Monday 7 October 2013

 हमको तुलसी और कबीर में बनावटी लड़ाई करने से बचना चाहिए ।  कबीर का अपना बहुत बड़ा योगदान है , जो तुलसी से कम नहीं किन्तु तुलसी का अपना बड़ा योगदान है , जो कबीर से कम नहीं । कबीर शिल्पी समाज की भावनाओं को व्यक्त करते हैं तो तुलसी किसान जीवन के ज्यादा निकट हैं । समय और समझ  के अन्तर्विरोध दोनों में ही है । तुलसी राम राज्य का एक आदर्शवादी विकल्प सुझाते हैं तो कबीर प्रेम-राज्य का । कबीर कहते हैं ----"-प्रेम न बारी ऊपजै , प्रेम न हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै ,सीस देय ले जाय ॥ "विकल्प के मामले में दोनों आदर्शवादी हैं । अब रही हमारे समय की बात , । उसका विकल्प तो हमको स्वयम को खोजना होगा । विकल्प कभी भूतकाल से नहीं मिला करते । समय-समाज निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में रहते हैं , लेकिन हमारा अतीत बहुत सी बातों में हमारा सहयोग करता है । हमारे कालजयी ग्रन्थ , केवल हमारे ही नहीं , दुनिया भर के कालजयी ग्रन्थ हमारी वर्तमान में सहायता करते हैं । हम उनसे बहुत सी बातों में उल्लसित , प्रेरित व उत्साहित होते हैं । वे वर्तमान की हमारी हताशा को दूर करते हैं और कोई रास्ता निकाल लेने में हमारी मदद करते हैं । जरूरत उन आँखों की अवश्य है जो उस इबारत को पढ़ सके । जो साहित्य में विचार के साथ भाव के हामी हैं उनको कबीर, सूर , तुलसी , मीरा , जायसी आदि में बहुत कुछ ऐसा मिल जायगा , जो आज भी हमारे बड़े काम का है , बाकी तो अपने युग की भाव-विचार रचना हमको स्वयम करनी है । सब कुछ कबीर-तुलसी ही पहले से कर जाते तो फिर हम आज क्या काम करते ? आज की कविता तो आज का कवि ही लिखेगा ।

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