दुनिया और समाज उसकी अर्थ-नीति से चला करते हैं । जब से नव-उदारवादी अर्थ-व्यवस्था लागू हुई , तभी से देश की अपने भाषा -शिक्षण व्यवस्था की यह दशा हुई है । इससे पहले मिश्रित अर्थ-व्यवस्था के दिनों में ऐसा नहीं था । हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर लोग अंगरेजी भी सीख लेते थे । लेकिन जब से वैश्वीकरण की आंधी आई तभी से कैरियरिस्ट मध्य वर्ग इस दिशा की तरफ मुड गया । निजीकरण ने इसको फायदे का सौदा बना दिया । बेरोजगारी की मार ने उनको सस्ते अध्यापक उपलब्ध करा दिए । राष्ट्र-राज्य की भावना में बदलाव आया । अब केवल गरीब वर्ग बचा है जो अपनी समस्याओं के चलते अपने बच्चों को हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूलों में पढाता है । इससे साफ़-साफ़ वर्ग-भेद नजर आता है । दरअसल , औपनिवेशिक काल की नीतियों में इस सन्दर्भ में कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं था । देश की अपनी भाषाओं में तेजी से विज्ञान-प्रबंधन आदि की शिक्षा का विस्तार करने की कोई योजना न तो मन से बनी और न ही इस दिशा में कोई बुनियादी काम हुआ । इसलिए विज्ञान-तकनीक आदि क्षेत्रों के ज्ञान के लिए अंगरेजी पर निर्भर रहना पडा । इसका परिणाम यह हुआ कि आज जो अंगरेजी माध्यम का विरोध करता है वह भी अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम से ही पढ़ा रहा है ।
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