Monday, 9 September 2013

बनवारी कारीगर

वह आता है रोज
अपने गाँव पलखडी से
एक अधटूटी साईकिल पर
दोपहरी करने का
रोटी -झोला लटकाए
आता है रोज बेनागा
रोज कुआ खोदना
रोज पानी पीना
यही जीवन रहा
पीढी दर पीढी
राजतंत्र था तब भी
लोकतंत्र आया तब भी
कोई ख़ास अंतर नहीं
वह नहीं जानता १ ५ अगस्त क्या है ?
उसे पता नहीं
राज कैसे चलता है ?
वह मेहनत  करना जानता है सिर्फ
कला है उसके हाथों में
जादू-सा है उसकी आँखों में
उसके ह्रदय में एक नदी बहती है
ऐसा गुणीजनों में दूर दूर तक नहीं
वे सूखे ठूंठ हैं
वह हरा-भरा वृक्ष

शाम को  जब वह
अपने घर लौट जाता है
तो सूना -सूना लगता है
उसका दोस्ताना फखरू से है
फखरू की राय है कि
बनवारी के कोई शान-गुमान नहीं ।
शायद ऐसा उन लोगों में ज्यादा हो
जो मेहनत  का कमाते हैं
और मेहनत का खाते हैं ।








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