिकाते हुए
कि  छू  सको  आसमां के छोर,
ज़रा चूक हुई कि
नहीं रहोगे कहीं के भी ।  

Wednesday 1 January 2014

शिष्टता पेड़ों पर
टंगी नहीं होती
न ही वह
दगडे में पडी मिलती है
बाज़ार में तो वह होती ही नहीं
मैंने उसे लगातार  काम करने वाले
गैर लफ्फाज़ आदमी में देखा
उसके पास इतना है
कि जब सघन अन्धेरा होता है
तो वही दिखलाता है रास्ता  ।