Sunday 13 April 2014

आजकल की कविता मुक्त छंद से छंद मुक्ति की ओर तेजी से बढ़ रही है। जबकि हमारे पुराने  और कई आज के कवि भी अपने मन में संगीत,लय और नाद-गति का संस्कार संजोये रखते हैं।  वे मुक्त छंद में लिखकर भी छंद की कला से अनभिज्ञ नहीं है।  यह हमारे पुराने कवियों का बद्धमूल  संस्कार रहा है।   छंद ,चाहे कविता की भावभूमि को सीमित करता हो किन्तु वह कवि को लय और नाद की तमीज भी सिखाता है।कवि-प्रतिभा उसे एक आतंरिक लय के रूप में अपने मन में सहेजे रखती है ,जिससे कविता का मुक्त छंद स्वरुप ग्रहण करता है। राजशेखर सरीखे आचार्य ने अपने जमाने में यह बात अपने अनुभव से लिखी थी कि कविता करना तो जैसे तैसे अभ्यास से भी हो जाता है किन्तु उसे सबके लिए पठनीय बनाना या कहें समाज  और ,सहृदय के काम का बनाये रखने का काम वे ही कवि कर पाते हैं , जिनको सरस्वती सिद्ध होती है। आज सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है ,कवि को लोक-ह्रदय की पहचान होना। राजशेखर  कहते हैं--------
                                                          करोति काव्यम प्रायेण ,संस्कृतात्मा यथातथा।
                                                          पठितुम् वेत्ति परम स ,यस्य सिद्धा सरस्वती।
सरस्वती सिद्ध होने का मतलब है कवि के वाह्य और आतंरिक जीवन का व्यापक स्तर पर सामंजस्य। इसी से कविता में भाव की लयात्मक अनुगूंजें उत्पन्न होती हैं।  आज की कविता से जिस तरह लय गायब हो रही है उसकी एक वजह कवि का संगीत, लय और नाद --गति का अनभ्यासी होना भी है।पहले लोकसंगीत की भूमि पर विचरण करते हुए सहज रूप से काव्य--लय का संस्कार आ जाता था , उसे अलग से सीखने की जरूरत नहीं थी।अब जब से व्यक्ति संगीत का प्रयोक्ता न होकर केवल भोक्ता बनकर रह गया है तो हमारे दिल से जीवन की आनन्ददायिनी लय निकलती चली जा रही है। लय दरअसल सामूहिकता के बिना नहीं बना करती।  जीवन में अलगाव सबसे ज्यादा हमारी जीवन--लय को तोड़ने का काम करता है।  लयविहीन भाषा निरा  और थोथा गद्य होती है।लय का मुख्य काम है जीवन की तरंगों को समूहन करना ,जिससे कविता का साधारणीकरण होता है और वह व्यक्ति से समाज की संपत्ति बन जाती है।  

    

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