Sunday 29 April 2012

  छन्दहीन  इस समय में शेरपा का श्रम से लबालब व्यक्तित्व जीवन का बेहद रूपवान छंद रचता है |अफ़सोस यह है कि  यह छंद आवारा पूंजी से अघाए वर्गों की जिन्दगी में संगीत की तरह कहीं सुनाई नहीं देता | कविता का यह शेरपा हमारे व्यक्तित्व का अंग भी बने तभी जाकर दुनिया का वास्तविक छंद  रचा जा सकता है |यह कविता का लोक भी है और लोक की कविता भी |

Saturday 28 April 2012

"दर-असल, आज भी मैं तुलसी की इस बात से सहमत हूं कि कविता का मोती "हृदय-सिंधु" में पलता है - "हृदय सिंधु मति सीप समाना" । दूसरी ओर अनुभव होता है कि आज के अधिकांश कवियों के हृदय, पोखरे या छोटी-बड़ी ताल-तलैयों से ज्यादा बड़े नहीं रह गए हैं । आत्मविस्तार की बजाय वहां प्रलोभन , यश-कीर्ति , प्रशस्ति-पुरस्कार का मायाजाल उसके हृदय को निरन्तर संकुचित कर रहा है । पुराने कवियों से तो जैसे आज का कवि कुछ सीखना ही नहीं चाहता"
मध्य वर्ग का निम्न मेहनतकश वर्ग की जिन्दगी के अनुभवों से लगातार कटते और दूर होते जाना और अपने ही एक मिथ्या क्रांतिकारी संसार में हवाई किले बनाना |यह मध्यवर्गीय बीमारी है | इससे मुक्ति तभी सम्भव है जब उसके जीवन के सैद्धांतिक-विचारधारात्मक सरोकार ही नहीं वरन व्यावहारिक जीवन में भी वह निम्न - मेहनतकश वर्ग से स्वयम को सम्बद्ध रखे |इससे उसके जीवनानुभव भी समृद्ध होंगे और उसका व्यक्तित्त्व -निखार भी होगा | फिर उसकी कला  का तेज  ही कुछ अलग तरह का होगा | उसमें धैर्य भी आ जायगा और प्रसिद्धी  , पुरस्कार एवं सम्मान पाने की लालसा भी कम हो जायेगी |
सच तो यह है कि  अपने भीतर वह  इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर  की बड़ी दुनिया बहुत कम नज़र आती है | कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का निर्माण करता है वह उसका जीवन  से कटा हुआ मनोगत यथार्थ होता है | इसलिए मुक्तिबोध ने अन्दर -बाहर की द्वंद्वात्मक एकता  पर विशेष बल दिया है |यदि उसका केवल अंदर ही आता है तो वह  विखंडित है , यही बात बाहर के साथ भी है |

Friday 27 April 2012

 ये आज के लोक-स्वर के महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय युवा रचनाकारों में आते हैं | इन्होने अपने जीवनानुभवों के आधार पर कविता की अपनी एक नई जमीन तोडी एवं बनाई है|इस जीवन की  विशेषता है कि  श्रम से जुडा  होने से इसकी प्रकृति में ही काव्यत्व अन्तर्निहित है ----" राम तुम्हारा चरित स्वयम ही काव्य है "  की तरह |निर्मला जी ने मूलत संताली में लिखा और उनका हिन्दी में अनुवाद अशोक सिंह ने किया | जहां तक मुझे याद है कि निर्मला पुतुल की कवितायेँ २१वी  सदी के  लगते ही आने लग गयी थीं |" नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द "और " अपने घर की तलाश में "-- शीर्षकों से आए दो काव्य- संग्रहों में पुतुल की कविताओं में  अंतर्वस्तु की जो तेजस्विता एवं मौलिकता नज़र आती है वह आज की कविता को एक नया आयाम देती है |यहाँ एक आदिवासी स्त्री का स्वर तो है ही साथ ही आदिवासी जीवन - मूल्यों और संघर्षों का एक सजीव काव्यात्मक इतिहास भी है | इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि हम अपनी बेचैनी के ताप के साथ एक गहरी नदी में अवगाहन कर रहे हैं | शिल्प भी इनका अपना है , आदिवासी अंतर्वस्तु की तरह आदिवासी शिल्प --- अपनी सहजता में मुखरित |यह कविता हमको अपने अंधरे के खिलाफ उठने की सीख देती है | अन्धेरा बाहरइसलिए अपनी बेटी मुर्मू से  ही नहीं है वरन वह हमारे भीतर भी है |इसलिए कवयित्री अपनी बेटी मुर्मू को संबोधित करते हुए कहती है कि ---
                                                             उठो, कि तुम जहां हो वहाँ से उठो
                                                             जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है
                                                              उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी
       जब निर्मला पुतुल का पहला काव्य- संग्रह प्रकाशित हुआ था , उसी समय मैंने उसकी समीक्षा की थी |इस कविता से विशवास हुआ  कि हिन्दी कविता का भविष्य इन हाथों में सुरक्षित है |अनुज लुगुन की दिशा भी यही है | अभी उनकी ज्यादा कवितायेँ नहीं पढ़ पाया हूँ |
जब साहित्य-मात्र ही हाशिये पर धकेला  जा रहा हो तब इसके कारण हमको उपभोक्तावादी तंत्र  में खोजने चाहिए | अब अपने देशी साहित्य में ही जब व्यक्ति क्षीण-रूचि हो रहा है तो इस सब का असर अन्य स्थितियों पर भी होगा | इसके बावजूद चयनित और चर्चित विश्व साहित्य के संपर्क में अल्पसंख्यक युवा आज भी रहता है |

Thursday 26 April 2012

फ़िलहाल कोई  मुख्य स्वर जैसी बात नज़र नहीं आती | जो कुछ है वह मिलाजुला है | वर्चस्व स्त्री एवं दलित स्वरों का कहा जा सकता है | हाँ , लोक- स्वर भी आजकल सिर चढ़कर    बोल ता दिखाई दे रहा है | जन- जीवन से जुड़ा  हुआ स्वर आज यदि किसी धारा में देखा जा सकता है तो वह इसी  लोक-स्वर वाली कविता में सबसे ज्यादा है |यों तो , मध्यवर्गीय कविता  की वैचारिकता में भी इस स्वर को सुना जा सकता है | मध्यवर्ग में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद ने उसे जन- जीवन से काटने का काम किया है |
आवारा पूंजी ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है और इसे वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है , उसका जितनी तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए था , वह बहुत कम हो पाया है | बड़े संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई को सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग - विमर्श को किनारे करने का काम किया है |स्त्री और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना और वर्ग-विमर्श  की कीमत पर नहीं | जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो खंड विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है |अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर  आदिवासी और अल्पसंख्यक विमेशों की तन भी छेड़ने में लगे हैं | जबकि  इन सभी की जड़ में वर्ग-विषमता रही है | इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई  आंच आती हो | क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी लाना जैसा लगता है |अभी तो बुर्जुआ जनवादी  चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता  में लगता है , जिससे राजनीति में व्याप्त सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों का खात्मा किया जा सके |
उत्तर ----दोनों स्थितियां ही अतिवादी हैं | परम्परा के प्रति निषेध और स्वीकार का रिश्ता ही द्वंद्वात्मक संतुलन पैदा करता है | महाकवि कालिदास बहुत पहले कह गए हैं कि न तो पुराना सब कुछ श्रेष्ठ है और न सम्पूर्ण अभिनव ही वन्दनीय है |पुराने में भी श्रम से रचित मानव - सौन्दर्य है और नए में भी |दोनों की सीमायें भी हैं |आधुनिकतावादी कवियों में परम्परा के प्रति  निषेधवादी रहता है , जो या तो परम्परा से अनभिग्य  होते  हैं या आधुनिकता के मिथ्या-दंभ में ऐसा करते हैं |  लोक-धर्मी काव्य-परम्परा के कवियों में परम्परा और नवीनता के प्रति संतुलन देखने को मिलता है |

Wednesday 25 April 2012

५वे प्रश्न का जबाव -------
      हाँ,मैं जनपदीय आधार के बिना ,फ़िलहाल की स्थितियों में ,रचना को असंभव तो नहीं मानता किन्तु बुनियादी जीवनानुभवों तक के संश्लिष्ट और व्यापक यथार्थ की रचना करने के लिए जनपदीयता को उसका बुनियादी आधार मानता हूँ| दुनिया की बात तो मैं नहीं जानता किन्तु अपने देश की काव्य-परम्परा में कविता की महान रेखा जनपदीय आधारों  पर ही खींची जा सकी है | भक्ति -काव्य की महान  काव्य-परम्परा का मुख्य स्रोत जनपदों से ही प्रवाहित हुआ है | जो  महा- जाति [नेशन ] अपने जनपदीय आधारों पर टिकी हो  वहां तो यह बहुत जरूरी हो जाता है |हिन्दी एक महाजाति है , जिसके अनेक जनपदीय जीवनाधार आज भी प्रभावी स्थिति में हैं |आज भी हमारे यहाँ किसान -जीवन से उपजी वास्तविकताओं का गहरा असर हमारे मन पर रहता है |हमारे जीवन-संचालन में  उसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका आज भी कम नहीं है |ब्रज, अवधी ,बुन्देली ,छत्तीसगढ़ी , मैथिली , भोजपुरी, पहाडी  , राजस्थानी  आदि जनपदीय संस्कृति के बिना महान हिन्दी-संस्कृति का भवन बनाना शायद ही संभव हो पाए | रही वैश्विक और राष्टीय होने की बात ,ऐसा यदि जनपदीय आधार पर होगा तो वह  इन्द्रियबोध , भाव और विचारधारा के उन महत्त्वपूर्ण स्तंभों पर टिका होगा , जो हर युग की कविता को महाप्राण बनाते हैं | जहाँ तक इस कसौटी पर आज के  युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही कविया का सवाल है तो इतना ही कहा जा सकता है की ज्यादातर कवि जनपदों के प्रति रागात्मक स्थितियों में हैं , उनका विचारधारात्मक आधार बहुत सुदृढ़ नहीं हो पाया है , लेकिन संभावनाएं यहीं हैं |इसमें कुछ युवा अभी अधकचरी स्थिति में भी हो सकते हैं | आकर्षण  और प्रलोभन यहाँ बिलकुल नहीं हैं क्योंकि यह "खाला का घर" नहीं है |
    
विचारधारा का कोई न कोई रूप हर समय की कविता में रहा है | यह अलग बात है कि उसका सम्बन्ध किसी भाव-वादी विचारधारा से हो |विचारधारा के बिना तो शायद ही कुछ लिखा -कहा जा सके |जो लोग स्वयं को विचारधारा से अलग रखने की बात करते हैं , उनकी भी अपनी छिपी हुई विचारधारा अपना काम करती रहती है | वे तो वैज्ञानिक-द्वद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा को रोकने के लिए इस तरह की दुहाई देते रहते हैं , जिससे शोषक अमीर वर्ग की विचारधारा अबाध गति से फूलती -फलती रहे और शोषित मेहनतकश वर्ग की विचारधारा अवरुद्ध रहे |आवारा पूंजी  का निर्बाध खेल चलता रहे | जिन अनुभवों को निजी अनुभव कहा जाता है ,उनमें समाज के अनुभवों और परंपरा से चली आती मान्यताओं की गहरी मिलावट रहती है |समाज -निरपेक्ष निजी अनुभवों की बात करना वैसे ही है , जैसे सरोवर में स्नान करते हुए स्वयं को आर्द्रता-निरपेक्ष बतलाना |यह अलग बात है कि समाज में प्रचलित अनेक रूढ़िबद्ध  विचारों और मान्यताओं के हम विरोधी हों |रचना का आधार तो कैसे भी बनाया जा सकता है ,प्रश्न यह है कि उस रचना के जीवन-घनत्त्व  का स्तर क्या है ?इस प्रवृति के पीछे कवि का मध्यवर्गीय अवसरवाद है और यह आजकल बड़े- बड़े नामधारियों में देखने को मिल रहा है | "कोई- कोई साबुत बचा कीला -मानी पास" |यह सच्चे कवियों का परीक्षा- काल चल रहा है |
३--- निस्संदेह,हर युग में वर्गीय अनुभवों की सीमाओं में कविता की जाती रही है |कबीर ने जब अपने  वर्ग-अनुभवों के आधार पर कविता की तो तत्कालीन उच्च-वर्ग ने उसे उसी रूप में शायद ही समझा | उसके सामाजिक-सांस्कृतिक अभिप्रायों की वास्तविकता का उदघाटन आधुनिक युग में आकर हुआ , जब वर्गीय समझ सामने आई |  मीरा ने अपने जीवनानुभवों के आधार पर भक्ति-कविता को एक नया मोड़ दिया |आज का दलित कवि अपने अनुभवों से काव्य परिदृश्य में हस्तक्षेप कर रहा है |आज का युवा कवि भी अपने वर्गीय अनुभवों की कविता लिख पा रहा है , जिन कवियों के पास लोक-जीवन के अनुभव नहीं हैं , वे लोक-जीवन से सम्बद्ध कविता को आंचलिकता के खाते में डाल देते हैं | नई कविता में मुक्तिबोध और अज्ञेय की जो दो काव्य धाराएं अलग-अलग नज़र आती हैं उसका कारण वर्गीय दृष्टि है |मुक्तिबोध बेहद वर्ग-सचेत कवि हैं , निम्न मेहनतकश वर्ग की पक्षधरता के साथ वर्गांतरण की प्रक्रिया को वे  कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं | ऐसा आज तक कोई दूसरा कवि नहीं कर पाया है |इसलिए भी उनकी कविता में दुर्बोधता दिखाई देती है |आज के युवा कवियों में ये तीनों धाराएं  दिखाई पड़ती हैं | एक अज्ञेय प्रवर्तित मध्यवर्ग की व्यक्तिवादी धारा , दूसरी मध्यवर्गीय जीवनानुभवों तक सीमित जनवादी धारा और तीसरी निम्नवर्गीय लोक-धर्मी काव्य धारा | मेरा मन इनमें तीसरी धारा के साथ रमता है और मैं इसको सबसे महत्त्वपूर्ण  मानता हूँ |

Tuesday 24 April 2012

२--लोकधर्मी कविता को यद्यपि एक आंचलिक काव्यधारा के रूप में देखा गया तथापि जीवन के बुनियादी सरोकार हमें इसी काव्यधारा में नज़र आते हैं |यह मध्यवर्गीय भावबोध से सम्बद्ध कवियों की काव्यधारा के सामानांतर एक अतिमहत्त्वपूर्ण और बुनियादी काव्यधारा है | आधुनिक युग में जिसके प्रवर्तन का श्रेय निराला को जाता है | आपने जिन कवियों का नाम लिया है वे इस धारा का विकास करने वाले प्रतिनिधि कवियों में आते हैं | मुक्तिबोध यद्यपि इस धारा से कुछ अलग से दिखाई देते हैं और उनकी मनोरचना मध्यवर्गीय कविता के ज्यादा समीप नज़र आती है किन्तु जब मुक्तिबोध नयी कविता की दो धाराओं का उल्लेख करते हैं तो वे भी बुनियादी तजुर्बों को कविता में लाने और रचने की दृष्टि से इसी काव्य- परंपरा में आते हैं | वे कविता में कवि-व्यक्तित्व के हामी होने के बावजूद व्यक्तिवाद के विरुद्ध काव्य-सृजन करते हैं |यह भी जनधर्मी काव्य-परंपरा का एक रूप है | कविता में जिनका बल जनवादी जीवन-मूल्यों का सृजन करने पर रहता है और जहाँ  जन-चरित्र तथा जन-परिवेश अपनी समग्रता में आता है , वह सब लोक-धर्मी  काव्य-धारा का ही अंग माना जाना चाहिए |कुमार विकल , शील आदि कवियों की कविता भी इसी कोटि में आती है | लोकधर्मी काव्य-धारा की यह विशेषता रही है कि वह  उस शक्ति का निरंतर अहसास कराती है जो मानवीय मूल्यों की दृष्टि से हर युग की सृजनात्मकता का अभिप्रेत रही है |
                            युवा पीढी में अनेक कवि हैं जो इस काव्य-धारा का विकास कर रहे हैं |एक ज़माने में अरुण कमल , राजेश जोशी , उदय प्रकाश ,मदन कश्यप अपनी  जन- संस्कृति -परकता की वजह से इस धारा का विकास करने वाले कवियों में चर्चित हुए | इनके बाद की पीढी में एकांत, का नाम बहुत तेजी से उभरा और नए युवा कवियों में केशव तिवारी , सुरेश सेन निशांत, महेश पुनेठा ,अजेय , नीलेश रघुवंशी , कुमार वीरेन्द्र ,निर्मला पुतुल , रजत कृष्ण,विमलेश त्रिपाठी , भरत प्रसाद , अनुज लुगुन, आत्मा रंजन, आदि कवियों की कविताओं से मैं परिचित हूँ | इस सूची में इनके अलावा और नाम हो सकते हैं क्योंकि दूर जनपदों में ऐसी कविता खूब लिखी जा रही है | हमारे यहाँ राजस्थान में ही विनोद पदरज यद्यपि  छपने-छपाने में बहुत संकोच बरतते हैं लेकिन जितना और जो उन्होंने लिखा है वह इसी धारा को पुष्ट करने वाला है |
आज युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही हिंदी कविता का परिदृश्य हर समय की तरह मिला-जुला है जैसे पूरे समाज का है | समाज की प्रवृतियाँ आज की युवा कविता में भी दिखाई देती हैं |कविता का सारा व्यापार कवि के जीवनानुभवों से चलता है |जीवनानुभव जितने व्यापक और बुनियादी होंगे ,कविता की कला भी उतनी ही व्यापक और असरदार होगी | इस समय की कविता पर मध्यवर्गीय जीवनानुभवों का वर्चस्व बना हुआ है |उसमें आज के विवेक और आधुनिक बोध की धार तो है किन्तु वह अयस्क-परिमाण बहुत कम है जो जिन्दगी की खदानों से सीधे आता है |अरुण कमल की कविता की एक पंक्ति लगभग सूक्ति की तरह उधृत की जाती है ----" सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार " |  आज स्थिति यह है कि  धार ज्यादा है और लोहा बहुत कम रह गया है | इसका कारण है मध्यवर्ग और निम्नवर्गीय मेहनतकश के जीवन में दूरी का बढ़ते चले जाना | कुछ लोकधर्मी युवा कवि अवश्य हैं जो इस दूरी को कम करने की कोशिशें लगातार कर रहे हैं इसलिए उनकी कविता में धार और लोहे का आनुपातिक संतुलन ज्यादा नज़र आता है |

Monday 23 April 2012

एक गैर-हिंदी -भाषी महानगर में आपने कविता की अपनी जमीन को सहेज कर रख रखा है , यह बेहद सुखकर और प्रीतिकर  है |कविता को सच की दीवार की एक-एक ईंट के रूप में परिभाषित करना आपकी वस्तुगत कल्पनाशीलता और यथार्थ के रू-ब-रू  होने का सबूत है | अन्य कवितायें भी आपके मिजाज का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं |भाव का विवेक के साथ साहचर्य बनाये रखना आपकी सृजन - कला की खासियत है |

Saturday 21 April 2012

केशव जी की कविताओं पर महेश जी ने बहुत सटीक और सूत्र पद्धति में सही लिखा है |कविता वास्तव में क्या होती है और हो सकती है यह इस आलोचना और कविता दोनों से समझा जा सकता है | कविता यदि आज शब्दों और दिलों में बची हुई है तो उसका एक रूप यह भी है और यह उसका मर्मस्पर्शी एवं सजीव रूप है | बूढ़े के सन्दर्भ  से गांधी की व्यंजना से कविता इस समय से सीधे जुड़ जाती है | आज की बाजारू सभ्यता ने हमारे जीवनादर्शों को बुढ़ाई के खाते में जबरन धकेल दिया है | प्रेम के मर्म में पैठ बनाने में केशव जी को काफी हद तक सफलता मिली है |कहा जा सकता है कि केशव जी के रूप में भविष्य और वर्तमान की कवि-संभावनाएं छिपी हुई हैं |

Thursday 12 April 2012

पाँव हैं,
पदचाप हैं ,
पर चल नहीं पाता,

सोच है,
दिमाग भी है
पर, सोच नहीं पाता

हाथ हैं ,
भुजाएं हैं ,
पर कितना कर्महीन हूँ ,

खाता हूँ खूब-खूब
एक-दो बार नहीं ,
पांच-पांच बार
जुगाली करता हूँ सिर्फ
रस नहीं बनता कि
सरस हो जीवन - सरिता ,

ह्रदय होने का
करता हूँ दिखावा
ह्रदय हो नहीं पाता |