Tuesday, 23 July 2013

मध्यकाल में  जाति -बिरादरी हमारे संबंधों का निर्धारण करती थी और वर्ण-व्यवस्थावादी संरचना को केंद्र में रखकर एक निश्चित विचारधारा में  चीजों को समेटती थी । आज भी ऐसा है किन्तु पहले में और आज बहुत फर्क आ गया है । आज जाति -सम्प्रदाय की संकीर्णताओं का विरोध करने वाले और उस पर किंचित आचरण करने वाले लोग भी हैं । आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लेखकों की बिरादरी बतलाई है किन्तु अब उनकी इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता । चीजें सदा एक सी नहीं रहती , वे रहते हुए बदलती भी तो हैं । अब देखना यह है कि हम किसके साथ हैं । केवल संवेदना है और वस्तुगत जीवन दृष्टि लेखक के पास नहीं है तो दिशा भ्रष्ट होने का ख़तरा रहता है ।

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