" कुछ पूरबला लेख" से तो कल्पित जी सब काता -कूता कपास हो जाएगा ।रहा पूरब और पश्चिम का सवाल , इसमें अति-व्याप्ति दोष है । पूरब बहुत बड़ा है और बहुत भिन्नता रखता है । पूरब की अवधारणा में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित होती है या फिर सब कुछ भारत में पहले से मौजूद था जैसी अंध भारत-विकलता । भारतीयता स्वयं एक तरह की नहीं है । उसमें वेद -विरोधी दर्शन मौजूद हैं , जिनको नास्तिक कहा गया ।महात्मा बुद्ध का दर्शन अदलता -बदलता हुआ कबीर और संत-आन्दोलन तक चला आया है । जो इस समय दलित-विमर्श में नज़र आता है ।
अज्ञेय और निर्मल वर्मा कलाकार ज्यादा हैं , उनके यहाँ भारतीयता की कुछ सीमित छवियाँ होते हुए भी गतिशील भारतीयता की पहचान का कोई विशेष आधार और सबूत नहीं है । फिर उनकी संवेदनशीलता का दायरा बहुत छोटा है । वे चीजों को सही मुकाम तक नहीं ले जाते , जैसे अज्ञेय से उम्र में छोटे मुक्तिबोध ले जाते हैं । यहाँ आकर साहित्य का सवाल जीवन-दृष्टि से जुड़ जाता है ।
अज्ञेय और निर्मल वर्मा कलाकार ज्यादा हैं , उनके यहाँ भारतीयता की कुछ सीमित छवियाँ होते हुए भी गतिशील भारतीयता की पहचान का कोई विशेष आधार और सबूत नहीं है । फिर उनकी संवेदनशीलता का दायरा बहुत छोटा है । वे चीजों को सही मुकाम तक नहीं ले जाते , जैसे अज्ञेय से उम्र में छोटे मुक्तिबोध ले जाते हैं । यहाँ आकर साहित्य का सवाल जीवन-दृष्टि से जुड़ जाता है ।
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