मध्यकाल में जाति -बिरादरी हमारे संबंधों का निर्धारण
करती थी और वर्ण-व्यवस्थावादी संरचना को केंद्र में रखकर एक निश्चित
विचारधारा में चीजों को समेटती थी । आज भी ऐसा है किन्तु पहले में और आज
बहुत फर्क आ गया है । आज जाति -सम्प्रदाय की संकीर्णताओं का विरोध करने
वाले और उस पर किंचित आचरण करने वाले लोग भी हैं । आचार्य रामचंद्र शुक्ल
तक ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लेखकों की बिरादरी बतलाई है किन्तु
अब उनकी इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता । चीजें सदा एक सी नहीं रहती , वे
रहते हुए बदलती भी तो हैं । अब देखना यह है कि हम किसके साथ हैं । केवल
संवेदना है और वस्तुगत जीवन दृष्टि लेखक के पास नहीं है तो दिशा भ्रष्ट
होने का ख़तरा रहता है ।
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