Saturday 26 April 2014

निस्संदेह, जनता भी लोकतंत्र में अपने नेतृत्त्व चुनाव के लिए जिम्मेदार होती है जैसी जनता होगी  नेता  भी वैसा ही होगा ।लेकिन जनता के विचार , दृष्टि , अध्ययन , स्वभाव , वर्ग इत्यादि  एक समान  नहीं हुआ करते।  बात यह भी तो है कि  जब नेतृत्त्व अपने हाथ में कमान ले लेता है तो उसकी जिम्मेदारी बढ़  जाती है।हमारे यहां  लोकतंत्र अभी ऐसा नहीं हुआ  है कि उसकी कोई सीमा न हो ,इसलिए नेतृत्त्व और जनता दोनों का एक दूसरे पर दबाव बनाये रखने की जरूरत हमेशा बनी रहती  है। जब जहाज समुद्र में  या आसमान में उड़ने वाला विमान आकाश में उड़ रहा होता है , उस समय सवार लोगों के हाथ में कुछ नहीं रहता।जब एक वर्ग के हाथ में सत्ता आ जाती है तो वह बहुत गोपनीय तरीके से उसका उपभोग करने लगता है। क़ानून भी असीमित नहीं होता ,मानव स्वभाव क़ानून की हदें लांघते हुए उसे भी अपना जैसा बना लेने की सामर्थ्य रखता है। लेकिन बदलाव की प्रक्रिया यही है कि ऐसे समूह का निर्माण करो , जो चीजों को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखता हो।  यही वजह है कि लोकतंत्र में ज्यादा  बुरे में से कम बुरे को चुनना जारी रहता है। 

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