Sunday 9 March 2014

आदरणीय भाई आग्नेय जी ,
'सदानीरा' के अंक समय पर मिले किन्तु उनको पढ़ लेने के बाद भी मैं समय पर अपना जवाब  नहीं लिख पाया ,इसका अफ़सोस है।आपका बहुत बहुत आभारी हूँ कि आपने इस बहाने मुझे याद किया।  आपने पहले ही अंक में सही शुरुआत की कि"समकालीन हिंदी कविता में इतनी अधिक कविता है कि वह अब कविता नहीं रही।" इसके ऊपर मिरोस्लाव होलुब के ये शब्द ----तो आँखें खोलने वाले हैं -------"हर चीज में कविता है /यह कविता के खिलाफ /सबसे बड़ा तर्क है /"-- तथ्य यह  है कि आज के अधिकाँश कवि , कविता रचते नहीं , बनाते हैं। इसीलिये कवियों की बाढ़ सी आई हुई है। धनवान लोगों ने यहाँ भी अपना डेरा जमा लिया है। प्रकाशक को पैसा दो और ढेरों कविता संकलन एक साथ छपवा लो।सम्पादक से  सम्बन्धों के आधार पर  रिव्यू करा करा कर यशस्वी बनना  , पुरस्कार झटकना ये सब पैसे वालों के बांये हाथ का खेल हो गया है ,फिर यदि आप तगड़े अफसर हैं तो क्या कहना है ? कवि -कर्म अब साधना की जगह जोड़-तोड़ और धन का गोरखधंधा बनता जा रहा है। अपवाद  स्वरुप ही कवि बचे हैं। विश्व कविता की पत्रिका ---सदानीरा के उत्साहपूर्ण प्रकाशन के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएं।  प्रसन्न होंगे।     सादर ,-----जीवन सिंह , अलवर, राजस्थान
               पुनश्च ,  आपके मकान के सामने से निकलता हूँ तो आपकी याद आये बिना नहीं रहती।  आपका अलवर में उस समय होना एक व्यक्तित्व का होना था।अलवर का भौतिक विस्तार जितनी तेजी से हो रहा है ,आत्मीयता का अंतःकरण उतना ही सिकुड़ रहा है। फिर कवि-कर्म क्यों कर न कठिन होगा ? बहरहाल ,जीवन सिंह 

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