Wednesday 19 March 2014

प्यारे दोस्त सलीम भाई ,
आपका गजल संग्रह --एक सवाए सुर को साधे ---पढ़ तो तभी लिया था, जब आप इसे दे गए थे। किन्तु कई कामों के चलते हुए इस पर लिखने का अवसर नहीं मिल पाया।इस बात का अफ़सोस है।  सोचता रहा कि अब लिखूं, अब लिखूं। बहरहाल ,आज मन पापी ने कमर कसी कि अब तो लिखना ही है। इस सम्बन्ध में जो सोच पाया , लिख रहा हूँ।
पहली  यह है कि आपने छोटी बहर  को साध लिया है ,जैसे वामन अवतार ने तीन पैंड में धरती को नाप लिया था।आपने समय को नापने की कोशिश की है। ग़ज़ल अपनी सादगी के लिए जानी जाती है और अपनी गहराई के लिए भी। गहराई की बात तो शायर की जिंदगी से जुडी हुई है ,जो शायर अपनी जिंदगी  के दरिया में जितना गहरा उतरता है , वह उतने ही चमकदार और बेशकीमती  मोती  ढूंढ कर लाता है। आपने भी अपने हिसाब से उतरने की कोशिश की है।  आज की स्वार्थपटु दुनिया में जो लोग जिनकी जय बोल रहे हैं , उसमें सचाई न होकर या तो भय रहता है या फिर डर। दुनिया डर और लोभ के दो पहियों पर चलती है। सच बोलने और उसको समझने वाले यहाँ कितने से हैं।  आज के राजनीतिक माहौल में आपका मतले का  यह शेर बहुत मौजूं है -----ये तेरा भय बोल रहा है /जो उनकी जय बोल रहा है / 
ग़ज़ल में आज तंज़ बहुत मानी रखता है ,जो आपकी ज़बानी बहुत सलीके से यहाँ अल्फ़ाज़ों में गुंथा हुआ है। भाषा में खुलापन  है , जो इस बात का सबूत है कि आप जिंदगी में खुलेपन की महक के कायल हैं। तभी तो 'मालामाल' जैसा शब्द आपके यहाँ अपना वेश बदल कर अर्थ के जंजाल में ऐसी घुसपैठ करता है कि लड़की को   दुःख से मालामाल कर देता है। काफिया हो तो ऐसा जो अपने मूल अर्थ को खोकर अपने नए और शायर के दिए अर्थ में समा जाय।  शब्द वही होता है जो कवि  के अर्थ के पीछे दौड़ने लगे।  यह कथ्य का नया आविष्कार होता है और इसे ही सृजन की नयी रेखा खींचना कहा जा सकता है।
इसी तरह हमारी ज़िंदगी में आज ऐसे नए सामंत पैदा हो गए हैं जो अपने आतंक से अपना काम निकालते हैं।  नए तथाकथित नेता ऐसे ही तो हैं जो बादलों को धमका कर उनसे पानी निचोड़ लेते हैं।  जो किसी को धमाका नहीं सकता वह नेता कैसे हो सकता है।  सही तो कहा है आपने -----बादल को धमकाया जाए/फिर पानी बरसाया जाए। '  इस समय में आतंक के अनेक रूप हैं ,जिनकी अच्छी खबर आपने कई अशआरों के माध्यम से ली है।
आपने इन ग़ज़लों में अपनी ज़मीन अलग से बनाई है ,यह इनकी खासियत है। मुरलीधर और गिरिधर में क्या फर्क हो सकता है ,बारीकी से आपने इस बात को समझा है। यह शब्द की नहीं, अर्थ की बारीकी है , जो आपके यहाँ प्रतीकों की तरह आया है।  यह संयोग मात्र नहीं है कि हमारी महान और क्रांतिचेता कवयित्री मीरा  ने अपना आराध्य गिरिधर कृष्ण को ही बनाया था। वह गोपाल जो ब्रज की रक्षा और इंद्र का दर्प-दलन करने के लिए गिरिधारी बनता है। आदमी के स्वार्थी और काँइयाँपन की खबर आपकी इन ग़ज़लों में सबसे ज्यादा है और यही इनकी खूबसूरती है।
जहां तक इनकी भाषा का सवाल है वह लोगों को , अपने पाठकों को अपने नज़दीक  वाली भाषा है। अपने पास यह अपने पाठक को निमंत्रण देकर बुलाती है। इसके बावज़ूद यह अपने ढंग से अपनी बात को भी आसानी से पाठक के हाथ में किसी फल के उपहार की तरह आ जाती है।  आपकी साफगोई  को इसमें आईने की तरह देखा जा सकता है। और बहुत - सी बातें हो सकती हैं।  फिलहाल इतना ही कि आप अपने समय की जटिलताओं को और आदमी से उसके रिश्तों को  आगे बढ़कर समझने की कोशिश करते रहेंगे ताकि आपकी यह कविता यहीं तक ठहरकर न रह जाय।
                                                           मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
                                                                              आपका ----जीवन सिंह , अलवर 

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