Tuesday 31 December 2013

नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना ।

खिलते फूलों -सी हर घर की बगिया हो ।
फागुन के आँगन -सा मन रंगरसिया हो । ।
एक अकेला ही ना हो,मालिक वैभव का ,
हर पेड़ जगत में , चन्दन -वन का बसिया हो । ।
सबको सब कुछ मिले, तभी कुछ जानना
नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना

सीढ़ीनुमा जिंदगी से सबका पीछा छूटे
बंधन और पाश की दुनिया से सबका नाता टूटे
सब स्वाधीन,  स्वतंत्र ,सभी के पूरे हों सपने
कोई एक कभी दुनिया को ,डाकू-सा बन ना लूटे
वह भी दिन आयेगा जब ,
ना हो जन की अवमानना ।
नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना
 नूतनता के आँगन में
धूप  की अठखेलियां हों
जैसे इन दिनों
खिल रहा गैंदा
गुलदाउदी
खिले जीवन
सभी का ।
जब मधुमास आये
और हाड कंपाती ठण्ड से
पीछा छूटे ।

जब सबको मिले
वैसा सुख जो अभी
मिलता है
कुछ सागरों -सरोवरों को ।
रेगिस्तान भी हो रससिक्त
खिले हों अनगिनत मरूद्यान
जीवन में । 
नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जल्द मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,नव पर नव स्वर दे ।
नव वर्ष २०१४ के लिए  महाप्राण निराला की उक्त काव्योक्तियों  के अनुरूप नवता की कामना के साथ ।

Wednesday 25 December 2013

 भाषा-माध्यम आदि के सम्बन्ध में अनेक तरह के विचार और तर्क-वितर्क  चलते रहते हैं । मेरी समझ में माध्यम जितने भी हैं , दुधारे का काम करते हैं । माध्यम  में मध्यस्थता रहती है जो किसी को जोड़ने का काम कर सकती है और तोड़ने का भी । जब तक सत्ता चरित्र वर्गीय है तब तक सत्ता -पतियों   के हाथों में  सत्ता-भाषा  की लगाम भी रहती है ।किसी भी माध्यम में 'मध्य' की भूमिका होती है । यही हाल मध्य वर्ग का भी रहता है ,वह सत्ताधीश उच्चवर्ग का सहायक भी हो सकता है और विरोधी भी ।इसलिए भाषा-माध्यम के बारे में कहा जा सकता है कि  भाषा को निर्मित करने वाले समाज की जैसी मानसिकता और कर्म होता है  , भाषा वही रूप ले लेती है  ।
घनघोर अंधेरी रात में,
जब न चांद होता है
न सूरज,
तब दिशा का पता
छोटे-छोटे
चमकते सितारे
देते हैं ।
खुशी की बात है कि  कविता,साहित्य , आलोचना और  कला  के कारकों में लोक-तत्त्व का विस्तार हो रहा है । यह  आज की कलात्मकता  का जरूरी हिस्सा है । यही  लोक-तत्त्व हमारे दैनिक जीवन - व्यवहार का  अंग जब बन जायगा तो मूल धारा की तरह बहने लगेगा । लोक तत्त्व कई जगह फैशन की तरह भी आता है ,जीवन में नहीं होता ।सादगी और साधारणता इसकी प्रकृति का निर्माण करते हैं ।  लोक-तत्त्व की जमीन  हमारे उस लोक-जीवन में है जो किसान-मजदूर की सहज जिंदगी के स्रोतों से उद्भूत होता है ।अब यह रोजगार के दबाव से अपनी जमीन से विस्थापित होकर शहरी रूप भी ले  रहा है ।यह सच है कि   पूरी दुनिया का सञ्चालन श्रम और उससे नाभिनाल-बद्ध शक्तियां ही करती हैं इस वजह से हर युग का बड़ा और कालबद्ध साहित्य इन श्रम -शक्तियों को अपना आधार बनाता है ।

Tuesday 24 December 2013

ईसा मसीह पड़ौसी से प्रेम करने का सन्देश लगातार देते रहे और उस पर आचरण करके प्रमाण भी प्रस्तुत करते रहे । उनके लिए पड़ौसी का मतलब था कि जो भी आपके आसपास  दुखी है उसके काम आना । दरिद्रता से बड़ा दुःख शायद ही कोई दूसरा हो । आज के युग की  विडम्बना है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से कॉर्पोरेट सेकटर को खुली छूट मिलती जा रही है ,जिससे गरीबी और अमीरी के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है । इस सबसे बड़े दुःख से लड़ने  और उसे दूर करने का जो रास्ता हो सकता है , वही ईसा के अनुसार पड़ौसी से प्रेम की श्रेणी में आ सकता है  ।आज उनका शुभ जन्म दिन है ,उनकी स्मृति को प्रणाम और मैरी क्रिसमस । 
नैतिकता का
शिरीष-वन
तभी महकता है
जब उसमें
आचरण के फूल
खिलते हैं ।
सादगी से अन्य सारे  मूल्य अपने आप आने लगते हैं ।महात्मा  बुद्ध,तीर्थंकर महावीर, प्रभु ईसा ,पैगम्बर मुहम्मद ,गुरु नानक ,महान चिंतक कार्ल  मार्क्स ,महात्मा गांधी आदि  ने अपनी सादगी से लोगों का दिल जीत लिया था । जो दिल नहीं जीत सकता वह सार्वजनिक जीवन में आम जन को धोखा देने के लिए और उसे ठगने के लिए आता है । सादगी में जीवन को सबसे कम खतरा रहता है ।जो सामंती तामझाम से लदा -फदा  रहता है वह जन-नेता कैसे हो सकता है ? 

Monday 23 December 2013

अब  यह तो नहीं कहा जा सकता  कि केजरीवाल मैदान छोड़कर भाग गया ।  केजरी के दोनों हाथों में लड्डू हैं । ऐसा तो पहले भी खूब हुआ है , जब अल्पमत सरकारें बनी हैं और गिरी हैं ।गिरना-उठना समुद्र की तरंगों की तरह चलता रहता है ।  यह प्रक्रिया कभी रुकी नहीं । इतिहास का  गति  -मार्ग अवरोधों को पार करता हुआ चलता है ।जो व्यक्ति अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में घिरा हो , किन्तु अश्वमेध के घोड़े की वल्गा जिसने पकड़ ली हो ,उसकी गति क्या हो सकती है , इसका अनुमान पहले से ही लगाया जा सकता है । आज के राजनीतिक  माहौल में जाति -मजहब से अलग दिखकर काम करना भी  नैतिकता की हल्की-सी गंध फैलाने जैसा है । 

Sunday 22 December 2013

क़ानून, समाज में परिवर्तन के लिए होता है और  वह एक दण्ड -नीति  की तरह काम करता है । उससे समाज की सामूहिक मानसिकता अपने आप नहीं बदलती ।उसे बदलने के लिए सामूहिक प्रयत्न करना पड़ता है ।  सख्त से सख्त क़ानून की गिरफ्त से ताकतवर लोग और वर्ग साफ़ बच निकलते हैं । इसलिए वर्ग-चेतना और संगठनबद्धता की जरूरत  रहती है ।
दिल्ली में आप---का रास्ता साफ़ होता दिख रहा है । संस्कृत में एक कहावत चलती है कि "  जहां पेड़ नहीं होते वहाँ एरण्ड (अंडोरा का पेड़) का पेड़ ही --पेड़ कहलाता है ।"एरण्डोपि द्रुमायते"--- "भूख में किवाड़ भी पापड़ हो जाते हैं । " इस आधार पर जैसा भी और जितने दिन का भी  विकल्प मिलता है तो लोग बेझिझक उसे ही स्वीकार कर लेते हैं ।कोई रास्ता भी तो नहीं । उसके  कसौटी पर खरा न उतरने पर जनता  उसे भी उल्टी पटकनी देती  हैं । फिर यदि जनता या जनमत  ही  असली ताकत  हैं तो यह काम भी जनमत ने ही तो किया है कि सर्वाधिक मत पाने वाली पार्टी को सरकार बनाने की हिम्मत नहीं है और एक अल्पमत जनादेश को सरकार बनाने के लिए कहा  जा रहा है ।विकल्पहीनता के जंगल से होकर विकल्प की पगडंडियां दिखाई देने लगती हैं बशर्ते कि राजनीतिक चेतना का चंद्रोदय होता रहे । फिर हम यह तो जानते ही हैं कि इस समय लगभग पूरी दुनिया बुर्जुआ लोकतंत्र की सीढ़ियों पर बैठी हुई है और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की गिरफ्त में है ।    

Friday 20 December 2013

ऐसा  प्रतीत होता है कि " आप" दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है और अल्पमत जनादेश का सम्मान करने जा रही है । तुरत-फुरत सरकार  न बनाने की  उनकी हिचक का सबसे बड़ा कारण , जो मुझे  लगता है ,वह  दिल्ली के मतदाता से किया "आप"  का  यह वायदा भी रहा   , कि 'वे अपने किसी भी विरोधी दल से न सहयोग लेंगे और न सहयोग करेंगे ।' जैसा भाजपा वाले आज उनको यह कहकर अपनी राह  बताने में लगे हुए हैं कि ये तो कांग्रेस से भीतर ही भीतर मिले  हुए थे । सक्रिय  और नैतिक दिखने और प्रतीत होने वाले का दोनों तरह से मरण होता है । अनैतिकता, व्यक्ति को कुछ भी करा सकती है । अवसरवाद , अनैतिकता की पहली सीढ़ी  होता  है ।इस अवसरवाद को वे अपनाना नहीं चाहते थे । इस वजह से  फिर से वे  मतदाता के पास गए ।उनके लिए यह नीतिगत प्रश्न था , कोई प्रशासनिक नियम नहीं । नियम और नीति में फर्क होता है ।  भविष्य अब जो भी होगा , देखा जायगा । पर इससे सत्ता की निरंकुश प्रवृत्ति को फिलहाल अंकुश लगा है ।अन्यथा  पुरानी  परिस्थितियों में भाजपा ही दिल्ली में सरकार बनाती ।नयी परिस्थिति  सापेक्षिक  नैतिकता की देन  है । यद्यपि बुर्जुआ  सिस्टम में  नैतिकता की आयु ज्यादा नहीं हुआ करती , किन्तु सुंदरता  कितनी भी अल्प और सीमित क्यों न  हो , आनददायिनी होती है । महान कवि तुलसी  कहते हैं ----जो अति आतप व्याकुल होई । तरुछाया सुख जानइ सोई । 
किसी नए दल की सांप-छछूदर जैसी गत बनाना ठीक नहीं । जुम्मे-जुम्मे जिसे कुछ  महीने  हुए हैं यदि वह फूंक-फूंक कर कदम रख रही है तो जल्दबाज़ी ठीक नहीं । जहां बहुमत से बहुत ज्यादा जनादेश प्राप्त हुआ है वहाँ भी मंत्रिमंडल बनाने में बारह दिन लग गए हैं । जहाँ स्पष्ट जनादेश नहीं है और समर्थन भी वह पार्टी कर रही  है , जिसके विरोध में सरेआम रहकर २८ सीटें हासिल की हैं , वहाँ अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसाना उचित नहीं कहा जा सकता । आलोचकों को सिर्फ आलोचना करने का काम रहता है , कुछ करना तो होता नहीं । जिसको करना होता है , वही जानता है । दूसरे , एक अनैतिक माहौल में सत्ता की जोड़-तोड़ जहां चलती आयी हो, वहाँ सावधानी बहुत जरूरी है । सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ।

Thursday 19 December 2013

कविता,कवि के अंतर्जगत का समयसिद्ध , भावबद्ध और  उदात्त  आख्यान है जो उसके  बहिर्जगत के द्वंद्वों व टकराहटों के बिना बहुत कमजोर और अपठनीय रहता है । कवि का अंतर्जगत उसके बहिर्जगत की जितनी व्यापकता में होगा,  उतना ही वह दीर्घजीवी और कालजयी  हो सकेगा ।
इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय अपनी गंगा तट की यात्रा पर हैं और अपने सभी तरह की यात्रा अनुभव लिख रहे हैं । इनमें एक अनुभव कानपुर की बीस अंगरेजी स्पॅलिंगों को लेकर है कि वे किस तरह काल के अनुसार समय समय पर बदलती रही । ऐसा केवल कानपुर के साथ ही नहीं है । औपनिवेशिक काल में सत्ताधारी अँगरेज़ शासकों ने अपने उच्चारण के अनुसार हमारे देश के स्थान और नामवाची  संज्ञाओं के साथ ऐसा ही सलूक किया । देहली को उन्होंने ही"डेल्ही" बनाया जो स्वाधीनता मिलने के बावजूद   सही नहीं हुआ है । कोलकाता , मुम्बई और चेन्नई सब अपनी भाषा की संज्ञाएं बन चुकी हैं , जो उन प्रदेशों की जनता की  जातीय चेतना की सूचक हैं ।  किन्तु हिंदी प्रदेश की" दिल्ली" के साथ ऐसा नहीं । इसी से लगता है कि हिंदी -प्रदेशों की जनता में अपनी भाषा के प्रति " जातीय चेतना " की कितनी कमी है ?हमारे अलवर के साथ भी ऐसा हुआ था । अंगरेजी सत्ता के अधीन जब अलवर एक देशी रियासत था , तब उसकी स्पैलिंग अंगरेजी के यू से शुरू होती थी , जिसकी वजह से दिल्ली दरबार में अंगरेजी के अकारादि क्रम  से अलवर के राजा जय सिंह की कुर्सी आखिर में लगती थी । इसको  उन्होंने  अपना अपमान समझ कर पहला काम यही किया कि अलवर की स्पेलिंग बदली और उसे अंगरेजी के ए से शुरू कराया और उनकी कुर्सी सबसे पहले लगने लगी । इतना ही नहीं उन्होंने १९०८ में ही अपने राज्य की राजभाषा अंगरेजी के स्थान पर हिंदी/उर्दू  को कर दिया तथा राजसेवकों को उसे सीखना लाजमी कर दिया । जनता तो हिंदी और उसकी बोलियों में बोलती ही थी । 
 

Wednesday 18 December 2013

भाव और बोध के बीच एक रिश्ता बनता है किन्तु जब भाव की भूमिका भावोत्तेजना फैलाने में बदल जाती है तो तार्किकता उसका साथ छोड़ जाती है ,जिसके भयंकर और अपूरणीय दुष्परिणाम निकलते हैं । भावोत्तेजना आसानी से अफवाह के रूप में फैलाई जाती है जब कि तार्किकता निजी अध्यवसाय के बिना  नहीं आती । तार्किकता के लिए व्यक्ति को खुद से और उस समाज की कुप्रथाओं से लड़ना पड़ता है जो भावोत्तेजना के माहौल में पलता  और बड़ा होता है ।

Tuesday 17 December 2013

पिछले बीस-पच्चीस सालों से गैर सरकारी संगठनों की सामाजिक-शैक्षिक भूमिका पूरे देश में  बहुत बढ़ गयी है जो देशी-विदेशी फंड लेकर समाज को 'बदलने' और उसे'सुधारने' की भूमिका में देखे जा सकते हैं ।इसमें बिना मेहनत के  अर्जित किया धन शामिल रहता है जो सारी चारित्रिक और अनैतिकता सम्बन्धी बीमारियों की जड़ होता है । इसलिए  गैर सरकारी संगठनों को जांच के दायरे में लाना उतना ही जरूरी है जितना सरकारी संस्थानों को । भ्रष्टाचार चौतरफा होता है । देखा जाय तो निजी तंत्र ही भ्रष्टाचार की अंदरूनी सुरंगों से इस बीमारी को फैलाता और बढ़ाता है । वह पैसे की मार्फ़त लॉबीइंग करता है और गरीब के हक़ में जाती हुई चीजों को अपने हक़ में कर लेता है ।अतिरिक्त और बिना पसीना बहाए संचित किये जाने वाले धन और घूस की प्रकृति एक  जैसी होती है । सरकारी और गैर सरकारी में  इस मामले में कोई फर्क नहीं होता । गैर सरकारी संगठनों को यदि लोकपाल बिल से बाहर रखा  गया है तो यह एक पतली गली भ्रष्टाचार को पनपते रहने के लिए छोड़ दी गयी है ।तभी तो कहा गया है कि "  बहुत कठिन है डगर पनघट की ।"  
दिल्ली में जैसी भी परिस्थितियां हैं , समय का तक़ाज़ा यह है कि 'आप' पार्टी को सरकार बनाकर एक वैकल्पिक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहिए । कुछ निर्णय ऐसे करने चाहिए जो उदाहरण बन सकें  और जनतंत्र की एक नयी मिसाल कायम कर सकें ।इस काम को करने में  कुछ समय केजरीवाल लेते हैं और एक दूसरी तरह की परम्परा डालते हैं तो इसे होने देने में क्या हर्ज़  है ?  'आप' पार्टी ने  सभी राजनीतिक दलों की चुनौती को स्वीकार कर  बड़ा काम यह कर ही दिया है कि  सभी को  आईना  दिखला दिया है । और वे भी फूंक फूंक कर कदम रखने को मजबूर हुए हैं ।अन्यथा जैसा भी लोकपाल बिल है , अब भी अधर में लटका रहता ।  किसी बच्चे से अनुभवी और खुर्राट बूढ़ों जैसी अपेक्षा करना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता । यह  अपने जाल में फंसाने जैसा है ।  अलग तरह से चलने की हिम्मत करना, एक भ्रष्ट हो चुके तंत्र में वैसे ही बहुत मुश्किल होता है ।  एक जैसी राह पर चलना आसान होता है पर जब राह कुछ अलग तरह की हो तो कठिनाई आती ही है । इस मामले में बेसब्री ठीक नहीं ।

Monday 16 December 2013

मिथक-निर्माण करना  पूरी प्राचीन  दुनिया की कल्पनाशीलता का प्रमाण है । उसे  आज का जन-मानस  भी बेसहारेपन  की स्थिति में अपना सहारा बनाकर पाथेय की तरह साथ लिए चलता है । कोई जगह ऐसी नहीं , जो मिथकों से सम्पृक्त न  हो ।  मिथक हमारे भीतर की आश्चर्य-भावना को गुदगुदाते हुए हमको रससिक्त बनाने का काम करते हैं इसलिए वे कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ते ।
सोलह  दिसंबर

स्त्री के आकाश में
आज भी शून्य पल रहा है
उसके आकाश का रंग
नीला नहीं
गहरा काला बना दिया गया है
जैसे श्रम के आकाश के साथ
दगाबाजी की गयी है ।
किन्तु पहाड़ से जब
झरना रिसने लगता है
तो वही नदी बन जाता है
और उसकी बाढ़ में
बह जाती है गंदगी
और कूड़े के ढेर ।

Saturday 14 December 2013

बहिन


लोग माँ के हृदय की
बात करते हैं
होता है सागर से गहरा ,
विशाल ,
हिमगिरि से ऊंचा
इस बार मैंने देखा
बहिन के ह्रदय को
माँ के ह्रदय से आगे
जो विस्तार वहाँ था
उसमें कितनी गहराइयों  की समाई थी
वह  नहीं थी अकेली
ऐसा लगा कि वह
पीहर के आँगन में उगे पीपल की
जड़ों से लिपटना चाहती थी
अपने भाइयों के लिए 
उसने अपने मन की चाबी
सौंप दी थी
भाई - बहिन के रिश्ते का अर्थ
उस अठारह साल छोटी बहिन ने
पहली बार मानो समझा दिया था
रक्षा-सूत्र का एक और अर्थ वहाँ
उद्भूत हो रहा था ।

Friday 6 December 2013

सपेरे

कम हो रहे हैं सपेरे
बीन बजाते
अपने सुरों की दुनिया बसाते
सपेरे कम हो रहे हैं
और साँपों के डेरे बस  रहे हैं
उजड़ रहे है गांव-खेड़े

सांप कभी अपना बिल नहीं बनाते
दूसरों के बनाये बिलों में घुस जाते हैं
बनाता कोई
और रहता है कोई
यह सांप की प्रकृति का हिस्सा है

उनके विष की पहचान गायब है
वे अपना फण फैलाकर
फुफकारते हैं ,डराते हैं
यह सपेरा ही जानता है
कि उसके विषदंत कैसे उखाड़े जाते हैं ?
जब यह कला आ जायगी तो
सांप तो  रहेंगे  , उनका विष नहीं ।  

Wednesday 4 December 2013

चारों हिंदी प्रदेशों के एक्ज़िट पोल के  कयास जो बतला  रहे हैं ,वे सत्ता विरोधी गुस्से का प्रतिफलन ज्यादा है , उसमें नमो को मुफ्त का यश मिलने से नहीं रोका जा सकता   । सच तो सत्ता विरोधी लहर ही  है । वह जहां कांग्रेसी सत्ता  के विरुद्ध है वहीं भाजपा के भी । किन्तु यदि इसका फायदा सिर्फ  भाजपा को ही  मिलता है तो सन्देश में मोदी का नाम जोर-शोर से प्रचारित किया जायगा ।दिल्ली में जहां अति-नया विकल्प खड़ा हुआ , वहाँ वह अपना रंग दिखा रहा है । इसका मतलब यह हुआ कि यदि जेनुइन जन-हृदय स्पृशी- तीसरा विकल्प होता तो आज अन्य प्रदेशों में भी बात बदली हुई होती । 

Tuesday 3 December 2013

राजनीति में जातिवाद और सम्प्रदायवाद का नाग  अपना फण फैलाये घूम रहा है । सावधान रहने की जरूरत है यद्यपि सपेरों की बड़ी कमी महसूस हो रही है ।
विभ्रम फैलाकर सब कुछ समेट  लेने की सत्ताकांक्षा, व्यक्ति को इंसानियत के दर्जे से बहुत नीचे गिरा देती है । जब व्यक्ति तर्कशून्य या कुतर्की हो जाता है तो आपसदारी में भी वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है लेकिन रहते हैं  वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे ।

Monday 2 December 2013

उदासीनता,तटस्थता , मौन और अवसरवाद में मायने के फर्क भले  हों , परिणामों में ये लगभग एक जैसे होते हैं ।' कोउ नृप  होउ हमहीं का हानी' वाला नृपतन्त्रीय दृष्टिकोण लोकतंत्र के लिए बहुत  घातक एवं खतरनाक  होता है ।

खराब जो भी होता है , वह खराब ही होता है चाहे फिर वह कविता हो या आलोचना ।खराब कविता से खराब आलोचना लिखी जाती है और खराब  आलोचना से खराब कविता की पैदावार बढ़ जाती है ।  खराबी एक संक्रामक रोग की तरह होती है । जैसे समाज का जातिवाद और सम्प्रदायवाद राजनीतिक तंत्र और सत्तास्वरूपों को अपने जैसा बना देते हैं ।रावण अपने राज्य को भी अपने जैसा ही रहने की कुबुद्धि का प्रसार करता है । 

Sunday 1 December 2013

लाल किले की प्राचीर
कभी झूठ नहीं बोलती
वह तुम्हारा धंधा है
सत्ता की भूख
काले नाग से ज्यादा
खतरनाक होती है
वह झूठ के किले बनाती है
और बहुरुपियों का स्वांग बनाकर
माया की तरह  भरमाती है

इस भूख की लपट
से जो बचेगा
वही सरोवर की निर्मलता
 और मनोहर घाटों को
बचा सकेगा । 

वह मतदाता बधाई का हक़दार है , जो लोकतंत्र की प्रक्रिया में स्वप्रेरणा से भागीदार बना है । इसी वजह से कल राजस्थान विधान सभा के गठन के लिए जिस तरह उमंग-भाव से मतदान हुआ ,वह इतिहास के एक मील-प्रस्तर की तरह बन गया । इस बार हर बार से अधिक ७४ प्रतिशत से अधिक मतदान होने के  कई मायने निकल रहे हैं , सही बात तो परिणाम ही बतलायेंगे किन्तु इतना जरूर है कि  वे चौंकाने वाले हो सकते हैं ।बहरहाल,  लोकतंत्र  की प्रक्रिया में लोक की भागीदारी का बढ़ना स्वागत योग्य है । निर्वाचन विभाग की व्यवस्थाएं ,प्रचार तंत्र , विकसित होती राजनीतिक प्रक्रिया  , सत्ता पाने की लालसा -आकांक्षा ,जाति -सम्प्रदायों की अपने नेता चुनने की संकीर्ण सोच वाली  ध्रुवीकृत एकजुटता, नए  मतदाताओं  की सक्रियता , पार्टीगत  मनोरचना आदि की भूमिका से जो माहौल बना , उसने मतदाता  को  उत्साहित  करते हुए पोलिंग बूथ तक पहुचाया । यह शुभ संकेत है जो आगे राजनीतिक प्रक्रिया को और सुदृढ़ करेगा , ऐसा माना जा सकता है ।  

Saturday 30 November 2013

वस्तुगत अहसास जब प्रबल हो जाते हैं तो वे आत्म को ऐसा धक्का देते हैं कि शब्द स्वतः बोलने लग जाते  है और ऐसे  शब्द केवल शब्द नहीं रह जाते  ,बल्कि ह्रदय से निकले   ईमानदार उदगार बन जाते हैं  , जिसे शास्त्रीय भाषा में  कविता कहा  गया है । आत्म-स्पर्श फिर जीवन-जगत से मिलकर  गहरा होता चला जाता है ,जिससे आत्म  और वस्तु  का फर्क ही मिट जाता है । जब यह फर्क मिट जाए तो समझो कविता सिर चढ़कर बोल रही है ।
आज राजस्थान की १४ वीं विधान सभा के लिए मतदान हो रहा है । हम दोनों अपने मताधिकार का प्रयोग करके अभी अभी आये हैं । इस समय वैसे भी उछिड़ रहती है । हेमंत की  निखरीं धूप  खिली हुई है । सारे  प्रबंध चाक- चौबंद हैं । देखिये ऊँट किस करवट  बैठता है ?  फिर भी राजनीतिक समझदारी इसी बात में है कि तानाशाही प्रवृति को नकारा जाए । लोकतांत्रिक संस्थाएं बनी रहेंगी तो आगे बदलाव की सम्भावना भी बनी रहेंगी ।किसी विशेष भावना के ज्वार में बह कर मतदान करने का मतलब है , लोकतंत्र , जैसा भी है , को कमजोर करना । राजनीतिक विश्वदृष्टि और इस समय की जरूरत को  देखते हुए अपने मत का प्रयोग करना अपने और देश के  भविष्य के लिए बेहद जरूरी है । 

Friday 29 November 2013

कविता व्यक्ति के भाव बोध को उजागर करके उसे सक्रिय  बनाने का काम करती है और उसकी चेतना के अनुरूप सौंदर्य बोध का विकास भी , बशर्ते कि कवि अपने आचरण से भी मेहनतकश वर्ग से संबद्ध रहे और अपने अवसरवादी रुझान से सदैव लड़ता रहे । जो लोग खुद से नहीं लड़ पाते , वे धीरे धीरे अवसर की नाव  में बैठकर नदी पार करने लगते हैं । 

Thursday 28 November 2013

इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय गंगा-यात्रा पर हैं उन्होंने गंगा के सन्दर्भ से प्रकृति-चिंता और एक मशहूर पर्यावरणविद तथा उसके लिए वैराग्य की सीमा तक जाने वाले प्रो   जी डी अग्रवाल से   अपना साक्षात्कार प्रस्तुत किया है ,जिससे  मेरे मन   में कुछ सवाल पैदा हुए हैं । इस बातचीत में बहुत सी बातों के लिए यूरोप की आधुनिक सभ्यता को जिम्मेदार माना है । खासकर युद्धों के  लिए । इसमें कार्ल मार्क्स के चिंतन पर भी  टिप्पणी  है ।
मेरा  मन इस बारे में  यह है कि  आज के उपभोक्तावादी माहौल में प्रकृति-पर्यावरण में मन को समाकर रखना संस्कृति का नया अध्याय रचने के बराबर है लेकिन जिस देश में हज़ारों साल पहले --महाभारत जैसा संग्राम हुआ हो और जो सभ्यता सुरासुर संग्रामों से भरी हुई हो , उसकी अनदेखी करके युद्ध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार   मानना कहाँ  तक तर्कसंगत है ? यह ठीक है कि आधुनिक सभ्यता को धरती पर उतारने की जिम्मेदारी पश्चिम की है ,जिसे महात्मां  गांधी ने स्वीकार करते हुए भी --शैतानी सभ्यता नाम  दिया था ।यह भी सही है कि पूंजी-बाज़ार पर आधिपत्य  के लिए उस धरती पर दो विनाशकारी युद्ध हुए , किन्तु  सवाल यह भी तो है कि इस  इतिहास - गति को कैसे अवरुद्ध किया जाय ?  यूरोप में विकसित पूंजीवादी व्यवस्था का जितना निर्मम और तर्कसंगत विरोध प्रसिद्ध चिंतक मार्क्स ने  किया है और उसका  विवेक संपन्न विकल्प प्रस्तुत किया है जो वर्त्तमान उपभोक्तावाद के विरूद्ध प्रकृति-पर्यावरण के  अनुकूल भी है  और एक अलग तरह की आधुनिक सभ्यता की नींव रखता है । उसके बारे में एक बनी बनायी धारणा प्रस्तुत करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि सवाल केवल पर्यावरण का नहीं है बल्कि उस विषमता का भी  है जिसमें एक वर्ग अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन उसकी अंतिम सीमा तक कर  रहा है । चोर को मारना ठीक है ,किन्तु जब तक चोर की माँ को नहीं मारा जायेगा , तब तक चोरों का प्रजनन बंद नहीं हो सकता ।
आज के उपभोक्तावादी माहौल में प्रकृति-पर्यावरण में मन को समाकर रखना संस्कृति का नया अध्याय रचने के बराबर है लेकिन जिस देश में हज़ारों साल पहले --महाभारत जैसा संग्राम हुआ हो और जो सभ्यता सुरासुर संग्रामों से भरी हुई हो , उसकी अनदेखी करके युद्ध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को जिम्मेदार   मानना कहाँ  तक तर्कसंगत है ? यह ठीक है कि आधुनिक सभ्यता को धरती पर उतारने की जिम्मेदारी पश्चिम की है ,जिसे महात्मां  गांधी ने स्वीकार करते हुए भी --शैतानी सभ्यता नाम  दिया था ।यह भी सही है कि पूंजी-बाज़ार पर आधिपत्य  के लिए उस धरती पर दो विनाशकारी युद्ध हुए , किन्तु  सवाल यह भी तो है कि इस  इतिहास - गति को कैसे अवरुद्ध किया जाय ?  यूरोप में विकसित पूंजीवादी व्यवस्था का जितना निर्मम और तर्कसंगत विरोध प्रसिद्ध चिंतक मार्क्स ने  किया है और उसका  विवेक संपन्न विकल्प प्रस्तुत किया है जो वर्त्तमान उपभोक्तावाद के विरूद्ध प्रकृति-पर्यावरण के  अनुकूल भी है  और एक अलग तरह की आधुनिक सभ्यता की नींव रखता है । उसके बारे में एक बनी बनायी धारणा प्रस्तुत करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि सवाल केवल पर्यावरण का नहीं है बल्कि उस विषमता का भी  है जिसमें एक वर्ग अपने फायदे के लिए प्रकृति का दोहन उसकी अंतिम सीमा तक कर  रहा है । चोर को मारना ठीक है ,किन्तु जब तक चोर की माँ को नहीं मारा जायेगा , तब तक चोरों का प्रजनन बंद नहीं हो सकता ।

Wednesday 27 November 2013

तेज़ उजाले से ज्यादा 
अन्धकार में जब
हो जाता है
तो तरुणाई को
अहंकार के पंख लग जाते हैं
उसमें अंगरेजी का सम्पुट मिल
जाए तो वह
करेला और नीम चढ़ा
की हैसियत प्राप्त कर लेता है ।

लेकिन यह दुनिया
कभी कभी ऐसों के भी
गले में घंटी  बाँध देती है
 दुनिया की यही 
पर्वत जैसी ताकत है
इसे उससे छीन लेने वाली
ताकत दुनिया में अभी पैदा नहीं हुई
 भगवान  के घर देर क्यों है ?इतनी बड़ी परम शक्ति भी यदि न्याय में देरी  करेगी तो फिर आदमी की अपनी बनायी अदालत का क्या दोष ?  यह मेरे आज तक समझ में नहीं आया । वैसे भी देरी से मिला न्याय , अन्याय में बदल जाता है ।ऐसा माना जाता है ।

Tuesday 26 November 2013

 भाषा में सबसे बड़ी समस्या और चुनौती उस  भाषिक विस्थापन की होती  है जिसे अतिरिक्त  पूंजी की आकांक्षा पैदा करती है ।यही वजह है कि  इन दिनों पुराने उपनिवेश रहे स्वाधीन देशों में भाषा में जितना विस्थापन हुआ  है उतना शायद ही और किसी स्थिति में हो ।

Monday 25 November 2013

नैतिक बोध कभी दूसरे  घरों से शुरू नहीं होता । यही तो जगह है जहां पहले अपना घर फूंकना पड़ता है ।
अलवर में ठीक चुनावों के बीच इन दिनों द्वि-दिवसीय --मत्स्य-उत्सव ----चल रहा है । पर्यटन विभाग की सरकारी लीला । जन की भागीदारी सिर्फ लोक-कलाकारों तक सीमित । लोक कलाकार न हों तो इन उत्सवों का क्या हो ? यह लोक कला ही तो है जो किसी स्थानीय रंग और उसकी  धरती की बनक  को  पहचान देती है । बहुत दिनों पहले का एक मेवाती गीत इस उत्स्व में   गाया जा रहा है । गीत उस समय का है जब घरों में स्त्रियां चक्की से अन्न पीसा  करती थी । कोई नयी नवेली वधू  घर में आई और आते ही सास ने कुछ ही दिनों बाद उसे चक्की  पर बिठा दिया । वह अपने पति को उपालम्भ देती हुई गा रही है -----"मोपै चलै ना तेरी चाखी , हमारी बारी सी उमरिया ।" पति जबाव में कहता है ----"अरे सौ सौ लगा दूं पीसनहारी , तिहारी पतली सी कमरिया ।"उपालम्भ को यदि न समझा जाय तो धीरे-धीरे वह प्रतिरोध में बदल जाता है । बहरहाल , प्राचीन काल में कभी मत्स्य जनपद का हिस्सा रहा यह भूभाग आज़ादी मिलने के बाद बहुत थोड़े से समय के लिए ---मत्स्य प्रदेश --बना था । चार रियासतों को मिलाकर ---अलवर, भरतपुर, धौलपुर और  करौली । राजधानी मुख्यालय अलवर रहा और यहीं के शोभाराम  जी इसके पहले मुख्य मंत्री बने । कहते हैं कि  यह नाम प्रसिद्ध  लेखक कन्हैया लाल माणिक्य लाल मुंशी ने सुझाया था ।बाद में इसका विलय राजस्थान में कर दिया गया ।
लम्पटता छूत  के रोग की तरह  है जो ऊपर से नीचे की ओर फैलती है । जिसे हम सर्वहारा कहते और अपने देश के सन्दर्भ में मानते हैं , वह यदयपि गरीब-शोषित वर्ग  है सचेतन सर्वहारा बहुत कम ,।  वह उन सभी व्याधियों से ग्रस्त रहा है जो सामाजिक और नैतिक स्तर की व्याधियां हैं । जिस रूस में क्रांति हुई , वहीँ धीरे धीरे विश्वस्तरीय लम्पटता का प्रवेश हो गया । हमारे यहाँ तो जीने का एक अति-पुरातन  ढर्रा चला आ रहा है । अभी तो रूढ़ियों-अंधविश्वासों तक से हमारी मुक्ति नहीं । मंगल यान अभियान में लगे वैज्ञानिकों का हाल हमने अभी-अभी देखा है । हमारे भीतर का जो डर और लोभ है उसका इलाज क्या है ? लम्पटता के लिए ये प्रवृतियां जिम्मेदार होती हैं । आदर्श जब गायब हो जाते हैं तो उनकी जगह लम्पटता ही लेती है ।

Sunday 24 November 2013

आज की कविता में अपनी ख़ास जगह रखने वाले कवि शिरीष कुमार मौर्य ने --'-कई उम्रों की कविता' --- शीर्षक से लिखी इस किताब में अपने जीवनानुभवों की रोशनी में पूर्वज और अग्रज कवियों का स्मरण अपनी गद्य शैली में किया  है । इस गद्य को पढ़ते हुए उनका कवि कभी पाठक का साथ नहीं   छोड़ता । वह अपनी धारणाओं को छिपाता नहीं  और न ही उन प्रसंगों की अनदेखी करता है , जो आज भी हमारे काम के हैं । उसने यहाँ भी अपने  पूर्वज कवियों के ह्रदय,बुद्धि और हाथों को खोज लिया है । यह खोज मार्मिक तो  है ही , हमारे बुद्धि कौशल के  लिए उत्प्रेरक भी । ह्रदय और बुद्धि के संग हाथ का त्रिकोण ----ज्ञान, क्रिया और इच्छा की जीवन-त्रयी को लाकर , जैसे इस विखंडनकारी समय में एक संदेशवाहक का काम करता है कि मनुष्य  कभी काल के टूटे हुए  एकांत में नहीं जीता  । यहाँ जितने भी कवियों की उपस्थिति है , वे अपनी-अपनी जगहों पर होते हुए भी एक समय-समग्र की रचना करते हैं ,जिसका  अभाव शिरीष आज की अपने समय की कविता में महसूस करते हैं । पूर्वज- कवि-स्मरण उनके लिए सीख की तरह  है और उसमें पूरी बेबाकी तथा स्पष्टबयानी से खरेपन की खनक आ गयी है । कवि मानो अपनी जानकारी के लिए यह  सब  लिख-पढ़ रहा है । कहीं औपचारिकता का आग्रह  नहीं जैसा कि आलोचना में होता है । यहाँ एक कवि का गद्य है जो उनके अपने पहाड़ी  लोक की लय में समाया हुआ है ।
      यहाँ कवि की अपनी पसंद और अभिरुचियों का एक ताना बाना है । वह गद्य को लिखने के  बजाय बतकही की तरह कहता है । जैसे वह हमसे सीधे संवाद कर रहा है । इस गद्य-कृति में लीक -लकीर की तरह खींची गयी सीधी-सीधी रेखाएं नहीं वरन वे परेशान करने  वाले प्रश्न हैं जिनको वह  आज की कविता की कला के संदर्भ में लाजमी  मानता है । यहाँ पूर्वज  कवियों का   आकलन  उनकी जीवन-धर्मिता को साथ में लेकर चलने से वह पठनीय और  रमणीय बन गया है । इन आलेखों में शिरीष ने अपने अग्रज  कवियों के सानिध्य को जीवन की हलचल के रूप में खासतौर से  रेखांकित   किया  है ।पाठक-समाज इसका तहेदिल से स्वागत करेगा , मैं ऐसा सोचता हूँ ।   
आज की तारीख अलवर के तवारीख की एक तारीख है ----२५ नवंबर १७७५ । आज के दिन जयपुर रियासत के आधीन माचाडी  के राव प्रताप सिंह ने  अलवर के बाला किले पर उनके द्वारा बनाई गयी नयी रियासत का झंडा फहराया था ।इससे पहले उन्होंने राजगढ़ में अपने लिए एक किला बनवा लिया था । इस किले के रंगमहल में की गयी चित्रकारी आज भी अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती । २४ नवंबर तक किले पर  भरतपुर  के राजा जवाहर सिंह का शासन था ।१८ वीं सदी की अराजकता के माहौल में  में देश में ऐसी अनेक सामंती रियासतें बनी थी । अलवर भी उनमें से एक है । यहाँ बना बाला किला ११ वीं सदी का माना जाता है । 

Saturday 23 November 2013

डूब रहे  हैं

डूब रहे हैं गांव
डूब रहे हैं पहाड़
डूब रहे हैं खेत
डूब रहे हैं लोग
डूब रही हैं नदियां
डूब रहे हैं जंगल
डूब रही हैं  पगडंडियां

बचे हुए हैं जो
इनसे दूर
हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों पर
उनकी शीतल छाया में बैठे हुए हैं । 

नेपाल में प्रचंड को जनता ने अपनी जगह बता दी । प्रचंडता में मनोहरता के विरुद्ध  का सामंजस्य जब तक नहीं होगा तब तक जन-स्वीकृति दीर्घकाल तक नहीं टिकती , एक पक्ष को जन थोड़े समय ही स्वीकार करता है । उसकी अति से ऊब जाता है । प्रकृति का सिद्धांत भी संतुलन में है अतिवाद में नहीं ।

Friday 22 November 2013

सबसे बड़ा संकट
इस सभ्यता में खेतों
और खेती-किसानी करते
पहाड़ की तरह खड़े
नदियों की तरह सरस
जीवन नौका को
जैसे तैसे खेते
पेड़ों से बतिया
अपनी राम कहानी कहते
उन राम दीनो और बिहारी लालों पर है
जिन्होंने सूरज के उगने से पहले
अपनी जीवन यात्रा शुरू की
और डूबने से पहले घर में नहीं घुसे
फिर भी सफेदपोशी कुलकमल
उनका सब कुछ हड़प कर
कानूनी हिसाब किताब करते रहे


एक  जंजाल है जो
घेरे हुए है गांव-खेरे को
उसकी पोखरों , जोहड़ों में
 अब गाय-भेंसों को  पीने का नहीं
सब कुछ शहरी सुरसा के पेट में
समा रहा है आगे रास्ता नहीं सूझता
इतना अन्धेरा है
पुरानी  बावड़ियों की मुंडेरों पर
नए  लुटेरों ने अपनी चौसर बिछा ली  है
देखने-सुनने -समझने वाला कोई नहीं

चुनावी सभाओं में
उन बातों पर शोर मचा है जो
इन ग्वार-गोठों से
दूर का वास्ता तक नहीं रखती
कबीर दुखिया है
कौन सुनता है  दुःख उसका
कभी किसी ने नहीं सुना पर
वही दिखाता है रास्ता
कि पहचानो कौन है तुम्हारा दोस्त
और कौन है तुम्हारा  दुश्मन ?
यह पहचानने का 
और हिसाब-किताब को  समझने का  समय है ।

Thursday 21 November 2013

जनतंत्र के निर्माण में नेताओं से बड़ी और गम्भीर  भूमिका जब तक "जन " की नहीं होगी तब तक हम एक लंगड़े-लूले जनतंत्र की गिरफ्त  में फंसे रहने के लिए अभिशप्त होंगे । यथा जन , तथा जनतंत्र । जब कि अभी तक' यथा नेता ,तथा जनतंत्र'  की प्रक्रिया चलती रही है ।
तात तीन अति प्रबल खल , काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि विज्ञान धाम मन , करहि निमिष महुँ क्षोभ ॥
इन दिनों काम का ज्वार इतना फैला हुआ है कि सम्भलने में नहीं आ रहा है । फिर इसमें तरुण तेज पाल हों या कोई रिटायर्ड जज ।मंत्री , संतरी या बाबा वेशधारी लम्पट ।  सभ्यता की अपनी गर्मी होती है जो असंतुलित होकर समाज में व्याप्त होती जाती है । नैतिकता के मसले आत्मानुशासन  की ही मांग नहीं करते बल्कि विलास -आकांक्षी मन की वल्गा को साधे  रखने की भी । ज़रा सा फिसले  कि खड्ड में गिरे   ।किसी भी तरह की सत्ता की आकांक्षा,लोभ से निकलकर  दम्भ-क्रोध की यात्रा करती हुई काम तक जा पहुचती है । इसमें कभी-कभी  ताकतवर लोग भी फंस जाते हैं और बच भी जाते हैं ।ताकतवर जब तक बचते रहेंगे, यह खेल थमनेवाला नहीं । वह दिन न जाने कब आयेगा, जब सबकी शक्ति बराबर होगी ?बराबरी में किसी को सताना मुश्किल होता है , इसीलिये लोग कभी बराबरी के विचार को तवज्जो नहीं देते ।    

Wednesday 20 November 2013

देश में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने सबसे ज्यादा दुर्गति कृषि-क्षेत्रों की की है । गावों  से लोग तेजी से शहरों में पलायन इसी लिए कर रहे हैं । गावों  में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार इतने पिछड़ी अवस्था में हैं कि जो वहाँ रहता है और उस अभिशाप को भोगता है वही जानता है ।जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई ।  इससे वहाँ अलगाव और  भी बढे हैं ।आबादी बढ़ने से जोत-सीमा और कम हुई है । असुविधाओं के चलते  शहरी जीवन जीने वाला व्यक्ति एक रात भी गांव  में ठहरना नहीं चाहता । अफसर, विधायक वहाँ रहते ही नहीं जो उनकी पीड़ा को जाने- समझें । फिर उनके ऊपर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का डंडा । जब तक किसान यूनियन अपना काम नहीं करेंगी, तब तक गांव का मतदाता एकजुट नहीं होगा और जातिवादी-सम्प्रदायवादी आधारों पर वोट देने की प्रक्रिया से  अलग नहीं होगा,तब तक कृषि-क्षेत्रों  की दुर्दशा कम नहीं होगी । आज किसानी सबसे घाटे का सौदा है  । जरूरत है किसान को गारंटी और उन रियायतों की जो कृषि-क्षेत्र के लिए जरूरी हैं । जिनको हम आज पढ़ा-लिखा और पीछे से ग्रामवासी मानते हैं वे अपनी पढ़ाई को अपने हित-साधन के  लिए काम में लेते हैं । अपना हित-साधन करना है तो गांव के किसान ,खेतिहर मजदूर को जाति - निरपेक्ष होकर संगठित रूप में अपना दबाव बनाना पडेगा । अनुनय-विनय और पांच वर्ष में एक बार आने वाले इस चुनाव मेले से काम बनने वाला होता तो , अब तक बन गया होता ।राजनीतिक जातिवाद का जहर काले नाग से भी ज्यादा मारक होता है  लेकिन यही जहर राजनीतिक दलों के लिए अमृत का  काम कर रहा है । 

Tuesday 19 November 2013

सिडनी  की डायरी ---२० नवंबर २०१२ ,मंगलवार
 पिछले   साल इन दिनों बेटे अलंकार के साथ  आस्ट्रेलिया के सिडनी महानगर के पेंशर्स्ट उपनगर में हम दोनों थे । मैं  अपने पौत्र को साथ लेकर  वहाँ के  मिरांडा स्थित उपनगर के एक शिशु घर---वॉम्बेट प्ले स्कूल ---- में    रेल सफर तय  करके जाता था । मेट्रो रेल में बीस-पच्चीस मिनट लगते थे । बीच में गहरी  ,विस्तृत और प्रफुल्लित  जॉर्ज नदी पर बने पुल से  तथा , पहाड़ों  और सुरंगों से रेल गुजरती थी ।रोमांचकारी अनुभव होता था , जितनी बार वहाँ से गुजरो उतना ही नया और स्फूर्तिकारी । प्रकृति के सौंदर्य की बराबरी नहीं और वह भी निर्भेदकारी । प्रकृति का सन्देश ही मानो भेद - बुद्धि को भुला देने का है । फिर भी मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए भी कितनी ही भेद-प्राचीरें चिनता  चला जाता है । अतिरिक्त धन और सत्ता पाने की लालसा उसे मनुष्य रहने ही नहीं देती । वह अपनी प्रकृति को भूल जाता है ।  नदी में वहाँ के  धनिक  वर्ग के अपने नौका-विहार के लिए तरह तरह की बड़ी बड़ी और सुसज्जित नावें पडी हुई थी । ऐसा प्रतीत  होता था जैसे यह नदी-नाव संयोग  प्रकृति और मनुष्य के बीच भाईचारे का एक ऐसा रूप है ,जो देशों की सीमाओं को  डहा कर मनुष्यता को एकरूप कर देता है । जब भी रेल, पुल से गुजरती दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आए बिना नहीं रहता -----"तू किसी रेल सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा  थरथराता हूँ /"पौत्र अभि तुरंत नदी को निहारने  लगता,पता नहीं  उसके मन में क्या आता होगा ? यहाँ हम रेल से उतरकर एक---वेस्टफील्ड नामक  मॉल  से होकर शिशु घर तक पहुचते थे । यहाँ देखकर अच्छा लगता था कि मॉल में स्त्रियों की भूमिका पुरुष से ज्यादा है और वह भी उन्मुक्तता के साथ । स्वच्छंद और अपने भीतर सिमटी हुई । पूंजी का साम्राज्य मिलाता बहुत कम है  , दूर ज्यादा  हटाता है । एक जगह होकर भी सब अलग अलग अपनी अपनी दुनिया में । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं । जिसके पास पैसा  है वही खरीददार है । यह दुनिया जैसे केवल उसी के लिए बनी है । कितना अच्छा हो कि यह संसार एक नदी की तरह हो जाए । मैं यहाँ चार  घंटे एक उपनगरीय पुस्तकालय में बिताता  था । कभी मॉल के सामने बनी  एक बेंच पर वहाँ के लोगों को आते-जाते  देखते हुए । सब मौन साधे, अज्ञेय की कविता जैसे लगते थे । गति ही गति , कोई ठहराव नहीं । जीवन का यह रूप अब हमारे यहाँ भी तेजी से एक वर्ग विशेष में आ रहा है ।संयोग ऐसा कि अपने साथ मुक्तिबोध का साहित्य ले गया था । जो इस सभ्यता को दूर से ही नमस्कार करना  सिखाता है , इसकी कुछ खूबियों के बावजूद ।   

Monday 18 November 2013

साम्प्रदायिकता अक्सर संस्कृति के वेश में आती है । इसलिए संस्कृति के बारे में  परम्परा और नवीनता के रिश्ते में सोचने-समझने की कला जब तक लोक-स्तर  पर विकसित  नहीं होगी , संस्कृति उन  कूढ़  मगजों के हाथ का खिलौना बनी रहेगी , जो उसे राजनीति के मैदान में लाकर अपना  खेल खेलते रहते हैं । 

Sunday 17 November 2013

क्या हुआ

क्या हुआ
लगभग बीस-पच्चीस साल पहले
हमें जिस नए चबूतरे पर
बिठा दिया गया था
एक थके-हारे लकड़हारे की तरह
और आँखों में
बो दिए गए थे हरे सपने
सावन के अंधों की
बस गयी थी एक बस्ती

क्या हुआ
कि सारी नदियों का पानी
कुछ लोग ही अपने घर ले गए
पहाड़ों को नौच-नौच कर
कर दिया लहूलुहान
जंगल की बोटी-बोटी
खाकर भी अतृप्त हैं
इनकी  भूख का  कोई अंत नहीं

क्या हुआ
कि दस साल के भीतर
इतना गहरा अन्धकार
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता
जो एक खूंख्वार हिंसक  जानवर
की राजनीति को
वैधता प्रदान कर
घर के दरवाजे तक ले आया है

क्या हुआ?
क्या हुआ?
यह क्या हुआ ?
किसने किया ?
तीन कविता संग्रहों के रचयिता और लोक-संवेदना के प्रखर चितेरे निलय उपाध्याय इन दिनों अपनी भागीरथी-यात्रा पर हैं । एक लम्बी यात्रा पर उनकी तरह निकलना साधारण काम नहीं है । एक आधुनिक  कवि  गंगा का सिंहावलोकन करने निकला है  । कवि का अवलोकन  अलग तरह का होता है । गंगा को तुलसी ने मात्र एक नदी नहीं माना है ---धन्वी काम नदी पुनि गंगा । बहरहाल गंगा उनके मनोमालिन्य  का प्रक्षालन ही नहीं करेगी वरन वह आत्मिक एवं जीवन-द्रव्यात्मक  समृद्धि भी प्रदान करेगी ,जो काव्य-रचना के लिए  हर युग में जरूरी रही है । यात्रा अपने आप में व्यक्ति को जीवनानुभवों से आपूरित करती है । यात्रा आख्यान और विविध समाजों का मेला उनकी यात्रा को ,निस्संदेह समृद्ध करेगा । कष्टों और प्रसन्न्ताओं के द्वंद्वों से उनकी यात्रा को नवता मिलती रहेगी , ऐसा बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है । इस यात्रा में उनकी लोक-गति को भी  ताकत मिलेगी ।

Saturday 16 November 2013

राजे-महाराजे , बाद में अंग्रेज सब अपने दरबारों का ठाठ-बाट सजाते थे और समाज में अपनी आधिकारिकता का प्रभाव पैदा करते थे । अंग्रेज राय बहादुर बनाया करते थे । आदमी को मिथ में बदलना और इंसान न रहने देना तथा आदमी से इंसान बनने की प्रक्रिया को खत्म करना हर समय की सत्ता अच्छी तरह से जानती है । इससे प्रलोभन की प्रवृत्ति विकसित होती है । सत्ता प्रलोभन और भय से चलती है । लोकतंत्र , जब तक वास्तव में नहीं स्थापित नहीं हो जाता, तब तक सत्ताएं अपने चरित्र के रूपों का प्रदर्शन दशानन के दस मुखों की तरह करती रहती हैं । यह प्रक्रिया आज भी चल रही है और वोट का समय हो तो इसकी गति को पंख लग जाते हैं । इसीलिये हर युग की सत्ता अपने तरीके से सम्मानों , पुरस्कारों ,श्रीयों , रत्नों का लोभ- पाश फैलाती हैं । इससे ज्यादा  जरूरत है आदमी से इंसान बनाने की प्रक्रिया को तेज करने की ।इसीसे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं और उसमें हर व्यक्ति अपने आप को सम्मानित अनुभव करता है ।

Friday 15 November 2013

अंधविश्वास और पाखंड तब भी फैलते हैं जब नेतृत्वकारी  व्यक्ति जो कहता है ,उस पर आचरण नहीं करता । राजनीति, समाज पर अपना वर्चस्व  बनाकर उसे  जिधर चाहती है उधर धकेलती है । अर्थ और राजनीति का गहरा गठजोड़  होता है ।यह तथ्य है कि  व्यक्ति वही पढ़ना चाहता है जो उसे अर्थ-समृद्ध बनाये ।अंगरेजी माध्यम का प्रचलन तेजी से इसी वजह से बढ़ा है ।  जब लोग अपनी भाषा में नहीं पढ़ेंगे तो बात की गहराई को कैसे समझ पाएंगे ?आज जो शिक्षा दी  जा रही है वह व्यक्ति को बाज़ार के अंधे कुए में धकेलने वाली है । बाज़ार और शिक्षा का ऐसा गठजोड़ बनाया जा रहा है कि व्यक्ति महानायक और भगवान् के रूप में या तो फ़िल्मी अभिनेताओं को देखे-माने या क्रिकेट के खिलाड़ियों को ।जो असली मुक्तिदाता हैं उनको भुला दिया जाए । बाज़ार को विज्ञापन करने वाले लोग चाहिए जिन्हे वह मीडिया के माध्यम से पैदा करने की कला जान गया है । इसलिए जरूरी यह है कि व्यक्ति का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत गहराई से हो । राजनीति को जाने बिना अपने समय की सचाई तक पहुँच पाना मुश्किल होता है । राजनीति में संस्कृति के नाम पर साम्प्रदायिकता को केंद्र में स्थापित करने की कोशिशें की जाती हैं जिसके साथ  अंधविश्वास और पाखण्ड सिमटे चले आते हैं ।साम्प्रदायिक ताकतें सबसे पहले शिक्षा तंत्र पर कब्जा इसीलिये करती हैं कि बौद्धिकता के नाम पर एक काल्पनिक-मिथ्या इतिहास गढ़कर निरंतर पढ़ाया जाय । इन सारे पहलुओं पर समग्रता  में सोचने की जरूरत है ।शिक्षा तंत्र का संचालन राज्यसत्ता के हाथ में होता है । जब एन डी ए की  सरकार आयी थी तब पाठ्यक्रम में वैदिक ज्योतिष और गणित आ गए थे ।  

Thursday 14 November 2013

बच्चों को किसी एक दिन तक सीमित कर देना मनभावन नहीं लगता । ये बच्चे ही तो हैं जो रोज जीवन की फुलवारी को महकाते हैं । सहज रूप से बच्चा ही अपना जीवन जी पाता  है , बाद में तो आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है और अपने आगे किसी और को नहीं बदता  । जब 'समझदारी ' आ जाती है तो बचपन-यौवन सब दूर भाग जाते हैं । जय शंकर प्रसाद ने अपने एक नाटक में एक जगह लिखा है -------"समझदारी आने पर यौवन चला जाता है " । अच्छा तो यही है  कि ऐसी 'समझदारी' आये ही नहीं कि यौवन को जाना पड़े ।

Wednesday 13 November 2013

मुक्तिबोध को जितनी बार पढ़ा जाय , उतनी ही बार अपने  बहुआयामी अभिप्रायों के साथ ह्रदय में प्रवेश करते हैं । जिंदगी को इतना गहरे उतरकर जीना या तो निराला को आया , या प्रेम चंद  को या फिर मुक्तिबोध को ।अपनी "भूल-गलती" को मानना और उस पर अनेकशः कवि -कर्म करना ,यह कोई मुक्तिबोध से सीखे । जितनी बार पढ़ो , उतनी ही बार लगता है कि किसी गहरे सागर में उतर रहे हैं । क्या नहीं लगता कि "कतारों में खड़े खुदगर्ज़ -बा-हथियार /बख्तरबंद समझौते / " आज नहीं चल रहे हैं ।और इसी के साथ हम एक विभाजित व्यक्ति की तरह अनेक हिस्सों में टूक-टूक नहीं हो रहे हैं । आज का आदमी काच  की टूटी किरचों से भी ज्यादा बिखरा  हुआ लगता है ।" दिल में अलग जबड़ा ,अलग दाढ़ी लिए ,/ दु मुंहेपन की सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे/ दढ़ियल सिपहसालार संजीदा /सहमकर रह गए " ।मुक्तिबोध ने भविष्य और प्रत्येक मनुपुत्र पर विश्वास किया था और भविष्य के बारे में सोचा था-----
                                                              महसूस होता है कि यह बेनाम /  बेमालूम दर्रों के इलाके में / मुहैया कर रहा लश्कर /
                                                                हमारी हार का बदला चुकाने आयगा /
                                                              संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर ,
                                                              हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
                                                               प्रकट होकर विकट  हो जायगा ।
जो मुक्तिबोध को अपने जमाने में लगता था , वह उन्होंने आशान्वित होकर लिखा है । किन्तु उन्हें कहाँ पता था कि अभी वे दिन बहुत  दूर हैं ।  उन्हें कहाँ  मालूम था कि व्यक्ति, समाज , राज और अर्थ -संस्कृति सब एक ऐसे चंगुल में फंसा दिए जायेंगे कि हमारी संकल्पधर्मा चेतना का स्वर , न तो संकल्पधर्मा रह पायगा और न ही रक्तप्लावित । ह्रदय का जो गुप्त स्वर्णाक्षर है वह भी कहीं अँधेरे में डूब जायगा । उसके प्रकट  होकर विकट होने की बात तो बहुत दूर है । बहरहाल , आशा ही बलवती है और इसी से दुनिया बदलती है और पीछे हटती -सी लगती हुई भी कहीं न कहीं आगे भी बढ़ती है ।इसी को मानते रहने में मानवता का भविष्य ललाईमय लगता  है ।   

आलोचकीय दुकान में, कविता का व्यापार ।
अन -डूबे  तो  पार है ,        डूबे तो बेकार ।
नेहरू उस जमाने के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे ,अनुभवी  और विश्व दृष्टि संपन्न  राजनेता  तो थे ही , वे उन राजनेताओं की अग्रिम पांत  में   थे जो सोचे हुए को एक सीमा तक करते  हैं । सोचते तो बहुत लोग हैं पर उसके अनुरूप ज्यादा कुछ कर नहीं पाते । अब तो राजनीति में एक बहुत बड़ी जमात न सोचने-समझने वालों की है । जो अपनी जाति  और मजहब के समीकरण से पैदा हुई है ।नेहरू के होने से लगता था कि राजनीति जंगल नहीं  है और न ही उसमें भेड़ियों की फ़ौज है । नेहरू के होने से अहसास होता था कि देश के  बहुलतावादी चरित्र  और संस्कृति पर आंच नहीं आने वाली है ।नेहरू के होने से लोकतंत्र को समझा जा सकता था । नेहरू की उनकी  अपनी सारी सीमाओं के बाद भी राजनीति से घृणा नहीं , प्रेम करना सीखा जा सकता था । उनकी जयन्ती पर उनको  प्रणाम । काश, उनकी विरासत की राजनीति को आगे ले जाया जाना हो पाता और देश को आवारा पूंजी के हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता ।    

Tuesday 12 November 2013

आज १ ३  नवंबर महाकवि  मुक्तिबोध का जन्म-दिवस है --१ ९ १ ७ में जब रूसी क्रांति कुल जमा छः  दिन पहले ही हुई थी , मुक्तिबोध इस दुनिया में आये थे । ऐसे लोगों के आने से दुनिया नहीं तो देश-प्रदेश के महासागर में हलचल मच जाती है । मुक्तिबोध साहित्य की एक ऐसी विरल  और विलक्षण  तरंग हैं ,जो आज भी मन को वैसे ही विचलित कर देती हैं जैसे देश को आज़ादी  मिलने के बाद के दिनों में ।मुक्तिबोध समय के  एक ऐसे संधिस्थल  पर थे जब जीवन जीने के रास्ते दो दिशाओं में फट रहे थे । एक रास्ता सत्ता की ओर जाता था , दूसरा जन की ओर । कहना न होगा कि मुक्तिबोध ने समय से कोई समझौता न करके दूसरा रास्ता चुना था । यह दूसरा रास्ता अभावों, कष्टों , पीड़ाओं , तनावों , त्रासदियों और बेचैनियों-उपेक्षाओं-तिरस्कारों का रास्ता था , जो गरीब मेहनतकशों का हर जमाने में हुआ करता है ।उन्होंने सत्ता की बजाय देश के गरीब, उत्पीड़ित-शोषित-दलित मेहनतकश वर्ग के साथ रहने का रास्ता चुना था और वह भी बहुत सोच-विचारकर । चाहते तो वे भी पहली दिशा में आसानी से जा सकते थे ।  मुक्तिबोध अपनी स्थिति को अच्छी तरह जानते थे कि उनका अपना वर्ग निम्न -मध्यवर्ग है ,जो प्रतिरोध करता है किन्तु अपने पूरे बचाव के साथ ---वह अपनी नियति मानता है कि उसे एक अवसरवादी जीवन जीना है । कुछ सुविधाओं के साथ सत्ता के दम्भ और उत्पीड़न से टकराते रहने का जीवन । पुरस्कारों, सम्मानों से विरक्ति रखने का जीवन ,,चाटुकारिता और चापलूसी से खुद को बचाते रहने का एक ऐसा जीवन , जिसमें एक मूल्य-पद्धति अलग से नज़र आए । वे पीछे से मराठी थे किन्तु उनके परदादा तत्कालीन ग्वालियर रियासत में नौकरी करने आ गए थे ।  दादा जी ने तत्कालीन राजपूताने की टौंक रियासत में नौकरी की थी । पिताजी ग्वालियर  रियासत के  श्योपुर कलां कस्बे  के थाने  में थानेदार थे । इसी कस्बे  में उनका जन्म हुआ था ।संयोग रहा कि मुझे १ ९ ७ १ में इस कस्बे के एक सरकारी कालेज में हिंदी का अध्यापक होने का सुखद अवसर मिला । यहाँ मुक्तिबोध के बारे में नज़दीक से जानने  का अवसर मिला । संयोग कुछ ऐसा रहा कि जिस थाने में मुक्तिबोध के पिता  थानेदार थे , उसी जगह पर उस समय एक और कवि--थानेदार आ गए , जिनसे हम कुछ लोगों की ऐसी पटरी बैठी कि उस थाने  के भीतर कवि-गोष्ठी करने का कभी-कभी अवसर मिल जाता था ।माहौल कवि-गोष्ठी, मुशायरा और कभी कभी कवि-सम्मलेन का बन जाता था । बंगला  देश बनने के दिन थे , जवानों में जोश की कमी नहीं थी । मुझे ध्यान आता है कि थाने  के सामने के मैदान पर एक कवि-     सम्मलेन  खूब जमा था , उसमें गीतकार वीरेंद्र  मिश्र , मुकुट बिहारी सरोज आदि  आये थे , उस समय मुझे भी तुकबंदी करने का जोश रहता था । थानेदार जी कविता के इतने शौकीन थे कि गश्त पर जाते तब भी साथियों को अपने साथ ले जाना नहीं भूलते । मुक्तिबोध समझ में नहीं आते तब भी जबान पर रहते । आखिर उनकी जन्म-स्थली थी और हम  इस बात में फूले नहीं समाते थे कि हम उसी नगर में रह रहे हैं जिसमें कभी मुक्तिबोध रहते थे । इस समय तक मुक्तिबोध को गुजरे हुए कुल सात साल ही बीते थे । "चाँद का मुंह टेढ़ा है " के चर्चे चल निकले थे पर यह समझ से बाहर था कि चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है ? बहरहाल , कविता की ऐसी मस्ती के दिन, जिनमें आवारागर्दी  भी शामिल थी , बाद में भी आए तो सही पर वैसे  नहीं  । हंसना और खेलना खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद ----का माहौल था । मैं इस नगर में केवल एक साल रहा । चम्बल को नाव से पार करके श्योपुर  जाना पड़ता था और उस समय डाकुओं का भय भी रहता था ।दूसरे , मेरा चयन राजस्थान की कालेज शिक्षा सेवा के लिए भी हो गया था । लेकिन आज तक भी श्योपुर  मेरे जीवन का एक आह्लादक अध्याय बना हुआ है ।एक पहाड़ी  किले में कालेज और सीप नदी का किनारा  । पैदल जाना-आना और मराठी परिवारों के साथ जुगल बंदी । बार बार आती है मुझको  मधुर याद श्योपुर की । 

Monday 11 November 2013

 अतिरिक्त पूंजी धर्म-मजहब को अपनी दाहिनी भुजा की तरह इस्तेमाल करती है । फिर सब कुछ गड्मड्ड हो जाता है । बदसूरत , खूबसूरत लगने लगता है और खूबसूरत, बदसूरत । यही तो कला है आवारा पूंजीवाद की , जिसमें अच्छे और बुरे की पहचान मिटा दी जाती है । इस कला में जो मिसफिट है ,वह --कालोहिनिरवधि विपुला च पृथ्वी ----का इंतज़ार करता है ।
राजनीति पर  लिखने की इच्छा
सुबह के सूरज की तरह
उगती है पर
जब देखता हूँ कि
मेरे अपने नगर-कस्बे  और गांव में
कूड़े के ढेर पड़े हुए हैं
गरीबी के रेगिस्तानों में
दूर तक कुए नज़र नहीं आते
टमाटर ८ ० रपये किलो तक बिक रहा है
और उम्मीदवार करोड़ों से अरबों तक
अपनी सालाना कमाई बता रहे हैं
विवाह समारोहों में झूठ में  बचे  खाद्यान्न -
मिष्ठान्न को 
कुत्ते भी नहीं सूंघ रहे हैं
मेरा पड़ौसी हर साल अपनी कार बदल रहा है
एक अमीर अपनी बीबी के जन्म दिन पर
हेलीकाप्टर गिफ्ट कर
मेहनती  दाम्पत्य की मजाक उड़ा रहा है
अवैध कारनामों की पतंगों के पेच
लड़ाए जा रहे हैं
शक्ति-सत्ता के केंद्र गिद्धों की तरह
अपने पंख फुला रहे हैं
अतिरिक्त पूंजी के पहाड़
श्रम की सरिता का रास्ता रोके खड़े हैं
तो मेरी इच्छा को दबोच लेता है
एक तेंदुआ कहीं जंगल से बस्ती में घुस कर
तब मैं एक जंगल हो जाता हूँ
बस्ती नहीं रहता । 

जो बुढ़ापे में फ्यूडल रहता है , जवानी भी उसकी बहुत क्रांतिकारी नहीं होती । अति बुढ़ापे को तुलसी ने  --शव-- के समान जीना माना  हैं । यदि जवानी अपनी नियति में क्रांतिकारी होती तो हमारा देश आज उसी मंजिल पर होता । जवानी की कोई कमी हमारे यहाँ नहीं हैं , लात मारें तो जमीन से पानी निकल सकता है पर बेरोजगारी के मारे क्या करें, कहाँ जाए , सोच तक नहीं पाते ?
आलोचक की जेब में कविता का भण्डार ।
डूब जाय तो पार  है , पार जाय तो पार ।
हमारी शब्दावली में 'लोकतंत्र ' ने कुछ नयी अवधारणाओं को विकसित किया है । उनमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसी दो सामाजिक संरचना सम्बन्धी अवधारणाएं हैं ।इनमें गरीब-शोषित को एक नागरिक की बजाय उसके सामाजिक-मजहबी तौर पर देखने का रिवाज़ तेज़ी से चल पड़ा है और यह चुनावों के समय ख़ास तौर से उभर कर आता है जब कोई हिन्दू-हितों का पैरोकार बनकर ताल ठोकता है तो कोई  मुसलमानो का । ऐसा लगता ही नहीं कि हम भाई भाई हैं ,भले ही हमारी जीवन पद्धति कुछ मामलों में भिन्न हो । गरीबी, त्रासदी और पीड़ा दोनों जगहों पर है क्यों नहीं ऐसा निजाम बने जो गरीबी और शोषण के विरुद्ध काम करे । जड़ को सींचने से पूरे पेड़ को पानी मिल जाता है ।   जो गरीब अल्पसंख्यक के साथ है वही बात गरी बहुसंख्यक के साथ भी तो है । दोनों की इंसानियत का रूप एक ही तो है । भेद-भाव  अल्पसंख्यकों के साथ तो है ही , किन्तु समग्र रूप में यह देश के पूरे गरीब मेहनतकश वर्ग के साथ है । अल्पसंख्यक--बहुसंख्यक  की अवधारणा   को प्रचार के द्वारा  वोट ध्रुवीकरण का एक वैसा ही  जरिया बना दिया गया  है जैसे  अपने शिकार को जाल में फंसाने के लिए बहेलिया अपना जाल फैलाकर बनाता  है ।  हिन्दू गरीब-शोषित और मुस्लिम गरीब-शोषित में क्या फर्क है ? मुझे आज तक समझ में नहीं आया , जबकि जैसे राजे -महाराजे हिंदुओं में थे वैसे ही नबाव-जमीदार मुसलमानो  में भी थे । शोषक -उत्पीड़क वर्ग   अपनी जात और मजहब का उपयोग शोषितों के  हित में न करके अपनी सत्ता को येन केन प्रकारेण सत्ता  हासिल करने के लिए करते हैं । और सत्ता  पा लेने के बाद " तू तेरे और मैं मेरे " करते हुए असहाय को ठेंगा दिखा देते हैं । पता नहीं ,  गरीब , शोषित मेहनतकश वर्ग के कब यह सच समझ में आयगा कि , जब वह खुद को केवल और केवल एक इंसान के रूप में देखेगा ?इस मौके पर मुझे मशहूर शायर जौक का एक शेर याद आ रहा है -------
                                                                                              दीनो -ईमां ढूँढता है ,जौक क्या इस वक़्त में
                                                                                             अब न कुछ दीं ही रहा ,बाक़ी न ईमां ही रहा ।   

Sunday 10 November 2013

बढ़ रही है दौलत
बढ़ रही हैं तौंद
बढ़ रही हैं दीवारें
खिंच रहीं तलवारें
पर यह दुनिया मेरी नहीं
मेरी दुनिया में वे मेहनतकश हैं
जिन्होंने दुनिया बनाई है
जो  प्रजापति हैं ,जुलाहे हैं
सड़क बनाने वाले हैं रास्ता सुलभ कराते
हम तब ही कुछ चल पाते
आगे बढ़ पाते
जो फसल उगाते
मेरा पेट भर जाते
यह दुनिया  उन्ही की बनाई है
मेरे मन भाई और
मेरे मन में समाई है ।
यही है मेरी दुनिया
मुझे पता नहीं तुम्हारी कौन सी है ? 
न इतिहास की परवाह
न भूगोल की चाह
संस्कृति का बंटाधार
नीति केवल इश्तिहार
आचार संहिता का मिथ्या भय
बोलो भाई लोकतंत्र की जय 

जाति और वर्ण-तंत्र  , मजहब, चुनाव , नेता, पूंजी, पितृ-सत्ता  और बाहु बल से बनता है हमारा  " लोकतंत्र " ।गरीब मतदाता का भी एक दिन होता है , । यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है । संतोष के लिए मजहबी तंत्रों से तो लाख गुना बेहतर है ।  इस तरह के लोकतंत्र की  विकास दर निकालें तो दुनिया में हम नम्बर  एक होंगे । चलो कहीं तो हैं हम नंबर वन ।सामंती तंत्रों से , निस्संदेह कई कदम आगे ।  इसमें हमारा शिक्षा तंत्र भी पीछे नहीं रहता । 'संस्कृति' इस जुलूस में सबसे आगे चलती है । इन दिनों तमाशे के दिन फिर आ गए हैं । चलो तमाशा देखें और अपनी तरह से हिस्सेदारी करें । बदलते और गलती करते कुछ न कुछ नया होता ही है । आदर्श जैसी चीज एक दिन में नहीं बना  करती ।

Saturday 9 November 2013

विजय दान देथा और कोमल कोठारी ये राजस्थान की दी ऐसी सांस्कृतिक विभूतियां रही हैं , जिन्होंने संस्कृति को उसकी जमीन से जाना है , आकाश से नहीं । धरती से आकाश की ऊर्ध्य यात्रा इनके यहाँ रही है , जो इंसानियत के लिए नए दरवाजे खोलती है और पुराने को इतना नया बना देती है कि दोनों का फर्क ही मालूम नहीं पड़ता । कोमल जी पहले चले गए अब यह दूसरी कड़ी भी विदा हो गयी । संयोग रहा कि रात को ही गाज़ी खान मांगणियार के बाद राजस्थान की शख्सियतों में देथा जी के बारे में एक चेनल पर सुना । देथा जी के जाने से लोक -साहित्य और संस्कृति का एक अध्याय खाली हो गया है । भविष्य में उनका काम ही भविष्य की पीढ़ियों के काम आयगा । विनम्र श्रद्धांजलि ।
आज  फिर से वे ताकतें सक्रिय  हैं जो अंधविश्वासों को राजनीति के आँगन के पालने में झुलाती हैं और लोग उनको बच्चों की तरह सहेजने लग जाते हैं ।  " संस्कृति" को जबसे सम्प्रदाय वादियों के हाथों में सौप दिया गया  है तबसे जनता में यह सन्देश गया है कि ये ही  संस्कृति के रखवाले हैं । संस्कृति का एक रास्ता धर्म-मजहब की गलियों से होकर जाता है । इसलिए  संस्कृति एक ऐसा मैदान बन जाता है  है जहां अंधविश्वासों की खेती आसानी से की जा सकती है । 
यह मेरी  सफलता है कि
सब नहीं चाहते मुझे 
चाहना मुमकिन भी नहीं
तुम जहां हो
वहाँ नदी बहती है
और मैं जहां हूँ
वहाँ रेगिस्तान है
रोज कुआ खोदता हूँ
 पीता  हूँ पानी
तुम्हारा एक आकाश है
और मेरे पास धरती का बिछोना तक नहीं
तुम्हारे पास एक दुनिया है
मेरे पास अकेलापन
तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाने वाले लाखों हैं
मेरे पास गिनती के दो भी नहीं
तुम चौधरी हो
न्याय की वल्गा तुम्हारे हाथ में है
मैं हूँ सबसे बड़ा मुजरिम कि
मेरे पास सिर्फ और सिर्फ मेरा जिस्म है ।

Friday 8 November 2013

कविता में जनपद उसकी धरती की तरह होता है ।  जो अपने जनपद का नहीं है वह दूसरों का होने का झूठा दावा करता है ।जनपद में जन और पद दोनों मौज़ूद हैं ।  प्रतिज्ञा का पहला इम्तहान उसी धरती-खंड पर होता   है जिसके ऊपर रोज हमारे पाँव पड़ते हैं ।यहीं से व्यक्ति अपना व्यक्तित्व विस्तार करता है और वहाँ तक जाता है जहां मानवता का छोर समाप्त होता है । इस प्रक्रिया में सारी दीवारें ढहती  जाती हैं ।एक भी दीवार बनी रहे तो समझो अभी कच्चापन है ।  
रेखा चमोली  की कवितायेँ उनके दिल से निकलती हैं नदी की तरह और बाहर आकर पहाड़ जैसी हो जाती हैं । उनमें जीवन का जितना विस्तार और गहराई आयगी , वे कविता के भविष्य में रंग भरने वाली कवयित्रियों में जगह पाएंगी ।

Thursday 7 November 2013

जरूरत

नदी जैसे पहाड़ों -
बीहड़ों में अपना रास्ता
बना लेती है
आकाश जैसे
हवा को अपनी गोदी में झुलाता है
सूरज जैसे धरती का अंधियारा मिटा
उजियारा बिखेरता है
चिड़िया अपनी चौंच का चुग्गा
अपने शिशु के मुख में
डालती है जैसे
गाय करती है
हेज़ अपने बछड़े
बछिया का
नहीं चलता यह राज पथ वैसे ही


जो कहीं
किसी स्तर पर
किसी रूप में
बैठा है समय की ऊंची-नीची सीढ़ियों पर
क्रान्ति उसकी जरूरत में शामिल नहीं


उसकी यात्रा जरूरत के पथ पर होती है
बशर्ते कि जरूरत समझी जाए
वह अपनी मंजिल तभी पाती है
जब एक नदी की तरह हो जाती है । 
सबसे पहले रेखा चमोली  को उनके जन्म-दिन पर बधाई, मुबारकवाद । रेखा स्वयं में एक ऐसी संज्ञा है , जो पृथ्वी की विविधता में उसकी सीमाओं को दर्शाती हुई उसके ताने-बाने से बनी  रिश्तों की गर्माहट से हमारा परिचय कराती है । कविता उनके यहाँ बनती नहीं , उपजती है जैसे बीज धरती से उपजता है । उपजने में कला का संयोजन नहीं करना पड़ता ,वह शब्द-व्यवहार के साथ ,-संग लगकर चली आती है । उसके पीछे रहते  हैं  कवयित्री के  व्यक्ति-समाज से उसके टूटते-बनते रिश्ते नाते , उसका क्रोध, उसकी करुणा , उसकी आकांक्षाएं ,उसका इतिहास , उसका भूगोल-,प्रकृति , उसकी उंच-नीच और इन सभी के बीच से पैदा हुए वे सरोकार , जो आदमीयत के लिए हर काल, हर युग,हर समय और हर स्थिति में जरूरी होते हैं । उनके अभाव में रेखा जी का मन कभी क्षोभ तो कभी आक्रोश का इज़हार करने से नहीं चूकता । यहाँ एक ऐसी स्त्री का चेहरा है , जो मानवता को अपनी धुरी बनाता है और पितृ-सत्ता की प्रधानता के काले रंग में डूबे समाज की भीतरी करतूतों को उजागर करता है । उसे कहीं से आश्वस्ति मिलती है तो वह है  प्रकृति की गोद ,जहां एक अनाम नदी बादलों के पास सागर का संदेसा पाकर दौड़ी चली जाती है । काश , ऐसे ही समाज के लोग भी किसी दुखी का संदेसा पाकर दौड़े चले जाते । यहाँ प्रकृति रूपकातिश्योक्ति की तरह आती है , जहां बादल ,नदी ,पर्वत , आकाश ,घाटियाँ और जंगल ही नहीं होते वरन इनके साथ बस्तियां भी होती हैं ।
                  रेखा जी ने कविता को लगातार अपनी बातचीत की लय में साधा है । वे कविता नहीं , अपने पाठक से सीधे संवाद करती हैं जैसे स्कूल में अध्यापिका अपने विद्यार्थियों से ।  इस बीच में जहां उनको अपनी सलाह देनी होती है , उसे बेझिझक देती हैं । एक बहुत खुली  और उमंग भरी स्त्री से यहाँ हमारा परिचय होता है , जो सारी उपेक्षाओं के बावजूद अस्तित्त्ववादियों की तरह टूटी-बिखरी नहीं है । उन्हें विशवास है कि जब चीजें यहाँ  तक आई हैं तो आगे भी जाएंगी । यह जीवन-यात्रा यहीं तक रुकने वाली नहीं है । क्योंकि उन्हें पता है -----कि प्रेम में /चट्टानों से भी घास उग आती है / और पेड़ की टहनी कलम के रूप में फिर से उग आती है । प्रेम ही उनका जीवनाधार है और यह इतना उदात्त है कि इससे सब कुछ बदला जा सकता है । हो बशर्ते प्रेम । जब हवा का बहना नहीं रोका जा सकता ,बीज का अंकुरित होना नहीं रोका जा सकता , फूलों का खिलना नहीं रोका जा सकता तो फिर ----
        कैसे रोक पायेगा /संसार की श्रेष्ठतम भावना /प्रेम का फलना - फूलना /

Wednesday 6 November 2013

शोभन सरकार वह जो आपकी दिशा भटका दे और आपको कहीं का न छोड़े । शोभन सरकार वह जो आपके व्यक्ति  को मिथ्या भ्रमजाल में फंसा दे । मछेरा अपने कांटे में छोटी मछली का एक टुकड़ा फंसाता है , तभी बड़ी मछली पकड़ में आती है ।सावधानी ही यहाँ सबसे बड़ा बचाव है , कितने ही सरकार अपना जाल लिए यहाँ घूम रहे हैं ।
जो जितना सीधा होता है , वह अपना नाश कराता है
देखो तो सीधे गन्ने को कोल्हू में पेरा जाता है
                                                    राधेश्याम रामायण

Tuesday 5 November 2013

विज्ञान पर  अंध- आस्था भारी न होती तो हिंदुस्तान कभी गुलाम नहीं होता । गुलाम वही होता है जो जीवन-सरिता के प्रवाह के समक्ष  आस्था के पहाड़ खड़े करके उसके सहज मार्ग को अवरुद्ध करता है ।
ओछे आदमी की फितरत होती है कि वह किसी विधा में ख्यात हुए व्यक्ति में एक अवतार खोजने लगता है । वह जानता नहीं कि सभी व्यक्ति माटी-चून  के बने होते हैं । अपने से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति तो कभी कभी पैदा हुआ करता है । विडम्बना यह है कि ऐसा वे लोग ज्यादा करते हैं जो हर कदम पर अपनी चाल के गीत ही गाते देखे जाते हैं ।जो अच्छा कलाकार है जरूरी नहीं कि जीवन-व्यवहार और सोच में वह बहुत दूर की सोच पाए । वह अपनी स्वार्थबद्धता से मुक्त नहीं हो पाता । मंगल यान अभियान  में बड़े बड़े वैज्ञानिक  लगे हैं लेकिन उनमें ऐसे भी हैं जो अपनी सोच में विज्ञान से कोसों दूर हैं । विज्ञान अपनी जगह और व्यवहार अपनी जगह । कला अपनी जगह  और सोच अपनी जगह । यही विडम्बना है जीवन की । मशहूर शायर जौक का एक शेर है----
                                         आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
                                           कितना तोते को पढ़ाया , पर वो हैवां ही रहा । 

Monday 4 November 2013

आज बड़ी भैया दूज है , होली के बाद वाली छोटी भैया दूज होगी । जैसे रमजान के बाद की ईद ,बड़ी ईद होती है और बकरीद छोटी । आज के दिन भाई अपनी बहिन/बहिनों  के घर जाकर भोजन करता है और तिलक करवाकर उसे दूज की विदा के  रूप में कुछ रुपया -पैसा वस्त्र-आभूषण अपनी सामर्थ्य के अनुसार  देता है ।जहां भाई नहीं आ पाता वहाँ स्वयं बहिन ही भाई के घर यानी अपने पीहर जाकर इस रस्म को पूरा करती है ।  हमारे यहाँ बहिन-भाई का रिश्ता कुछ ऐसी ही भावात्मक डोर पर चलता रहा है । यद्यपि आज की लोभ-लाभ वाली दुनिया में इस धागे की  मजबूती पर असर हो रहा है । पैतृक संपत्ति में से भाई के माध्यम से कुछ न कुछ बहिन को देते रहने और सम्बन्ध की निरंतरता के लिए ऐसे विधान सामंती व्यवस्था के अंतर्गत किये गए । जो हमारी सामाजिक - आर्थिक - सांस्कृतिक संरचना में आज भी बने हुए हैं । इससे रिश्तों की दुनिया बनी रहने की सामूहिकता का फायदा ही फायदा है । इसके पीछे की एक कहानी है जिसे महिलाएं एक लोक-कथा के रूप में आज भी कहती और सुनती हैं । श्रीमती जी से यह कहानी आज मैंने सुनी  , वही लिख रहा हूँ । दीपावली के कुछ दिनों बाद की ही बात होगी कि एक बहिन अपने भाई के विवाह में जा रही थी । रास्ते में एक जगह पर उसे प्यास लगी , थोड़ी दूर चलने पर उसे एक कुआ नज़र आया । कुए पर एक बाल्टी और एक  नेजू पडी हुई थी और वहाँ पानी पिलाने वाली एक बुढ़िया बैठी हुई थी । बुढ़िया से उसने पानी माँगा और इसी क्रम में उन दोनों की बातचीत होने लगी । बुढ़िया के पास भविष्य -दृष्टि थी ,जिससे वह आगे की बातों को जान लेती थी । उसने बुढ़िया को दादी बना लिया और अपने  और भाई के भविष्य के बारे में पूछा । दादी बुढ़िया ने उसके अनुरोध  करने पर बताया कि तुम्हारे भाई का भविष्य अच्छा नहीं है यदि तुमने उपाय नहीं किया तो वह विवाह की वेदी पर ही ख़त्म हो जाएगा । उसे सांप डस लेगा । जब एक बड के पेड़  के नीचे से उसकी बरात निकलेगी तो वह पेड़ उसके ऊपर गिर सकता है , इसलिए तुझे अपने भाई को बचाने के उपाय करने होंगे । वह अपने घर पंहुची तो उसने एक पागल जैसा स्वरुप धारण कर लिया और विवाह के हर काम में अडंगा लगाने लगी । उसने दरवाजों को अपने अनुसार बनवाया और स्वयं बरात में जाने की जिद की , जब कि उस समय स्त्रियाँ बारातों में नहीं जाती थी । वह जिद करके अपने भाई की बरात में गयी । और रास्ते में पड़ने वाले पेड़ के नीचे से बरात को निकलने से रोका । जैसे ही बरात उस पेड़ के नीचे से निकली वह पेड़ धड़ाम से गिर पड़ा , किन्तु दूलह और  बरात को कोई नुकसान  नहीं हुआ । बरात जब बेटी वाले के गाँव पहुची तो उसने अपने दूलह भाई को उन दरवाजों के भीतर निकलने से बचाया जो गिरने ही वाले थे । वह फेरों के समय वर-दुल्हन के पास बैठी रही जहां उसने सांप से अपने भाई को बचाया । बरात के वापस आने पर वह अपने भाई-भावज के बीच जिद करके सो गयी और रात को जब एक सांप उसके भाई को डसने आया तो उसने उसके ऊपर पिटारी दाल दी । यहाँ भी उसने भाई को विपत्ति  से बचा लिया । इस से बहिन की भूमिका का पता सबको चल गया । इससे बहिन ,भाई की रक्षक और विपत्ति में काम आने वाली सिद्ध हुई । तभी से बहिन-भाई का पवित्र रिश्ता और मजबूत हो गया और यह हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया ।




\
'रसिया 'ब्रज का एक मधुर लोक - काव्य रूप है , । आज गोवर्धन पर्व पर भाई मूल चंद  गौतम ने इस सन्दर्भ में एक रसिया --"-ना मानै मेरो मनवा , मैं तो गोवर्धन कू जाऊं मेरे बीर " -----उद्धृत करके उस जमाने की याद दिला दी जब ---पांच आने की पाँव जलेबी आया करती थी और मेलों में महिलायें उनको खाने के लिए ही जाया करती थी । वर्त्तमान की दुर्गति में अतीत कितना मोहक बन जाता है । यह उस समय की बात है , जब रुपया, आना ,अधन्ना, पैसा,पाई और धेला  चला करते थे । 

Sunday 3 November 2013

शुभकामनाएं
घर-परिवार और देश
दुनिया के लिए 
कि चैन से रह सकें
कोई बाधा न हो
किसी के मग में
जगमग हो दीप
दीप की कतारें
जगमग हो
जीवन अपना
आपका और सबका ।
                       जीवन सिंह 
दीपावली के दूसरे दिन ब्रज में गोवर्धन पर्व मनाया जाता है । यहाँ मथुरा के आसपास दूर तक कोई पर्वत नहीं है गोवर्धन पर्वत के सिवाय---इसे यहाँ गिरि -राज कहा जाता है ।गिरि राज महाराज का जयकारा यहाँ का प्रमुख जयकारा है ।   जब कृषि-क्षेत्र का विस्तार हुआ और खेती के लिए गोधन की जरूरत पड़ने लगी तो जिंदगी को पर्व में बदलने वाले समाज ने अपनी प्रकृति, पहाड़ , नदी ,पशु-पक्षी सबको अपने ह्रदय का हिस्सा बना लिया । इस रोज पशुओं---खासकर बैलों , गायों को नहला धुला कर उनका श्रृंगार किया जाता था । मोरपंखों से माला बनाकर सजाया जाता था । घर को समृद्धि प्रदान जो करने वाले थे । समृद्धि, संस्कृति का अंग बनती  जाती है बशर्ते कि लोभ-लालच का फैलाव उसके साथ न हो । ब्रज की संस्कृति ऐसे ही बनी और विकसित हुई है , जिसे वल्ल्भाचार्य, चैतन्य ,मीरा और सूर एवं अष्टछाप के कवियों ने भावात्मक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किया । आज उसकी स्मृति का आयोजन है यद्यपि उसका रूप जमाने के अनुरूप बहुत बदल चुका है । इसी के लिए रसखान ने कहा था ---"-मानुष हौं तो वही रसखान , बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । "

Saturday 2 November 2013

ब्रज में दीपावली के दिन दीप-दान किया जाता है । पहले दीपक की शुरुआत  अपने घर से नहीं आस-पड़ोस से होती थी  । मैं तुम्हारे घर में चांदना करूँ, तुम हमारे घर में ।मिलना-जुलना , हंसी ठट्ठा करना , बुजुर्गों का आदर करना ऐसे ही सीखते थे । पूंजी जन्य विषमता की अकड़ कुछ लंठ किस्म के लोगों में होती थी । बूढ़ी दादियों , ताइयों  , काकियों , भाभियों  के नातों को जानते थे । ईद की तरह दीपावली पर भी नए कपडे सिलवाने का रिवाज था । बाज़ार में बहुत खरीददारी का ऐसा रिवाज नहीं था कि अब पुष्य नक्षत्र लग गया है ---खरीददारी करो । पुष्य नक्षत्र की बात जायसी के --पद्मावत ---में अवश्य पढ़ी थी --"-पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिन नाह मंदिर को छावा । " इससे बरसात होने का अर्थ निकलता था । शायद अब धन की बरसात होने का निकलता है ।
अभी कविवर महेश पुनेठा की पहाड़ी जीवन की लय वाली दीवाली पर एक भावसम्पन्न कविता पढ़ी । पहाड़ी खेतिहर दीपावली का रंग इसमें खूब जमा है । पहाड़ में दीपावली का मूल बचा हुआ है यह पढ़कर राहत मिलती है अन्यथा हमारे यहाँ वह उपभोक्ता-वाद के रंग में ऐसी रंग गयी है कि इसके अलावा ---हैप्पी दिवाली- शब्द भर हैं , उनमें प्राण और उमंग नहीं कि मन बल्लियों उछाल  मार सके । दीवाली पैसे वालों की  होती है । आज के दिन भी घरों में झाड़ू-पौंछा लगाने वालियों से पूछें  कि उनकी दीवाली कैसी रही ? एक तरफ बीस- बीस ----,पचास-पचास हज़ार से भी ज्यादा के पटाखे फोड़ दिए जायेंगे , जो वातावरण को भी  नुकसान  पहुंचाएंगे और दिखावे को आसमान तक चढ़ा देंगे ।इसके विपरीत  सादगी का जो आनंद है , वह दीवाली की भावना  को दूर तक विस्तृत करता है ।धन की दीवाली उसे सिकोड़ती है ।हमारे यहाँ यह गांव के बड़े-बूढ़ों से आशीर्वाद लेने के लिए मनाई जाती थी वह भी समानता के रंग में । उसमें विषमता का काला रंग नहीं होता था , आज इसमें गहरा काला रंग भरा जा रहा है । एक अजीब तरह के अंधविश्वास को आदमी के मन में भीतर तक घुसाया जा रहा है ।   कवि महेश पुनेठा के  यहाँ की पहाड़ी संरचना में उसका खेती-किसानी वाला रूप बचा हुआ है । उसी की प्रफुल्ल लयकारी  उनकी  कविता में है और उसकी भाषा का अपना बेहद अनुभूतिपरक मिज़ाज़ ।बाज़ार में फंसे लोगों के लिए यह --नोस्टैल्जिआ जैसी हो सकती है ।  इस माधुर्य के लिए बधाई , यह हमारे लिए दीपावली के व्यंजनों की तरह है । हार्दिक बधाई ।

Friday 1 November 2013

विकल्प की बात सही है पर सार्थक विकल्प के अभाव में जीवित मक्खी भी तो नहीं निगली जा सकती । मतदाता के रूप में हर व्यक्ति एक स्वतंत्र मतदाता है , फिर चाहे वह कितना ही बड़ा कलाकार क्यों न हो ? यहाँ सब बराबर हैं । हमारी अपनी राय ही हमारा सबसे बड़ा विकल्प है , पहले सही राय तो बनाइये , विकल्प भी बनेगा , फिलहाल अल्पमत ही सही ।
हमारे यहाँ एक कहावत है कि --" -धन का भैंसा कीचड में लोटता है ।"
गहरा अन्धेरा है चहुँ ओर
खाई-खंदक इतने गहरे
और डरावने कि
नायक और खलनायक के
चेहरों में कोई फर्क नहीं

यह अश्वमेध का युग नहीं
फिर भी एक
घूम रहा है
और ऐसा लग रहा है कि
हम पांचवीं सदी  में आ गए हैं
खजानों के सपने देख रहे हैं
नेता को अवतार बना रहे हैं
ऐसे अँधेरे से दीपावली के
छोटे  छोटे दीये 
बाहर नहीं निकाल सकते
बस शुभकामना की जा सकती है
---तमसोमाज्योतिर्गमय ।
कलाकार अपनी कला में दक्ष हो सकता है , जरूरी नहीं कि  जीवन-सम्बन्धों की उसकी  दृष्टि और राजनीतिक नज़रिया भी उतना ही बारीक ,व्यापक और गम्भीर हो । स्वाधीन समाज में सब अपनी राय दे सकते हैं और इच्छा भी व्यक्त कर सकते हैं । कलाकार यदि बुनियादी जीवन-सरोकारों के पास नहीं है और वह दूर से ही चीजों को देखता है तो दूर के ढोल सुहावने लग सकते हैं ।दूरी और सचाई के बीच एक खाई रहती है । 
लो अब ये भी
'अपने' हो गए
इनकी मूर्ति  बनाएंगे
सवाल  यह है कि
इसमें  प्राण
कहाँ से डाल  पाएंगे ?
तेल और बाती
माटी से मिलकर
करते हैं उजाला
क्यों नहीं सीख पाता
आदमी कि
मिलकर ही होता है
प्रकाश , जब तरह तरह के लोग
मिलते हैं तो सेतु बन जाता है
           प्रकाश पर्व पर शुभ कामनाओं के साथ

Tuesday 29 October 2013

अपना घर


यही तो है जो
मुझे तुम्हारे नज़दीक घर नहीं
बनाने देता
यही तो है जो
घर बाद में बनाता है  और
उसकी चहार दीवारी पहले उठाता  है
यह अपना घर ही तो है जो
 हम
 रोज बनाते हैं

यह 'अपना'ही तो है
  जो जिलाता है और
जीने भी नहीं देता
न दूसरों को
 न खुद को

जब तक अपना है
पराया मिट नहीं सकता
अपने को जिसने मिटाया
पराया फिर कोई रहा ही नहीं ।

Sunday 27 October 2013

जातिवाद का आधार है हमारे कृषि-सम्बन्ध और उंच-नीच वाली वर्ण-व्यवस्था  है  , जिसको कृषि-संबंधों ने  निरंतर गहरा बनाया । जब तक कृषि-सम्बन्ध सही अर्थों में औद्योगिक संबंधों में रूपांतरित नहीं होंगे तब तक रिश्तों का जातिवादी  आधार नहीं खिसकेगा । क्या कारण है कि हमारे यूनीवर्सिटी ---कालेजों तक में यह नहीं टूट पाता ? ट्रेड यूनियन तक  राजनीतिक तौर पर जातिवाद की दलदल में फंस जाती हैं । हमारा सोच तो गैर---जाति परक हो जाता है किन्तु कृषि संबंधों के दबाव उसे फिर से ---पुनर्मूषको भव ---की स्थिति में पंहुचा देते हैं । इसे अंतरजातीय विवाह कुछ ढीला कर सकते हैं किन्तु पितृ-सत्ता उसे फिर अपनी जगह पर ले आती है ।
शम्भू यादव का पहला काव्य-संग्रह ----नया एक आख्यान ---मुझे कुछ समय पहले मिला । धीरे-धीरे पढता रहा । हमारे अलवर का एक छोर हरियाणे से मिला ही नहीं है वरन उस पर उसकी छाप भी है । वह राठ क्षेत्र कहलाता है । एक जमाने में वहां के भोजपुर के भिखारी ठाकुर जैसे लोक-रचनाकार और गायक अलीबख्श ने बड़ी धूम मचाई थी । शम्भू की कविताओं में उनका राठीपन  बोलता है ।  यह शम्भू जी का ठेठ राठी कवि  ही कह सकता है कि ---हमारे आसपास चारों ओर एक ऐसी 'गाद'फ़ैली है जो बदबू तो देती ही है ---बीहड़ भी है । शायद ही गंदगी का ऐसा विशेषण परक बिम्ब कविता में किसी ने दिया हो । गंदगी सच  में बीहड़ ही होती है । उसमें पैर धंसते हैं और निकला नहीं जाता ।यह भौतिक ही नहीं होती , मानसिक उससे ज्यादा होती है । उनकी एक छोटी सी कविता जीवन-अभिप्राय को बहुत दूर तक ले जाती है और शब्द की महिमा को अर्थ के रूप में सचाई के बहुत समीप पंहुचा देती  है ।  आज के इस मूल्य-क्षरण के युग में इतना सटीक बिम्ब वही कवि ला सकता है , जो जिन्दगी के सबसे निचले पायदान से जुड़ा  हो ।जहां से शम्भू जी आते हैं , राठ -हरियाणे  का  वह  इलाका कुछ अलग तरह का है । हमारे यहाँ राठ अंचल के बारे में एक कहावत प्रचलित है ---'-काठ नबै , पर राठ ना नबै' । कुछ ऐसा ही काठीपन शम्भू यादव की कविताओं में है । वे लिखते हैं------"यह कैसी गाद फ़ैली है /बीहड़ और बदबूदार //जहां भी पैर रखो , धंसते हैं / " वे सरल कविताएँ लिखते है लेकिन यह भी सच है कि सरल रेखा खींचना सबसे मुश्किल होता है । उनकी कुछ  व्यंजनाएं  हमारे ह्रदय को विकल कर देने की क्षमता रखती है ------"घर में लडकी जवान है /एक अधूरा लघु-वृत्त /डिब्बे में बंद है / " 

Saturday 26 October 2013

भूमि सुधार होना ही पर्याप्त नहीं है , उनको लागू करवाना उससे भी कठिन और महत्त्वपूर्ण  कार्य  है । अब तो रीयल एस्टेट वालों ने अपना रिश्ता भूमि से जोड़ लिया है जो अकूत मुनाफ़ा बटोर रहे हैं । हमारे यहाँ के मजदूर संगठन भी खेती के पुराने जातिवादी -सम्प्रदायवादी संस्कारों से ग्रस्त  रहते हैं ।वे आते तो कृषि-क्षेत्रों से ही हैं । शहर में आकर उनका धंधा  बदलता है बिरादरी नहीं बदलती ।  इसलिए हमारे यहाँ  कृषि-संगठन ही सारे संगठनों की बुनियाद ठहरता है । मध्यवर्ग भी उसी के संस्कारों की लपेट में रहता है । रोटी और सुविधाएं तो सभी को चाहिए , जब जीवन में नैतिकता का क्षरण होता है तो पुरानी  काम की चीजें याद आने लगती हैं और व्यक्ति का कमजोर मन चुपचाप , दबे पांव उसके पीछे चलने लगता है । जो नहीं चलता , वह "निराला' हो जाता है ।
आज भी छोटे शहरों और कस्बों में बड़े बड़े जाति - सम्मलेन होते हैं और उनमें अपनी ताकत दिखाकर किसी भी राजनीतिक दल से टिकिट मांगे जाते हैं ।जातियों की कुरीतियों को हटाने और उनमें महिला की   दुस्थिति पर ज्यादा कुछ नहीं होता । इस बात पर तो शायद ही कोई चर्चा होती हो कि एक जाति के भीतर दो जातियां होती हैं । एक जाति का अमीर वर्ग और दूसरा गरीब वर्ग । एक ही जाति के गरीब्वर्ग से गरीब ही रिश्ता करता है उसका अमीर वर्ग अपनी ही जाति के गरीब को अपने से नीची हैसियत का मानकर अपने दरवाजे तक से दूर रखता है । किन्तु   जाति  का मनोवैज्ञानिक और  सामाजिक बंधन इतना जटिल है कि वह नौकरी  लगाने , ट्रान्सफर कराने , कोर्ट कचहरी का काम कराने और इसी तरह की धंधों से जुडी बातों में जन दबे-छुपे नज़र आता है तो उसकी विविध रंगों भरी भूमिका को मानना पड़ता है । भले वह सच न हो , वास्तविकता तो है ।आजकल जाति -सम्प्रदाय  राजीतिक मोर्चे पर सबसे प्रभावी हैजहां से सत्ता के स्रोत निकलते हैं । सत्ता के खेल से कौन बचा है क्योंकि जीवन में हरेक का कोई न कोई काम मौजूद है । खुद का नहीं है तो बेटे बेटियों का है , दोस्तों का है । कोई न कोई हथकंडा अपनाए बिना इस व्यवस्था में केवल नैतिकता के आधार पर शायद ही किसी का कोई काम हो ।  अभी कुछ दिन बाद ही  अखबारों में पढ़ लेना जब विधान सभा- क्षेत्रों के अनुसार  अखबार जाति -मतदाताओं की संख्या जारी करेंगे ।जाति और सम्प्रदाय विकट  पहेली है । पूंजीवादी व्यवस्था आने पर यह हटनी चाहिए थी लेकिन कृषि-प्रधान अर्थ व्यवस्था के चलते हमारे जैसे देशों में पूंजी और सामंती प्रवृतियों का गठजोड़ हुआ  इसलिए हमारे  यहाँ जाति -सम्प्रदाय आर्थिक -राजनीतिक प्रक्रियाओं  में भी संगठनकारी  भूमिका निभाते हैं । यदि कृषि का सही मायने में औद्योगीकरण  होता तो यहाँ  भी जाति -वर्ण-सम्प्रदाय की चूलें ढीली होती । कहने का मतलब यह है कि आज तक भी हमारे कृषि-सम्बन्ध नहीं बदले हैं । १ ८ ९ ४ का अंग्रेजों द्वारा बनाया हुआ ---भूमि अधिग्रहण क़ानून -----आज तक चला हुआ आ रहा था । उसकी जगह २ ० १ ३ में नया क़ानून आया है । कृषि-जीवन की उपेक्षा सर्वत्र है   । 

Friday 25 October 2013

यह दरअसल हमारे बुनियादी खेतिहर जीवन की समस्या है । पेड़ की जड़ें आज भी कृषि-प्रधान ग्रामीण जीवन में हैं , जहाँ आज सबसे ज्यादा गरीबी की मार है । उन्ही संस्कारों से जब कोई व्यक्ति पढ़-लिखकर या किसी अन्य धंधे के  लिए नगर या महानगर में आता है तो बुनियाद में बसे संस्कारों को नहीं छोड़ पाता  । एक जाति  में पैदा होता है , उसी में ब्याहता है , उसी खोल में नौकरी प्राप्त करता है , बाल-बच्चे भी उसी माहौल में पैदा होते हैं , स्कूल-कालेज भी जाति  को याद कराते हैं फिर आ जाती है राजनीति , ये भी उसी की याद दिलाती  हैं , मीडिया के समीकरण और चिंताएं भी वही । फिर बदलाव आए कहाँ से । और कौन लाए । सब आसान  रास्तों पर चलना चाहते हैं । कबीर ने खूब कहा कि ---जाति  न पूछो साधू की ---पर कुछ हुआ । इस कान से सुना  और उस कान से निकाल दिया । थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिली तो जाति के घेरे में ही मिली । यह ऐसी हकीकत है जिससे कैसे निपटा जाए , यह सवाल हमेशा बना रहता है ?
साहित्य में अपनी जिन्दगी तक सीमित रहने के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी सीमाएं होती हैं । इसीलिये वहाँ अनुभववाद की जो सीमाएं होती हैं , आए बिना नहीं रहती । निराला , प्रेम चंद अपने भोगे तक ही सीमित रहते , तो बड़ी रचना ----कालजयी -----शायद ही कर पाते । व्यक्ति में यह क्षमता है कि जैसे वह अपने ज्ञान का विस्तार कर लेता है वैसे ही वह अपना अनुभव और  दृष्टि-विस्तार भी करता है ,जो उसके संवेदना जगत को दूर दूर तक फैला देते  है । लिखता तो हर व्यक्ति ही अपने अनुभव की बात है , किन्तु वह वहीं तक सीमित होकर नहीं रह जाता । संकोच और विस्तार के  वैरुद्धिक सामंजस्य की कला है साहित्य ।

Thursday 24 October 2013

कविता   का सम्बंध जीवन के सभी क्षेत्रों से होता है , वह सर्वव्यापी है --अंतरात्मा से लगाकर विश्वात्मा तक । उसका एक देश होते हुए भी वह निरंतर उसका  अतिक्रमण करती है । संकीर्णताओं से उसे घृणा होती है । वह अपनी सह-कलाओं से अपना गहरा नाता रखती है । करुणा  के बेहतरीन गायक स्मृतिशेष  मन्ना  डे ने जो गाया है ,वहाँ से शब्द-रचना को अलग कर लीजिये ,उसका सीधा सीधा असर उनके गायन पर भी दिख जायगा । शब्द-रचना भी वहाँ बड़े सलीके वाली है । और लोक -जीवन की तरंगों का गहरा असर उन पर है ।  उनके भीतर का नाद उन शब्दों से होकर  जाता है जो  सही कंठ की कला पाकर  अभिभूत करने वाला बन जाता है । लेकिन शब्दकार की गिनती यहाँ भी सबसे पीछे होती है । जैसे आज की कविता में नाद तत्त्व बहुत छीजा हुआ है , इससे भी वह सूखी और नीरस हुई है । जहां भी   लोक-स्वर की संगति  में वह आई है वहीं उसका नाद-सौष्ठव अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहा है । सरसता लाने में शब्द- नाद  कवि की बड़ी मदद करता है । छंद बंधी कविताओं में कवि का वर्ण-मैत्री पर  बहुत जोर रहता था ।और कवि-गण सभी तरह की कलाओं में रूचि लेते थे । निराला स्वयं संगीत के बड़े जानकार थे और उनकी  कविताओं की पढंत में वह कला झलकती थी । गुरुदेव रवीन्द्र के साहित्य में संगीत उसकी आत्मा बन गया है ।मुक्त छंद की कविताओं में वह आए , यह चुनौती है । यह नाद तत्त्व वहाँ है , जहां कवि अपने लोक के नज़दीक है ।  
प्रकृति ने दो तरह के अखरोट---कठोर और कोमल ----- जरूरत और प्राकृतिक नियमों के तहत बनाए हैं । जीवन भी एक जैसा नहीं होता । उसमें मृदुता और कठोरता  के विरुद्धों का सामंजस्य रहे तो न केवल संतुलन आता है बल्कि उसका सौन्दर्य भी दुगुना हो जाता है । जहां तक कविता की सम्प्रेषनीयता  का सवाल है , उसका सम्बन्ध कवि के भाषा पर अधिकार से है । यदि उसकी शब्द-साधना यानी जीवन-साधना कमजोर है तो सम्प्रेषण का संकट पैदा हुए बिना नहीं रह सकता ।

Tuesday 22 October 2013

निलय उपाध्याय की कविता
जीवन का कोई विकल्प नहीं -----------
निलय  बहुत सलीके के व्यक्ति हैं और सलीकेदार कवि भी । अपने समय के सबसे सक्रिय और संघर्षमय जीवन और उसकी परिवर्तनशील प्रक्रिया में स्वयम सक्रिय  और गतिवान रहते हुए वे काव्य-रचना करते चले आ रहे हैं । गाँव से लगाकर महानगरीय जीवन की यातना उन्होंने झेली हैं । इसके बावजूद वे टूटे नहीं । जिन्दगी की गहरी से गहरी खाई और खड्ड उन्होंने देखे ही नहीं , भोगे भी । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगता रहा जैसे कोई मेरे बहुत नज़दीक आकर मेरे कान में जीवन के मधु-तिक्त रसों को घोल रहा है । एक ऐसी कविता , जो अपनी ओर खींचती है । जिसे पूरा पढ़ना पड़ता है , यह आज बहुत मुश्किल है । निलय ने अपनी एक जगह बनाई है , वे अपनी जगह से विचलित नहीं होते । उनको मुम्बई से भी अपना आरा दिखाई देता है जैसे सूर - मीरा को ब्रज दिखाई देता था , कबीर को भोजपुर और तुलसी-जायसी-मंझन -कुतुबन  को अपना  अवध । यहाँ तक कि भूषन, ठाकुर और ईसुरी  कवि को अपना बुंदेलखंड । हर  कवि की अपनी जमीन होती है , उसकी संकीर्णता नहीं । यह उसके मुक्त विचरण का जनपद है , जिसके बिना कविता पूरी नहीं होती । यहाँ उसे मनुष्य के चेहरे मिलते हैं और थोड़ी बहुत मनुष्यता के भी दीदार यहीं होते हैं । जो उम्मीद के लिए जरूरी है ।
            अपनी कार्मिकता,जीवन-दृष्टि और विश्वबोध से जिस तरह वे अपने समय के वस्तुगत को आत्मगत करते हैं और आत्म की वस्तु-गतता  की अभिव्यक्ति  करते हैं ,वह किसी भी तरह के लोभ-लालच से कोसों दूर है । यह उनकी भाषा-भंगिमा से पता चलता है । कवि खुद मेहनत के सरोकारों से निकला है । वह खेत की हर मेढ़ पर जैसे घूमा है , खलिहानों की गर्माहट को जिसने भीतर तक संजोया है । इसीसे उनकी निजता का सृजन हुआ है । एक साथ उनके तीन कविता संग्रह पढने को हासिल हुए ----अकेला घर हुसैन का (१ ९ ९ ३ ) , कटौती (२ ० ० ० ) और जिबह -बेला ( २ ० १ ३ ) । वे किसान - जीवन के अनुभूति-संपन्न रचनाकार हैं । आज जब एक अच्छा भला किसान आज की महानगरीय आवारा पूंजी के व्याघ्र-व्यूह में फंसता है तो वह आत्महनन तक पंहुच जाता है । इससे जो बचैनी और त्रास कवि को भीतर तक हिला देते  हैं ,उनसे निलय की कविता एक झरने की तरह फूट  पड़ती है अपनी पूरी  मार्मिकता और जन-वैचारिकी के साथ ।  यही खूबी है कि आज भीडभाड भरी कवियों की दुनिया में उसका चेहरा अलग से पहचान में आता है और उसके पास बैठने को मन करता है । कविता वही तो होती है , जो अपने पाठक को झाला देकर खुद अपने पास बुलाती है । इसलिए अपने समय की जन-वैचारिकी और भाव -सलिला से उसकी गहरी और जीवन-विधायिनी संगति  होना जरूरी होता है । कविता का स्थापत्य कई स्तम्भों पर टिका होता है । किन्तु वे एक दूसरे से इतने सटे होते हैं कि उनको  अलग करने का मतलब होता है , वास्तु का बिखर जाना । यहाँ कविता की वस्तु  और
वास्तु दोनों का भेद मिट गया है ।
निलय की काव्य-भाषा का व्याकरण भोजपुर जनपद की जमीन तक ले जाता है । इससे हिंदी की काव्य-भाषा और समृद्ध हुई है । अपने गाँव, खेत , खेतिहर किसान और उससे सटे शहर-कस्बे ' आरा के चौक ' की तरह देश में हर जगह ऐसे 'आरा चौक ' हैं जहां खेतिहर मजदूर अपने श्रम के बदले में गुजारे लायक , कभी वह भी नहीं , पा लेते हैं । इन सब की खबर अपने दूसरे संग्रह की कविताओं में   निलय , मनबोध बाबू को  पात्र लिखकर देते हैं । ये स्मृति -शेष चन्द्र भूषन तिवारी है , जिनका जन-वैचारिकी के प्रसार और तदनुरूप आचरण करने में बहुत बड़ी भूमिका रही है । सच तो यह है कि निलय का प्रेरक व्यक्तित्त्व वे ही हैं । इस पूरे संग्रह का नेतृत्त्व उनके  ही हाथों में है । ऐसा क्यों है , कवि बतलाता है -----
                                                   एक तुम्ही हो , जो नष्ट करने की इस क्रूरतम तकनीक को विकास
                                                   नहीं मानते । इस विशाल ब्रह्माण्ड से निकल कर मेज की दराज में
                                                    नहीं अत पाते ।
जो लोग मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता में 'सम्प्रेषण-बाधा' की शिकायत अक्सर करते रहते हैं , उनको एक बार निलय की कविता अवश्य पढनी चाहिए किन्तु एक शर्त के साथ कि उन्हें  श्रम की ताकतों से सहानुभूति हो । निलय लोक की धरा के कवि हैं , जो मेहनत  और मेहनतकश  के दर्शन पर टिकी हुई है , जो निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार , मुक्तिबोध ,कुमारेन्द्र , कुमार विकल , विजेन्द्र , ज्ञानेंद्रपति, मानबहादुर सिंह आदि कवियों की परम्परा की अगली कड़ी है । वे एक कद्दावर किसान-कवि हैं । यह तो बानगी मात्र है । उनकी कविता की ताकत का पूरा उदघाटन नहीं । बस इतना ही कहना है कि उनके यहाँ जीवन की कोई कमी नहीं , वह जीवन से लबालब है और यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है ।

Monday 21 October 2013

सरकार--शब्द में ही कुछ है कि दुनिया उस पर लट्टू हो जाती है । जहां दुनिया है वहाँ सरकार है और जहां सरकार है वहाँ दुनिया है । इसके बीच विज्ञान की मुसीबत है ,उसे कोई इधर से किक लगाता है कोई उधर से । बचा सकें तो बेचारे विज्ञान को पिटने  से बचाओ , सभी उसकी दुर्गति करने पर उतारू हो गए हैं ।

Sunday 20 October 2013

लोक संगीत जमीन और जीवन की ऊर्जा से उपजी कला है ,जिसमें स्त्री जीवन का दर्द इस तरह मिला हुआ जैसे नीर-क्षीर ।
सदानीरा--संपादक -आग्नेय ,भोपाल,/ सेतु- सम्पादक -देवेन्द्र गुप्ता , शिमला /एक और अंतरीप -जयपुर ----एक-एक दिन के अंतराल से प्राप्त हुई हैं । 'सदानीरा'में सुधीर रंजन सिंह ने ब्रेख्त की एक कविता की अच्छी टीका की है ।  छोटी सी कविता है । जितनी आसान , उतनी ही मुश्किल ----ऐसी द्वंद्वात्मकता लाना साधना का काम है ------

कसीदा  कम्युनिज्म  के  लिए -----

यह तर्कसंगत है , हर कोई इसे समझता है ।  आसान  है । 
तुम तो शोषक नहीं हो , तुम इसे समझ सकते हो ।
यह तुम्हारे लिए अच्छा है ,इसके बारे में जानो ।
बेवकूफ इसे बेवकूफी  कहते हैं और गंदे लोग इसे गंदा कहते हैं ।
यह गन्दगी के खिलाफ है और बेवकूफी के खिलाफ ।
शोषक इसे अपराध कहते हैं ।
लेकिन हमें पता है ,
यह उनके अपराध का अंत है ।
यह पागलपन नहीं ,
पागलपन का अंत है ।
यह पहेली नहीं है
बल्कि उसका हल है ।
यह वो आसान सी चीज है
जिसे हासिल करना मुश्किल है ।
और कुछ चाहे हो या न हो , फेस बुक आदमी की शिनाख्त करने में बहुत मदद करती है । उसके शब्द ही उसकी शख्सियत की गवाही देते हैं । उसकी गहराई और उथलापन  दोनों का साथ-साथ पता चल जाता है ।

Saturday 19 October 2013

आवारा पूंजी के शिकारी जमाने में 
 " बुद्धत्त्व" प्राप्त हुआ जिनको
बुढापा अच्छी तरह से कटेगा
एक विचारधारा की नाव से
जब नदी पार नहीं होती
तो वह कितनी ही नावों में
बैठकर जिन्दगी के मजे लेता है
पर भूल जाता है
कि आत्मा के साथ किया छल
कभी चैन से जीने नहीं देता । 

Friday 18 October 2013

कविवर पाश को
कहाँ पता था
कि यह देश कैसे कैसे
सपने देखता है
सपने यहाँ न कभी मरे हैं
न मरेंगे
यह सपनों की कोख में पला - बढ़ा है
यह अलग बात है कि
इसके सपनों  के नीचे
जमीन की ऊबड़-खाबड़ सतह
नहीं होती । 

यह सपनों का देश है यहाँ कर्म से ज्यादा सपने बिकते हैं । सपनों के बेचने वालों से ज्यादा खरीददार हैं । स्वर्ग का सपना और नरक का भय दिखाकर यहाँ न जाने कब से यह व्यापार चल रहा है । अब तो इसमें विज्ञान और उससे विकसित तकनीकों का भरपूर उपयोग किया जा रहा है । मीडिया इसमें अपने तरीके से टीआर पी देख लेता है ।

Friday 11 October 2013

कश्मीर के घर

ये हमारे घर हैं
जंगली घास क्यों उग आई है यहाँ
इनके भीतर
घुटनों के बल जो चले हैं
उनका दर्द अब
मैदानी जमीन पर
घिसट  रहा है
ऐसा क्यों होता है ?
और कौन कर जाता है ऐसा ?
आदमी की जात पूछकर
अब भी लोग पानी क्यों पीते हैं ?
आदमी को आदमी क्यों नहीं
रहने देते लोग ?

बदलने होंगे रास्ते

इन रास्तों पर
रोपे  जा रहे  हैं बबूल
ताकि बिखरे रह सकें कांटे
रास्ता  जो
खुद नहीं खोज सकता
वह सांप की तरह 
दूसरों के बनाए बिलों की
तलाश करता है

यह समय
दूसरों को धक्का देकर
अपना घर बनाने का समय है
अपने प्रासादों को
उठाने का समय है
यहाँ खेतों की दर्द भरी कहानी सुनने को
कोई तैयार नहीं
यहाँ पोखर के किनारे
बगुलों का बसेरा है
जो केवल आखेट करने की कला जानते हैं
अब स्मृतियाँ धोखा खाने लगी हैं
क्वार में बरसे मेघों की सिफ्त को
भूलने में जो अपना भला समझते हैं
उनसे अब कोई उम्मीद नहीं

जब ये नीम -पीपल की काठी वाले
लोग खड़े होंगे
तब ही बदलेगा
लाल किले की प्राचीर से दिया
राष्ट्र के नाम संबोधन ।

Thursday 10 October 2013

दिल्ली किसे नहीं जाना पड़ता
पर मुझे कभी
अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
मनभावन तो कभी नहीं
जैसे सुरसा के मुख में
प्रवेश कर रहा हूँ


वहाँ बहुत तरह के लोग हैं
अच्छे भी बुरे भी नामचीन
पर मुझे कभी अच्छा नहीं लगा
दिल्ली जाना
धनवान, बुद्धिमान , वैभव-संपन्न
शक्तिवान कितने तरह के लोग
चौड़ी चमकती सड़कें
बल खाते कमल की पंखुड़ियों -से
खिलते और चलते पुल

लाल किला
जहां १ ५ अगस्त का सूरज
हर साल उदित होता है

आकाश छूती क़ुतुब मीनार
और आदमी से सौदागरों में
बदलते शतरंज के खिलाड़ी
१ ९ १ १ में राजधानी वाली
घेर-घुमेर नई दिल्ली
बिल्लीमारान में कभी
मेरे पिता  रहे थे
गरीबी के दिनों को
फसल की तरह काटने की
 चाह लिए

दिल्ली लुभाती है
बाँध लेती है गले को
जैसे लोभ पाश में
फिर होने लगते हैं
आत्मा के सौदे
आजादपुर मंडी  में
जैसे आलू-प्याज के

वह डराती है
प्यार के सरोवर भी होंगे
वह खुद को प्यार करते रहने
की देती है सीख
दिल्ली बहुत अच्छी है
भव्य है आलीशान है
 अजायब घर जैसी
सब कुछ अपने में समेटे हुए । 
 

Tuesday 8 October 2013

फेस बुक की भूमिका पर अक्सर बहस चलती है कि सोसल मीडिया का यह नया और असरदार हथियार है । यह सही है किन्तु फेस बुक से ही सब कुछ नहीं हो सकता । आभासी और वास्तविक दुनिया के द्वद्वात्मक रिश्तों की लय  में बात होगी  तो व्यक्तिवाद ख़त्म हो सकता है । जो  व्यक्ति जन्म से ही व्यक्तिवाद का शिकार है , उसे कोई रास्ते पर नहीं ला सकता । यदि व्यक्ति अपने जीवन-व्यवहार में व्यक्तिवादी तौर-तरीकों से काम निकालता है तो वह फेस बुक पर भी वैसा ही करेगा  ।इसका एक पूरा मनोविज्ञान है  फिर हर चीज के दो पहलू हैं ।  आप इससे बच  नहीं सकते । एंटी-बायोटिक्स जीवाणुओं को भी रुग्नाणुओं  के साथ-साथ मार देती है , फिर भी लोग जरूरत पड़ने पर एंटी-बायोटिक्स  लेते ही हैं । सोसल मीडिया के इस नए अवतार को ज्यादा से ज्यादा वस्तुगत बनाइये और आत्मगतता की छोंक लगाइये तो अन्धेरा मिट सकता है । यह सार्वजनिक मामला है , जिसके ऊपर मानवता-विरोधी ताकतों का पहरा भी  लगा  हुआ है ।
बाज़ार में पशु-न्याय चलता है । बड़ी मछली छोटी मछली को खाते देर नहीं लगाती । मनुष्य- न्याय यह नहीं है, वहाँ कमजोर की रक्षा करने का प्रयत्न होता है । पूंजी की व्यवस्था पशु - न्याय से चलती है । इसीलिये समाजवादी व्यवस्था ही पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प हो सकती  है , जो व्यक्ति को पशु-न्याय से बाहर निकाल कर मनुष्य-न्याय की तरफ ले जाती है ।
दुनिया में कोई विरल ही  होगा , जो चाटुकारों की गिरफ्त में आने से बच  सके । परमात्मा को भी चापलूसी से वश में करने का गोरख-धंधा दुनिया ने इसी  व्यवहार से  सीखा  है । यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया में कभी अंधभक्त पैदा नहीं होते ।

Monday 7 October 2013

 हमको तुलसी और कबीर में बनावटी लड़ाई करने से बचना चाहिए ।  कबीर का अपना बहुत बड़ा योगदान है , जो तुलसी से कम नहीं किन्तु तुलसी का अपना बड़ा योगदान है , जो कबीर से कम नहीं । कबीर शिल्पी समाज की भावनाओं को व्यक्त करते हैं तो तुलसी किसान जीवन के ज्यादा निकट हैं । समय और समझ  के अन्तर्विरोध दोनों में ही है । तुलसी राम राज्य का एक आदर्शवादी विकल्प सुझाते हैं तो कबीर प्रेम-राज्य का । कबीर कहते हैं ----"-प्रेम न बारी ऊपजै , प्रेम न हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै ,सीस देय ले जाय ॥ "विकल्प के मामले में दोनों आदर्शवादी हैं । अब रही हमारे समय की बात , । उसका विकल्प तो हमको स्वयम को खोजना होगा । विकल्प कभी भूतकाल से नहीं मिला करते । समय-समाज निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में रहते हैं , लेकिन हमारा अतीत बहुत सी बातों में हमारा सहयोग करता है । हमारे कालजयी ग्रन्थ , केवल हमारे ही नहीं , दुनिया भर के कालजयी ग्रन्थ हमारी वर्तमान में सहायता करते हैं । हम उनसे बहुत सी बातों में उल्लसित , प्रेरित व उत्साहित होते हैं । वे वर्तमान की हमारी हताशा को दूर करते हैं और कोई रास्ता निकाल लेने में हमारी मदद करते हैं । जरूरत उन आँखों की अवश्य है जो उस इबारत को पढ़ सके । जो साहित्य में विचार के साथ भाव के हामी हैं उनको कबीर, सूर , तुलसी , मीरा , जायसी आदि में बहुत कुछ ऐसा मिल जायगा , जो आज भी हमारे बड़े काम का है , बाकी तो अपने युग की भाव-विचार रचना हमको स्वयम करनी है । सब कुछ कबीर-तुलसी ही पहले से कर जाते तो फिर हम आज क्या काम करते ? आज की कविता तो आज का कवि ही लिखेगा ।

Sunday 6 October 2013

तर्कशील व्यक्ति अपनी हकीकत  को छुपाने के हज़ारों तर्क खोज  जो लेता है । अविवेकी इस मामले में हमेशा फिसड्डी रहता है अविवेकी न होता तो एक वर्ग दूसरे  बड़े वर्ग  को बेवकूफ बनाकर 'लोकतंत्र' के नाम से राज नहीं कर पाता ।

सच में सच्ची कविता वह है जो "पुकारती हुई चली जाए" ।मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में लिखा है -----"मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं ।" जब मूल्य संपन्न जीवन जीने की आकांक्षा , ललक और तदनुरूप आचरण होता है तो व्यक्ति-रचना , लोक- रचना की तरह आती है  । उसमें  प्रस्तुत के साथ जो अप्रस्तुत विधान आता  है और  जिन्दगी के जो अनूठे और जीवंत रूपक आते हैं ,वे अपनी जमीन से पौधों की तरह उगते हैं , उनकी अपनी जमीन , प्रकृति और जीवन प्रवाह होता  है । कविता वह है जो  बरबस हमको अपनी ओर खींचती है , जो हमारे दिल और दिमाग की वाणी बनती  है । अपनी धरती में रचा बसा लोक-मग्न ह्रदय ही ऐसी अभिव्यक्ति कर सकता है । जहां भाव और विचार की एक जीवन-सिक्त धारा सी   भीतर-भीतर प्रवाहित  होने लगती है और हमारा मन उसमें डूबने  और बदलने के लिए प्रेरित होने लगता है । बड़े कवि-व्यक्तित्त्व इस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं और यह कवि की विकास -यात्रा का प्रमाण होता है ।  
सच में सच्ची कविता वह है जो "पुकारती हुई चली जाए" ।मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में लिखा है -----"मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं ।" जब मूल्य संपन्न जीवन जीने की आकांक्षा , ललक और तदनुरूप आचरण होता है तो इसी तरह की रचना जन्म लेती है । यहाँ प्रस्तुत के साथ जो अप्रस्तुत विधान है , जिन्दगी के जो अनूठे और जीवंत रूपक हैं , उनकी अपनी जमीन , प्रकृति और जीवन प्रवाह है । ऐसा कविता में बहुत कम आ पाता  है , जब वह बरबस हमको अपनी ओर खींचती है , जो हमारे दिल और दिमाग की वाणी बनती  है । अपनी धरती में रचा बसा लोक-मग्न ह्रदय ही ऐसी अभिव्यक्ति कर सकता है । जहां भाव और विचार की एक जीवन-सिक्त धारा सी प्रवाहित  होने लगती है और हमारा मन उसमें डूबने  और बदलने के लिए प्रेरित होने लगता है । बड़े कवि-व्यक्तित्त्व इस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं । बहुत अच्छी कविता की प्रस्तुति के लिए बधाई ।
आज कई दिनों बाद फेस बुक पर आया ,। बीच- बीच में छोड़ देता हूँ । लगता है कहीं इसकी लत न लग जाये । आज  आदरणीय विजेन्द्र जी का तुलसी ,दलित और वर्ग-चेतना से सम्बंधित लंबा वक्तव्य पढ़ा  । तुलसी को लेकर यह बहस बहुत पुरानी है । प्रगतिशीलों-जनवादियों में भी दो धड़े रहे हैं जिनमें एक धडा तुलसी को उनकी  कुछ चौपाइयों के आधार पर प्रगति-परम्परा में नहीं मानता । सवाल परम्परा का है । हमारी कलाओं में बहुत कुछ ऐसा है जो हजारों साल चले सामंत -काल  में व्यक्ति और वर्ग-शोषण के आधार पर निर्मित हुआ है । किन्तु हम वहां इस पक्ष को भूल कर उसकी कला को चुनते हैं और वह हमको मेहनतकश की दृष्टि और  श्रम का एक कलारूप दिखाई देता है । व्यक्ति- रचनाकार के सन्दर्भ में हम इसको भूल जाते हैं कि समय की गति नदी जैसी नहीं होती । व्यक्ति अपने श्रम और मेधा से जिस समय को रचता है , उसकी सीमाएं होती हैं । कालिदास ने ही कहा है  कि " पुराना सब कुछ त्याज्य नहीं है और नया भी सब कुछ वन्दय नहीं है " । तुलसी ने स्वयम संग्रह -त्याग का नियम दिया है ----संग्रह त्याग न बिनु पहचाने । निस्संदेह, उनके यहाँ स्त्री और दलित समाज के बारे में जो कहा गया है , वह आज प्रासंगिक नहीं है । और वह सामंतवादी व्यवस्था भी जो वंशानुक्रम पर आधारित है । लेकिन सामंत वाद में भी वे एक आदर्शवादी विकल्प देते हैं , जिसके महात्मा गांधी सरीखे अति लोकप्रिय जन-नेता  कायल होते हैं । गांधी जी चूंकि तुलसी को पसंद  करते हैं इसलिए उनसे लोग अक्सर ऐसे ही प्रश्न किया करते थे । उन्होंने ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुएएक जगह पर  लिखा है --"इस तरह प्रत्येक ग्रन्थ और प्रत्येक मनुष्य को दोषमय सिद्ध किया जा सकता है " । उन्होंने लिखा है कि ---" तुलसीदास जी ज्ञानपूर्वक स्त्री जाति के निंदक नहीं थे । ज्ञानपूर्वक तो वे स्त्री-जाति के पुजारी ही थे ।" यही बात शबरी और निषाद के उदाहरणों से उनके दलित विरोधी कथनों के बारे में कही जा सकती है । दरअसल , इतिहास और परम्परा को जानने का एक नजरिया होता है जिससे हम उसके सारतत्त्व को ग्रहण कर सकें । तुलसी का सारतत्त्व " लोकवादी " है , इसमें संदेह नहीं होना चाहिए , उनकी सीमा को स्वीकार करते हुए । अन्यथा स्त्री विरोध के नाम पर कबीर भी स्वीकार्य नहीं होंगे ।