Saturday 26 April 2014

उन्माद की सिला  पर बैठकर
गंगा  पार नहीं की जा सकती
गंगा  पार करने के लिए
काठ की नाव
और लहरों के परिवार का केवट  चाहिए
काठ की नाव का  पानी से तरंगसिद्ध 
नाता होता है
वह धीरे धीरे
अपना अस्तित्त्व भूल
पानी का संग पकड़ लेता है
पत्थर कभी ऐसा नहीं करता।
निस्संदेह, जनता भी लोकतंत्र में अपने नेतृत्त्व चुनाव के लिए जिम्मेदार होती है जैसी जनता होगी  नेता  भी वैसा ही होगा ।लेकिन जनता के विचार , दृष्टि , अध्ययन , स्वभाव , वर्ग इत्यादि  एक समान  नहीं हुआ करते।  बात यह भी तो है कि  जब नेतृत्त्व अपने हाथ में कमान ले लेता है तो उसकी जिम्मेदारी बढ़  जाती है।हमारे यहां  लोकतंत्र अभी ऐसा नहीं हुआ  है कि उसकी कोई सीमा न हो ,इसलिए नेतृत्त्व और जनता दोनों का एक दूसरे पर दबाव बनाये रखने की जरूरत हमेशा बनी रहती  है। जब जहाज समुद्र में  या आसमान में उड़ने वाला विमान आकाश में उड़ रहा होता है , उस समय सवार लोगों के हाथ में कुछ नहीं रहता।जब एक वर्ग के हाथ में सत्ता आ जाती है तो वह बहुत गोपनीय तरीके से उसका उपभोग करने लगता है। क़ानून भी असीमित नहीं होता ,मानव स्वभाव क़ानून की हदें लांघते हुए उसे भी अपना जैसा बना लेने की सामर्थ्य रखता है। लेकिन बदलाव की प्रक्रिया यही है कि ऐसे समूह का निर्माण करो , जो चीजों को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखता हो।  यही वजह है कि लोकतंत्र में ज्यादा  बुरे में से कम बुरे को चुनना जारी रहता है। 

Friday 25 April 2014

श्रद्धा का रिश्ता कर्म से होता है। एक बार प्राप्त किये गए यश से श्रद्धा की निरंतरता नहीं बनती।  यदि व्यक्ति ,सामाजिक कर्म के प्रति अपना दायित्त्व न निबाहे और उदारता में गच्चा खा जाए तो श्रद्धा को अपनी जगह से भागते देर नहीं लगती।  इसीलिये श्रद्धेय को हमेशा परीक्षाकाल से गुजरना पड़ता है।
गलती जहाज का चालक करता है और उसका खामियाजा  जहाज में सवार यात्रियों को भुगतना पड़ता है। जैसे देश का नेतृत्त्व गलती करता है और खामियाज़ा देश की जनता को भोगना पड़ता है।

Wednesday 23 April 2014

कुतर्क का दम्भ
अतर्क की शेखी
रूढ़ियों की तरफदारी
अंधविश्वासों की वकालत
और विमत का अनादर
कोई इनमें एक भी
हवा में लहराता नज़र आए
तो समझो फासिज्म का भेड़िया
दरवाजे तक आ पहुंचा है।

Tuesday 22 April 2014

रोड शो हुआ
न किसी की सुनी
न छुआ

अपनी ही ढपली
 अपना ही राग
अपने ही चूहे
अपने ही काग
एक मतदाता ने कहा
क्या करें
कहाँ जाएँ
अपने मन का विकल्प
कहाँ से लाएं
इधर खाई तो उधर कुआ।
दुनियावी  ज़िंदगी में विदूषक की पैठ सबसे गहरी होती है। वह जितने तरह की मार झेलता है और वह भी हँसते -हँसते , इस रहस्य को शेक्सपीयर खूब जानते और समझते थे।विदूषक को जमीनी अनुभव होते हैं ज़िंदगी के। शेक्सपीयर , कदाचित इस जीवन-रहस्य को भी जानते थे ,कि दरबारी जीवन की षड्यंत्रपूर्ण सचाइयों को जितना विदूषक जानता  और समझता है , उतना  अनुभवहीन ज्ञानी भी नहीं।  यही तो महानता है इस महान रचनाकार की। उनकी स्मृति को सादर नमन।

Monday 21 April 2014

शब्द के पीछे जितनी सत्य कहने की ताक़त होगी ,वह उतना ही लयात्मक और मर्मस्पर्शी होगा। झूठ  में रहने से शब्द की लय गड़बड़ा जाती है ,फिर गद्य भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता।  प्रेम चंद  अपने जमाने में सच के सबसे ज्यादा नज़दीक थे तो उन जैसा गद्य भी उनके समकालीन लेखकों का नहीं है। प्रेमचंद पाठक के मन में भीतर तक उत्तर जाने वाला गद्य लिखने में इसी वजह से समर्थ हुए क्योंकि उन्होंने जिंदगी के सच को बहुत नज़दीकी से समझ लिया था। कविता में निराला जी ने यही काम किया।कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी के सत्य की लय जितनी खंडित और टूटी हुई होगी ,शब्द की लय भी उसी सीमा तक उखड़ी हुई होगी। वह जितनी समग्रता में होगी ,शब्द अपनी लय को उतना ही साध लेगा। 
सच कहने , सुनने  ,समझने और बर्दाश्त करने का दायरा और माद्दा  जितना सिकुड़ता जाता है , मानवता का स्पेस उतना ही कम  होता जाता है। कदाचित अपने समय में यही होता देखकर कबीर ने कहा था ------संतो देखत जग बौराना। साँच कहूँ तो मारन धावै , झूठे जग पतियाना।
नन्द बाबू के शतायु होने की कामना।  वे  निरंतर स्वस्थ---प्रसन्न रहते हुए अपनी अदा के साथ और उन्मुक्त-प्रफ्फुलित विनोद भाव की माधुर्यमयी जिजीविषा के अनहद नाद की तरह कविता में और हमारे जीवन में गूंजते रहें।  उनके द्वारा हास्य-विनोद के रूप में कहा एक  दोहा याद आ रहा है।  यह उस समय का है , जब विश्वविद्यालय अपने मुख्यालय पर परीक्षकों को बुलवाकर  कापियां जँचवाया करता था। तब चाय पीते हुए चुहलबाज़ी और अपनी ऊब को मिटाने के उद्देश्य से हम  कुछ इस तरह सोचते थे।  कई दोहे उस समय गढ़े गए, उनमें से एक इस प्रकार से है। उनके बैसाखमासी  जन्म- दिन पर उनको समर्पित ----
-कछु बाँची ,जांची नहीं , अंक सबन पै दीन।
तुम्हरी समता को करै ,जीवन सिंह प्रवीण। 

Sunday 20 April 2014

तराजू जिसने बनाई
बहुत बड़ा आविष्कारक था वह
जितना वजन
एक पलड़े में रखा जाता है
दूसरा पलड़ा भी
उतना ही सारतत्त्व
सुलभ कराता है

जिसने समय के तराजू में
चीजों को नहीं तोला
उसके निर्णयों  में
या तो पासंग होगा
या फिर झोल।
जो यह सोचते हैं कि तरक्की के लिए तानाशाही जरूरी है ,वे नहीं जानते कि तानाशाह सत्ता के मद से बौराकर केवल सत्ता पिपासु   वर्ग के हित  में काम करता है।   वह कभी पूरे देश और समाज हित में काम नहीं  नहीं करता।  वह सिर्फ अपनी सनक से   काम करता है और उसी का  प्रचार ,समाज--देश की उन्नति के रूप में कराता है।  उन्नति एक वर्ग विशेष की होती है।  जैसे हमारे देश की पूंजी पर धीरे--धीरे बड़ी चालाकी से एक बड़े पूंजीपति वर्ग का कब्जा होता जा रहा है। जबकि    असलियत यह है कि गरीब  आज  पहले से ज्यादा गरीब हुआ है ।  हमारी नज़र अमीर और उसकी अमीरी से जब तक नहीं हटेगी ,हम असलियत को न देख पाएंगे, न जान पाएंगे। मीडिआ प्रचार  से अपना दृष्टिकोण बनाने का सबसे भारी  नुकसान यही होता है कि वह हमको तानाशाह में अच्छाइयाँ दिखाने लगता है और विवेकशून्य हो जाने की हद तक ले जाता है ,  तानाशाही ऐसे ही आया करती है। उसके लिए वही वर्ग जिम्मेदार होता है जो तानाशाही के अंदरूनी चरित्र को नहीं समझता।  जन -नेतृत्त्व के  निर्णयों की दृढ़ता और तानाशाही में बहुत फर्क होता है।बड़े वर्ग की सामूहिक आकांक्षा के आधार पर  लोकहित में लिए गए सामूहिक  निर्णयों  पर डटे  रहना और उनको वर्ग--विशेष के विरोध के चलते व्यवहार में लाने का प्रयास करना  तानाशाही नहीं होती।

Saturday 19 April 2014

कोई भी डिक्टेटर तब पैदा होता है , जब उसकी हाँ में हाँ मिलाने वालों की बाढ़ आ जाती है और विवेक उड़नछू हो जाता है।
कल यकायक
एक तितली उड़ती हुई आई
उसने मेरे काम में खलल डाला 
मैंने उसे अपने पाँव से
मसल  दिया
लेकिन यह क्या हुआ 
मेरा  मन कोसता  रहा देर तक मुझे
इसी से  मैंने जाना कि
जब मन डिक्टेटर हो जाता है
यही करता है।

Friday 18 April 2014

इतिहास के चहरे पर
चेचक के उभरते दागों  की
सही शिनाख्त करना
उसी तरह जरूरी है
जैसे रोग का निदान कर लेना।
चिंता की बात यह है
कि दीमक पेड़ की जड़ों तक
पंहुचने को है
और हम अपने घेरे के
ज्ञान----विद्यालय से
बाहर नहीं आ पा रहे हैं
पेड़ कभी घर की छत के नीचे नहीं पनपता
उसके लिए जंगल की ख़ाक छाननी पड़ती है
उन्होंने जो विष बीज बो दिए हैं
वे अब फलने को हैं

गलतियों का तूफ़ान
समुद्र की शान्ति की परवाह नहीं करता
हमको और गहरे में उतारना होगा
और जानना होगा कि
लहरें उठती कहाँ से हैं ?
कम  क्यों होते जा रहे हैं वे लोग
जो पूरब को पूरब ही जानते हैं
गलतियां कभी मुआफ नहीं करती
पर इंसानियत के लिए
हमेशा बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है
और वह भी निरंतर
इंसान बने रहकर।
 

Thursday 17 April 2014

कहते हैं
भय के बिना
प्रीति  नहीं होती
मुद्दत हुए इसको कहे
मैं नहीं समझ पाया
इसका मतलब
मैंने जब
भय के पास जाकर देखा
तो वहाँ नफ़रत की विषैली पसरकटेरी
उग आयी थी 
भय सामंती गुफाओं से
भेड़िये की तरह  निकलता है
लोकतंत्र  के उत्सव में उसके लिए कोई जगह नहीं
लोकतंत्र  चैत्र के कुसुमाकर मास की तरह होता है
जहां शिरीष की गंध
आदमी , आदमी में कोई भेद नहीं करती।

Tuesday 15 April 2014

अच्छे दिन वे
कैसे ला सकते हैं
जिन्होंने पहले से
बुरे दिन दिखा रखे हैं
बाज़ सबसे पहले अपने
 पड़ौसी पक्षियों पर ही
झपट्टा मारता है
बाज़ , बाज़ ही होता है
मुर्दा जीवन का विश्वासी
वह चाहता है ---
 अकेले का जंगल राज।
हमारे यहां  काव्य के तीन हेतुओं में प्राचीन आचार्यों ने "अभ्यास " को भी उतना ही बराबर का दर्जा दिया है ,जितना प्रतिभा और व्युत्पत्ति ---को। प्रतिभा में जीवनानुभवों का संकलन भी आता है और व्युत्पत्ति में अपने समय का सत्य--बोध तथा शास्त्रीय ज्ञान। मुक्तिबोध भी प्रकारांतर से और अपने समय के हिसाब से इन तीन कारकों का उल्लेख बार बार करते हैं।  रियाज़ और अभ्यास के बिना न विज्ञान फलित होता है ,न कला। अभ्यास हमारे जीवन की दिशा को साधे ---सहेजे रखने के काम भी आता है।कुमार गन्धर्व ने कबीर के भजनों को अपनी कला का प्रदान अभ्यास से यानी अनुभवों की नवीनता से इस तरह कर दिया था कि वह गन्धर्व की अपनी कला बन गयी। इस बहस को जिन बंधुओं ---मित्रों ने, खासकर विजेंद्र जी और कर्ण सिंह चौहान जी ने ---- उपयोगी और काम की बनाया ,उनके प्रति बहुत बहुत  आभार।  

Monday 14 April 2014

लहर की नाव पर बैठकर
जो अपना वोट देगा
क्या वह जानता है कि 
ये लहर
कुछ दूर चलकर
एक ऐसे भंवर में
बदल जायगी जो आपको
कभी किनारे नहीं लगने देगी
डूबने से बचना है तो
लहर से बचो
अपनी पतवार  स्वयं बनो
जैसे मल्लाह के हाथ
 बनते  है और नाव अपने
ठिकाने पर लगती है। 
मित्रवर कर्ण  सिंह जी ने मेरी बात में 'गया सब कुछ गया' का अर्थ खोजा है। मेरी दृष्टि में यह आज की  कवित्ता के रूप-विधान को लेकर मेरे मन में उत्पन्न हुआ प्रश्न है। कविता शब्द का प्रयोग कविता के लिए कब से शुरू हुआ ,यह तो खोज का विषय है किन्तु हज़ारों सालों से यही  शब्द चला आरहा है।उसके निरंतर परिवर्तित होते रहने के बावजूद।  इसी तरह से छंद भी।  आदिकवि वाल्मीकि के मुख से एक निश्चित लय में जो बात निकली , वही उनके लिए और बाद में दूसरों के लिए भी छंद बन गयी।  जब वही छंद अपने समय को व्यक्त करने में बाधक बनने लगा ,उसकी एक रूढ़ि बन गयी तो मुक्तिशोधक कवि ने छंद को मुक्त कर लिया और उसको अपनी एक खुली हुई  लय दे दी।  एक निश्चित -क्रम में शब्दों का स्थापत्य ही तो कविता में  लय पैदा करता है।  जो गद्य की लय से उसे अलग करता है।  कविता का शब्द-विन्यास गद्य के शब्द विन्यास से भिन्न प्रकार का होता है , यद्यपि गद्य--काव्य नाम की विधा भी अलग से चली ,किन्तु कविता के सामने वह ज्यादा टिक नहीं सकी । उसमें भावुकता की हलचल ही ज्यादा रही ,  जबकि कविता के मुक्त छंद की लय में संतुलन बना रहा। लय का मतलब जहां तक मेरी समझ में आता है कविता की अंतर्वस्तु के अनुरूप उसका विशिष्ट शब्द -विन्यास , यह कवि की कल्पना ---शक्ति  और वस्तु --अर्जन की प्रक्रिया से आता है , जिसे पुराने आचार्य सरस्वती  सिद्ध होना कहा करते थे। मेरी यह समझ है  कि पुरातनता या परम्परा जैसे सर्वथा वरेण्य नहीं होती वैसे ही सर्वथा त्याज्य भी नहीं। इतिहास भी तो अपनी तरह से मानवता के लिए प्रतिरोध और सामंजस्य के द्वन्द्वों में फलीभूत हुआ है।तभी हम आगे जाने के लिए कभी कभी पीछे की ओर भी देख लिया करते हैं। 

Sunday 13 April 2014

आजकल की कविता मुक्त छंद से छंद मुक्ति की ओर तेजी से बढ़ रही है। जबकि हमारे पुराने  और कई आज के कवि भी अपने मन में संगीत,लय और नाद-गति का संस्कार संजोये रखते हैं।  वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का बद्धमूल  संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।कवि-प्रतिभा उसे एक आतंरिक लय के रूप में अपने मन में सहेजे रखती है ,जिससे कविता का मुक्त छंद स्वरुप ग्रहण करता है। राजशेखर सरीखे आचार्य ने अपने जमाने में यह बात अपने अनुभव से लिखी थी कि कविता करना तो जैसे तैसे अभ्यास से भी हो जाता है किन्तु उसे सबके लिए पठनीय बनाना या कहें समाज  और ,सहृदय के काम का बनाये रखने का काम वे ही कवि कर पाते हैं , जिनको सरस्वती सिद्ध होती है। आज सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है ,कवि को लोक-ह्रदय की पहचान होना। राजशेखर  कहते हैं--------
                                                          करोति काव्यम प्रायेण ,संस्कृतात्मा यथातथा।
                                                          पठितुम् वेत्ति परम स ,यस्य सिद्धा सरस्वती।
सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है कवि के वाह्य और आतंरिक जीवन का व्यापक स्तर पर सामंजस्य। इसी से कविता में भाव की लयात्मक अनुगूंजें उत्पन्न होती हैं।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।अब जब से व्यक्ति संगीत का प्रयोक्ता न होकर केवल भोक्ता बनकर रह गया है तो हमारे दिल से जीवन की आनन्ददायिनी लय निकलती चली जा रही है। लय दरअसल सामूहिकता के बिना नहीं बना करती।  जीवन में अलगाव सबसे ज्यादा हमारी जीवन--लय को तोड़ने का काम करता है।  लयविहीन भाषा निरा  और थोथा गद्य होती है।लय का मुख्य काम है जीवन की तरंगों को समूहन करना ,जिससे कविता का साधारणीकरण होता है और वह व्यक्ति से समाज की संपत्ति बन जाती है।  

    

Saturday 12 April 2014

क्यों नहीं। लग रहा है कि ईशमधु जी आपका बचपन ब्रज--भूमि के इस नगर की गलियों में खेलकूदकर बड़ा हुआ है। आपकी मृदुता में कहीं इसी ब्रज की रज का कोई कण तो नहीं मिला हुआ है। ब्रज भाषा अपने माधुर्य के कारण कई शताब्दियों तक काव्यभाषा बनी रही। आपको बतला  दूँ कि 1984 या 1985 की बात है, कामां  में राजस्थान साहित्य अकादमी के एक आयोजन में ---राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी ---के गठन करने का प्रस्ताव पास किया गया था। उदयपुर से नन्द बाबू भी उसमें शामिल थे। उन्होंने अपनी काव्ययात्रा की शुरुआत ब्रजभाषा में कवित्त---सवैये रचकर की थी।आयोजन समाप्ति के बाद वे मुझे भी अपने साथ अपनी बहिन के घर मथुरा ले गए थे। मैं भी निस्संकोच उनके साथ हो लिया था। वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।
कामां ,डीग,भरतपुर ,मथुरा ,गोवर्धन की एक बड़ी खूबी है यहां का रसिया गायन। कामां ने मनोहर और गिर्राज जैसे नौटंकी के बड़े लोक  कलाकार  हिंदी को दिए हैं।पहले यहां आयोजन होते रहे हैं किन्तु जबसे अकादमी व्यक्ति--केंद्रित हुई उसका भट्टा  बैठता चला गया।साहित्य उत्सवों को कार्पोरेट सेक्टर ने अपनी जेबों में डाल  लिया।    

Friday 11 April 2014

हमारे दोस्त के के बांगिया  साहब ने दौसा जिले में स्थित प्राचीन कालीन एक अद्भुत और बेमिसाल बावड़ी का चित्र लगाया है। यह चाँद बावड़ी है और इसे प्राचीन कालीन निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा बनवाया गया था। इससे हमारे अलवर की बुनियाद रखे जाने से शुरुआती रिश्ता रहा है।  इस पर मेरी टीप इस प्रकार से है -------एक दोहा इस बारे में अलवर में अभी तक प्रचलित है। बाला किले के पीछे की पहाड़ियों में एक छोटा-सा गांव है। नाम हैं ढढीकर। आभानेरी इस नगरी का नाम बोलने में असुविधा होने की वजह से हुआ होगा। पहले आभानेर नाम रहा। दोहा इस प्रकार से है -------
                                                          गाँव ढढीकर जानिये , अलवर गढ़ के पास ।
                                                          बस्ती राजा चंद  की , आभानेर  निकास। ।
यह माना जाता है की अलवर का बाला किला 10 --11 वीं शताब्दियों में निकुम्भ क्षत्रियों द्वारा एक कच्ची गढ़ी  के रूप में बनवाया गया था। संभव है कि वे लोग कभी इसी आभानेरी से इन अरावली पहाड़ियों में आकर बसे  हों। बहरहाल , आभानेरी की चाँद बावड़ी वास्तु कला और जल संग्रह के अद्भुत जलाशय की दृष्टि से आज भी चमत्कृत करती है।इसकी सीढ़ियों के  उतार जिस समकोण और बहुलता के रूपकों में बनाये गए हैं उसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। यह    हमारे शिल्पियों की उस चकित कर देने वाली शिल्प-दृष्टि का प्रमाण भी है  , जो अनेक प्रयोगों को करने के बाद हासिल होती है।  काश, इन पूर्वजों की इस वैज्ञानिक पद्धति का विकास आगे भी चलता रहता ,तो हमारा मध्य और आधुनिक काल वैसा नहीं होता , जैसा आज है। यहां हर्षद माता का एक अति प्राचीन मंदिर भी है , जो एक ऊंचे चबूतर पर  बनाया गया है।  यह भी तत्कालीन वास्तु कला का एक बेमिसाल नमूना है।  

Thursday 10 April 2014

प्रिय भाई शम्भु  नाथ जी ,
आपका हिंदी साहित्य कोश  निर्माण में सहभागिता का आमंत्रण पाकर खुशी तो हुई ही ,उत्साहवर्धन भी हुआ। हिंदी के अपने क्षेत्र तो अपने दायित्त्वों  को पूरी तरह से भूले हुए हैं। पहले भी कोलकाता इस मामले में अग्रणी रहा है। हिंदी को जो प्रोत्साहन आपके यहां से मिला है ,वह आज भी उल्लसित करता है। रवीन्द्र न होते तो हम कबीर को शायद ही जान पाते।  आप कोश -निर्माण के काम को हाथ में लेकर हिंदी--हित  का बहुत महत्त्वपूर्ण और बेहद जरूरी काम पूरा करेंगे। मैं अपनी हैसियत के हिसाब से इसमें जरूर करना चाहूंगा।
आपने मुझसे राजस्थान की लोक-भाषाओं  ,लोक--संस्कृतियों ,और लोक कलाओं  पर लिखने को कहा है। इनकी सूची इस प्रकार से है ------
लोक भाषाएँ -------मारवाड़ी ,मेवाड़ी ,ढूंढाड़ी ,हाडौती ,शेखावाटी ,मेवाती और ब्रज।
लोकसंस्कृतियाँ --------उक्त लोकभाषाओं से सम्बंधित लोकसंस्कृतियां ही यहां की प्रमुख लोकसंस्कृतियां हैं।
लोककलाएं--------लोकसंगीत और लोक नाट्य ,---जिनमें ख्याल की कला मुख्य रही है। ख्यालों की कई शैलियाँ यहां प्रचलित रही हैं ,जिनके ऊपर सम्बंधित अंचलों के विशेषज्ञ लेखकों से लिखवाया जाना उचित होगा।
मैं इनमें राजस्थान के पूर्वी अंचल की लोक भाषाओं , लोक संस्कृतियों और लोक कलाओं पर लिख सकता हूँ। इनमें मेवातीऔर ब्रज से सम्बंधित प्रविष्टियाँ हो सकती हैं।
आप जो कहेंगे उस काम को करने का पूरा प्रयास करूंगा। शुक्रिया। 
                                                                                            जीवन सिंह ,अलवर , राजस्थान
कामां ,जिसे पौराणिक नगरी होने का गौरव हासिल है ,मध्यकाल से पूर्व की प्राचीन नगरी है। इसका ब्रज के वनों में केंद्रीय स्थान रहा है। इसे कामवन इसीलिये कहा जाता है।  कोकलावन इसके बहुत नज़दीक है। वहाँ नंदगांव होकर जाते हैं। नंदगांव , कामां के पास सीमावर्ती  कस्बा  है ,यद्यपि उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में आता है।आज भी नंदगांव के हुरियार , बरसाने की हुरियारिनों से लट्ठमार होली खेलने के लिए जाते हैं और रसिया गाकर आपस में सात्त्विक प्रेमदान की परम्परा का निर्वाह करते हैं।  ब्रज-संस्कृति में प्रेम तत्त्व ही प्रधान रहा है , जिसके प्रति रसखान जैसा पठान कवि इतना सम्मोहित हो गया कि उसने यहीं का होकर रहने की कामना की।   कामवन  अपने चौरासी कुंडों ,चौरासी खम्भों और चौरासी मंदिरों के लिए जाना जाता है।  विमल कुण्ड यहां सरोवर मात्र न होकर लोक ---समाज के लिए आज भी तीर्थ स्थल की तरह है ।  आज भी यहां यह लोक मान्यता है कि आप चाहे चारों धाम की तीर्थ-यात्रा कर आएं , यदि आप विमल कुण्ड में नहीं नहाये तो आपकी तीर्थ ---भावना अपूर्ण रहेगी।
  शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रणेता और पुष्टिमार्ग के संचालक तथा सूर सरीखे महान कवि के प्रेरणा स्रोत वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने जब अष्टछाप का गठन किया तो जिन वात्सल्य रूप कृष्ण अर्चना की नयी भक्ति पद्धति विकसित की ,जिसमें सवर्णों के साथ दलितों और स्त्रियों तक को जगह दी गयी ,यद्यपि मीरा जैसी स्वाधीनचेता कवयित्री आग्रह के बावजूद इसमें शामिल नहीं हुई ,इस नगर में उनकी दो पीठ स्थापित है ----एक चन्द्रमा जी और दूसरी मदन मोहन जी। बहरहाल कामां का इतिहास बहुत समृद्ध और सांस्कृतिक तौर पर बहुत उन्नत रहा है।
इस नगरी का जयपुर रियासत से अठारहवीं सदी  में तब रिश्ता हुआ ,जब सवाई जय सिंह ने यहाँ अपने एक सूबेदार कीरत सिंह को भेजा , जिसका परिणाम भरतपुर रियासत के जन्म के रूप में हुआ। कदाचित उसी समय कालवाड़ से हमारे पूर्वज यहां आकर बसे  और उन्होंने कामां से पांच कोस दूर जुरहेडा गाँव बसाया।
            भाई प्रेम चंद  गांधी का शुक्रिया कि उन्होंने जयपुर के संगी---साथियों से मिलने का मौक़ा सुलभ कराया।अन्य सभी दोस्तों के प्रति बहुत बहुत आभार। 

Wednesday 9 April 2014

हक्सले अपने आसपास के घटित पर पैनी निगाह रखने वाले विचारक हैं । उनका  यह भविष्य कथन उन दो विश्व युद्धों की भवितव्यता भी  है , जो विश्वस्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अपने  बाज़ार की  जगह बनाने के लिए किये गए थे।  बाज़ार की ताकतें हमेशा एकाधिकार चाहती हैं।औद्योगिक  पूंजी जहां श्रम के साथ मिलकर  एक तरफ व्यक्ति को सामंती सम्बन्धों से मुक्त करने का काम करती है , वहीं दूसरी तरफ वह श्रम को दरकिनार कर  अपने बाज़ार के फैलाव के लिए युद्ध करा देने और तानाशाही को थोप देने का काम भी "लोकतांत्रिक" तरीके से करा देती है।हमारी १६वीं लोकसभा के चुनाव की पीछे सटोरिया पूंजी और बाज़ार की ताकतों का एकजुट होना अनायास नहीं है , जिनका भीतरी सूत्र विश्व-साम्राज्यवादी ताकतों से मिला हुआ है। बहुत सामयिक और सटीक बात उद्धृत की गयी है।  
बहुत बहुत  धन्यवाद भाई अग्रवाल साहिब ,मुद्दत बाद जयपुर जाना हुआ ,केवल इस लोभ से कि पुराने साहित्य -सहचरों -मित्रों से आँखें चार होंगी।  वे हुई भी। अग्रवाल साहब से पहला सम्बन्ध--सूत्री परिचय 1974 साल के अगस्त में स्थानांतरण के सिलसिले में हुआ। मुझे शिकायतन जरिये कलक्टर सिरोही से  दूरस्थ धुर ईस्ट में दण्डित करने के इरादे से अलवर नहीं ,दौसा भेजा गया , जहां से आपातकाल लगने पर  १९७५ के अंत में बूंदी भेज दिया गया। उस जमाने में नौकरियों में  न आज की सी राजनीतिक दखलंदाजी थी ,न तबादला होना कोई आफत जैसा था। तबादले का फायदा यह था कि नयी जगह के नए दोस्त,नयी प्रकृति , नया परिवेश , नया भाषा-बोली का संस्कार  मिलते थे। मैं तो यह मानता हूँ यदि  देश में आपातकाल न लगा होता और मेरा बूंदी तबादला न हुआ होता तो मैं राजनीतिक दृष्टि से आज दक्षिणपंथी होता। मेरा किशोरावस्था का पालन-पोषण एक बेहद वैष्णव ब्राह्मण  पारम्परिक परिवार में हुआ। जो हमारे नज़रिये को दक्षिणमार्गी बनाता  है ,जिसकी वजह से  हम वास्तविक जीवन-यथार्थ को नहीं समझ पाते। बहरहाल , मैं अलवर तो इसके ठीक १० साल बाद १९८४ में आया। बूंदी से अक्सर कोटा आना जाना होता था ,जहां यथार्थ की जटिलताओं को समझाने और खोलने के लिए मथुरा से औद्योगिक संगठित श्रमिकों को श्रम-सम्बन्धों की शिक्षा देने   के लिए  उत्तरार्ध पत्रिका के सम्पादक सव्यसाची आया   करते  थे। यह सब आपातकाल होने के बावजूद होता था। एक तरफ हम २० सूत्री कार्यक्रम का गुणगान करते थे तो दूसरी तरफ
उनके पीछे छिपी असलियत को तलाशते थे। बूंदी से 1979 में गंगापुर सिटी गया और वहाँ से अलवर आया। बूंदी---कोटा के तीन साल मेरे लिए सबसे  अलग स्मरणीय हैं। इस अवधि में मैं एक ऐसी  जगह पर रहा ,जहाँ सूर्य मल मिश्रण सरीखा महाकवि हुआ। १८५७ के पहले स्वाधीनता संग्राम का निडर प्रतापी  योद्धा कवि -पंडित।जिसके वंश-भास्कर से राजा भी नाराज़ हुआ ,लेकिन उसने सच कहने से परहेज़ नहीं किया।  कदाचित ऐसी ही वज़हातों से  १८५७ के संग्राम का सबसे बड़ा जन-संग्रामी केंद्र हाड़ौती ,खासकर कोटा रहा।
अलवर मेरे लिए अपने घर की तरह बन गया है। यहाँ के इतिहास-भूगोल और खासकर यहाँ की सामासिक संस्कृति के सबसे बड़े गायक ख्याल-प्रणेता अलीबख्स के लोक--संगीत ने मुझे यहीं का बना दिया। ८ अप्रेल को जयपुर में बहुत दिनों बाद हुए साहित्य-समागम  में भाग लेने की बेहद खुशी है।