Monday 29 July 2013

 ---------यह लड़ाई एक ऐसे मोर्चे की लड़ाई है जहां कंधा किसी का है और बन्दूक कोई चला रहा है । अच्छा तो यही होता कि अविनाश जी को अपनी बात उसी समय रखनी चाहिए थी । यह घात लगाकर हमला करना है और किसी दूसरे का मोहरा बनना  है । वह भी ऐसे व्यक्ति का जो पत्रकारिता का दुरूपयोग लोगों को लड़ाने-भिडाने के लिए करता है । हम तो इतना जानते हैं कि मोहन श्रोत्रिय  कोई अलेखक नहीं हैं । उन्होंने भी --क्यों ---पत्रिका भीनमाल जैसी छोटी जगह से आठवें दशक के शुरुआत में निकाली । किसी का मोहरा बनकर लिखना इस पटकथा पर संदेह पैदा करता है । कहानी में कल्पना का प्रयोग खूब किया जता है ।

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