Wednesday 13 November 2013

मुक्तिबोध को जितनी बार पढ़ा जाय , उतनी ही बार अपने  बहुआयामी अभिप्रायों के साथ ह्रदय में प्रवेश करते हैं । जिंदगी को इतना गहरे उतरकर जीना या तो निराला को आया , या प्रेम चंद  को या फिर मुक्तिबोध को ।अपनी "भूल-गलती" को मानना और उस पर अनेकशः कवि -कर्म करना ,यह कोई मुक्तिबोध से सीखे । जितनी बार पढ़ो , उतनी ही बार लगता है कि किसी गहरे सागर में उतर रहे हैं । क्या नहीं लगता कि "कतारों में खड़े खुदगर्ज़ -बा-हथियार /बख्तरबंद समझौते / " आज नहीं चल रहे हैं ।और इसी के साथ हम एक विभाजित व्यक्ति की तरह अनेक हिस्सों में टूक-टूक नहीं हो रहे हैं । आज का आदमी काच  की टूटी किरचों से भी ज्यादा बिखरा  हुआ लगता है ।" दिल में अलग जबड़ा ,अलग दाढ़ी लिए ,/ दु मुंहेपन की सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे/ दढ़ियल सिपहसालार संजीदा /सहमकर रह गए " ।मुक्तिबोध ने भविष्य और प्रत्येक मनुपुत्र पर विश्वास किया था और भविष्य के बारे में सोचा था-----
                                                              महसूस होता है कि यह बेनाम /  बेमालूम दर्रों के इलाके में / मुहैया कर रहा लश्कर /
                                                                हमारी हार का बदला चुकाने आयगा /
                                                              संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर ,
                                                              हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
                                                               प्रकट होकर विकट  हो जायगा ।
जो मुक्तिबोध को अपने जमाने में लगता था , वह उन्होंने आशान्वित होकर लिखा है । किन्तु उन्हें कहाँ पता था कि अभी वे दिन बहुत  दूर हैं ।  उन्हें कहाँ  मालूम था कि व्यक्ति, समाज , राज और अर्थ -संस्कृति सब एक ऐसे चंगुल में फंसा दिए जायेंगे कि हमारी संकल्पधर्मा चेतना का स्वर , न तो संकल्पधर्मा रह पायगा और न ही रक्तप्लावित । ह्रदय का जो गुप्त स्वर्णाक्षर है वह भी कहीं अँधेरे में डूब जायगा । उसके प्रकट  होकर विकट होने की बात तो बहुत दूर है । बहरहाल , आशा ही बलवती है और इसी से दुनिया बदलती है और पीछे हटती -सी लगती हुई भी कहीं न कहीं आगे भी बढ़ती है ।इसी को मानते रहने में मानवता का भविष्य ललाईमय लगता  है ।   

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