Sunday 30 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं है |बदलाव इसे मैं केवल साम्राज्यवादी आवारा पूंजी की 'रणनीति 'में मानता हूँ जिससे एक जमाने में दुनिया का जो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से लड़ा करता था ,उसने आवारा पूंजी से हाथ मिलाकर विश्व स्तर पर राजनीति की प्राथमिकताओं को पूंजी के पक्ष में इतना कर दिया है कि किसान-मजदूरों और अन्य मेहनतकशों के समक्ष विश्व -स्तरीय प्रभावी नेतृत्व फिलहाल उभर नहीं पा रहा है |आज लेटिन अमरीका के देशों की श्रम-ताकतों में अवश्य सुगबुगाहट है |मैं इसका सबसे अहम् कारण जागरूक ,अवकाश -भोगी और उच्च वर्ग से दबे हुए (आत्म-सम्मान या आंतरिक पराधीनता के अर्थ में ) मध्य -वर्ग की निरंतर बढ़ती उदासीनता को मानता हूँ |क्या वजह है कि नरसिंह राव से लगाकर मनमोहन सिंह तक राजनीति का बलाघात 'निम्न वर्ग '(गरीब -मेहनतकश )से जी.डी.पी .ग्रोथ के नाम पर उच्च-अमीर वर्ग की तरफ हो गया है और इसे मध्य-वर्ग ने लगभग स्वीकृति दे दी है |इसी का असर है कि मध्य वर्ग की जिन्दगी जीने वाला कवि- समाज ऊपर की ओर ज्यादा देखने लगा है बजाय ,नीचे की ओर |आप जैसे कितने से कवि हैं जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देख कर रचना कर रहे हैं |बहरहाल ,चुनौतियां पहाड़ की तरह सामने हैं |संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है |बिना निराश हुए लगातार अपने ज़मीर को बचाते हुए चलते चले जाना है |अकेला पड़कर भी |पहले भी अनेक लोग ऐसे चले हैं |स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे |आदर सहित ----आपका ------जीवन सिंह

Saturday 29 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |दरअसल चीजों का तेजी से बदलने का मेरा यह सन्दर्भ नहीं है कि वे मानवीय अर्थों ,अभिप्रायों और व्यवहार की दिशा में बदल रही हैं |यदि ऐसा होता तो हमारे लिए किसी तरह की संवाद की आवश्यकता ही क्या थी ? फिर तो इसके पक्ष में हवा बनाने की ही जरूरत थी |मेरी इस बारे में सीधी सी समझ यह है कि वैश्वीकरण की नयी साम्राज्यवादी और आवारा पूंजी की गतिशीलता की तुलना में पहले की अपेक्षा श्रम की ताकतें डिफेंसिव स्थिति में आई हैं |तभी तो वर्तमान सरकार ने पिछले ४ वर्षों में तथाकथित उदारवादी व्यवस्था के पक्ष में बेधड़क जन-विरोधी निर्णय कर लिए हैं |यह एक तरह का बुरा बदलाव है कि बुरी ताकतों में मानवीय ताकतों का थोड़ा सा भी भय नहीं रहा है |मध्य -वर्ग को पहले जितना वेतन नहीं मिलता था ,उससे ज्यादा पेंशन मिल रही है |एक जमाने में ३० रुपये महगाई भत्ते के लिए कर्मचारी ६०-६०दिनो तक जेलों में बंद रहे |अब बिना मांगे हर जनवरी और जुलाई में दो बार एक निश्चित प्रतिशत में महगाई भत्ता मिल जाता है |इससे मध्य-वर्ग का निम्न और निम्न-मध्य वर्ग से संवेदनात्मक रिश्ता बहुत कमजोर हुआ है |मजदूर और किसानों के सामने आत्महत्या करना अपनी जिन्दगी से निजात पा लेने का एक उपाय इन्ही दिनों क्योकर बना ?|अन्यथा हमारे देश का किसान कितना ही अभावग्रस्त और भूखा क्यों न रह लिया हो ,उसने कभी आत्म हनन का रास्ता अख्त्यार नहीं किया |उसके बेटे सत्तावन की लड़ाई में वीरतापूर्वक अंग्रेजों से लडे ,फांसी के फंदों को गले लगाया ,लेकिन आम-हनन नहीं किया |ऐसी बड़ी कमजोरी शायद अवसादग्रस्त स्थिति में ही आती है जब व्यक्ति को लगता है कि अब उसका इस दुनिया में कोइ नहीं है |जब समाज के निचले वर्गीय संबंधो के बीच खाई गहरी होने लगती है |व्यक्ति केवल पूंजी को अपने जीवन का प्रयोजन बना लेता है |मैं तो अपने ही घर में देख रहा हूँ कि इन नए बच्चो को एक ही धुन है |इनका जीवन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सेवा करने के लिए ही जैसे बना है |मेरा मतलब इस बदलाव की ओर था ,जो मानवता के भविष्य की दृष्टि से चिंता में इसलिए आना चाहिए कि इस परिस्थिति से कैसे निबटा जाय क्योकि काव्य-रचना, जीवन-रचना से जुडा हुआ प्रश्न ही तो है |बहरहाल ,आपकी बातो से मेरे मन में ये विचार आये |आप सभी प्रसन्न होंगे |आदर सहित -----आपका ---जीवन सिंह

Thursday 27 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |आपने सही कहा है कि यह बहुपक्षीय लड़ाई है |वर्ग-शत्रुओं से तो है ही ,उन आस्तीन के साँपों से भी है जो बात तो सुधा की करते हैं ,लेकिन परिणाम देते हैं विष का | जो लोक को मानते हैं उनको भी और गहरे में उतरने की जरूरत है और यह तभी संभव है जब कि जीवनानुभवों को व्यापक बनाते रहा जाय तथा विचारधारा की रोशनी को तेज किया जाय |एक बार के प्राप्त अनुभवों से जिन्दगी भर काम नहीं चल सकता जब कि चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं |सोवियत संघ के विघटन और उत्तर-आधुनिकता के विमर्श प्रचार ने विचारधारा के काम में गहरी सेंध लगाई है |मध्यवर्गीय आकांक्षाओं ने इसमें पलीता लगाने तथा प्रलेस -जलेस के नेतृत्व की दिग्भ्रम स्थिति ने भटकाव पैदा किया है |बहरहाल, जो सच है ,वह तो है ही |ऐसी स्थितियों में भी जब यह सुनने को मिलता है कि राजेश्वर सक्सेना साहब ने छत्तीसगढ़ सरकार का दो लाख का पुरस्कार अपने जीवन- मूल्यों के चलते ठुकरा दिया ,तो हौसला आफजाई होती है कि पृथ्वी वीर-विहीन नहीं है |प्रसन्न होंगे |---आपका ----जीवन सिंह

Tuesday 25 September 2012

आदरणीय भाई ,आपका ई-पत्र | दरअसल यह बड़ी लड़ाई है ,जो साहित्य के साथ-साथ जीवन के मोर्चे पर भी है |कलावाद में आसानी ही यह होती है कि व्यक्ति जीवन के संघर्षों से बच जाता है |बुजुआ वर्ग के मुआफिक कलावाद ही पड़ता है |यह उसी की विश्व -दृष्टि की उपज है| विडम्बना यह है कि इसमें वे लोग भी फंस जाते हैं जो जनवादी विश्व -दृष्टि के पक्षधर बनते हैं |अपनी परम्परा से विच्छेद होना भी इसकी एक वजह है |ऐसा लग रहा है जैसे रमाकांत जी अभी पूरी तरह से उबर नहीं पाए हैं | अन्यथा आपके फोन का तो जवाब देते ही |आप भी जयपुर नवम्बर तक पहुचेंगे या इससे पहले |सभी प्रसन्न होंगे | आदर सहित ----आपका ---जीवन सिंह

Monday 24 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका इ-पत्र | सच तो यह है कि चरित्र का संकट हर युग में रहा है |लोग ताकत के पक्ष में बदलते देर नहीं लगाते |कमजोर की ताकत को तो मार्क्सवाद ही दिखाता है |लेकिन यह तभी हो पाता है जब कि गहरी संवेदनशीलता और मूल्य-भावना व्यक्ति के मन और व्यवहार दोनों में हो |किताबी संवेदनशीलता का इज़हार तो कविताओं में खूब दिखाई पड़ता है किन्तु वह गहराई में उतरने से डरता है |वहाँ गुमनामी का ख़तरा नज़र आता है या फिर उसे निराला जी की तरह 'विक्षिप्त 'घोषित किये जाने का अभिशाप झेलने के लिए तैयार रहना पड़ता है |मीठी -मीठी गप्प और कडवी-कडवी थू करने से तो यहाँ काम चलता नहीं |यहाँ तो हर घड़ी परीक्षा का है | देखा जाय तो दुनियादारी के लिहाज से तो इस रास्ते पर चलने वाले को कडवे और कषैले स्वादों के लिए ही तैयार रहना चाहिए |यह प्रेम का घर है खाला का घर नहीं | हम जैसे को तो हमारी धारा --जनवाद ---में ही तिरस्कार भाव से देखा आता है और केवल ध्वंस की आलोचना लिखने वाले के खाते में डाल दिया जाता है |जनवाद में भी हमारा जनवाद --लोक की तरफ झुका होने से 'मध्यवर्गीय जनवादियों को रास नहीं आता ,न भाषा,न शिल्प,न मुहावरा , न प्रतीक-बिम्ब -रूपक, |उनको सब गंवारू और पिछड़ा हुआ लगता है जैसे कुलीनों और सामंतों को लगता रहा है | जबतक लोग अभावग्रस्त रहते हैं या पद-हीन या उपेक्षित ,तब तक फिर भी जनवाद का झंडा उठाए दीखते हैं लेकिन जैसे ही बुर्जुआ सिस्टम में कुछ पा जाते हैं वैसे ही कविता और सिद्धांत दोनों को ही आँख दिखाने लगते हैं |भरोसे की कसौटी पर खरा उतरना बहुत मुश्किल होता है |चौराहा मिलते ही राह बदलने में संकोच तक नहीं करते |ऐसे माहौल में नामवर-परम्परा को आगे बने रहने का मौक़ा मिल जाता है | अभी एक जगह मैनेजर पाण्डेय ने लोक और जन की तुलना करते हुए लोक को अमूर्त के खाते में डाल कर इसको सरकारी शब्द बतलाया और इसके समक्ष जन की हिमायत की |यह उन्होंने जनतंत्र का सच पर भाषण देते हुए कहा |यह एक ब्लॉग में पढ़ा |बहरहाल , मैंने अपने मन की बातें कहीं हैं जो मैं इन दिनों सोचता रहता हूँ |सभी प्रसन्न होंगे ----आदर सहित ------आपका ----जीवन सिंह
पुनश्च ---मैंने 'पहली बार , में पढ़ लिया है |लीक से हट कर है |बहुत अच्छा लगा |

Sunday 23 September 2012

आदरणीय भाई ,आपका ई-पत्र|डाउनलोड की प्रक्रिया से निकालकर आलेखों को पढूंगा और उसके बाद आपको लिखूंगा |निस्संदेह ,प्रगतिशील और जनवादी धारा के लिए पुनर्जागरण की बड़ी आवश्यकता है |उत्तर-आधुनिकतावाद की नयी परिस्थितियों ने 'मध्य-वर्ग' की धन और यश की लिप्सा को बेकाबू सा कर दिया है |लोगों को मानवता का भविष्य इसके अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता |सभी कुछ का अंत कर देने की घोषणा एक जमाने के मार्क्सवादी रहे लोगों तक ने कर दी या फिर चुपचाप इनको सिर-माथे लगाकर यह मान लिया कि ज्यादा कुछ होने- जाने वाला नहीं है | कुछ लोगों ने वर्ग-विमर्श को त्याग कर ,दलित और स्त्री-विमर्श का सुरक्षित रास्ता निकाल लिया है जिसमें उच्च-मध्यवर्ग को भी जगह मिल जाती है | सत्ता से सम्बन्ध बने रहने के सारे सूत्र मध्य-वर्ग वैसे ही निकाल लेता है जैसे पानी नीचे बहने का |बहरहाल, संघर्ष के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं |
राजनीतिक पक्ष में में भी एक तरह का अवसरवाद ही नज़र आता है | अपनी जगह तो तब बनती जब हिंदी -क्षेत्रों में वामपंथ को रास्ता मिलता |इस जगह को धुर दक्षिणपंथ घेरे हुए है |कांग्रेस भी येन-केन प्रकारेण अपनी सत्ता को बरकरार रखने के रास्ते को ही अपना रास्ता मान चुकी है |इसलिए बड़ी जरूरत तो जन-जागरण की है |देश के मेहनतकश वर्ग की सैद्धांतिक एकजुटता की ----जातिवाद मुक्त किसान एकजुटता की |सबसे बड़ी बात है वर्ग-चेतना की |मध्य-वर्ग द्वारा डी-क्लास करने की ,व्यापक-स्तरीय संवेदनशीलता की |जिससे एक सही राजनीतिक विकल्प तैयार हो |
मैं पढ़ते हुए देख रहा हूँ कि यूरोप और अमरीकी समाजों के नए साहित्य और नयी धारणाओं से हमारा काम नहीं चल सकता |वह तो फिर हमारी मान्यताओं का उपनिवेशीकरण हो जाएगा |हमको हमारा रास्ता स्वयं ही बनाना होगा |हमारे पास एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है |हमारी अपनी देशज जमीन है |हमारा अपना ,परिवेश प्रकृति और सम्बन्ध-भावना है |नकलें ज्ञान -विज्ञान और शास्त्र के स्तर पर की जा सकती हैं |क़ानून -राजनीति,शासन-प्रशासन पराई भाषाओं में चलाया जा सकता है लेकिन साहित्य -संस्कृति ऐसे क्षेत्र हैं जहां किसी तरह का घालमेल नहीं चल सकता |आप वैचारिक मदद ले सकते हैं ,अपनी खिड़की खुली रखकर बाहर की हवाओं और प्रकाश को आने दे सकते हैं क्योंकि मानवता की लड़ाई पूरी दुनिया में चली है |मानवता के सन्दर्भ में कुछ सीखने को मिल जाय ,इतना सा उद्देश्य रहता है बस इस साहित्य को पढ़ते हुए |प्रसन्न होंगे |----आपका जीवन सिंह

Friday 21 September 2012

आदरणीय भाई , आपका आलेख मिला तो था लेकिन वह करप्ट हो जाने से पढने के लायक नहीं रहा |उसकी लिपि बदल गयी |निकाल कर देखा तो वह हाऊ-बिलाऊ बन गया |आपको अंगरेजी में सुविधा है तो उसी में लिखियेगा ,कोई बात नहीं |मुझे देवनागरी में दिक्कत नहीं है |अंगरेजी में मैं स्वयं को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता|इसलिए मैंने यह रास्ता अपनाया |आप अपनी सुविधा से लिखें |आपकी बातों को तो मैं समझ लेता ही हूँ |यहाँ पुस्तकालय में रोज दो घंटे जाता हूँ |शेक्सपीयर ,कीट्स ,जेन ऑस्टेन ,हार्डी, डिकेंस ,हेमिंग्वे और अंगरेजी भाषा पर नियमित पढ़ रहा हूँ और अपनी डायरी में भी लिख रहा हूँ |पौत्र अभिज्ञान को उसके शिशु घर में छोड़ने जाता हूँ |रेल का रास्ता है |कुछ दूरी पर सागर-तट है ,वहाँ चला जाता हूँ |प्रशांत महासागर का एक किनारा |आष्ट्रेलिया के ६०हज़ार वर्ष पुराने आदिवासियों पर भी यहाँ अंगरेजी में काफी साहित्य है ,जो हमारी परम्पराओं से बहुत मिलता-जुलता है |आश्त्रेलियन अंगरेजी में इन आदिवासी बोलियों के शब्दों को भी ले लिया है |यहाँ कई सब्बर्बों के नाम आदिवासी बोलियों पर हैं |यहाँ की वनस्पति , फूलों और बीहड़ों नदियों पर भी कई नाम हैं | बेहद प्रकृति-प्रेमी समाज है |सभी स्थान तरु -आच्छादित हैं |नदी-तटों को नेशनल पार्कों में बदल दिया है |आरम्भ में १८-वीं सदी के अंत में जो लोग यहाँ पहली बार आये थे ,उनमें कुछ लोग ऐसे भी थे जो चाहते थे कि कुछ संग्यावाची शब्दों को यहाँ की मूल भाषाओं में ही रखें |भाषा के विकास की दृष्टि से यह अद्भुत स्थान है , जहाँ दुनिया के हर कोने का नागरिक रहता है |यह मात्र २०० साल पुराना देश है ,लेकिन इनको अंगरेजी और लैटिन की लम्बी विरासत की समृद्धि प्राप्त है |रेसिज्म की भावना है तो सही लेकिन बहुत कम है |दूसरों को बर्दास्त करने वाले बहुमत में हैं |वैसे तो ये अंग्रेज हैं और अपने ज्ञान-विज्ञान -साहित्य पर पूरा गर्व करते हैं _ इनको यह भी अहसास है कि इनकी भाषा- संस्कृति का इस समय पूरी दुनिया में डंका बज रहा है |पुस्तकालयों में लोग खूब बैठते हैं |रेलों में भी पढ़ते हुए अपना समय बिताते हैं |बहरहाल ,लेखों की लिपि यदि बदल सके तो भेज दीजियेगा |भाभी जी से प्रणाम कहियेगा ,अन्य सभी को स्नेह |प्रसन्न होंगे |----------आपका ------जीवन सिंह

Thursday 20 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका हिंदी में मेल पाकर बहुत अच्छा लगा |मुझे भी यद्यपि यह विद्या बहुत अच्छी तरह नहीं आती पर काम चला लेता हूँ |आपका स्वागत है |तकनीक ने पत्र-लेखन की विधा को यह नया आयाम दे दिया है |न कागज बीच में न डाकिया , न चिट्ठी खोने का झंझट और न ही लंबा इंतज़ार |देश की सीमाओं का अतिक्रमण |अन्यथा सिडनी और फरीदाबाद कैसे इतने नज़दीक हो पाते |कभी पूरी वसुधा ऐसे ही एक हो जायेगी |देश ,प्रान्तों की जगह ले लेंगे |विश्व की कोई एक केन्द्रीय सरकार होगी |समाजवाद का सपना ऐसे ही पूरा होगा |------भाभी जी को प्रणाम कहिएगा ,एनी सभी को प्यार |-----आपका ------जीवन सिंह

Wednesday 19 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-मेल |मैंने दरअसल जो बात उठाई थी वह आलोचना के प्रसंग में थी |आलोचना -लेखन में आचरण-पतित होने का ख़तरा ज्यादा रहता है |यद्यपि यह ख़तरा आता कविता की तरफ से ही है |ख़राब कवितायेँ ख़राब आलोचना को जन्म देती हैं |जैसे एक कवि को व्यक्तित्व -साधना की जरूरत होती है वैसे ही आलोचक को भी |नामवर जी के साथ यही तो हुआ ,कि वे अपने रास्ते को छोड़ कर उसी रास्ते पर चल पड़े ,जिस पर अवसरवादी चलता है |ऐसा आलोचक ज्यादा नुकसान पहुँचाता है जिसकी छवि और कर्म में गंभीर फांक हो |नामवर जी को जब लगा कि कम्युनिस्ट आन्दोलन से कुछ ज्यादा बनने वाला नहीं है तो फिर 'राम ' को छोड़कर माया ही क्यों न बटोरी जाय |कम्युनिस्ट पार्टी से वे एम् .पी का चुनाव जब हार गए तो उनको अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा होगा कि ऐसे तो कहीं के भी नहीं रहेंगे |उस समय सत्ता से अंदरूनी सम्बन्ध बनाए रखने वाले कई कवि-साहित्यकार थे ही |और उधर नयी कविता ,नयी कहानी और नयी समीक्षा की हवा बह रही थी ,उसी के साथ हो लिए |नागार्जुन,केदार और त्रिलोचन के पास कविता तो थी ,पर सत्ता नहीं |सत्ता के नज़दीक थे रघुवीर सहाय ,श्रीकांत वर्मा आदि |एक रास्ता निकल आया ,आलोचना बुद्धि काम आयी |दूसरा कोई ऐसा था नहीं ,जो हवा बदल देता क्योंकि आलोचना- कर्म यदि ईमानदारी से किया जाय तो कम कठिन नहीं होता |कविता की अमूर्तन कला में बहुत कुछ छिपा रह जाता है |आलोचना में बात छिप नहीं सकती |नाक की सीध में चलना पड़ता है |रूपवादी आलोचना को भी कोई ख़तरा नहीं रहता |इसलिए ज्यादातर लोग कविता के रूप के बारे में आधी अधूरी बातें करके आलोचना-कर्म की इतिश्री कर देते हैं | आजकल तो ''लोक ' का भी एक रूपवादी नक्शा बना लिया गया है |कुछ कवियों के पास तो दोनों तरह का माल है जिसको जैसी जरूरत हो ,ले ले |बहरहाल ,चुनौती और संघर्ष के ये ही मोर्चे हैं ,जिन पर लम्बी लड़ाई चलने की संभावना है | प्रसन्न होंगे |घर में सभी को यथा-योग्य अभिवादन |-----------आपका ------जीवन सिंह
कलाकार चरण शर्मा की नाथद्वारा से मुम्बई तक की कलायात्रा से परिचित कराने के लिए धन्यवाद |इसमें श्री नाथ जी से महात्मा बुद्ध तक की उनकी यात्रा जैसे आसमान से धरती पर उतरने की यात्रा भी है |यह एक कलाकार के विकास और बदलाव को भी सूचित करती है |यह उनके भाव-वाद से यथार्थवाद की यात्रा भी है |नाथद्वारा के पास वाली नदी के पत्थर इस कला यात्रा की अपनी विशेषता कही जा सकती है |प्रसन्न होंगे |
आदरणीय भाई ,
आपकी विस्तृत ई -मेल पाकर खुशी हुई |आपने जो कहा है ,वह पूरी तरह सच है |मैं समझता हूँ इसका कारण वह मध्यवर्गीय चरित्र है जो एक ओर वामपंथी राजनीति को प्रभावित करता है तो दूसरी तरफ साहित्य,कला और संस्कृति को |मध्यवर्ग सब कुछ अपनी सुविधा से करना चाहता है |इसलिए बुर्जुआ तंत्र के जाल में फंस जाता है |आखिर जीवन ओर अस्तित्व की जो सुख -सुविधा बुर्जुआ तंत्र के साथ रहने पर मिलती हैं वह गरीबों की राजनीति के साथ रहने पर कैसे मिल सकती है |हमने देखा है कि आजादी मिलने से पहले जो कम्युनिस्ट कवि कहलाते और समझे जाते थे वे बाद में कैसी पलटी मार गए | कविता और आलोचना दोनों के भीतर ऐसा चारित्रिक गड़बड़झाला बहुत चलता है |नामवर जी और उनकी मंडली के साथ यही है | वामपंथ का रास्ता काँटों पर चलने वाला रास्ता है ,जिसमें भारी उपेक्षा सहनी पड़ती है और अटूट संघर्ष करना पड़ता है |रचनाकारों की पूरी की पूरी जमात है जो पुरस्कारों , सम्मानों और कैरियर-उत्थान के लिए इस धंधे में आती है | यशसे, अर्थकृते से आगे की सोचकर जो लिखेगा ,वही बड़े जीवन-संघर्ष के लिए तैयार होगा |सोवियत संघ के विघटन के बाद अवसरवाद की बाढ़ तेजी से आई ,जिसका प्रभाव आज सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है |आलोचना-लेखन में तो अवसरवाद की गुंजाइश ज्यादा रहती है |इस विधा में मिलावट की गुंजाइश इसे कैरियर का आधार बना लेने से और बढ़ जाती है |कितने ही उदाहरण हैं जब किसी बड़े अधिकारी की मिथ्या प्रशंसा करके लोगों ने ऊंचे-ऊंचे पद हथिया लिए हैं |आलोचना में व्यक्ति की चारण-वृत्ति को अवकाश ज्यादा रहता है |वह रचना पर आश्रित रहने से मूर्ख को ही विद्वान घोषित कर सकती है | खराब आलोचना का उदाहरण बने तो उसकी बला से |लेखक का जीवनतो सफल हो ही जाता है |लेकिन इसी में रास्ता निकलता है और देर से ही सही अच्छे -बुरे की पहचान होती ही है |आशा की कोई किरण यहीं है | प्रसन्न होंगे | अभिवादन सहित |
आपका -----जीवन सिंह

Wednesday 5 September 2012

अनीता जी वे उच्च शिक्षित तो हैं ,लेकिन उनकी शिक्षा ने उनको अभी उच्च 'मानव ' नहीं बनाया है .वे अफसर हो सकते हैं |एक बात और है कि इनके पास भी अनेक रास्तों से अतिरिक्त धन----बिना खून पसीना बहाए , |आता रहता है |जहाँ भी जिसके पास अतिरिक्त धन आयेगा उसका यही चरित्र बन जायेगा |हाँ कुछ जीवित और जागृत आत्मा वाले मनुष्य इससे आत्मसंघर्ष करते हुए इससे निजात पाने की कोशिश करते हैं |निम्न मध्यवर्ग अक्सर विचार-प्रक्रिया में इन बातों को समझ लेताहै तो वह अपने स्वभाव को मेहनतकश वर्ग के पक्ष में बदलने की कोशिश करता है वह अपनी आत्मा के घायल पक्षी का उपचार कर लेता है | |पूंजी की व्यवस्था में हरेक व्यक्ति अपने वर्ग-स्वभाव के अनुसार व्यवहार करता है |ऊंची शिक्षा तो ऊंचे पद पाने के लिए लेता है ताकि जिन्दगी भर अतिरिक्त धन के लिए इंतजाम हो जाए |आज मध्य वर्ग के पास भी अतिरिक्त धन के कई स्रोत बन गए हैं , जिससे उनकी आत्मा का प्रकाश ख़त्म हो जाता है और वे सदैव एक आत्म रिक्त जिन्दगी जीकर 'खुश'रहते हैं |उनको फिर किसी की परवाह नहीं रहती |वे उसी वर्ग का साथ देते हैं जो अतिरिक्त धन जुटाने में उनकी मदद करता है |
खरे जी की बातों में दम है और बात को कहने का सलीका उनको आता है ,| हाँ , यह सही है कि कई बार उनकी भाषा में रौद्र भाव कुछ ज्यादा आ जाता है |यह सच कहने का दबाव भी हो सकता है |यदि सच कहने में क्रोध न आए तो सच भोंतरा होकर अपना प्रभाव खो देता है |फिर बात को कहने की अपनी शैली भी होती है |यह उनको तो बुरा लगेगा ही जो कान्हा में कविता और रासलीला का समन्वय कर रहे थे |हम मुक्तिबोध का नाम खूब लेते हैं किन्तु उनसे कुछ सीखते नहीं |मुक्तिबोध ने एक ज़माने के वामपंथी माने जाने वाले लोगों में जब देश को आजादी मिलने के बाद अवसरवाद की बाढ़ आई तो तो वे अपने एक ज़माने के साथी मित्र कवियों के इस अवसरवादी व्यवहार के प्रति अपनी खिन्नता और क्षोभ लिख कर प्रकट किया | उन्होंने अपनी समीक्षाओं और कविताओं में "कवि -चरित्र " को लेकर खूब लिखा है | आज तो इसकी बाढ़ सी आई हुई है |वामपंथ केवल विचारधारा ही नहीं होता बल्कि वामपंथी चरित्र भी होता है |खरे जी ने भीतर तक जाकर उसका उदघाटन करके बहुत अच्छा किया है |अंतर्वस्तु और उसकी शैली तथा सच कहने के साहस के लिए उनको दाद दिए बिना मन नहीं रहता |

Monday 3 September 2012

इस बियाबान में --------
इस बियाबान में
मैंने देखा----
जंगली कुत्ते घेर खड़े हैं
धूल धूसरित
भूखा प्यासा फटेहाल
सच्चे मानव राहगीर को
दीप्यमान ईमान चन्द्र को
ग्रहण लगे ज्यों
मैंने देखे ------
खींच-खींच कर अंतड़ियों को
आत्मा की '
सेंक रहे --चूल्हे भट्टी में |
इस बियाबान में
काले नाग ,नागिने काली
फूत्कार से डरा डरा कर
डरे हुए स्वार्थी कीटों की
बड़ी जमातें जुडती जाती
सोपानों सी
नागों का विषदंत पुराना
खुश होकर अमृत दिवस मनाती
खुश करती नागों को
नाग सभ्यता बढ़ती जाती
वृक्ष विषैले उगते जाते
घुसते सांप पराये बिल में
चूहों की कमबख्ती आती
यही दिखाई देता
लिखा हुआ महलों दुर्गों में
इस निजाम में
रिश्ता लाठी भेंस का बनता
बड़ी बड़ी मछली छोटी को खाती
जंगल का सिद्धांत पुराना
अब भी चलता |


































खिली धूप में
कार सड़क पर
दौड़ी जाती है
पीं-पीं,पीं पीं
पीं पीं- पीं पीं
सभी जगह पर
करते करते
अपना रौब जमाती है |
खिली धूप में
खुली सड़क पर
बस भी आती है
पों पों पों पों
पों पों पों पों
करते करते
सभी जगह पर
अपना रौब दिखाती है
खिली धूप में
अपने पथ पर
रेल भी आती है
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
करते करते
अपनी खुशी जताती है |
खिली धूप में
वायुयान भी
आसमान में उड़ता है
जम जम जम जम
जम जम जम जम
करते करते
ऐंठ अकड़ता है |





































खिली धूप में
कार सड़क पर
दौड़ी जाती है
पीं-पीं,पीं पीं
पीं पीं- पीं पीं
सभी जगह पर
करते करते
अपना रौब जमाती है |
खिली धूप में
खुली सड़क पर
बस भी आती है
पों पों पों पों
पों पों पों पों
करते करते
सभी जगह पर
अपना रौब दिखाती है
खिली धूप में
अपने पथ पर
रेल भी आती है
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
करते करते
अपनी खुशी जताती है |
खिली धूप में
वायुयान भी
आसमान में उड़ता है
जम जम जम जम
जम जम जम जम
करते करते
ऐंठ अकड़ता है |