Thursday, 11 July 2013

विकास


मैंने नीम को
धूजते -कांपते
थरथराते देखा
वह एक विकास -पथ पर
थोड़ी देर पहले
लहलाहा रहा था

मैंने बया को
मारे-मारे भटकते देखा
वह अपने नीड़  के लिए
बरसात में
एकांत बबूल की तलाश में थी
यहाँ भी विकास की
एक सड़क जैसी काली रेखा पर
चमचमाती कारों का काफिला था

एक अफसर को देखा
जो करोड़ों से संतुष्ट नहीं था
वामनावतार की तरह
पूरी धरती को अपने एक पैंड से
नाप लेना चाहता था
वह बहुत गुस्से में था
कि ये क़ानून का तमाशा
कब ख़त्म होगा


एक नेता देखा
जिसके सामने सुल्ताना डाकू
बहुत सदय और अपनी बात पर
मर-मिट जाने वाला लगा


मैंने लोकतंत्र देखा
जहां लोक की लाश
ठीक चौराहे पर पडी हुई थी
और तंत्र अपनी ढपली बजाने में
मग्न था

 ऐसी रोशनी देखी
जिससे अन्धेरा
सुकूनदेह और ईमानदार
लगता था

फूल फिर भी
जहां खिले दिख जाते थे
देखने की दिशा
बदल जाती थी ।

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