Monday 11 November 2013

हमारी शब्दावली में 'लोकतंत्र ' ने कुछ नयी अवधारणाओं को विकसित किया है । उनमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसी दो सामाजिक संरचना सम्बन्धी अवधारणाएं हैं ।इनमें गरीब-शोषित को एक नागरिक की बजाय उसके सामाजिक-मजहबी तौर पर देखने का रिवाज़ तेज़ी से चल पड़ा है और यह चुनावों के समय ख़ास तौर से उभर कर आता है जब कोई हिन्दू-हितों का पैरोकार बनकर ताल ठोकता है तो कोई  मुसलमानो का । ऐसा लगता ही नहीं कि हम भाई भाई हैं ,भले ही हमारी जीवन पद्धति कुछ मामलों में भिन्न हो । गरीबी, त्रासदी और पीड़ा दोनों जगहों पर है क्यों नहीं ऐसा निजाम बने जो गरीबी और शोषण के विरुद्ध काम करे । जड़ को सींचने से पूरे पेड़ को पानी मिल जाता है ।   जो गरीब अल्पसंख्यक के साथ है वही बात गरी बहुसंख्यक के साथ भी तो है । दोनों की इंसानियत का रूप एक ही तो है । भेद-भाव  अल्पसंख्यकों के साथ तो है ही , किन्तु समग्र रूप में यह देश के पूरे गरीब मेहनतकश वर्ग के साथ है । अल्पसंख्यक--बहुसंख्यक  की अवधारणा   को प्रचार के द्वारा  वोट ध्रुवीकरण का एक वैसा ही  जरिया बना दिया गया  है जैसे  अपने शिकार को जाल में फंसाने के लिए बहेलिया अपना जाल फैलाकर बनाता  है ।  हिन्दू गरीब-शोषित और मुस्लिम गरीब-शोषित में क्या फर्क है ? मुझे आज तक समझ में नहीं आया , जबकि जैसे राजे -महाराजे हिंदुओं में थे वैसे ही नबाव-जमीदार मुसलमानो  में भी थे । शोषक -उत्पीड़क वर्ग   अपनी जात और मजहब का उपयोग शोषितों के  हित में न करके अपनी सत्ता को येन केन प्रकारेण सत्ता  हासिल करने के लिए करते हैं । और सत्ता  पा लेने के बाद " तू तेरे और मैं मेरे " करते हुए असहाय को ठेंगा दिखा देते हैं । पता नहीं ,  गरीब , शोषित मेहनतकश वर्ग के कब यह सच समझ में आयगा कि , जब वह खुद को केवल और केवल एक इंसान के रूप में देखेगा ?इस मौके पर मुझे मशहूर शायर जौक का एक शेर याद आ रहा है -------
                                                                                              दीनो -ईमां ढूँढता है ,जौक क्या इस वक़्त में
                                                                                             अब न कुछ दीं ही रहा ,बाक़ी न ईमां ही रहा ।   

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