Tuesday, 30 July 2013

प्रतिशोध की भावना से न कभी अच्छी पत्रकारिता हुई है न अच्छा लेखन । जो व्यक्ति बहस के पायदान पर नहीं टिक पाता  वह इसी तरह बगलें झांकता ही नहीं टटोलता भी है । बहस के मोर्चे को बदनामी कराने तक घसीट लाना कुत्ते की लाश को खींचने जैसा है । कुछ ऐसा ही इस पत्रकारिता - प्रसंग से लग रहा है । वाम को ऐसे नहीं मिटाया जा सकता , जो बात जन की आत्मा में बस जाती है वह ऐसे  जुगाडू हथकंडों  से और ज्यादा  मजबूत होती है । जुओं के डर  से कभी घाघरी नहीं फैंकी जाती ।  लोग भी समझते हैं जो नहीं समझने की ठान कर बैठे हैं उनकी चिंता करना  बेकार है । बहरहाल गली के बचकूकर  से हमेशा सावधान रहने की जरूरत  है ।

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