Friday 25 October 2013

साहित्य में अपनी जिन्दगी तक सीमित रहने के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी सीमाएं होती हैं । इसीलिये वहाँ अनुभववाद की जो सीमाएं होती हैं , आए बिना नहीं रहती । निराला , प्रेम चंद अपने भोगे तक ही सीमित रहते , तो बड़ी रचना ----कालजयी -----शायद ही कर पाते । व्यक्ति में यह क्षमता है कि जैसे वह अपने ज्ञान का विस्तार कर लेता है वैसे ही वह अपना अनुभव और  दृष्टि-विस्तार भी करता है ,जो उसके संवेदना जगत को दूर दूर तक फैला देते  है । लिखता तो हर व्यक्ति ही अपने अनुभव की बात है , किन्तु वह वहीं तक सीमित होकर नहीं रह जाता । संकोच और विस्तार के  वैरुद्धिक सामंजस्य की कला है साहित्य ।

No comments:

Post a Comment