Wednesday 14 May 2014

सकारात्मकता जब तक
 ईमानदारी और त्याग के पांवों पर
चलती है ,एक हवा बनी रहती है
किन्तु जब बेईमान आँधियाँ
उसकी जगह लेने लगती  हैं
तो सकारात्मकता लंगड़ी हो जाती है
उसकी जगह  पर भेड़िये ,सियार
वैसे ही आ  जाते हैं 
जैसे जंगल में
 छोड़ी हुई शिकार को
खाने के लिए आ जाते हैं।

Tuesday 13 May 2014

आज बुद्ध पूर्णिमा है। महात्मा बुद्ध जैसी महान हस्ती का जन्म दिन ,जिनको हमारे यहां के  पहले  समाज शास्त्री होने का गौरव  हासिल है।जो व्यक्ति को उसके मजहब , जाति  ,लिंग और औहदे से न देख कर केवल इंसान के रूप में देखते हैं। हजारों साल पहले  जीवनानुभवों से जितना उन्होंने सीखा उतना शायद ही किसी अन्य  व्यक्तित्त्व  ने सीखा हो। बुद्ध का महत्त्व आज भी इस रूप में है कि वे व्यक्ति को अपना पिछलगुआ नहीं बनाते। वे कहते हैं कि अपने दीपक आप बनो।  विवेकानंद उनके दर्शन से पूरी तरह सहमत नहीं थे फिर भी उन्होंने माना कि बुद्ध ही एक व्यक्ति थे ,जो पूर्णतया तथा यथार्थ में निष्काम कहे जा सकते हैं। वे मानते थे कि ---अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्न से होगी। अन्य कोई इसमें तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता। स्वयं अपनी मुक्ति प्राप्त करो। जबकि दूसरे महापुरुष अपने पीछे चलने की सलाह देते हैं।  वे मानते थे कि चीजें परिवर्तित  होती हैं।
 जो  लोग  दूसरों की  तरफ देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं ,वे अपने हक़ की लड़ाई भी याचना भाव से लड़ते देखे  जाते हैं।  मेरी माँ अक्सर एक कहावत कहती थी  ----आस बिरानी जो करै , जीवत  ही मर जाय। दूसरे  की आशा मत करो , . दूसरे  की आशा करोगे तो उसका गुलाम बनकर रहने को अभिशप्त होना पडेगा।     

Friday 9 May 2014

मैंने इस बहस को आज सुबह  २३ घंटे बाद पढ़ा। मैं इस पर चुप ही रहता ,किन्तु इसमें मेरा  नाम होने की वजह से मुझे  अपना पक्ष रखना जरूरी लग रहा है। मैं यहां बतला  दूँ कि इन कवियों पर 'पुनर्परीक्षण ' स्तम्भ के अंतर्गत एक श्रृंखला के रूप में --कृति ओर ---पत्रिका के पांच अंकों में विस्तार से  मैंने तब  लिखा था , जब विजेंद्र जी के हाथ में इस पत्रिका का पूर्ण सम्पादन था ,तब भी  यह इनकी कविता का पुनर्मूल्यांकन था , जिसमें इनकी सीमाओं का विशेष उल्लेख था। तब भी , जहां तक मुझे याद आ रहा है , इनको क्षद्म कवि जैसी संज्ञा प्रदान नहीं की गयी थी।  मैं इनकी कविताओं की सबसे बड़ी सीमा इनकी अंतर्वस्तु का विस्तार  न हो पाना मानता हूँ। जिसकी वजह इनके जीवनानुभवों का मध्यवर्ग तक सिकुड़ कर रह जाना है। ये जीवन का आलोचना धर्म तो निभाते हैं ,किन्तु उस अवस्था तक नहीं पहुँच पाते , जहां काल्पनिक ही सही , समता के  मुक्त भाव का साहचर्य पाठक को मिलता है।  क्षद्म कवि तो कवि होता ही नहीं। चूंकि ये कवि ,युवा वर्ग के आदर्श के रूप में पेश किये जाते  रहे  हैं  ,और मुक्तिबोध की कविता के बड़े प्रयोजन तक  को अनदेखा किया जा रहा था ,इसलिए भी यह उपक्रम जरूरी  आलोचना धर्म मानकर किया गया था।इसके अलावा नागार्जुन , केदार, त्रिलोचन की कविता की बड़ी जमीन  और उसकी परम्परा को  आँख ओट करने की रणनीति की आहटें आने लगी थी।चूंकि समाज में वर्ग विभाजन तेजी से बढ़ा है ,इस वजह से कविता का स्वरुप भी बदल रहा है।इसमें क्षद्म और असली की टक्कर  न होकर वर्गीय सीमाओं में संघर्ष की जो स्थितियां बनती  हैं , बहस उन पर होनी चाहिए।  इन आलोचनाओं की वजह से कई जगह मुझे ध्वंसकारी आलोचक के खिताब से भी नवाजा गया।  यह दरअसल तब भी होता है , जब हम प्रवृत्तियों को दरकिनार कर कुछ व्यक्तियों के  नामों से ही अपना काम निकलने लगते हैं।  हमारी बातें कविता से पुष्ट हों तो बात ज्यादा साफ़ और प्रामाणिक होगी। तात्कालिक  सरलीकृत सूत्र उत्तेजना तो पैदा कर सकते हैं ,कहीं पहुंचा नहीं सकते।

Wednesday 7 May 2014

व्यापार की
एक ही नैतिकता होती है
सिर्फ व्यापार
व्यापार और केवल व्यापार
इसकी पहली शर्त है ---
धोखा , झूठ ,फरेब के
विभ्रमकारी
पहाड़ खड़े करना

व्यापारी जब
राजसत्ता से गलबहियां
लेने लगता है
और उससे  अपना नाता
दाम्पत्य में बदल लेता है
तो समझो बेड़ा  गर्क है
यही फर्क है
जब व्यापारी
जंगल का शिकारी बन जाता है
वह सबसे पहले
 आदमियत का चोला उतारता है
और खरगोशों का शिकार कर
स्वयं को धनुर्धर घोषित करा लेता है
वह गुण ,ज्ञान और जोग की खेप लादकर
ब्रज में प्रवेश करता है
अब यह गोपियों पर है कि
वे उसे कितना समझती हैं।

Tuesday 6 May 2014

भानगढ़ अलवर जिले का एक सीमान्त ,किन्तु किंवदंतियों का एक ऐसा भग्न स्थल है ,जहां पहुँच कर इतिहास का एक ऐसा पृष्ठ आँखों के सामने होता है ,जो कभी अंधविश्वासों और सत्ता संघर्ष की भेंट चढ़ गया। यह आमेर नरेश और अकबर के सेनापति मान सिंह के छोटे भाई माधो सिंह की अपनी जागीर में बना हुआ था ,जो किसी  तांत्रिक सेवड़े की हरकतों से अंधविश्वासों की बलि चढ़ गया।  इस समय पुरातत्त्व विभाग इसकी देखरेख करता है और यह अलवर के पर्यटन स्थलों में से एक है। पहले यह आमेर और जयपुर का हिस्सा रहा ,बाद में जब अठारहवीं सदी  के अंत में एक नयी रियासत  अलवर बना ,तो यह उसके हिस्से में आया , या कहें प्रताप सिंह ने इसकी सीमा तक अलवर राज्य बना लिया।
शून्य सबको धारण करता है
इसलिए शून्य कभी रहा नहीं करता
जब हवा ज्यादा गर्म होती है तो
ऊपर उठ जाती है
उसकी जगह को उससे
ठंडी हवा घेर लेती है
इससे विक्षोभ पैदा होता है
 प्रकृति का यह नियम
एक व्यवस्था बनाता है
फिर भले ही वह
अव्यवस्था क्यों न हो

लेकिन दूसरा सच यह भी है कि
 ज्ञान और अनुभव
जब बरगद के पेड़ की जटाओं की  तरह
एकीभूत हो जाते हैं
तो आँधियाँ भी
अपना रास्ता बदल लेती हैं।
रचनाकार एक सीमित व्यक्तित्त्व लेकर जन्मता है , किन्तु वह अपने जीवनानुभवों का निरंतर विस्तार करता है ,जो उसका आत्म विस्तार कहलाता है।  उसकी रचना ही यह बता देती है कि रचनाकार के व्यक्ति का घेरा कितना बड़ा है।  जो रचनाकार आत्मविस्तार नहीं कर पाते ,वे रचना को भी बड़ी नहीं बना पाते। एक जगह कदम ताल करते रहने से मंजिल पूरी नहीं हुआ करती , स्वास्थ्य जरूर अच्छा रह सकता है।

Monday 5 May 2014

विकास वन- प्रांतर
 उजाड़ कर
हो सकता है
नदियों को प्रदूषित कर
विकास की गंगा
बहाई जा सकती है
पहाड़ों के बांकपन और
उदात्त उत्तुंगता  को
मैदान में खदेड़ कर
विकास की  पटरी
बिछाई जा सकती है
वैसे ही जैसे श्रम-शक्ति
और भू-सम्पदा  को
उपनिवेश बनाकर
यूरोप ने अपने यहां
विकास का समुद्र बना लिया था
इतिहास की कोठरी में
वह भूत बैठा है
 देर से ही सही
लगता है धीरे धीरे यह बात
समझ में आ रही है

अन्धेरा पहले से बढ़ा है
क्यों कि बाज़ार का भाव
तेजी  से चढ़ा है
जब जब बाज़ार भाव बढ़ता है 
तब तब अन्धेरा
आसमान  चढ़ता है 

बाजार की रोशनी
बहुत बड़ा धोखा है
यह रोशनी की कांख में
अन्धकार छिपा कर लाता  है
और उसे विकास बतलाता है 
इसने न जाने दूसरों का
 कितना रक्त पिया  है
कितना सोखा है
इंसानियत के रथ को
इसने ही रोका है

बाज़ार अब
 तख्ते ताऊस पर बैठना चाहता है
इसे पता नहीं कि
दिल्ली अभी दूर है
यह नहीं जानता 
 दीवाने ख़ास गुलाम हो सकता है 
   दीवाने आम नहीं। 




जिम्मेदार वे ही नहीं होते
जो बने बनाये रास्ते पर
कब्जा करके
उसका विस्तार करते हैं
वे भी होते  हैं
जो रास्ता बनाते नहीं सोचते
कि इस पर कभी
चोर,उचक्के ,मवाली
धोखेबाज ,तानाशाह
और हत्यारे भी चल सकते हैं

जिम्मेदार वे भी होते हैं
जो पहले विष बीज बोते हैं
और फसल आने के समय
रोने लगते हैं।
अवकाश कितना जरूरी है स्वास्थ्य के लिए। काश ,यह  दुनिया के सभी मेहनतकशों को भी सुलभ होता।आज कई दिनों के बाद फिर फेसबुक पर। अंतराल न हो तो जीना दूभर हो जाए। रविवार न हो तो जानिये कि कैसी हो जाएगी यह दुनिया ?
इस बीच १ मई को मजदूर दिवस पर अपने नगर के श्रमिक संगठनों के साथ हिस्सेदारी की और ५ मई को युगपुरुष कार्ल मार्क्स के बारे में सोचता रहा कि किस तरह से कहाँ जा पहुंचा था यह महापुरुष। पुरुष नहीं पुरुष-श्रेष्ठ। आगे भी मानवता की राह इन्ही के चिंतन से बन पाएगी।
बनारस के महासंग्राम पर नज़र है , कौरव कितने ही तीसमारखां क्यों न हों ,जीत पांडवों की होगी , तभी सत्य पर विश्वास  बना रह सकेगा। बनारस का मतदाता समझदारी से काम लेगा ,इस पर पूरा भरोसा है।