Monday 11 November 2013

राजनीति पर  लिखने की इच्छा
सुबह के सूरज की तरह
उगती है पर
जब देखता हूँ कि
मेरे अपने नगर-कस्बे  और गांव में
कूड़े के ढेर पड़े हुए हैं
गरीबी के रेगिस्तानों में
दूर तक कुए नज़र नहीं आते
टमाटर ८ ० रपये किलो तक बिक रहा है
और उम्मीदवार करोड़ों से अरबों तक
अपनी सालाना कमाई बता रहे हैं
विवाह समारोहों में झूठ में  बचे  खाद्यान्न -
मिष्ठान्न को 
कुत्ते भी नहीं सूंघ रहे हैं
मेरा पड़ौसी हर साल अपनी कार बदल रहा है
एक अमीर अपनी बीबी के जन्म दिन पर
हेलीकाप्टर गिफ्ट कर
मेहनती  दाम्पत्य की मजाक उड़ा रहा है
अवैध कारनामों की पतंगों के पेच
लड़ाए जा रहे हैं
शक्ति-सत्ता के केंद्र गिद्धों की तरह
अपने पंख फुला रहे हैं
अतिरिक्त पूंजी के पहाड़
श्रम की सरिता का रास्ता रोके खड़े हैं
तो मेरी इच्छा को दबोच लेता है
एक तेंदुआ कहीं जंगल से बस्ती में घुस कर
तब मैं एक जंगल हो जाता हूँ
बस्ती नहीं रहता । 

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