Saturday 12 April 2014

क्यों नहीं। लग रहा है कि ईशमधु जी आपका बचपन ब्रज--भूमि के इस नगर की गलियों में खेलकूदकर बड़ा हुआ है। आपकी मृदुता में कहीं इसी ब्रज की रज का कोई कण तो नहीं मिला हुआ है। ब्रज भाषा अपने माधुर्य के कारण कई शताब्दियों तक काव्यभाषा बनी रही। आपको बतला  दूँ कि 1984 या 1985 की बात है, कामां  में राजस्थान साहित्य अकादमी के एक आयोजन में ---राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी ---के गठन करने का प्रस्ताव पास किया गया था। उदयपुर से नन्द बाबू भी उसमें शामिल थे। उन्होंने अपनी काव्ययात्रा की शुरुआत ब्रजभाषा में कवित्त---सवैये रचकर की थी।आयोजन समाप्ति के बाद वे मुझे भी अपने साथ अपनी बहिन के घर मथुरा ले गए थे। मैं भी निस्संकोच उनके साथ हो लिया था। वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।
कामां ,डीग,भरतपुर ,मथुरा ,गोवर्धन की एक बड़ी खूबी है यहां का रसिया गायन। कामां ने मनोहर और गिर्राज जैसे नौटंकी के बड़े लोक  कलाकार  हिंदी को दिए हैं।पहले यहां आयोजन होते रहे हैं किन्तु जबसे अकादमी व्यक्ति--केंद्रित हुई उसका भट्टा  बैठता चला गया।साहित्य उत्सवों को कार्पोरेट सेक्टर ने अपनी जेबों में डाल  लिया।    

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