Monday 22 October 2012

१९ अक्टूबर २०१२,सिडनी,आस्ट्रेलिया
मौसम का ऐसा मिजाज दुनिया में कम ही जगह होगा ,सुबह ,दोपहर ,शाम के साथ बदलता हुआ |जैसे रूपसी अपना श्रृंगार और रूप क्षण-क्षण में बदलती है |मेघों का उमड़ना तो यहाँ चुटकी बजते ही होता है |इन दिनों फूलों की बहार आई हुई है ,चटक गुलाबी,नीले,पीले ,सफ़ेद, बैगनी रंगों का जैसे उत्सव लगा हो |अभी इस देश के राजधानी नगर 'कैनबरा 'में कई रोज तक फूलों का मेला चला है ---लोक-उत्सव की तरह |मुझे दिल्ली के' फूल वालों की सैर' याद आ रही है |उत्सव मनाने में हमारे देश से सब नीचे पड़ते हैं |हमारे यहाँ कोई दिन ऐसा नहीं जो उत्सव-भाव के बिना हो |उत्सव भी एक-दो दिन नहीं पूरे सप्ताह-पखवाड़े तक चलते हैं |रो-रोकर दिन काटे तो क्या काटे ?गरीबी और विषमता तो जब मिटेगी तब मिटेगी ,इसलिए हमारे यहाँ गरीब भी मावस मनाये बिना नहीं मानता |लड़ते-झगड़ते ,संघर्ष करते उत्सवों के बीच रहना ,कुछ ऐसी ही प्रकृति है मेरे देश की |यह प्रकृति ही है जो दुनिया को सबसे पहले विश्वात्मा का चोला पहनाती है |जो सबको मुक्त-हस्त से अपनी दौलत बांटती है | दूसरे देश में पहला परिचय भी प्रकृति से होता है |ओल्ड्स पार्क में सुबह सैर करते हुए दो जगहों पर नीम-प्रजाति के दो पेड़ मिलते हैं |इन दिनों इनमें फूलों की बस्ती बसी हुई है |हमारे नीम के फूल से आकार में बड़ा है फूल इसका |गंध में भी अलग है |गंध का रिश्ता मिट्टी से होता है ,जैसा मिट्टी-पानी वैसी गंध |
नेट पर आज प्रसिद्ध कवि लोर्का की एक छोटी कविता पढी --------गर मैं मरू /खिड़की खुली छोड़ देना /छोटा बच्चा संतरे खा रहा है /{अपनी खिड़की से उसे मैं देख सकता हूँ } किसान गेंहू की फसल काट रहा है /{अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूँ }गर मैं मरूं /खिड़की खुली छोड़ देना |"
बना रहे बनारस 'ब्लॉग पर इसे पढ़ा |कविता के दोनों बिम्ब सार्वदेशिक हैं और ठेठ जीवन की उपज हैं |बच्चे को संतरा खाते देखने की लालसा और किसान को फसल काटने से होने वाली क्रिया ध्वनि को सुनने की आकांक्षा कवि और पाठक दोनों को उनकी आत्मबद्ध दशा से मुक्त करती हैं |जीवन की सहज क्रियाएं व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती हैं |इनमें भविष्य का एक कर्म-सन्देश भी है |आज जीवन में से जिस तरह सहजता का निष्कासन हो रहा है और उसकी जगह एक बनावटी सभ्यता ले रही है ,बच्चे द्वारा संतरे खाने की क्रिया में कवि उस सहज सौन्दर्य को देखना चाहता है |इसी तरह किसान की कर्मशीलता का सौन्दर्य है जो आदमी की बुनियादी जरूरत को पूरा करने से सम्बंधित क्रिया है |अद्भुत अर्थगर्भी व्यंजना के रंग में रंगी यह छोटी सी कविता अपनी भाव -पूर्णता में पाठक के मन को द्रवित करने की शक्ति रखती है |एक आधुनिक व्यक्ति की ऐसी आकांक्षाएं किसी को भी असमंजस में डाल सकती हैं कि मृत्यु की घड़ी में इतनी तुच्छ आकांक्षा |न मुक्ति की कामना ,न स्वर्ग की आकांक्षा और न ही आवागमन से मुक्त होने की इच्छा |जब लोक जीवन में कवि एक श्रम-रत किसान को देखने की आकांक्षा व्यक्त करता है तो उसके लिए श्रम जीवन-मूल्य की तरह बन जाता है |आज का कवि भी इसी श्रम-संलग्नता की तलाश में लोक में जाता है |
यहाँ मैं अपने चार वर्षीय पुत्र अभिज्ञान के साथ हूँ |उसकी सहज जीवन क्रियाओं को देखते हुए हमारे मन को भी इससे राहत मिलती है |


कृपया १९ अक्टूबर की डायरी में "चार वर्षीय पुत्र की जगह ----चार वर्षीय पौत्र पढने का कष्ट करें |"यह गलती अंगरेजी से हिंदी में बदलने की वजह से हुई |क्षमा करेंगे ----जीवन सिंह


Wednesday 17 October 2012

डायरी १७ अक्टूबर २०१२ की
सिडनी का मौसम बहुत धोखेबाज है ,यद्यपि सुहावना -मनभावन भी है | अभी गर्मी है किन्तु शाम का पता नहीं कि अचानक ठण्ड टपक पड़े |अभी सूरज निकल रहा है , पता नहीं एक पल में वह बादलों द्वारा घेर लिया जाए |वैसे इस समय बसंत चल रहा है सबसे सुहावन ,लेकिन बेचारे बसंत के बीच-बीच में आकर गर्मी- सर्दी- बरसात अपना अडंगा लगाए बिना नहीं मानती |मौसम के बीच एक तरह की छीन-झपट -सी चलती रहती है या ऋतुएँ आँख-मिचौनी का खेल खेलती रहती हैं |यह शहर पेड़ों और पार्कों से घिरा हुआ है |सागर-तट पर बसा टेढ़ी -मेढ़ी चाल चलता हुआ ----सीधी रेखा को नकारता |जैसे पूंजी वादी व्यवस्था में लोग सीधी-सच्ची चाल नहीं चलते |टेढ़ी-मेढ़ी चालों से ही ठगिनी महामाया का कारोबार चलता है |रहीम ने लक्ष्मी को चंचला कहकर उसकी मजाक बनाई है ----कि वह बूढ़े आदमी की पत्नी होने के कारण चंचला है -----पुरुष पुरातन की बधू क्यों न चंचला होय |मैं भी यही मानता हूँ कि इसका कोई चरित्र नहीं होता ,न ईमान होता है ,न कोई धर्म |यह किसी की सगी नहीं होती |इसको वश में रखना आसान नहीं |यदि अतिरिक्त पूंजी इकट्ठी हो गयी तो आदमी को क्रूर होते देर नहीं लगती |पूंजीपति की करुना दिखावटी होती है |वह कभी दूसरों का खून चूसना बंद नहीं करता |ऊपर से पूंजी मधर-मधुर बोलती है किन्तु हर घड़ी अपने हाथ में दूसरों को फंसाने का फंदा लिए रहती है |कबीर ने इसको महामाया कहते हुए लिखा --------माया महा ठगिनी हम जानी , तिरगुन फांस लिए कर डोलै,बोलै मधुरी बानी |कौन है जो नारद -मोह की तरह पूंजी-मोह से ग्रस्त नहीं हुआ |पैसे की जरूरत सभी को बराबर होती है मगर जब उस पर कुछ ही लोग अपना अधिकार जमा लेते हैं तो दूसरों को अभावों की पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है |इसलिए इस पर अंकुश लगाने की जरूरत होती है |आवारा पूंजी का काम तो दूसरों को ठगने का ही रहता है |जो इस समय पूरे विश्व में धडल्ले से चल रहा है |बहरहाल यह देश भी आवारा पूंजी का कारोबारी देश है |लेकिन इन्होने थोड़ी सी लगाम लगा राखी है |श्रम के पूंजीवादी कानूनों का पालन करते हुए यहाँ के श्रमिकों को वैसी यातनाओं से नहीं गुजरना पड़ता ,जैसा हमारे देशों में जहां श्रम की सप्लाई अधिक होने से सौदेबाजी करने के ज्यादा से ज्यादा अवसर बने रहते हैं |दुनिया में सबसे सस्ता श्रम शायद हमारे यहाँ ही बिकता है |

Tuesday 16 October 2012

प्रिय भाई पुनेठा जी ,अजय तिवारी का लेख उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद |लेख ठीक है ,विश्लेषण सही है |किन्तु लोक के बारे में पहले से बनी अवधारणा को ही प्रस्तुत किया गया है |यह सही है कि कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लोक के नाम पर भावुकता को परोसते हैं |वैसे भावुकता के बिना साहित्य ,साहित्य नहीं रह पाता लेकिन यदि भावुकता अपने समय के यथार्थ को व्यक्त न करके केवल लोक जी वन के भावुक पक्षों का ही बयान करती है तो वह अपने समय से आँख चुराने वाली मानी जायगी |शायद यही सन्दर्भ वे व्यक्त करना चाहते हैं |आप देखें कि तिवारी जी ने "आत्यंतिक "विशेषण लगाया है |जो बतलाता है कि एक सीमा तक वे इसे स्वीकार भी करते हैं |दरअसल दिक्कत यहाँ भी उन जीवनानुभवों की है , जो लोक से जुड़े हुए हैं |शहरी जीवन बिताते हुए ये बस इतना ही देख और समझ पाते हैं |लोक को अपना आलोचक अपने भीतर से पैदा करना होगा |मध्यवर्गीय सीमित सरोकारों से जुड़े लेखक लोक का शायद ही समर्थन करें |लोक एक अलग तरह की दृष्टि की मांग करता है |पता नहीं नागार्जुन , त्रिलोचन , केदार जी की प्रशंसा करने वाले ये लेखक उनके लोक को किस तरह देखते हैं ?बहरहाल ,लोक की विशेषताओं का उदघाटन करने के लिए लोक के बीच का आलोचक पैदा करना होगा |उसकी पहले ये लोग उपेक्षा करेंगे , बाद में स्वीकार भी करेंगे |प्रसन्न होंगे | जीवन सिंह

Thursday 11 October 2012

आदरणीय भाई ,आगे इस सम्बन्ध में जो प्रगति हो उससे अवगत कराना |कामेश्वर जी आपके निर्देशन में गाडी को खींच सकते हैं |सुविधा की बात यह भी तो है कि वे जयपुर की जयपुर में हैं और अब सेवा-मुक्त भी हो गए हैं |घर के दायित्व भी शायद सीमित हैं |बेटे की नौकरी से प्रसन्न हैं | उनकी इच्छा भी है |सामग्री आपको जुटानी होगी और सम्पादकीय पहले की तरह लिखते रहना होगा |बाद में कामेश्वर जी अनुभवी हो जायेंगे तब वे और दायित्त्व बटा लेंगे |भाभी जी को प्रणाम |आपका -------जीवन सिंह

Wednesday 10 October 2012

आदरणीय भाई ,रमाकांत जी को न कहने में बड़ा जोर आयगा |उन्होंने जिस वृक्ष के मधुर फलों का अमृत- आस्वादन कर लिया है उस वृक्ष की छाया को वे आसानी से कैसे छोड़ेंगे |कृति-ओर के सम्पादन ने उनकी ख्याति को जैसे पंख लगा दिए , यह बात वे अच्छी तरह से जानते हैं |इससे पहले राजस्थान से बाहर कितने लोग जानते थे ? मुझे भी लगता है वे अवसाद से अब जल्दी उबर जायेंगे काफी समय हो चुका है |थोड़ा इंतज़ार और कर लीजिये |एकाध बार स्वास्थ्य के बहाने पूछ भी लीजिये |संभव हो तो ,कामेश्वर जी को भेज भी दीजिये ,किन्तु तभी जब उनकी तरफ से कोई संकेत मिले अन्यथा कामेश्वर जी को अच्छा नहीं लगेगा |बहरहाल ,कोई रास्ता अवश्य निकलेगा |अब पूंजीवादी व्यवस्था के साहित्य-संस्थान केवल पूंजी के चाकर बन कर रह गए हैं ,उनकी अध्यक्षता करना भी पूंजी की हाजिरी बजाना ही है |आपने वेद व्यास को मना कर दिया ,अच्छा किया |पूंजी की प्रगतिशीलता का मानवीय चेहरा अब साम्राज्यवाद ने क्षत-विक्षत कर दिया है |लेकिन राजस्थान में दोनों तरफ से मरना है |साम्प्रदायिकता का प्रेत भी तो पीछा नहीं छोड़ता |इसका लाभ पूंजी के ठगों को मिलता रहा है |ह्यूगो शावेज की चौथी बार अमरीका की नाक के नीचे जीत उत्साह्दायी है |पृथ्वी कभी वीर-विहीन नहीं होती |इस योद्धा को सलाम |भाभी जी को प्रणाम |आदर सहित ------आपका ------जीवन सिंह

Monday 8 October 2012

आदरणीय भाई ,आपने जो प्रक्रिया लिखी है ,वह मुझे भी सही लगती है |पहले रमाकांत जी ,फिर त्रिपाठी जी |त्रिपाठी जी से अकेले गाडी नहीं चल पायगी ,लेकिन जयपुर में रहते हुए आपका बहुत बड़ा सहयोग रहेगा |वह सहयोग होगा रचनाएं आमंत्रित करने और मंगाने का |लोग रचनाएं आपको देंगे ,त्रिपाठी जी को नहीं |रमाकांत जी को भी आपकी वजह से ही देते थे ,अन्यथा उनके पास तो मृदुल जी वाली पत्रिका थी ही |किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह कमाई आपकी नहीं है |कृति ओर ---को आपने रोपा है और अपनी दृष्टि से चलाया है और इसके लिए कितनों से नाराजगी मोल ली है |बाकी भाग-दौड़ का सारा काम त्रिपाठी जी कर लेंगे |फिर जब उनका नाम जायगा तो जिम्मेदारी महसूस होगी और वे इसके साथ मन से जुड़ जायेंगे |जिम्मेदारी का भाव व्यक्ति को अपने कर्म के प्रति गंभीर बनाता है |फिर जनवाद और जनवादी साहित्य में उनकी आस्था इससे और सुदृढ़ होगी |वे लोगों को भी समझते हैं |आपका रोज का साथ रहेगा |संवाद से रास्ता निकलेगा |मुझे विश्वास है |वे जयपुर जब आ जायेंगे तब उनके नाम ही एक मेल लिखूंगा |भाभी जी को प्रणाम | आपका -----जीवन सिंह
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आदरणीय भाई ,
बात दरअसल यही है कि अभी तक कोई विश्वसनीय टीम नहीं बन पाई है |यदि ऐसा हुआ होता तो आज यह संकट उपस्थित नहीं हुआ होता |आपने कोशिश भी लगातार की हैं कि टीम बने ,किन्तु व्यक्ति की स्वार्थपरता,महत्त्वाकांक्षा और बिना मेहनत किये जोड़-तोड़ से जल्दी सब कुछ पा लेने ,की प्रवृति ने व्यक्ति को व्यक्ति ही रहने दिया ,|वैसे तो जयपुर में क्या नहीं है किन्तु मन का न हो तो क्या है ?जलेस-प्रलेसों के कलेश ज्यादा है , राहत की बात कोई नहीं |हम प्रलेस छोड़कर जलेस में आये लेकिन क्या हुआ ?|सभी जगह व्यक्ति ही व्यक्ति मिले ,कहीं संघ-समुदाय नहीं मिला |सब अनुयायी चाहने वाले हैं ,कामरेड ,साथी या सच्चा दोस्त नहीं | बहरहाल, कामेश्वर जी ने मुझसे भी लम्बी बातें की थी |'कृति ओर ' को लेकर और आपकी साहित्य -निष्ठा के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान है |वे अब पूरी तरह मुक्त भी हो गए होंगे ,इसलिए पूरा सहयोग कर सकते हैं |कृति-ओर जयपुर रहे ,यह सुविधाजनक रहेगा और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सुकर भी |बस कामेश्वर जी से सारा दायित्व संभाल लेने की मंशा को पक्का कर लिया जाय |वे उत्साही हैं ,इच्छा भी है और विश्वसनीय भी हैं ,साहित्य के मामले में साईवाल से ज्यादा समझते हैं ,| वे आपके पूरावक्ती सहयोगी हो सकते हैं जो आपको प्रूफ इत्यादि देखने और पूरे प्रबंधन से मुक्त रख सकें |इससे पहले रमाकांत जी अवसाद से उबरकर सक्रिय हो जाएँ तो कहना ही क्या है | सोचेंगे तो राह भी निकलेगी |आदर सहित -----आपका ----जीवन सिंह

Sunday 7 October 2012

आदरणीय भाई ,
आपके मेल में व्यक्त आपकी पीड़ा को जान सकता हूँ कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में एक रास्ता बनाया हो और वह रास्ता एक बिंदु पर जाकर बंद हो जाए तो उस समय जो अहसास होगा ,उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है ,लेकिन मैं ये नहीं चाहता कि कोई काम शुरू करके बीच में छोड़ दिया जाय ,इससे अच्छा है कि उस रास्ते चला ही न जाय |अलंकार के बच्चे की वजह से अब कुछ समय तक लगातार व्यवधान आने की आशंका बनी हुई है अन्यथा इस समय हमको यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं थी |वह अब भी बार-बार अवधि को आगे बढवाने की कह रहा है |यदि इस समय चले भी जायेंगे तो फिर कुछ समय बाद यहाँ आने की कह रहा है |हमने भी ऐसा कभी नहीं सोचा था |आप जानते हैं कि लोग तो ऐसे जमे-जमाये सम्पादन की तलाश में रहते हैं |लेकिन मैं अपनी परिस्थिति को खुद जानता हूँ |इसलिए मैंने सब कुछ आपको पहले ही लिख दिया |सम्पादन नियमितता चाहता है समय की पूरी पाबंदी |अनियतकालिक पत्रिका तो है नहीं कि जब चाहो तब निकाल लो |भाभी जी को प्रणाम |आदर सहित -------आपका -----जीवन सिंह

Friday 5 October 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |अपनी जगह तो अपनी ही होती है |गाय भी अपने खूंटे को आसानी से कहाँ भूलती है |सूर ने कहा भी है ----"-मेरो मन अनत कहाँ सचु पावै |जैसे उडि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै ||"महिलाओं की जड़ चूल्हे में होती है | आवास को उनकी भावनाएं ही 'घर' का रूप देती हैं |हमारा मन भी यहाँ से आने को बीच-बीच में तुडाता है , किन्तु विवशता की वजह से मन को नियंत्रित करना पड़ता है |अलंकार को उसके बच्चे की वजह से हमारी जरूरत है |यहाँ सहयोगी तो मिलते नहीं ,घर के लोग सस्ते भी पड़ते हैं और विश्वसनीय भी |वह हमारी वीजा अवधि को और बढवाने की कह रहा है |आगे भी यहाँ अभी और आना जाना पड़ सकता है |इस वजह से 'कृति-ओर'का दायित्व निभा पाना आसान नहीं होगा ,यद्यपि मैं जानता हूँ कि यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है |वह भी ऐसे समय में जब चारों ओर विचारधारा को दरकिनार किया जा रहा है और लोक की घनघोर उपेक्षा या उसके प्रति कुलीनता वादी रवैया |अच्छा यही रहेगा कि रमाकांत जी अवसादमुक्त होकर इसे करते रहें |उनका मन भी उत्साहित रहता है |कृति-ओर ' का संपादन करते हुए वे अवसादमुक्त रह सकते हैं |आपको यह विश्वास दिला सकता हूँ कि आगे भी मेरा पूरा सहयोग रहेगा |
आनंद प्रकाश जी की मुक्तिबोध पर आई किताब की खबर से चित्त विस्तार हुआ |हिंदी में आती तो क्या बात थी ? ज्ञानरंजन जी को लगा होगा कि शून्य में समय को उनकी जरूरत है | बाकी सब ठीक है |भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें | आपका ------जीवन सिंह

Thursday 4 October 2012

प्रिय नूर भाई ,सलाम मेवात में लगातार निखार आ रहा है |तायल साहब और आप सभी की मेहनत रंग ला रही है |संस्कृति को ----मेवात की संस्कृति को काफी जगह दे रहे हैं आप |जबकि समय कुछ इतना चालू है कि संस्कृति के नाम पर केवल नाच-गाना परोस कर बतला दिया जाता है कि संस्कृति इसी को कहते हैं |संस्कृति में भाव और विचार भी अपनी जगह रखते हैं ,इस बात को अब कितने से लोग मानते और समझते हैं |आवारा पूंजी ने सब कुछ गुड-गोबर कर दिया है |कबीर ने इसी लिए माया को महाठगिनी कहा था |आज तो दुनिया पर यही ठगिनी राज कर रही है |इसमें हमारा किसान-मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा पिसता है |मेहनतकश की सबसे ज्यादा मौत है |मेवाती किसान की मौजूदा जिन्दगी का सही सर्वे करा कर देखा जाय तो बड़े भयावह परिणाम सामने आयेंगे | 'हुक्का पे '---स्तम्भ ठेठ मेवाती के मुहावरे में अपना असर अवश्य बना रहा होगा |इससे लोग अपनी आत्मा को पहचानेगे |इस बोली की अपनी अनूठी ठसक है |बेबाकी से कोई अपनी बात कहने की कला सीखना चाहता है तो कोई मेवाती से सीखे |सिद्दीक भाई को मेरी बधाई जरूर दें |यह व्यक्ति के मन का सतम्भ है |एक जमाने में हुक्का सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा है जो ग्रामीण जीवन में आज भी बचा हुआ है और सामूहिकता को बचाए हुए है |शिक्षा और समाज के बीच के ढीले पड़ते हुए और बेहद व्यावसायिक होते जा रहे रिश्ते को 'सलाम मेवात ' और अधिक तार्किक एवं मानवता की पक्षधर दिशा में ले जाये ,---ऐसी कामना करता हूँ |आपकी पूरी टीम को मुबारकबाद | स्वस्थ -प्रसन्न होंगे | --------जीवन सिंह मानवी ,फिलहाल सिडनी , आस्ट्रेलिया