जनतंत्र एक दिन की क्रान्ति नहीं ,बल्कि सतत प्रक्रिया है । फिर किसी भी राजनीतिक प्रणाली का अपना एक अर्थशास्त्र होता है । राजनीति और अर्थ दोनों सहोदर हैं । एक दूसरे
के लिए होते हैं और एक दूसरे के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते इसलिए जनतंत्र एक
आर्थिक प्रक्रिया भी है इसे कभी नहीं भूलना चाहिए । मसलन इस समय जो
जनतांत्रिक प्रणाली चल रही है उसका गहरा रिश्ता पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से
है । जो एक वर्ग विशेष को धनपति बनाने का काम करती है । इसमें अधिकांश सामाजिक हिस्सा
हाशिये पर पडा रह जाता है । इसीलिये जनतंत्र को समाज की ओर ले चलने के लिए
समाजवादी अर्थव्यवस्था की जरूरत होती है । समाज में जब यह जागरण होगा तो
जनतंत्र की प्रक्रिया और तेज हो जायगी । अभी हमारे देश में तो वह समाज के
साथ बचपन का खेल ,खेल रही है । जैसी समाज की संरचनाऔर मनोरचना है वैसी ही हमारी सामजिक जनतांत्रिक प्रणाली भी है ।जागरण, नवजागरण और जनांदोलनों की सतत प्रक्रिया से जनतंत्र में गुणात्मक परिवर्तन होता चलता है ।
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