प्रतिशोध की भावना से न कभी अच्छी पत्रकारिता हुई है न अच्छा लेखन । जो
व्यक्ति बहस के पायदान पर नहीं टिक पाता वह इसी तरह बगलें झांकता ही नहीं
टटोलता भी है । बहस के मोर्चे को बदनामी कराने तक घसीट लाना कुत्ते की लाश
को खींचने जैसा है । कुछ ऐसा ही इस पत्रकारिता - प्रसंग से लग रहा है । वाम
को ऐसे नहीं मिटाया जा सकता , जो बात जन की आत्मा में बस जाती है वह ऐसे
जुगाडू हथकंडों से और ज्यादा मजबूत होती है । जुओं के डर से कभी घाघरी
नहीं फैंकी जाती । लोग भी समझते हैं जो नहीं समझने की ठान कर बैठे हैं
उनकी चिंता करना बेकार है । बहरहाल गली के बचकूकर से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है ।
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