Thursday 28 February 2013

बोहरा जी ने सही सवाल उठाया है ।इसकी वजह लोक  शब्द का प्रयोग अनेक संदर्भी होना है ।जहां तक मैं समझ पाया हूँ , आज की कविता को जब हम लोक के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं तो उसका सन्दर्भ ----वर्गीय ----होता है ।जब से सरप्लस पैदा हुआ और समाज वर्गों में विभक्त हुआ तभी से हमारा सोच भी वर्गीय होता गया , जो होना जरूरी था ।इससे द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हुई ।दूसरे  , अभिजात और कुलीन लेखन से भिन्न लोकजीवन यानी किसान जीवन के स्तर पर लोक साहित्य की एक समानांतर धारा प्रवाहित होती रही , लोक उस अर्थ में भी रूढ़ हुआ ।इससे भिन्न लोक शब्द अपने अर्थ के साथ और जीवनानुभवों के रूप में शास्त्रीय परम्परा के प्रवाह रूप में चले आ रहे साहित्य को भी नया रूप देता रहा ।आज के समाज की वर्गीय संरचना को देखें तो स्पष्ट हो जायगा कि मौजूदा स्थितियों में --- लोक का सन्दर्भ ख़ास तौर से निम्न मेहनतकश वर्ग से है ।इस रूप में आज का लोक भक्तिकालीन लोक से अलग नया अर्थ रखता है ।इसे हम लोकतंत्र शब्द में प्रयुक्त लोक से भी समझ सकते हैं ।जहाँ यह लोक साहित्य से अलग हो जाता है ।निराला की परवर्ती कवितायें लोकानुभावों पर आधारित कवितायें ही तो हैं ।आज हिंदी कविता का सृजन करने वाले दो  वर्ग हैं ----मध्य और निम्नमध्य  ।निम्नमध्यवर्ग की अनुभूतियों में जहां देश के श्रमिक-किसान आते हैं वहाँ लोक की उपस्थिति रहती है ।चूंकि , आज भी हमारे देश में खेती और किसानी का बहुमत है , इस वजह से गाँव की बात कुछ ज्यादा आ जाये और उसके साथ प्रकृति आ जाय तो यह अनुभव को सहेज कर ही आता है , न कि किसी तरह के रूपवाद के तहत ।

Friday 15 February 2013

केशव तिवारी हमारे समय के उन कवियों में हैं जो बिना शोर मचाये व्यापक जीवनधर्मी कविता रचते रहने में विश्वास  करते हैं ।इसकी वजह है उनका निरंतर श्रमशील जीवन  और जीवित चरित्रों के बीच में संलग्न संवेदनशीलता के साथ रहना ।मैंने उनके साथ रहकर स्वयम देखा है कि वे कैसे एक मेहनतकश को अभावग्रस्तता में जिन्दगी गुजारते देखकर विचलित हो जाते हैं और उसके लिए वह सब करते हैं ,जिसे सामान्यतया लोग शब्द-सहानुभूति देकर विदा कर देते हैं ।उनकी एक कविता है छन्नू खान और उनकी सारंगी वादन कला पर , यह बांदा का एक जीवित चरित्र था ,जो केशव जी की जिन्दगी में उनके घर-परिवार का तरह शामिल था ।कहने का तात्पर्य यह है कि केशव कविता लिखते ही नहीं वरन उसे जीते भी हैं ।जो जीकर कविता लिखता है , वही कबीर ,तुलसी,सूर,मीरा ,निराला , मुक्तिबोध ,नागार्जुन,केदार  की काव्य-परम्परा को आगे ले जाने की क्षमता रखता है । वे केदार बाबू की काव्य-पाठशाला के सजग विद्यार्थी रहे हैं , यह हम सब जानते हैं ।जिन्होंने भी दुनिया में बड़ी रचना की है , उन्होंने अपने जीवन और कविता के सेतु को मिलाये रखा है ।केशव की कविताओं में मुझे उनके जीवन और कविता का एक मजबूत सेतु नज़र आता है , जो उनकी कविता को सामान्य और विशिष्ट की द्वन्द्वात्मकता में आज की कविता बनाता है ।उनकी एक खासियत और है --अपनी परम्परा से गहरा रिश्ता ।यह आज के बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है ।परम्परा भी कविता की नहीं , पूरे जीवन की ।उनकी रचना का आधार बहुत मजबूत है , जो उनको भविष्य के एक संभावनाशील कवि के रूप में स्थापित करता है ।।


 

Sunday 10 February 2013

खेतों पर कोहरा है

इस बार
गाँव खेड़े पर पंहुचा
तो देखा
कि इक्कीसवीं सदी  के
कुछ काले पीले फूल
इस आँगन में भी
खिलने लगे हैं
गौरैया गाना और
चहकना भूल गयी है
नीम ने सावन में
निबौरी के गीत
अनमने मन से गाये हैं
सर्दी के विरुद्ध
रहने वाले आग-अगिहाने
उसकी तारीफ़ के
पुल बाँध रहे हैं
ऐसा कभी सोचा न था
समय इस मुआफिक
निस्तेज होगा

सांस फूलती है
अलगाव के शिखर को देखकर
खेड़े की चावड के मढ़ पर
खून के छींटे हैं
भेरों के माथे का सिन्दूर
पिघल कर
मोरी में बह रहा है
और भोमिया का ठान
भटकटैया के झाड़ों से
भर गया है
जागरण में सुषुप्ति
के गीतों को
पसंद करने वालों में
इजाफा हो रहा है
आस्था के शहतूतों को
शाखामृग तोड़ कर खा रहे हैं
दलालों के बाज़ार
चौराहों पर सजे हैं
और खेतों पर कोहरा
फसलों की उठान को
सांड की तरह रौंद रहा है


खाप पंचायतों ने
यौवन की बजती प्रेम-बांसुरी
को उतार दिया मौत के घाट
एक कपोत युगल की तरह ,
एक पुरानी  सूखी नदी के
बीहड़ जिंदगियों को लीलते रहे
चूल्हा-चौका ,खेत-पनघट
और घूँघट की संस्कृति को उन्होंने
आले में सजा कर रखा
खबर से मालूम हुआ
कि एक दलित दूल्हे की बिन्दौरी
पुलिस के संरक्षण में निकल पाई
बिरादरी और शैतान के गठजोड़ ने
सत्ता की बंदरबांट में
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को
घुटनों पर दौडाया
उसके जीवन-स्रोत इन्ही बीहड़ों में हैं
चांदनी रात में अँधेरे के जाल
पकड़ पाना आसान नहीं
विकास के पैरोकारों ने
गाँव में सडती कीचड को अनदेखा किया
किसान के हाथों और माथे पर
पडी लकीरों
और स्त्री के ललाट पर पड़े
चोट के निशान को
उन्होंने किसान के भाग्य
और स्त्री-योनि से  जोड़कर
व्याख्याएं की
शिक्षा-तंत्र ने रोशनी से ज्यादा
अन्धेरा फैलाया
जिससे बगुलों के पक्ष में
राजनीतिक फैसले हुए
खेत फसल से ज्यादा
खरपतवार से भरे रहे

पर यह सब होने के बावजूद
आदमी पहाड़ों की छाती पर बैठकर
वायुयान की तरह उड़ता रहा
उसने सागरो -महासागरों पर
बिस्तर की तरह शयन किया
मैंने इन्ही खेतों की मेंड़ों के पास
खलिहानों में
मेवाती लोक-कवि
साद्ल्ला के ---पंडू न के कड़े ---सुने
मेवात की जमीन से
एक नए महाभारत को वाणी मिली
आत्महनन करने के बावजूद
किसान ने कभी पैदावार से
मुंह नहीं मोड़ा
भूमि-पुत्रों ने सीमा पर
दुश्मन के दांत खट्टे किये
खेतों पर पसरे कोहरे का मुकाबला
अपनी साँसों के ताप से किया
भूमि को चौसर बना
मानवता की फसलें उगाई